एससी/एसटी एक्ट में गिरफ्तारी पर रोक — इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बनाया नज़ीर
🔹 प्रस्तावना
भारत में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) का उद्देश्य है समाज के कमजोर वर्गों को अत्याचार, भेदभाव और हिंसा से सुरक्षा प्रदान करना। हालांकि, इस कानून के दुरुपयोग को लेकर समय-समय पर न्यायालयों में कई विवाद उठे हैं। इसी पृष्ठभूमि में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण आदेश दिया है, जिसमें कहा गया कि — “जिन अपराधों की सजा सात वर्ष से कम है, उनमें बिना नोटिस गिरफ्तारी नहीं की जाएगी।”
यह निर्णय न केवल आरोपी के मौलिक अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि यह न्यायिक संतुलन और विधि के शासन के सिद्धांतों को भी सशक्त करता है।
🔹 मामला संक्षेप में
यह मामला गोंडा जिले के खोड़ार पुलिस थाने का है, जहाँ राजेश मिश्रा और तीन अन्य लोगों के खिलाफ 19 अगस्त 2018 को एक एफआईआर दर्ज की गई थी।
एफआईआर में आरोप था कि आरोपियों ने शिकायतकर्ता के घर में घुसकर मारपीट की और महिलाओं के साथ अपशब्दों का प्रयोग किया।
इन पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की कई धाराओं के साथ-साथ एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(da) और 3(1)(dha) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया।
आरोपियों ने इस एफआईआर को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में याचिका दायर की, यह कहते हुए कि –
- उन पर झूठे आरोप लगाए गए हैं,
- और एफआईआर में जिन धाराओं का उल्लेख है, उनमें अधिकतम सजा सात वर्ष से कम है,
- इसलिए गिरफ्तारी की कोई आवश्यकता नहीं है।
🔹 सरकार का पक्ष
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश किए गए अधिवक्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष यह स्पष्ट किया कि —
“राज्य सरकार इस मामले में गिरफ्तारी करने की कोई मंशा नहीं रखती, क्योंकि अपराध सात वर्ष से कम सजा वाले श्रेणी में आते हैं।”
इस तर्क को स्वीकार करते हुए न्यायालय ने कहा कि जब स्वयं राज्य यह स्वीकार कर रहा है कि गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, तो याचिका निरर्थक हो जाती है।
इसके बाद याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका स्वेच्छा से वापस ले ली, जिसे न्यायालय ने अनुमति प्रदान कर दी।
🔹 न्यायालय का निर्णय
न्यायमूर्ति अजय लांबा और न्यायमूर्ति संजय हरकौली की खंडपीठ ने कहा कि —
“सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार, यदि अपराध की सजा सात वर्ष से कम है, तो आरोपी को बिना पूर्व नोटिस (सेक्शन 41A CrPC के तहत) गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। पुलिस को पहले आरोपी को नोटिस देकर जांच में सम्मिलित होने का अवसर देना चाहिए।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि गिरफ्तारी कोई दंड नहीं है, बल्कि एक प्रक्रियात्मक उपाय है, जिसका प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से ही किया जाना चाहिए।
🔹 सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का संदर्भ
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट के 2014 के ऐतिहासिक फैसले — “Arnesh Kumar v. State of Bihar, (2014) 8 SCC 273” का हवाला दिया।
इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि —
“जिन अपराधों की सजा सात वर्ष से कम है, उनमें पुलिस अधिकारी को आरोपी को सीधे गिरफ्तार करने के बजाय, धारा 41A दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत नोटिस देना चाहिए। यदि आरोपी जांच में सहयोग नहीं करता, तभी गिरफ्तारी की जा सकती है।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि बेवजह गिरफ्तारी नागरिक स्वतंत्रता का हनन है, और यह अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
🔹 एससी/एसटी एक्ट और गिरफ्तारी की प्रक्रिया
एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम में यह व्यवस्था है कि —
“यदि किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के व्यक्ति के साथ जातिगत भेदभाव या अत्याचार होता है, तो आरोपी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती है, और इसमें अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) भी नहीं दी जाती।”
लेकिन 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने Subhash Kashinath Mahajan v. State of Maharashtra मामले में कहा था कि —
“एससी/एसटी एक्ट के तहत भी यदि मामला प्रथम दृष्टया दुर्भावनापूर्ण या झूठा प्रतीत होता है, तो गिरफ्तारी से पहले जांच आवश्यक है।”
हालांकि, इस फैसले के बाद संसद ने 2018 में संशोधन कर इस प्रावधान को हटा दिया था। फिर भी, सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत कायम रखा कि —
“किसी भी कानून का प्रयोग न्यायपूर्ण ढंग से होना चाहिए, ताकि निर्दोष व्यक्ति को अनावश्यक रूप से न सताया जाए।”
🔹 धारा 41A CrPC का महत्व
धारा 41A दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code) पुलिस को यह निर्देश देती है कि —
- यदि अपराध सात वर्ष से कम सजा वाला हो,
- और आरोपी के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य न हों,
तो पुलिस को पहले आरोपी को नोटिस देकर जांच में शामिल होने के लिए बुलाना चाहिए, न कि तुरंत गिरफ्तारी करनी चाहिए।
यह प्रावधान 2009 में CrPC संशोधन के जरिए जोड़ा गया था ताकि मनमानी गिरफ्तारियों को रोका जा सके।
🔹 निर्णय का सामाजिक और विधिक महत्व
इस निर्णय का व्यापक प्रभाव होगा, क्योंकि —
- एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग के आरोपों को लेकर अक्सर विवाद होता रहा है।
- कई मामलों में राजनीतिक या व्यक्तिगत रंजिश में झूठे मुकदमे दर्ज किए जाते हैं।
- पुलिस कभी-कभी बिना पर्याप्त जांच के गिरफ्तारी कर लेती है, जिससे आरोपी की सामाजिक प्रतिष्ठा और रोजगार पर गंभीर असर पड़ता है।
अब हाईकोर्ट के इस आदेश से यह स्पष्ट हो गया है कि —
- गिरफ्तारी स्वतः नहीं होगी;
- पहले नोटिस और जांच की प्रक्रिया अपनाई जाएगी;
- और केवल तभी गिरफ्तारी की जाएगी, जब आरोपी जांच में सहयोग न करे या साक्ष्य नष्ट करने का प्रयास करे।
🔹 न्यायिक संतुलन की आवश्यकता
इस आदेश ने न्यायपालिका की उस दृष्टि को पुनर्स्थापित किया है जो “कानून के दुरुपयोग और न्याय के दुरुपयोग” में संतुलन बनाए रखती है।
जहाँ एक ओर एससी/एसटी एक्ट का उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों की रक्षा करना है, वहीं दूसरी ओर यह भी आवश्यक है कि निर्दोष व्यक्ति को झूठे आरोपों में जेल न भेजा जाए।
हाईकोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि —
“न्याय केवल पीड़ित को नहीं, बल्कि आरोपी को भी निष्पक्ष प्रक्रिया के माध्यम से मिले।”
🔹 निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में मानवाधिकारों और प्रक्रिया की निष्पक्षता को पुनः रेखांकित करता है।
यह आदेश इस बात की याद दिलाता है कि —
“कानून का उद्देश्य दंड नहीं, बल्कि न्याय है।”
एससी/एसटी एक्ट जैसे सशक्त कानूनों का प्रयोग समाज में न्याय सुनिश्चित करने के लिए होना चाहिए, न कि किसी निर्दोष को प्रताड़ित करने के लिए।
इस प्रकार, “सात वर्ष से कम सजा वाले अपराधों में बिना नोटिस गिरफ्तारी नहीं” का सिद्धांत भविष्य में न्यायिक प्रक्रिया को अधिक मानवीय और संविधानसम्मत बनाएगा।
लेखक टिप्पणी:
यह निर्णय न केवल संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 की भावना को सशक्त करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि पुलिस शक्तियों का प्रयोग विवेकपूर्ण, पारदर्शी और मानवाधिकारों के अनुरूप हो।