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“डिजिटल युग में पीड़ित-परिवारों की गोपनीयता का संघर्ष — Supreme Court of India द्वारा यूट्यूब चैनलों के खिलाफ़ निर्देश”

“डिजिटल युग में पीड़ित-परिवारों की गोपनीयता का संघर्ष — Supreme Court of India द्वारा यूट्यूब चैनलों के खिलाफ़ निर्देश”


          भारत में सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म के प्रसार ने सूचना का आदान-प्रदान आसान बना दिया है, लेकिन इसी के साथ संवेदनशील मामलों में पीड़ितों की पहचान उजागर होने का खतरा भी बढ़ गया है। हालिया निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि सिर्फ़ अदालतों के आदेशों से नहीं, बल्कि डिजिटल प्लेटफॉर्म्स एवं सामाजिक-माध्यमों की जिम्मेदारी से भी पीड़ित-वर्ग की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। इस लेख में हम इस फैसले की पृष्ठभूमि, कानूनी आधार, न्यायालय की टिप्पणी, चुनौतियाँ और आगामी दिशा-निर्देशों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।


पृष्ठभूमि

        अक्टूबर-नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने देखा कि किसी व्यक्ति द्वारा सोशल-मीडिया और विशेष रूप से YouTube चैनलों के माध्यम से यौन अपराधों का आरोप लगाने वाली महिलाओं की नाम, तस्वीरें, अदालती कार्यवाही और अन्य व्यक्तिगत विवरण जनता के समक्ष उजागर किए गए हैं।

        मामला यह है कि Arpit Narainwal नामक याचिकाकर्ता पर तीन शिकायतकर्ताओं द्वारा ‘शादी का झूठा वादा करके’ यौन संबंध बनाने का आरोप लगाया गया था। दूसरी ओर, शिकायतकर्ताओं की ओर से यह दावा किया गया कि याचिकाकर्ता ने उनकी पहचान उजागर करने वाले यूट्यूब वीडियो और चैनल चलाए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने संबंधित राज्य – Rajasthan – को निर्देश जारी किया कि वह Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023 (BNS) की धारा 72 के तहत उचित कार्रवाई करें।

        इस प्रकार, यह मामला केवल प्रक्रिया-तकनीकी विवाद नहीं था, बल्कि डिजिटल युग में पीड़ितों की पहचान की गोपनीयता सुनिश्चित करने का एक महत्वपूर्ण संकेत था।


कानूनी आधार

§ धारा 72, BNS, 2023

BNS की धारा 72 यह प्रावधान करती है कि यौन अपराधों के संदर्भ में पीड़ित व्यक्ति की पहचान को प्रकाशित करने पर दो साल तक की कारावास और जुर्माना की सजा हो सकती है।

§ धारा 228A, Indian Penal Code, 1860 (IPC)

पुरानी व्यवस्था के अंतर्गत भी धारा 228A IPC उक्त-पहचान उजागर करने को अपराध मानती है, जिसमें वही तरह का दंड-प्रावधान है।

§ संstitutional एवं न्याय-मरणानुकूलता

न्यायालयों ने समय-समय पर यह स्पष्ट किया है कि यौन अपराधों के पीड़ितों की पहचान उजागर करना उनकी प्रतिष्ठा, गोपनीयता, गोत्र-परिवार-सदस्यता आदि को प्रभावित कर सकता है, जिससे उनकी न्याय प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है।

इस तरह, यह मामला डिजिटल-माध्यमों के प्रसार के दौर में पुरानी एवं नई दोनों विधियों के माध्यम से पीड़ित-गोपनीयता की रक्षा-प्रक्रिया को सक्रिय कर रहा है।


न्यायालय की टिप्पणी

खंडपीठ-जस्टिस Aravind Kumar एवं जस्टिस N. V. Anjaria ने इस मामले में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बातें कही:

  • उन्होंने कहा कि यदि यूट्यूब-चैनलों द्वारा पीड़ितों के नाम-तस्वीरें-प्रक्रिया प्रकाशित हो रही हैं, तो धारा 72 BNS “complete answer” है इस प्रकार की प्रकृति को नियंत्रित करने के लिए।
  • न्यायालय ने राज्य अथवा पीड़ित को यह स्वतंत्रता भी दी कि वह उपयुक्त प्रक्रिया-प्रारूप के तहत कार्रवाई शुरू कर सकते हैं।
  • न्यायालय ने यह भी माना कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर ऐसी सामग्री प्रकाशित कर देना सिर्फ़ कानून-उल्लंघन ही नहीं बल्कि न्याय-प्रक्रिया एवं सामाजिक-नैतिकता के दृष्टिकोण से भी अस्वीकार्य है।
  • न्यायालय ने साथ ही यह पक्ष भी लिया कि आरोपी या चैनल द्वारा ऐसी प्रकाशन-प्रक्रिया, पीड़ित को प्रताड़ित या डराने-धमकाने का कारण बन सकती है, जिससे उनका न्याय-हक सुरक्षित नहीं रह जाता।

इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि डिजिटल युग में सूचना-स्वतंत्रता की आड़ में पीड़ित-गोपनीयता का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।


सामाजिक-नैतिक एवं प्रायोगिक चुनौतियाँ

(१) डिजिटल प्लेटफॉर्म की गति व नियंत्रण

यू-ट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स पर जानकारी बहुत तेज़ी से फैलती है। एक वीडियो अपलोड होते ही लाखों-दस लाखों लोगों तक पहुँच सकती है। इस तेजी और स्केल के बीच यह सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है कि सार्वजनिक उपयोगकर्ता संवेदनशील जानकारी साझा न करें।

(२) पत्रकारिता-सामाजिक मीडिया विभाजन

सामाजिक-मीडिया क्रिएटर्स और यूट्यूब चैनल्स अक्सर ‘वायरल’ कंटेंट की चाह में आगे बढ़ते हैं। यौन अपराधों या उनके आरोपों के मामले में ऐसी सामग्री जो पीड़ित-परिवार की पहचान उजागर करती हो, उस समय-गतिशीलता में साझा नहीं होती कि बीस-पचास-इनपुट-चेक लगे हों। इस तरह न्याय-सर्भावना कम, वायरल-प्रवृत्ति अधिक हो जाती है।

(३) पीड़ित-परिवार की सुरक्षा

जब पहचान उजागर होती है तो पीड़ित-महिला को सार्वजनिक शर्म-अभिव्यक्ति, बदनाम-हुआ महसूस करना, दबाव-धमकी, परिवार-विरोध जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। न्यायालय ने इस तरह के जोखिमों को विशेष रूप से देखा है।

(४) अभियोजन-न्याय-प्रक्रिया पर असर

यदि पहचान सार्वजनिक हो जाए, तो गवाहों का भय, लोक-मध्यस्थता (trial by media), न्याय-प्रक्रिया पर असमय दबाव-विचलन जैसी घटनाएँ हो सकती हैं। यह न सिर्फ़ पीड़ित के लिए बल्कि न्याय-प्रक्रिया के समग्र­विश्वास के लिए भी खतरनाक है।

(५) सीमाएँ और अस्पष्टताएँ

– यूट्यूब-चैनल्स आदि कौन-कौनसे सख्ती से नियंत्रित होंगे?
– सार्वजानिक व व्यक्तिगत जानकारी में किस सीमा तक ‘पहचान’ मानना है?
– किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा: कंटेंट क्रिएटर, प्लेटफॉर्म, या साझा करने वाला व्यक्ति?
– विदेशी-सर्वर-होस्टेड प्लेटफॉर्म्स के मामले में कैसे अमल होगा?


आगे की दिशा एवं सुझाव

इस निर्णय के प्रकाश में निम्न-प्रमुख सुझाव दिए जा सकते हैं:

• प्लेटफॉर्म-जिम्मेदारी बढ़ाना

यू-ट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म्स को चाहिए कि विवादास्पद-यौन अपराध-कवर करने वाले वीडियो के लेबलिंग-प्रक्रिया, ट्रिगर-वॉर्निंग, निजी पहचान हटाने-उपकरण आदि विकसित करें।

• कंटेंट-क्रिएटर्स एवं पत्रकारों की जागरूकता

मीम-वीडियो, ट्रेंड-क्लिप्स, वायरल-डिबेट्स के क्रिएटर्स को यह समझना चाहिए कि ‘पहचान उजागर करना’ सिर्फ़ नैतिक उल्लंघन नहीं, कानूनी उल्लंघन भी हो सकता है। उन्हें शिक्षा-प्रशिक्षण देना महत्वपूर्ण है।

• राज्य-प्रशासनिक कार्रवाई

राज्य सरकारों, पुलिस-विभागों को निर्देश मिलने चाहिए कि पीड़ित-महिला की पहचानको उजागर करने वाले मामलों में तुरंत धारा 72 BNS तथा धारा 228A IPC की रोक-थाम तथा कारवाई करें। राजस्थान में सुप्रीम कोर्ट ने इसी प्रकार निर्देश दिए हैं।

• न्यायालय-प्रक्रिया की पारदर्शिता और गोपनीयता संतुलन

यद्यपि न्याय-प्रक्रिया खुलाप्रचलित हो रही है, फिर भी ऐसे मामलों में पीड़ित-परिवार की गोपनीयता और सुरक्षित गवाही की व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए।

• सामाजिक-संस्कृति एवं लिंग-समानता शिक्षा

उजागर पहचान तथा सोशल मीडिया स्ट्रा ज़िंग (shaming) को रोकने के लिए समाज-स्तर पर जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है। महिलाओं के खिलाफ भाषा, भाव, टिप्पणियाँ जो दबाव-निर्माण करती हैं, उन्हें चुनिंदा माध्यमों से नियंत्रित करना होगा।


निष्कर्ष

       यह सुप्रीम कोर्ट का निर्देश सिर्फ़ एक ‘कानूनी निर्देश’ नहीं बल्कि सामाजिक-संवेदनशीलता का संकेत है—कि डिजिटल युग में गोपनीयता, मान-सम्मान, न्याय-हक इन सबका संरक्षण उतना ही आवश्यक है जितना कि अपराध-प्रस्तुति या अपराध-संज्ञान।

जिस तरह न्यायालय ने कहा:

“यदि यूट्यूब-चैनलों पर पीड़ितों की पहचान, नाम, फोटो आदि प्रकाशित हो रही हैं, तो धारा 72 BNS इसका पूरे रूप से उत्तर है।”

       अतः, हमें सिर्फ प्लेटफॉर्म या कंटेंट-क्रिएटर की ओर देखने के बजाय पूरे सूचना-परिस्थिति-विधान-प्रक्रिया को दायित्व-संपन्न बनाने की दिशा में काम करना होगा। पीड़ित-महिलाओं की आवाज़ न दबे, न दबाई जाए — यह न्याय का मूलमंत्र है।