“लापता कर्मचारी के परिवार को दया नियुक्ति (Compassionate Appointment) का अधिकार नहीं, यदि 7 वर्ष पूर्ण होने से पहले सेवानिवृत्ति हो चुकी हो: सर्वोच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय”
प्रस्तावना
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि यदि कोई सरकारी कर्मचारी लापता हो जाता है, और उसकी सेवानिवृत्ति 7 वर्ष की वह अवधि पूरी होने से पहले ही हो जाती है, जिसके बाद उसे मृत माना जा सकता है, तो उसके परिवार को “दया नियुक्ति” (Compassionate Appointment) का अधिकार नहीं होगा।
यह निर्णय उन मामलों पर रोशनी डालता है जहाँ लापता कर्मचारियों के परिजनों द्वारा सरकारी सेवा में नौकरी की मांग की जाती है, यह कहते हुए कि कर्मचारी के गायब होने के कारण वे “मृतक” के समान स्थिति में हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक ऐसे कर्मचारी से जुड़ा था जो अपनी सेवा के दौरान अचानक लापता हो गया था। परिवार ने संबंधित विभाग में कई बार शिकायत दर्ज की, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला।
कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की तिथि पास थी, और 7 वर्ष बीतने से पहले ही उसकी सेवा अवधि समाप्त हो गई। उसके परिवार ने सरकार से आग्रह किया कि उसे “मृत” मानकर एक आश्रित को दया नियुक्ति प्रदान की जाए।
हालाँकि विभाग ने आवेदन को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि —
“जब तक लापता कर्मचारी को कानूनन मृत घोषित नहीं किया जाता, तब तक दया नियुक्ति का कोई आधार नहीं बनता।”
परिवार ने इस निर्णय के खिलाफ अदालत का दरवाज़ा खटखटाया, और मामला अंततः सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा।
कानूनी प्रश्न
इस मामले का मूल प्रश्न था —
क्या कोई परिवार दया नियुक्ति का दावा कर सकता है, यदि कर्मचारी लापता है, लेकिन सेवानिवृत्ति की तिथि 7 वर्ष पूरे होने से पहले आ गई है और उसे मृत मानने की कानूनी अवधि पूरी नहीं हुई है?
संबंधित विधिक प्रावधान
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 108 के अनुसार,
यदि कोई व्यक्ति 7 वर्षों तक किसी को दिखाई नहीं दिया और उसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली, तो उसे “मृत” माना जा सकता है।
यह “कानूनी अनुमान” (Presumption of Death) केवल 7 वर्षों की अनुपस्थिति के बाद लागू होता है।
दूसरी ओर, “दया नियुक्ति” की नीति का उद्देश्य यह है कि यदि किसी कर्मचारी की मृत्यु सेवा के दौरान होती है, तो उसके परिवार को तत्काल राहत दी जा सके ताकि आर्थिक संकट से निपटा जा सके।
सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि—
“दया नियुक्ति कोई अधिकार नहीं बल्कि केवल एक नीति है, जो सेवा के दौरान आकस्मिक मृत्यु के मामलों में सहानुभूति के आधार पर दी जाती है। यदि कर्मचारी सेवानिवृत्त हो चुका है या 7 वर्ष की अवधि पूरी नहीं हुई है, तो उसका परिवार इस नीति के अंतर्गत नहीं आ सकता।”
न्यायालय ने कहा कि कानूनी दृष्टि से किसी व्यक्ति को मृत तभी माना जा सकता है जब उसकी अनुपस्थिति 7 वर्षों तक लगातार बनी रहे।
इससे पहले उसके संबंध में “मृत” घोषित करना या परिवार को सरकारी राहत देना कानून के अनुरूप नहीं होगा।
न्यायालय की तर्कपूर्ण व्याख्या
- कानूनी अनुमान का समय-सीमा आधारित होना:
न्यायालय ने कहा कि धारा 108 का उद्देश्य यह है कि 7 वर्ष की अवधि के बाद ही व्यक्ति के “मृत” होने का अनुमान लगाया जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति 6 वर्ष 11 महीने लापता रहा, तो भी उसे मृत नहीं माना जा सकता जब तक पूरी अवधि समाप्त न हो जाए। - सेवानिवृत्ति की स्थिति का प्रभाव:
जब कर्मचारी की सेवानिवृत्ति की तिथि 7 वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले ही आ जाती है, तो उसकी सेवा स्वतः समाप्त मानी जाएगी।
अतः, उसके लापता रहने की स्थिति में भी परिवार को “सेवा के दौरान मृत्यु” का लाभ नहीं मिल सकता। - दया नियुक्ति का उद्देश्य:
यह योजना मानवीय सहायता के लिए है, न कि कानूनी अधिकार के रूप में दावा करने के लिए।
न्यायालय ने यह कहा कि जब तक किसी कर्मचारी की सेवा के दौरान मृत्यु सिद्ध न हो, तब तक उसके परिवार को दया नियुक्ति का लाभ नहीं दिया जा सकता।
पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ
सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने निर्णयों का भी उल्लेख किया, जैसे कि—
- Union of India v. Bhagwan Singh (1995)
जिसमें कहा गया था कि दया नियुक्ति का लाभ केवल तब दिया जा सकता है जब कर्मचारी की मृत्यु सेवा के दौरान हो, न कि सेवानिवृत्ति के बाद। - Canara Bank v. M. Mahesh Kumar (2015)
जिसमें यह सिद्धांत दोहराया गया कि दया नियुक्ति कोई मौलिक अधिकार नहीं बल्कि प्रशासनिक नीति है, जिसका दायरा सीमित है।
इन निर्णयों के आलोक में कोर्ट ने माना कि लापता कर्मचारी के मामले में भी यही सिद्धांत लागू होगा।
न्यायालय का निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—
“यदि कर्मचारी लापता होने के बाद भी 7 वर्ष की अवधि पूरी नहीं करता और इस बीच उसकी सेवानिवृत्ति हो जाती है, तो उसकी सेवा का अंत स्वाभाविक रूप से हो जाता है। इस स्थिति में परिवार को दया नियुक्ति का अधिकार नहीं दिया जा सकता।”
अदालत ने यह भी कहा कि परिवार को केवल उस स्थिति में राहत मिल सकती है जब बाद में कर्मचारी को मृत घोषित किया जाए और सरकार संबंधित पेंशन या अन्य लाभ देने का निर्णय करे।
फैसले का महत्व
यह निर्णय प्रशासनिक और मानव संसाधन विभागों के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करता है कि—
- लापता कर्मचारियों के मामलों में 7 वर्ष की अवधि से पहले “मृत” घोषित करना कानूनन संभव नहीं है।
- सेवानिवृत्ति की तिथि और 7 वर्ष की अवधि, दोनों का कानूनी महत्व है।
- दया नियुक्ति केवल “सेवा के दौरान मृत्यु” के मामलों तक सीमित है।
समाज और सेवा क्षेत्र पर प्रभाव
इस निर्णय से यह स्पष्ट संदेश गया है कि सरकारी नीतियों का मानवीय पक्ष भी विधिक सीमाओं में बंधा हुआ है।
भले ही परिवार की स्थिति सहानुभूति योग्य हो, परंतु न्यायालय ने यह दोहराया कि कानून की व्याख्या भावनाओं से नहीं, तथ्यों और प्रावधानों से की जानी चाहिए।
यह निर्णय उन सभी विभागों के लिए भी मार्गदर्शक है जो दया नियुक्ति के मामलों में अस्पष्ट स्थिति का सामना करते हैं।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक संतुलित और विधिसम्मत फैसला है, जिसने कानून और संवेदना दोनों के बीच की सीमा स्पष्ट कर दी है।
लापता कर्मचारी के परिवार की स्थिति भले ही दयनीय हो, परंतु न्यायालय ने कहा कि “कानून को भावनाओं पर नहीं, सिद्धांतों पर चलना चाहिए।”
इस निर्णय से यह सिद्धांत सुदृढ़ हुआ है कि—
“कानून में जो नहीं लिखा है, उसे न्यायालय नहीं जोड़ सकता, भले ही मामला संवेदनशील क्यों न हो।”
यह निर्णय सरकारी सेवा क्षेत्र में “दया नियुक्ति” की अवधारणा को और स्पष्ट करता है तथा यह दर्शाता है कि सहानुभूति भी तभी न्यायसंगत होती है जब वह कानून की सीमाओं के भीतर रहे।