“कॉर्पोरेट दिवालियापन और आपराधिक दायित्व का संतुलन: सैयद नजम अहमद बनाम ओडिशा राज्य एवं अन्य, 2025 का ऐतिहासिक निर्णय”
भूमिका
भारत में कॉर्पोरेट कानून और आपराधिक न्यायशास्त्र का संगम अक्सर जटिल प्रश्नों को जन्म देता है — विशेष रूप से तब जब एक कंपनी वित्तीय संकट या दिवालियापन की प्रक्रिया से गुजर रही हो, और उसके विरुद्ध आपराधिक मुकदमे लंबित हों।
ऐसा ही एक महत्वपूर्ण उदाहरण हाल ही में ओडिशा उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हुआ — “Syed Najam Ahmed v. State of Orissa & Another (CRLMP No. 837 of 2025)”।
इस मामले में न्यायालय को यह निर्णय लेना था कि जब किसी कंपनी को दिवालिया (Insolvent) घोषित कर दिया गया हो और उसके लिए एक Resolution Professional (आरपी) नियुक्त हो चुका हो, तो क्या कंपनी और उसके निदेशकों के विरुद्ध धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (Negotiable Instruments Act) के अंतर्गत आपराधिक कार्यवाही जारी रह सकती है?
इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि दिवालियापन प्रक्रिया (Insolvency Proceedings) और आपेक्षित आपराधिक दायित्व (Criminal Liability) दो भिन्न कानूनी धाराएँ हैं, जिन्हें एक-दूसरे से मिश्रित नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
याचिकाकर्ता सैयद नजम अहमद एक कंपनी के निदेशक थे, जिसके विरुद्ध शिकायतकर्ता ने धारा 138 एन.आई. एक्ट के तहत मामला दर्ज किया था।
शिकायत का आरोप था कि कंपनी द्वारा जारी किए गए चेक भुगतान के लिए प्रस्तुत किए गए, किन्तु ‘अपर्याप्त धनराशि’ (Insufficient Funds) के कारण बैंक द्वारा अस्वीकार कर दिए गए।
याचिकाकर्ता (आरोपी) ने अपनी रक्षा में यह तर्क दिया कि:
- कंपनी पहले ही दिवालिया घोषित की जा चुकी है;
 - Section 7, Insolvency and Bankruptcy Code, 2016 (IBC) के अंतर्गत Resolution Professional (आरपी) नियुक्त किया जा चुका है;
 - अतः, शिकायतकर्ता को कंपनी या निदेशकों के विरुद्ध नहीं, बल्कि Resolution Professional के पास दावा दाखिल करना चाहिए था;
 - इस कारण, धारा 138 एन.आई. एक्ट के तहत लंबित आपराधिक कार्यवाही रोक दी जानी चाहिए।
 
कानूनी प्रश्न (Legal Issues Before the Court)
- क्या किसी कंपनी के दिवालिया घोषित होने और Resolution Professional की नियुक्ति के बाद, उसके विरुद्ध धारा 138 एन.आई. एक्ट के अंतर्गत आपराधिक कार्यवाही जारी रह सकती है?
 - क्या निदेशक (Directors) व्यक्तिगत रूप से आपराधिक दायित्व से मुक्त हो जाते हैं जब कंपनी IBC प्रक्रिया में चली जाती है?
 - क्या शिकायतकर्ता को अपना दावा केवल Insolvency Resolution Process के माध्यम से ही प्रस्तुत करना चाहिए था?
 
याचिकाकर्ता (Accused) का पक्ष
- कंपनी National Company Law Tribunal (NCLT) के आदेश से पहले ही Insolvency Resolution Process में प्रवेश कर चुकी थी।
 - एक Resolution Professional को कंपनी का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया था।
 - इसलिए, अब कंपनी के निदेशक के रूप में उनके पास कोई प्रशासनिक या वित्तीय अधिकार नहीं रहे।
 - इस स्थिति में, कंपनी के विरुद्ध किसी भी कार्यवाही को केवल Resolution Professional के माध्यम से ही संचालित किया जा सकता है।
 - अतः, धारा 138 एन.आई. एक्ट के तहत दर्ज मुकदमा अमान्य (not maintainable) है।
 
प्रत्युत्तर (Response of the Complainant)
- धारा 138 एन.आई. एक्ट के अंतर्गत अपराध सिविल दायित्व नहीं, बल्कि एक आपराधिक दायित्व है।
 - IBC की प्रक्रिया मुख्यतः वित्तीय पुनर्गठन (Financial Resolution) से संबंधित है, जबकि धारा 138 का उद्देश्य आर्थिक नैतिकता (Financial Discipline) बनाए रखना है।
 - कंपनी या उसके निदेशकों का दिवालिया होना या आरपी की नियुक्ति आपराधिक दायित्व से मुक्ति नहीं दिलाता।
 - इसलिए, न्यायालय से प्रार्थना की गई कि आरोपियों की याचिका खारिज की जाए और आपराधिक मुकदमा आगे बढ़े।
 
ओडिशा उच्च न्यायालय का विश्लेषण (Findings of the Orissa High Court)
माननीय न्यायमूर्ति ने दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया। न्यायालय ने कहा:
- IBC और NI Act के उद्देश्यों में मौलिक अंतर है।
- IBC का उद्देश्य कंपनी को पुनर्गठित कर आर्थिक पुनरुद्धार करना है।
 - वहीं, NI Act का उद्देश्य वाणिज्यिक लेनदेन में विश्वास और साख बनाए रखना है।
 
 - IBC की प्रक्रिया आपराधिक मुकदमों पर रोक नहीं लगाती।
- Insolvency and Bankruptcy Code, 2016 की कोई भी धारा यह नहीं कहती कि धारा 138 NI Act के तहत लंबित आपराधिक मुकदमे स्वतः रद्द हो जाएंगे।
 - वास्तव में, Supreme Court in P. Mohanraj v. Shah Brothers Ispat Pvt. Ltd. (2021) ने यह कहा था कि IBC के तहत moratorium केवल कंपनी पर लागू होता है, उसके निदेशकों या अधिकारियों पर नहीं।
 
 - निदेशकों की व्यक्तिगत दायित्वता (Personal Liability):
- धारा 141 एन.आई. एक्ट के अनुसार, यदि कोई अपराध किसी कंपनी द्वारा किया गया हो, तो उस समय कंपनी के प्रबंधन में सम्मिलित प्रत्येक निदेशक को अपराध का आरोपी माना जा सकता है।
 - इसलिए, केवल कंपनी के दिवालिया हो जाने से निदेशकों की व्यक्तिगत आपराधिक जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती।
 
 - Resolution Professional की भूमिका सीमित है।
- Resolution Professional का कार्य कंपनी की संपत्ति और दायित्वों का प्रबंधन करना है, न कि आपराधिक मुकदमों में कंपनी का प्रतिनिधित्व करना।
 - अतः, शिकायतकर्ता को आरपी के पास जाने की आवश्यकता नहीं है।
 
 
न्यायालय का निर्णय (Decision of the Court)
ओडिशा उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि:
- “The pendency of insolvency proceedings before the Resolution Professional or NCLT shall not affect or stall the criminal prosecution initiated under Section 138 of the Negotiable Instruments Act against the company or its directors.”
 - अर्थात, IBC की कार्यवाही और NI Act की आपराधिक कार्यवाही स्वतंत्र रूप से चलेंगी।
 - निदेशकों द्वारा उठाई गई यह दलील कि शिकायतकर्ता को Resolution Professional से संपर्क करना चाहिए था — अस्वीकृत (rejected) की जाती है।
 - तदनुसार, अभियोजन कार्यवाही जारी रखने का आदेश दिया गया।
 
कानूनी सिद्धांत (Legal Principles Established)
- IBC और NI Act की प्रकृति अलग-अलग है — एक वित्तीय सुधार के लिए, दूसरा आपराधिक दायित्व के लिए।
 - Resolution Professional आपराधिक मामलों में कंपनी का प्रतिनिधि नहीं होता।
 - कंपनी के निदेशक व्यक्तिगत रूप से आपराधिक मुकदमे के लिए उत्तरदायी रहेंगे, भले ही कंपनी दिवालिया क्यों न हो।
 - Moratorium (धारा 14 IBC) केवल कंपनी पर लागू होता है, न कि निदेशकों पर।
 
महत्वपूर्ण न्यायिक मिसालें (Precedents Cited)
- P. Mohanraj & Ors v. Shah Brothers Ispat Pvt. Ltd. (2021) 6 SCC 258 – सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि IBC के तहत मोरेटोरियम कंपनी पर लागू होता है, निदेशकों पर नहीं।
 - K.K. Ahuja v. V.K. Vora (2009) 10 SCC 48 – निदेशकों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी का दायरा निर्धारित किया गया।
 - S.M.S. Pharmaceuticals Ltd. v. Neeta Bhalla (2005) 8 SCC 89 – कंपनी के अपराधों में निदेशकों की सहभागिता की परिभाषा दी गई।
 
निर्णय का प्रभाव (Impact of the Judgment)
- कॉर्पोरेट अपराधों में स्पष्टता:
यह निर्णय उन कंपनियों और निदेशकों के लिए एक स्पष्ट संदेश है कि दिवालियापन की आड़ में आपराधिक दायित्व से बचा नहीं जा सकता। - शिकायतकर्ताओं के अधिकारों की सुरक्षा:
यह निर्णय सुनिश्चित करता है कि शिकायतकर्ता को उचित न्याय मिल सके, भले ही कंपनी IBC प्रक्रिया में चली जाए। - कॉर्पोरेट अनुशासन पर बल:
यह फैसला कॉर्पोरेट जगत में नैतिक वित्तीय व्यवहार (Financial Discipline) को सुदृढ़ करता है। - न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका:
अदालतों ने यह सिद्ध किया कि आर्थिक मामलों में पारदर्शिता और जिम्मेदारी सर्वोपरि है। 
निष्कर्ष (Conclusion)
“Syed Najam Ahmed v. State of Orissa & Another, 2025” का निर्णय भारतीय कॉर्पोरेट और आपराधिक कानून के समन्वय का एक ऐतिहासिक उदाहरण है।
इस निर्णय ने यह स्थापित कर दिया कि कॉर्पोरेट दिवालियापन (Insolvency) किसी व्यक्ति या निदेशक को आपेक्षित आपराधिक दायित्व (Criminal Liability) से मुक्त नहीं कर सकता।
ओडिशा उच्च न्यायालय का यह दृष्टिकोण न केवल धारा 138 एन.आई. एक्ट की गंभीरता को पुनः रेखांकित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि वित्तीय नैतिकता (Financial Ethics) को बनाए रखने के लिए कानून का दुरुपयोग न हो।
यह फैसला भारत में कॉर्पोरेट प्रशासन और न्यायिक उत्तरदायित्व दोनों की दिशा में एक महत्वपूर्ण और मार्गदर्शक कदम है।