“विकृ्त मानसिकता, युवतियों के लिए खतरा”: Supreme Court of India ने असम के प्रोफेसर पर सोशल-मीडिया दुरुपयोग को लेकर जताई कड़ी नाराज़गी
प्रस्तावना
भारत के न्यायालय तंत्र ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि सामाजिक माध्यमों पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ-साथ दायित्व और सामाजिक संयम का संतुलन अपेक्षित है। हाल ही में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने असम के एक शासकीय कॉलेज में प्रोफेसर के खिलाफ दायर संगीन आरोपों पर बेहद तीव्र टिप्पणी की—जाहिर है कि प्रोफेसर-शिक्षक की भूमिका में रहते हुए सोशल-मीडिया पर की गई गतिविधियों को न्यायपालिका ने बेहद गंभीरता से देखा है।
मामला क्या है?
- आरोपी हैं Md. Joynal Abedin, एक गवर्नमेंट कॉलेज में प्रोफेसर, जिन पर सोशल-मीडिया पोस्ट के माध्यम से पाकिस्तान समर्थक टिप्पणियाँ करने, महिलाओं और बालिकाओं-के खिलाफ अश्लील सामग्री डालने तथा इंटरनेट का दुरुपयोग करने के आरोप हैं।
- मामला उस तिथि का है जब भारतीय विदेश-संबंधों में पाकिस्तान के साथ तनाव बना हुआ था। प्रोसेक्यूशन का कहना है कि उन्होंने फेसबुक पर “हम पाकिस्तानी नागरिकों के भाइयों के साथ हैं” जैसे कथन पोस्ट किए।
- इसके अतिरिक्त, अभियोजन द्वारा बताया गया कि इनके विरुद्ध दो FIR दर्ज हैं — एक में बाल-वय तथा महिलाओं-के खिलाफ अश्लील सोशल-मीडिया पोस्ट का मामला है, दूसरा “एंटी-नेशनल गतिविधि” का एक मामला।
- हाईकोर्ट (Gauhati High Court) ने प्रोफेसर को जमानत नहीं दी थी, यह देखते हुए कि अभियोजन द्वारा अध्ययन योग्य प्रमाण प्रस्तुत किया गया था कि आरोपी ने देश के प्रति अपनी निष्ठा की जगह विरोधाभासी बयान दिए थे।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
- सुनवाई के दौरान न्यायमूर्तियों Surya Kant एवं Joymalya Bagchi ने इस मामले पर तीव्र नाराजगी व्यक्त की थी। उन्होंने कहा कि प्रोफेसर-रूप में आपको युवतियों व बच्चों के लिए खतरा नहीं बनना चाहिए, परंतु आरोपी ने कथित रूप से ऐसा व्यवहार किया है।
- “आप आपके इंस्टिट्यूशन में प्रवेश तक योग्य नहीं हो सकते,” जैसे तीखे शब्द न्यायालय ने बोले। “आपने पीढ़ियों को धोखा दिया है, आप ‘प्रोफेसर’ शब्द को कलंकित कर रहे हैं,” इस तरह निर्देश दिए गए।
- न्यायमूर्तियों ने यह भी कहा कि सोशल-मीडिया पर इस तरह की पोस्ट करना जहाँ देश-विदेशीय संवेदनशीलता हो, वहाँ “इंटरनेट का दुरुपयोग” है।
कानूनी पहलू और विधिक विश्लेषण
- धारा 152 (BNS) – अभियोजन ने आरोप लगाया कि आरोपी ने “एंटी-नेशनल गतिविधि” में भाग लिया, अर्थात् देश के विरुद्ध जाना। हाईकोर्ट ने यह माना कि आरोपी द्वारा किया गया पोस्ट उस समय किया गया था जब भारत-पाकिस्तान संबंध तनावपूर्ण थे, जिससे प्रकाश में आया कि पोस्ट देश के हितों के विपरीत था।
- Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012 (POCSO) सम्बन्धी मामला – अभियोजन के अनुसार आरोपी ने सोशल-मीडिया पर बालिकाओं और महिलाओं-के विरुद्ध अश्लील पोस्ट किये, जो इस कानून के अंतर्गत भी आते हैं।
- मुकदमे की प्रक्रिया – हाईकोर्ट ने निर्देश दिया था कि अभियोजन द्वारा कम-से-कम दो गवाह प्रस्तुत होने पर जमानत पर पुनर्विचार किया जा सकता है।
- शिक्षक-शिक्षण संस्थान में भूमिका व दायित्व – प्रोफेसर होने के नाते आरोपी पर एक उच्च दायित्व था—विशेषकर कि वह युवाओं के प्रति मॉडल-रोल में होना चाहिए था। न्यायालय ने इस भूमिका को ध्यान में रखते हुए तीखी टिप्पणी की।
- बैल का मुद्दा – आरोपी ने जमानत माँगी थी, यह कहते हुए कि उनकी गिरफ्तारी के बाद 179 दिन हो चुके हैं और उन्होंने पोस्ट तुरंत हटा दी थी। न्यायालय ने राज्य को निर्देश दिए कि न्यायिक प्रक्रिया शीघ्र सुनिश्चित की जाए।
सामाजिक और नैतिक पहलुओं पर चिंतन
- शिक्षक-संस्थान एवं सोशल-मीडिया: आज सोशल-मीडिया का दायरा बहुत विशाल है। एक शिक्षक-प्रोफेसर की सोशल-मीडिया गतिविधियाँ न केवल निजी सीमाओं में रहती हैं, बल्कि जब सार्वजनिक-सूझ-बूझ, संवेदनशीलता और सामाजिक-उत्तरदायित्व का प्रश्न आता है, तब वे “संज्ञेय” हो जाती हैं। इस मामले में ऐसा प्रतीत हुआ कि सोशल-मीडिया पोस्ट शिक्षण-पद की गरिमा व सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं थीं।
- युवतियों-और-समाज-में-सुरक्षा-का-मुद्दा: न्यायालय ने जब कहा कि आरोपी “युवतियों के लिए खतरा” है, तो वहाँ केवल ब्लॉग-पोस्ट का मामला नहीं था, बल्कि उस व्यक्ति की विश्वसनीयता, व्यवहार व सामाजिक प्रभाव का मामला था। शिक्षा-संस्था में प्रोफेसर-की भूमिका में रहते हुए यदि इंटरनेट पर अश्लील या असभ्य पोस्ट की जाएँ, तो उनके द्वारा-प्रेरित-छात्र-समूह के लिए नकारात्मक प्रभाव का खतरा है।
- देश-प्रेम व अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता: यह मामला इस प्रश्न को भी सामने लाता है कि जब सोशल-मीडिया पोस्ट कुछ देश-विरोधी या संवेदनशील विदेश-संबंधों-से जुड़ी हों, तो अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता की सीमा कहाँ है? न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि संवेदनशील परिस्थितियों में एक पोस्ट जो राष्ट्र-हित के विरुद्ध प्रतीत हो रही हो, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।
- नीति-निर्देश व व्यक्तिगत-दायित्व: शिक्षण-पद धारकों के लिए निजी-जीवन तथा सार्वजनिक-व्यवहार के बीच संतुलन अत्यावश्यक है। सिर्फ “मैंने मज़ाक-में ऐसा किया” कहना पर्याप्त नहीं है जब प्रभाव सार्वजनिक-हो चुका हो।
आगे की प्रक्रिया एवं न्यायालय का निर्देश
- न्यायमूर्तियों ने राज्य-प्रभाग को 1 सप्ताह का समय दिया है कि वह आगे की कार्रवाई-लिए निर्देश लेकर आए। साथ ही यह निर्देश भी दिया गया कि यदि ट्रायल-कोर्ट में अभी तक प्रेसीडिंग ऑफिसर (प्रमुख न्यायिक अधिकारी) नियुक्त नहीं हुआ है, तो Gauhati High Court को यह मामला प्राथमिकता पर लेना चाहिए, या उसे अन्य सक्षम न्यायालय को ट्रांसफर करना चाहिए।
- यह संकेत है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में निरंतरता-और-प्रक्रिया-निर्धारिता को भी देख रही है—न सिर्फ आरोपों को। ट्रायल की देरी या न्यायालयीय संसाधनों-की कमी को भी खटका है।
- आगे यदि आरोप सही प्रमाण-सहित साबित होते हैं, तो आरोपी की जमानत पर पुनर्विचार होगा। उच्च न्यायालय एवं ट्रायल-कोर्ट को अग्रिम गवाहों-के आधार पर जमानत का पक्ष-भेद करना है।
निष्कर्ष
यह मामला कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है:
- एक शिक्षक-प्रोफेसर की सोशल-मीडिया गतिविधियों और उसके प्रभाव की वर्दी के अंदर उठी चुनौती है।
- इंटरनेट-उपयोग में जिम्मेदारी और सामाजिक-दायित्व का प्रश्न है।
- अभिव्यक्ति-स्वतंत्रता और राष्ट्रीय-सुरक्षा/देशभक्ति के बीच संतुलन की आवश्यकता है।
- न्यायिक प्रक्रिया में समय-से-पूर्व उचित संसाधन और प्रबंधन का पक्ष है।
इस पूरे घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा-संस्थान में पद पर रहने वाले व्यक्ति को ऑनलाइन-व्यवहार में अतिरिक्त सतर्कता बरतनी चाहिए। उन्होंने सिर्फ व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं की, बल्कि यह टिप्पणी एक ऐसी संवेदनशील स्थिति में आई जहाँ देश- एवं समाज-का प्रश्न जुड़ा हुआ था — और इस स्थिति में न्यायालय ने कहा कि “यह केवल पोस्ट नहीं है; यह सामाजिक-विश्वास और मानव-सुरक्षा का मामला है।”