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“POCSO कानून और प्रेम संबंध: सुप्रीम कोर्ट का विवेकपूर्ण निर्णय”

POCSO कानून और प्रेम संबंध: सुप्रीम कोर्ट का विवेकपूर्ण निर्णय”

प्रस्तावना

28 अक्टूबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद संवेदनशील और विवादास्पद मामले में निर्णय देते हुए कहा कि “the crime was not the result of lust but love” (यह अपराध वासना का परिणाम नहीं बल्कि प्रेम का था)। यह निर्णय इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसने अपराध-प्रवृत्ति, पीड़िता की इच्छा, विवाह एवं सामाजिक परिणामों जैसे पहलुओं को संज्ञान में लिया है। इस लेख में हम इस निर्णय का विस्तृत विश्लेषण करेंगे — मामले का पृष्ठभूमि, न्यायिक तर्क, संवैधानिक प्रावधान, विवादित बिंदु, सकारात्मक तथा नकारात्मक प्रभाव, अंतिम निष्कर्ष सहित।


मामला संदर्भ एवं पृष्ठभूमि

  • appellant (आरोपी) K. Kirubakaran को आदतन विवाह के लिए बहकाने (Section 366 IPC) तथा Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012 (POCSO) की धारा 6 के अंतर्गत दोषी पाया गया था।
  • हाई कोर्ट ने पहली अपील खारिज कर, अभियुक्त को दोषी ठहराया। बाद में, अपील के दौरान अभियुक्त व पीड़िता ने मई 2021 में विवाह कर लिया।
  • अभियुक्त के विवाह के बाद उनसे एक बालक भी पैदा हुआ और परिवार को सामाजिक तथा कानूनी सहायता मिली।
  • पीड़िता (अब पत्नी) ने अदालत में अपना affidavit प्रस्तुत किया जिसमें उसने पति के साथ एक स्थिर तथा शांतिपूर्ण पारिवारिक जीवन जीने की इच्छा व्यक्त की।
  • सुप्रीम कोर्ट ने इस पृष्ठभूमि में Article 142 संवैधानिक प्रभार का प्रयोग करते हुए उक्त अभियोग (दोषसिद्धि) को खारिज किया।

न्यायिक तर्क एवं निर्णय के मुख्य बिंदु

  1. सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण
    कोर्ट ने माना कि अपराध केवल व्यक्ति के विरुद्ध नहीं बल्कि समाज की सामूहिक अंतरात्मा के विरुद्ध होता है। परंतु साथ ही यह भी माना गया कि दंडात्मक कानून का पालन करते समय व्यवहारिक वास्तविकताओं (practical realities) को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
  2. समायोजन-सुधार का सिद्धांत
    सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि न्याय केवल सज़ा देने का माध्यम नहीं है बल्कि समाज में सुधार, पुनर्स्थापन और सामंजस्य लाने का भी जरिया है।
  3. Article 142 का प्रयोग
    संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को “complete justice” करने का विशेष अधिकार है। अदालत ने यह पाया कि इस मामले की “विविध व अनूठी” परिस्थितियों में कानून को कठोर रूप से लागू करना न्याय नहीं होगा।
  4. “लस्ट” और “लव” में भेद
    निर्णय में सबसे विवादास्पद और चर्चा में रहने वाला वाक्य यही है —

    “While considering the offence committed … we have discerned that the crime was not the result of lust but love.”
    यानी, अभियुक्त-पीड़िता के संबंधों को वासना आधारित अपराध के रूप में नहीं देखा गया, बल्कि प्रेम-आधारित संबंध के रूप में मान्यता दी गई।

  5. परिवार-हार्मनी एवं भविष्य की जिम्मेदारियाँ
    अदालत ने निर्देश दिए कि अभियुक्त अपने पत्नी व बालक को छोड़कर नहीं चले जाएगा, उन्हें गरिमा पूर्वक पालन पोषण करेगा, और अगर भविष्य में उक्त जिम्मेदारी से विचलन होगा तो गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
  6. निर्णय की सीमाएँ
    सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कर दिया कि यह आदेश “विशिष्ट परिस्थितियों” में दिया गया है और इसे अन्य मामलों के लिए पूर्व निर्णय के रूप में नहीं माना जाना चाहिए।

संवैधानिक एवं विधिक पहलुओं का विश्लेषण

  • Section 366 IPC: विवाह के लिए बहकाने का अपराध है।
  • POCSO Act, 2012 – Section 6: बच्चों के विरुद्ध यौन अपराधों को दंडित करता है, जिसमें ‘यौन उत्पीड़न’, ‘यौन दुराचार’ आदि शामिल हैं।
  • यहाँ ध्यान देने योग्य है कि विवाह के बाद भी अधिनियम के अंतर्गत प्रक्रिया चल सकती थी क्योंकि पीड़िता पहले नाबालिग थी।
  • Article 142: सुप्रीम कोर्ट को ऐसे मामलों में “complete justice” प्रदान करने का अधिकार है जब अन्य विधिपूर्वक साधन अपर्याप्त हों।
  • न्यायिक दायित्व है कि विधि की कठोरता और समाज-हित के बीच संतुलन स्थापित हो — यानि न केवल कानून को कड़ाई से लागू करना बल्कि परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए न्याय करना।

सकारात्मक पहलू

  • यह निर्णय इस बात का संकेत है कि न्याय व्यवस्था मानव-केंद्रित, प्रायोगिक और पारिवारिक सामाजिक वास्तविकताओं के अनुरूप हो सकती है।
  • विवाह और बच्चे जैसे सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखें जाने से विकलांग सामाजिक परिणाम (जैसे – परिवार टूटना, बालक की परवरिश प्रभावित होना) को रोका जा सकता है।
  • यह कानून के कठोर एवं यांत्रिक प्रवर्तन से हटकर मामले-विशिष्ट न्याय की ओर कदम है (लेक्स एडाजेस्टे = Lex specialis)।

विवादित-नकारात्मक पहलू

  • निर्णय ने नाबालिग वय में संबंध व / या विवाह को एक तरह से सराहा है, जो कि सामाजिक व कानूनी दृष्टि से संवेदनशील विषय है।
  • “लस्ट vs लव” जैसे कथन अभिप्राय में देखें तो अपराध की प्रकृति-विचार (mens rea) को सीमित कर देना कानून-सिद्धांत की चेतावनी है: क्या प्रेम ने अपराध को स्वचालित रूप से अपराध-चरित्र से बदल दिया?
  • समान परिस्थितियों में अन्य निर्णयों को इस मामले से जोड़ देने का डर है — यदि “विशिष्ट परिस्थितियों” का स्पष्टीकरण पर्याप्त न हो।
  • पीड़िता-स्वीकृति और विवाह को आधार जमा देना न्यायशास्त्र में विवादित हो सकता है — क्या यह कानून की धाराओं को दुर्बल करता है?

सामाजिक व व्यावहारिक प्रभाव

  • प्रसंगात्मक दृष्टिकोण विकसित होगा: अभियोजन व न्यायालय दोनों ही मामलों में अब संबंध-परिप्रेक्ष्य, विवाह-स्थिति, बालक की स्थिति जैसी “परिणाम-विचार” बातें ध्यान में लेंगे।
  • न्यायप्रवर्तन एजेंसियों को सावधानी बरतनी होगी कि हर नाबालिग संबंध को स्वतः पोक्सो अपराध मान लेना उचित न हो — तथ्यों की गहराई देखी जाएगी।
  • मानवाधिकार व संरक्षण प्रणालियों को यह संकेत मिलेगा कि पीड़िता की इच्छा, पारिवारिक मनोस्थिति, सामाजिक प्रभाव आदि महत्वपूर्ण हैं।
  • इसके विपरीत, यह निर्णय वसूली-रूप में दुष्प्रयोग का आधार ब​ना सकता है — यानी, अभियुक्त-पीड़िता शादी कर लें, तो पोक्सो अभियोग खारिज हो जाए — यह संभावित चिंता है।

सीमाएँ एवं आगे-का मार्ग

  • यह निर्णय मात्र एक विशेष मामले तक सीमित बताया गया है — इसे व्यापक ‘प्रसिद्धि’ न मिले ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है।
  • प्रत्येक मामले में “लस्ट” या “लव” का विभाजन आसान नहीं — न्यायालयों को भविष्य में मानदंड विकसित करने होंगे कि कब यह विभाजन स्थापित हो सकता है।
  • विधायिका एवं न्याय-व्यवस्था को यह सुनिश्चित करना होगा कि नाबालिगों / युवा लड़कियों की स्वैच्छिकता / प्रभाव-मुक्त सहमति का परीक्षण सही से हो।
  • सामाजिक जागरूकता बढ़ानी होगी कि प्रेम-विवाह व / या नाबालिग विवाह सामाजिक व कानूनी रूप से स्वीकृत नहीं हैं — केवल न्यायालयीय सहमति पर्याप्त नहीं।

निष्कर्ष

इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने एक साहसिक कदम उठाया है — जहाँ कानून की कठोरता को संदर्भ-सापेक्ष मानव-योग्य न्याय से समायोजित किया गया है। “the crime was not the result of lust but love” — इस कथन ने न्यायशास्त्र में एक नया विमर्श प्रस्तुत किया है कि प्रवृत्ति (intent), संबंध-परिस्थिति, सामाजिक परिणामी प्रभाव, विवाह व पारिवारिक संरचना जैसे कारक अपराध एवं दंड की अवधारणा में भूमिका निभा सकते हैं।

हालाँकि, यह निर्णय सम्पूर्ण रूप से सर्वमान्य मॉडल नहीं बन सकता — यह विशेष परिस्थितियों में दिया गया है। न्याय-विधि के छात्रों, अधिवक्ताओं तथा समाजशास्त्रियों के लिए यह एक अद्वितीय अध्ययन-प्रकरण प्रस्तुत करता है कि कैसे संवैधानिक शक्तियों, पारिवारिक हित, समाज-हित व अपराध-नियंत्रण के बीच संतुलन साधा जा सकता है।

अतः यह निर्णय हमें याद दिलाता है — कानून मानव-वस्था के लिए है, न कि मानव-वस्था कानून के लिए