“अंतिम अवसर: Supreme Court of India ने पाँच राज्यों को दी छूट-नीति लागू करने की अंतिम चेतावनी, हाई-कोर्ट को निगरानी का निर्देश”
प्रस्तावना
देश के न्यायिक तंत्र ने एक बार फिर यह संदेश दिया है कि जब एक संवेदनशील विषय — जैसे-कि दोषियों की समयपूर्व रिहाई और क्षमा-नीति (remission-policy) — सामने हो, तो केवल विधान या नीति-घोषणा पर्याप्त नहीं होती; उसे प्रभावी रूप से लागू होना आवश्यक है। इसी दिशा में, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में पाँच राज्यों को “अंतिम अवसर” देने का निर्णय लिया है, ताकि वे अपनी क्षमा / समयपूर्व-रिहाई नीतियों को तैयार और अमल में ला सकें, और इस प्रक्रिया की निगरानी प्रत्येक राज्य के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनिश्चित की जाए।
मामला: क्या है निष्पादन-स्थिति?
- सुनवाई उस suo motu रिट याचिका का भाग है जिसका शीर्षक है In Re: Policy Strategy for Grant of Bail, जिसमें देशभर में जमानत-नीति, क्षमा-नीति एवं संबंधित प्रक्रिया-प्रश्न पर विचार हो रहा है।
- खंडपीठ में शामिल थे माननीय न्यायमूर्ति M. M. Sundresh तथा न्यायमूर्ति Satish Chandra Sharma।
- न्यायालय ने विशेष रूप से निम्न पाँच राज्यों को नाम-दर्शित किया है — Assam, Himachal Pradesh, Meghalaya, Uttar Pradesh और West Bengal — जिनमें यह पाया गया है कि क्षमा और समयपूर्व-रिहाई नीतियों को अभी तक पूर्णतः तैयार या लागू नहीं किया गया है।
- न्यायालय ने इन राज्यों को दो (2) महीने का अतिरिक्त समय दिया है “पूर्ण एवं समुचित अनुपालन” सुनिश्चित करने के लिए।
- साथ ही, यह निर्देश दिया गया कि प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को स्वयंप्रेरणा (suo motu) रिट याचिका दर्ज करनी है और एक डिवीजन-बेंच गठन कर नीति-लागूकरण की समुचित निगरानी करनी है।
न्यायालय के निर्देश: प्रमुख बिंदु
- नीति-निर्माण का दायित्व – यदि राज्य सरकार के पास अभी तक क्षमा-नीति या समयपूर्व-रिहाई नीति नहीं है, तो उसे द्विमासिक (two-month) अवधि में तैयार करनी होगी।
- स्वप्रेरणा विचार – जहाँ नीति है, लेकिन उसके अनुसार पात्र दोषियों पर विचार नहीं हुआ, वहाँ सरकार को अपनी पहल से (suo motu) उस पर विचार करना अनिवार्य होगा।
- समय-पूर्व प्रक्रिया शुरू करना – न्यायालय ने सलाह दी कि राज्य सरकारें अभियुक्त की पात्रता की तिथि से कम-से-कम छह (6) माह पूर्व समयपूर्व-रिहाई या क्षमा-प्रक्रिया शुरू करें, ताकि पात्र बनने के बाद भी अनावश्यक कारावास न हो।
- निगरानी व्यवस्था – हाई-कोर्ट को निर्देश है कि वह संबंधित राज्य प्रशासन, विधि-विभाग, जेल प्राधिकरण तथा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (State Legal Services Authority) की संयुक्त निगरानी सुनिश्चित करे।
- अपने-अपने राज्य के न्यायालय को जिम्मेदारी – प्रत्येक उच्च न्यायालय का चीफ जस्टिस, संबंधित रिट दाखिल कराने व डिवीजन-बेंच गठन कराने के लिए निर्देशित है।
कानूनी पृष्ठभूमि एवं महत्त्व
- भारत में Code of Criminal Procedure, 1973 की धारा 432 तथा Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023 (BNSS) की धारा 473 के अंतर्गत सरकार को दोषियों को समयपूर्व-रिहाई अथवा क्षमा देने का अधिकार है।
- सुप्रीम कोर्ट पहले ही यह निर्देश दे चुका है कि यदि राज्य सरकार की जेल मैनुअल, विभाग-निर्देश या नीति में पात्रता-मानदंड दिए गए हों, तो दोषी द्वारा आवेदन करना अनिवार्य नहीं है — सरकार को स्वतः विचार करना होगा।
- यह निर्णय न्यायिक समीक्षा-के दायित्व को-भी पुष्ट करता है — यदि नीति अनुपालन नहीं हुआ तो अभिकरण अनीयायकारक एवं भेदभावपूर्ण हो सकता है, जो Article 14 of the Constitution of India द्वारा सुरक्षित समता-प्रावधान का उल्लंघन हो सकता है।
- इस प्रकार, नीति-निर्माण, पारदर्शिता, सुव्यवस्था व दोषियों/जेल प्रणाली के संतुलन की दिशा-में यह एक महत्वपूर्ण शह है।
सामाजिक-प्रभाव, चुनौतियाँ और विश्लेषण
- कारावास और पुनर्समायोजन: समयपूर्व-रिहाई नीतियों का सही एवं समय-पर लागू होना जेल ओवरक्राउडिंग, पुनर्समायोजन (rehabilitation) एवं दोषी के पुनर्वास (reintegration) की दृष्टि से अहम है। यदि नीति तैयार है लेकिन प्रक्रिया नहीं हो रही, तो दोषियों को अनावश्यक रूप से कारावास में रखा जाना सामाजिक व मानवाधिकार-मुद्दा बन सकता है।
- राज्य-विभिन्नता: भारत में क्षमा-नीतियाँ राज्य-स्तर पर भिन्न-भिन्न हैं, समय-सीमा, पात्रता, प्रक्रिया, पुनरावलोकन आदि में विभिन्नता पाई जाती है। यह न्यायपालिका द्वारा नियमित रूप से उठाए गए प्रश्नों में से एक है कि “एक समान और निष्पक्ष” प्रक्रिया सुनिश्चित कैसे हो?
- निगरानी की कमी: नीति घोषणाओं के बावजूद, कई राज्यों में प्रकिया-प्रगति तथा निगरानी की व्यवस्था नहीं ठीक-से नहीं है — इसीलिए कोर्ट ने उच्च न्यायालयों को निगरानी-दायित्व सौंपा है।
- दायित्व व जवाबदेही: सरकार, जेल प्रशासन, विधायक व न्यायपालिका — सभी-की जिम्मेदारी बढ़ गयी है। विशेष रूप से यह-देखा गया है कि “दोषी की पात्रता से कम-से-कम छह महीने पहले प्रक्रिया शुरू करें” – यह आदेश सामाजिक-दायित्व-को emphasise करता है।
- संविधान-संबंधी चिंता: यदि दोषी पात्र है पर प्रक्रिया शुरू नहीं हुई, तो न्याय-विमुखता तथा अनुचित व्यवहार का प्रश्न उठ सकता है। इस स्थिति में अदालतों की निगरानी-भूमिका विशेष-महत्व हासिल करती है।
संभावित चुनौतियाँ एवं आगे का मार्ग
- नीति-प्रकाशन और व्यवहार में अन्तर: राज्यों में नीति तैयार करना एक बात है; उसे व्यवहार में उतारना और समय-सीमा का पालन करना दूसरी बड़ी चुनौती है।
- डेटा-प्रबंधन एवं ट्रैकिंग: सरकारों को ऐसे पोर्टल, रिकॉर्ड व ट्रैकिंग-सिस्टम बनाना होंगे जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि किस दोषी की पात्रता कब हुई, प्रक्रिया कब शुरू हुई तथा परिणाम क्या रहा।
- मानव संसाधन व समन्वय: जेल प्राधिकरण, विधिक सेवा प्राधिकरण, हाई-कोर्ट-वक्ता, राज्य सरकार — इनके बीच समन्वय, जवाबदेही व संसाधनों-की उपलब्धता एक बड़ी चुनौति है।
- निगरानी-संविधान: उच्च न्यायालयों को इस प्रक्रिया-पर नियमित रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी, स्वप्रेरणा-रिट याचिकाएँ दर्ज करनी होंगी व डिवीजन-बेंच सक्रिय करनी होगी — यह अब न्यायालयीन-कार्यप्रवाह में शामिल हो गया है।
- समय-सीमा का पालन: दो महीनों का अतिरिक्त समय दिए जाने के बाद अगर निर्दिष्ट राज्यों ने पूर्ण अनुपालन नहीं किया, तो न्यायालय अगला-पुनरावलोकन करेगा और संभव है कि निर्देश-शासनात्मक कदम उठाए जाएँ।
निष्कर्ष
यह आदेश ना सिर्फ क़ानूनी-निर्देश है, बल्कि एक सामाजिक संदेश भी है — कि दोषी-रिहाई, पुनर्समायोजन, जेल-प्रबंधन एवं न्याय-प्रक्रिया में शासन-व्यवस्था व न्यायपालिका का समन्वित दायित्व है। द्वारा-द्वारा, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि अब “नीति-घोषणा करने” का समय नहीं, बल्कि नीति-लागूकरण व इसकी सही प्रक्रिया का समय है।
विशेष रूप से, जहाँ पाँच राज्य (असम, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल) को अंतिम अवसर दिया गया है, वहाँ अब यह देखना होगा कि वे इस आदेश को कितनी शीघ्रता से व्यवहार-में लागू करते हैं। उच्च न्यायालयों की सक्रिय निगरानी इस दिशा में निर्णायक भूमिका निभाएगी। न्यायालय की यह अंतिम चेतावनी स्पष्टहै — “समय अब समाप्त होने को है; अनुपालन जरुरी है।”