Company Law Short Answer

(1) कम्पनी का आशय एवं प्रकृति (Meaning and Nature of Company)

प्रश्न 1- कम्पनियों के लाभों को बताइये।

उत्तर.

कम्पनी के लाभ

(Advantages of Company)

कम्पनियों की उत्पत्ति एवं विकास एकाकी स्वामित्व व साझेदारी के दोषों को दूर करने के लिए हुआ है। कम्पनी के लाभ निम्नलिखित है-

1. पर्याप्त पूँजी (Sufficient Capital) संयुक्त स्कन्ध कम्पनियों के पास पूँजी के अधिकतम संसाधन होते हैं। कम्पनी की पूँजी उत्पन्न करने की कोई सीमा नहीं होती है। कम्पनियों का कार्य पूँजी की कमी के कारण नहीं रुकता है।

2. सीमित दायित्व (Limited Liability) संयुक्त स्कन्ध कम्पनी का दायित्व सीमित होता है। अशधारकों का दायित्व अशो के अंकित मूल्य तक सीमित होता है। सीमित दायित्व होने के कारण लोग अशो को क्रय करने के प्रति आकर्षित होते हैं। 3. सतत् अस्तित्व (Perspetual Existence) कम्पनी के सतत् अस्तित्व के कारण सदस्यों की मृत्यु दिवालियापन आदि का कम्पनी के अस्तित्व पर प्रभाव नहीं पड़ता है। सतत् अस्तित्व होने के कारण कम्पनी दीर्घकालीन अनुबन्ध कर सकती है।

4. अंशों की अन्तरणशीलता (Transferability of Shares ) संयुक्त स्कन्ध कम्पनी के अश स्वतन्त्र रूप से अन्तरित किये जा सकते हैं। इनके क्रय एवं विक्रय पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है। इस प्रकार अशधारकों द्वारा अंशों के स्वामित्व के अपने अधिकार का हस्तान्तरण किया जा सकता है।

5. जनता का विश्वास (Public Confidence) कम्पनी पर जनता का अधिक विश्वास होता है क्योंकि कम्पनियों केन्द्रीय कानून द्वारा नियंत्रित व पंजीयत होती है तथा वैश्विक बस्तर पर कार्य करती है। इनकी खाता पुस्तकें स्वतन्त्र अंकेक्षकों द्वारा अंकेक्षित की जाती है।

6. बड़े पैमाने पर उत्पादन (Large Scale Production)– कम्पनियों के पास पर्याप्त पूँजी होने के कारण ये बड़े उद्योग लगाती है तथा बड़े पैमाने पर उत्पादन करती है। कम्पनियों को बड़े पैमाने पर उत्पादन के भी लाभ प्राप्त होते हैं।

7. अन्य लाभ (Other Advantages) उपरोक्त लाभों के अलावा कम्पनियों के कुछ अन्य लाभ निम्नलिखित हैं-

(i) जोखिम का अधिक लोगों के मध्य विभाजन होना,

(ii) प्रबन्धकीय पेशे का विकास होना,

(iii) लघु बचतों को बढ़ावा मिलना,

(iv) सक्षम एवं अनुभवी स्टाफ की नियुक्ति होना,

(v) औद्योगिक शोध को बढ़ावा मिलना आदि।

प्रश्न 2. कम्पनी की सीमाएँ बताइये।

उत्तर –

कम्पनी की सीमाएँ

(Limitations of Company)

कम्पनी की निम्नलिखित सीमाएँ हैं –

(1) प्रवर्तकों द्वारा कपट (Fraud by Promoters) प्रवर्तकों को कम्पनी की स्थापना करने का अधिकार उद्देश्य भविष्य में पूर्ण रूप से कम्पनी पर अपना आधिपत्य जमाना एवं अपनी स्वार्थ सिद्धि करते रहना ही होता है। वे केवल अपने ही लोगों को प्रारम्भ में संचालक के पदों पर नियुक्त करते हैं। जैसे ही कम्पनी सुधारु रूप से व्यापार करने लग जाती है प्रवर्तक तुरन्त ही प्रवन्धकर्त्ता बन जाते है। इस प्रकार अपनी स्थिति से लाभ उठाकर वे कम्पनी में साधनों का शोषण करने लगते हैं।

(2) अनुत्तरदायी प्रबन्ध (Irresponsible Management) एकाकी व्यापार और साझेदारी प्रबन्ध के विपरीत कम्पनी प्रबन्ध में आन्तरिक प्रबन्ध प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष रूप से होता है। वैतनभोगी प्रबन्धक तथा संचालक व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी न होने के कारण व्यावसायिक हितों में अधिक दिलचस्पी नहीं लेते हैं। अतः प्रबन्ध में उत्तरदायित्व की भावना कम हो जाती है।

(3) गोपनीयता का अभाव (Lack of Secrecy) समस्त कार्य सभाओं में तय होते है तथा उनको समय-समय पर अपने लेखों को जनता के सामने प्रकाशित करना पड़ता है जिसके कारण गोपनीयता समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत अन्य व्यावसायिक संगठनों (एकाकी व्यापार, साझेदारी आदि) में गोपनीयता रहती है।

(4) अत्यधिक वैधानिक हस्तक्षेप (Excesive Legal Interference) कम्पनी को प्रारम्भ से लेकर अंत तक अत्यधिक वैधानिक हस्तक्षेप का सामना करना पड़ता है जिसके कारण प्रबन्धकों का बहुमूल्य समय वैधानिक औपचारिकताओं को पूरा करने तथा वैधानिक परामर्शदाताओं से परामर्श करने में ही नष्ट हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप कम्पनी की प्रबन्ध व्यवस्था शिथिल पड़ जाती है तथा लालफीताशाही पनपने लगती है।

(5) शीघ्र निर्णयों का अभाव (Lack of Prompt Decisions) कम्पनी संगठन में सभी महत्वपूर्ण निर्णय कम्पनी की सभाओं में प्रस्ताव पारित करके लिए जाते हैं। इस सभाओं को बार-बार बुलाना सम्भव नहीं हो पाता है। प्रबन्धकीय निर्णय संचालकों की सभाओं में प्रस्ताव पारित करके लिए जाते हैं जहाँ प्रत्येक बात पर तर्क-वितर्क होता है। परिणामस्वरूप निर्णयों में विलम्य होना स्वाभाविक है। कभी-कभी शीघ्र निर्णय के अभाव में अनेक सुनहरे व्यावसायिक अवसर हाथ से निकल जाते हैं।

(6) व्यावसायिक संयोगों का जन्म (Birth to Business Combinations) कई कम्पनियाँ परस्पर मिलकर व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा को समाप्त करने एवं एकाधिकार स्थापित करने के लिए व्यावसायिक संयोगों को जन्म देती हैं जिसके कारण उपभोक्ताओं का शोषण होता है तथा पूँजीवादी प्रथा को प्रोत्साहन मिलता है। अत्यधिक लाभ होने के कारण धन कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में एकत्रित हो जाता है। परिणामस्वरूप एकाधिकार, केन्द्रीकरण, शोषण एवं असमाजिक कृत्यों की मनोवृत्ति पनपने लगती है।

(7) निर्माण प्रक्रिया में जटिलता (Complexity in Formation Procedure). कम्पनी का निर्माण करने में कई वैधानिक कार्यवाहियाँ पूरी करनी पड़ती है जिसमें बहुत सा समय और धन व्यय होता है। इसके विपरीत, एकाकी व्यापार तथा साझेदारी को सुविधापूर्वक स्थापित किया जा सकता है। इनका रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य नहीं है, जबकि कम्पनी का रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त प्रारम्भिक व्यय भी कभी-कभी कम्पनी के निर्माण में आवश्यकता से अधिक हो जाते हैं जिससे पूँजी का बहुत बड़ा भाग यो ही चला जाता है।

प्रश्न 3. कम्पनी और साझेदारी में अन्तर स्पष्ट कीजिए।

अथवा

कम्पनी तथा भागीदारी फर्म में अन्तर कीजिये।

उत्तर –

कम्पनी एवं साझेदारी में अन्तर

(Difference between Company and Partnership)

कम्पनी ( Company )

1- कम्पनी का विनियमन कम्पनी अधिनियम, 2013 के अन्तर्गत होता है।

2. सार्वजनिक कम्पनी के लिए सदस्यों की कोई अधिकतम सीमा नहीं है, यद्यपि एक निजी कम्पनी में सदस्यों की अधिकतम संख्या (भूतपूर्व एवं वर्तमान कर्मचारी सदस्यों को छोड़कर) 200 है।

 3- कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है और इसका अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व होता है।

4. कम्पनी के सदस्यों का दायित्व सामान्यतः उनके द्वारा खरीदे गये अंशों के अंकित मूल्य तक ही सीमित रहता है।

 5.कम्पनी की पूँजी में परिवर्तन के लिए, विशेषकर जब पूँजी में कमी करनी हो, कुछ वैधानिक औपचारिकाओं का पालन करना पड़ता है।

6. कम्पनी की दशा में व्यापार का प्रबन्ध अंशधारियों द्वारा निर्वाचित संचालकों द्वारा होता है।

7. निजी कम्पनी में अंशों का हस्तान्तरण बिना संचालक मण्डल की अनुमति से नहीं किया जा सकता है लेकिन सार्वजनिक कम्पनी बिना किसी प्रतिबंध स के अंश हस्तान्तरणीय होते हैं ।

8. कम्पनी के खातों की परीक्षा कराना कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत अनिवार्य के है।

9.कम्पनी के लिए पंजीकरण करना अनिवार्य है।

10. कम्पनी की दशा में कोई भी सदस्य अपनी इच्छानुसार कम्पनी का समापन नहीं कर सकता है तथा इसकी समाप्ति के लिए काफी वैधानिक औपचारिकताओं का पालन करना पड़ता है।

साझेदारी (Partnership )

1- साझेदारी संस्था भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 से शासित होती है।

2- बैंकिंग व्यापार करने वाली साझेदारी संस्था में 10 सदस्य हो सकते हैं तथा सामान्य व्यापार करने वाली साझेदारी संस्था में अधिकतम 20 सदस्य हो सकते हैं।

3- साझेदारी संस्था का साझेदारों से अलग और कोई अस्तित्व नहीं होता है।

4- साझेदारी में प्रत्येक साझेदार का दायित्व असीमित होता है।

5- साझेदारी संस्था की पूँजी में साझेदारों की आपसी सहमति से परिवर्तन किया जाता है।

6- साझेदारी संस्था में प्रत्येक साझेदार व्यापार के प्रबन्ध में भाग लेने का अधिकारी है।

7- साझेदारी में कोई भी साझेदार अन्य सह-साझेदारों की सहमति के बिना अपने हित का हस्तान्तरण नहीं कर सकता है।

8- एक साझेदारी में ऐसा कोई कार्य वैधानिक दायित्व नहीं है।

9-साझेदारी संस्था के लिए यह ऐच्छिक है।

10- यदि साझेदारी- एक निश्चित अवधि के लिए नहीं है तो उसका कोई भी साझेदार उसे किसी भी समय, अन्य  साझेदारों को सूचना देने मात्र से ही समाप्त कर सकता है।

प्रश्न 4. निगमन से आप क्या समझते है ?

What do you understand by incorporation?

उत्तर – निगमन अथवा निगमित निकाय को कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 2 (II) में परिभाषित किया गया है।

    धारा 2(11) के अनुसार निगमित निकाय या निगम के अन्तर्गत भारत के बाहर निगमित कोई कम्पनी भी है परन्तु इसके अन्तर्गत निम्नलिखित नहीं है –

(i) सहकारी सोसायटियों से संबंधित किसी विधि के अधीन रजिस्ट्रीकृत कोई सहकारी सोसायटी और

(ii) कोई ऐसा अन्य निगमित निकाय जिसे केन्द्रीय सरकार अधिसूचना द्वारा इस निमित निर्दिष्ट करें।

     वस्तुतः यह निगमित निकाय की परिभाषा नहीं है क्योंकि इसमें केवल यह कहा गया है। “कि भारत के बाहर निगमित कम्पनी थी इसमें शामिल है।”

    परन्तु इसमें यह भी कहा गया है कि इसमें निम्नलिखित शामिल नहीं है

(i) कोई रजिस्ट्रीकृत सहकारी समिति तथा

(ii) केन्द्रीय सरकार द्वारा अधिसूचित कोई अन्य ऐसा निगमित निकाय जो कम्पनी अधिनियम में यथा परिभाषित कम्पनी नहीं है।

     निगमन के पश्चात निकाय विधिक व्यक्ति बन जाता है जिससे इसे अनेक विशेषाधिकार तथा उन्मुक्तिया प्राप्त हो जाती है। इसकी एक सामान्य मुद्रा होती है तथा इसका अस्तित्व अपने सदस्यों से भिन्न होता है। इसे संविदा करने का अधिकार होता है। यह अपने नाम से सपत्ति धारण कर सकती है तथा यह मुकदमा कर सकती है और इस पर मुकदमा किया जा सकता है।

प्रश्न 5- कम्पनी के ‘विधिक व्यक्तित्व’ को समझाते हुए उसकी विशेषताओं को इंगित कीजिए।

उत्तर – कम्पनी का विधिक व्यक्तित्व एवं उसकी विशेषता- कम्पनी की दो प्रमुख विशेषताएँ होती है. पहली स्वैच्छिक संघ तथा दूसरी स्वतंत्र विधिक अस्तित्व। कम्पनी का अस्तित्व अपने सदस्यों से पृथक होता है। यही कारण है कि कम्पनी के अधिकार एवं दायित्व उन लोगों से पृथक होते हैं जिन्होंने कम्पनी का गठन किया है। कम्पनी के विधिक व्यक्ति के संबंध में गावर महोदय का मत है कि निगमित कम्पनी का प्रमुख लक्षण उसका विधिक व्यक्तित्व है जो उसके मूल सदस्यों से पृथक एवं भिन्न है। अतः यह एक कृत्रिम व्यक्ति है न कि प्राकृतिक या जीवित व्यक्ति। कम्पनी के विधिक व्यक्तित्व के संबंध में सोलोमन बनाम सोलोमन एण्ड कम्पनी 1897 का निर्णय एक अग्रनिर्णय है। इस मामले में जब कम्पनी के ऋण चुकाने का प्रश्न उठा तब लार्ड सभा ने निर्णय दिया कि सोलोमन तथा सोलोमन एण्ड कम्पनी दो पृथक व्यक्तित्व हैं। सोलोमन एण्ड कम्पनी द्वारा ऋण का भुगतान दो प्रकार के लेनदारों को किया जाना है, पहला सोलोमन को जिसके पास बन्धक सहित ऋणपत्र है तथा दूसरा सामान्य लेनदारों को जिसके पास सामान्य ऋणपत्र है। पुनः स्टेट ट्रेडिंग कारपोरेशन ऑफ इण्डिया बनाम सी. टी. ओ., 1963 के मामले में यह निर्णय दिया गया कि एक कम्पनी का अस्तित्व कम्पनी के सदस्यों से भिन्न एवं पृथक होता है। कम्पनी का निर्माण करने वाले व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को सामूहिक तौर पर कम्पनी को प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं।

प्रश्न 6- अपरिसीमित दायित्व कम्पनी से क्या तात्पर्य है ? इसकी मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।

उत्तर -अपरिसीमित दायित्व कम्पनी – एक अपरिसीमित दायित्व कम्पनी या सीमित देयता कम्पनी व्यवसाय-उद्यम का एक लचीला स्वरूप है जिसमें साझेदारी तथा कारपोरेट संरचनाओं के तत्वों का सम्मिश्रण है। संयुक्त राज्य अमेरिका की विधि व्यवस्था में, जो मालिकों को सीमित दायित्व प्रदान करती है, विधिक रूप से निर्मित एक व्यावसायिक कम्पनी है। इसे कभी-कभी अपरिसीमित दायित्व निगम भी कहा जाता है। यह एक संकर व्यावसायिक व्यवस्था है जिसमें निगम एवं साझेदारी दोनों के तत्व विद्यमान होते हैं। एक अपरिसीमित दायित्व कम्पनी हालांकि एक व्यावसायिक व्यवस्था है फिर भी यह एक प्रकार की अनिगमित संस्था है तथा एक निगम नहीं है।

     इसकी सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक निगम के साथ ही सीमित दायित्व का सहयोगी होता है। अपरिसीमित दायित्व कम्पनी एक निगम की तुलना में प्रायः अधिक लचीला होता है तथा एकल स्वामित्व वाली कंपनियों के लिए व्यावहारिक होती है। सीमित दायित्व स्वामियों पर लागू नहीं होता है तथा वे व्यक्तिगत देयता से पूर्ण रूप से सुरक्षित है। न्यायालय अपरिसीमित दायित्व कम्पनी के परदे के अन्दर निगम की ओर तभी देख सकते हैं जब कम्पनी किसी अनियमिता में फंस गई हो।

(2) कम्पनियों के प्रकार (Kinds of Companies)

प्रश्न 1. निजी कम्पनी क्या है ? एक निजी कम्पनी के तीन महत्त्वपूर्ण लक्षण बताइये।

अथवा

एक निजी कम्पनी के तीन महत्वपूर्ण लक्षण बताइये।

अथवा

व्यक्तिगत कम्पनी से आप क्या समझते हैं?

उत्तर-  निजी कम्पनी का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Private Company)

    निजी कम्पनी से आशय ऐसी कम्पनी से लगाया जाता है जो अन्तर्नियम के द्वारा अपने अंशों के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाती है और अपने सदस्यों की संख्या 200 तक सीमित रखती है, जिसमे कम्पनी के वर्तमान कर्मचारियों को तथा भूतपूर्व कम्पनी के सदस्य जो नौकरी समाप्त होने के बाद भी सदस्य बने रहते हैं, उनको शामिल नहीं कर सकते हैं । कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(68) के अनुसार, निजी कम्पनी एक ऐसी कम्पनी है जिसकी न्यूनतम चुकता पूँजी एक लाख रुपये या ऐसी चुकता पूँजी हो जो निर्धारित की जा सकती हो तथा जो अपने अन्तर्नियमों द्वारा –

(i) अपने सदस्यों को अशों (यदि कोई हो) का हस्तान्तरण करने के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाती है।

(ii) एक व्यक्ति वाली कम्पनी को छोड़कर यह अपने सदस्यों की संख्या 200 तक सीमित करती है जिसमे निम्नलिखित शामिल नहीं होते

(a) सदस्य जो कम्पनी के कर्मचारी एवं सदस्य हैं।

(b) सदस्य जब वे कम्पनी के कर्मचारी थे, इसके सदस्य भी थे तथा नौकरी छोड़ने के बाद भी इसके सदस्य हो।

जहाँ दो या अधिक व्यक्ति एक कम्पनी में संयुक्त रूप से एक या अधिक अंश लेते हैं, वे इस परिभाषा के उद्देश्यार्थ एकल सदस्य माने जायेंगे।

(iii) जनता को कम्पनी की किन्ही प्रतिभूतियों लेने हेतु आमंत्रित करने पर प्रतिबन्ध होता है।

     निजी कम्पनी के लक्षण (Characteristics of a Private Company) – एक निजी कम्पनी के निम्नलिखित लक्षण होते है –

1. निजी कम्पनी अपने अंशों के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाती है।

2. निजी कम्पनी में सदस्यों की संख्या कम से कम 2 तथा अधिकतम 200 तक हो सकती है।

3. निजी कम्पनी अपने अंशों को खरीदने हेतु जनता को आमंत्रित नहीं कर सकती।

4. निजी कम्पनी के नाम के अन्त में प्राइवेट लिमिटेड शब्दों को जोड़ा जाता है।

प्रश्न 2. निजी कम्पनी को प्राप्त छूटों पर एक टिप्पणी लिखिए।

अथवा

निजी कम्पनी की सुविधायें एवं छूटों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

अथवा

एक निजी कम्पनी के क्या अधिकार हैं ?

अथवा

एक कम्पनी के विशेषाधिकार से आप क्या समझते हैं ? एक निजी कम्पनी को मिलने वाले किन्हीं पन्द्रह विशेषाधिकारों का वर्णन कीजिए।

उत्तर –     विशेषाधिकार का अर्थ

     ‘विशेषाधिकार से आशय ऐसे अधिकार से हैं जो एक कम्पनी को कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत कार्य में कुछ सुविधाएँ एवं छूटें प्राप्त होती हैं जिनका वर्णन निम्न प्रकार है –

     निजी कम्पनी को प्राप्त सुविधाएँ एवं छूटें (Privileges and Exemptions of Private Company)

     एक निजी कम्पनी को निम्नलिखित विशेषाधिकार एवं छूटे प्राप्त हैं –

1. न्यूनतम सदस्य (Minimum Members) – एक निजी कम्पनी को कम से कम दो सदस्यों की आवश्यकता होती है।

2. अंशों का आवंटन (Allotment of Shares) – एक निजी कम्पनी बगैर न्यूनतम अभिदान प्राप्त किये अंशों का आवंटन कर सकती है।

3. प्रविवरण या स्थानापत्र विवरण (Prospectus or Statement in Lieu of Prospectus) – एक निजी कम्पनी को अंशों के आवंटन से पहले रजिस्ट्रार के पास प्रविवरण या स्थानापन्न विवरण दाखिल नहीं करना पड़ता है।

4. विद्यमान अंशधारियों को अंश जारी करना (Issue of Share to Existing Shareholders)- निजी कम्पनी को पुनः अंश जारी करते समय विद्यमान अंशधारियों को अंश जारी करना अनिवार्य नहीं है।

5. व्यापार प्रारम्भ का प्रमाणपत्र (Certificate of Commencement of Business) – निजी कम्पनी को व्यापार प्रारम्भ करने से पहले व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाणपत्र लेना आवश्यक नहीं है।

6. कोरम (Quorum) – एक निजी कम्पनी में कोरम की संख्या 2 मानी जाती है यदि अन्तर्नियमों में इसके विपरीत कुछ न दिया हो।

7. मतगणना मांगने का अधिकार (Rights to Demand Polling)- एक निजी कम्पनी में मतगणना मांगने का अधिकार एक व्यक्ति को है बशर्ते कि उसे मत देने का अधिकार है।

8. अंशों के हस्तान्तरण पर प्रतिबन्ध (Restriction on Transfer of Shares)- एक निजी कम्पनी अपने अंशों के हस्तान्तरण पर रोक लगाती है। आवेदनपत्र रद्द करने की दशा में केन्द्रीय सरकार से अपील नहीं की जाती है।

9. वार्षिक खातों की प्रतिलिपियाँ फाइल करना (Filing of Copies of Annual Report) – निजी कम्पनी को अपने वार्षिक खातों की प्रतिलिपियों रजिस्ट्रार के पास भेजना अनिवार्य है परन्तु गैर सदस्यों को देना आवश्यक नहीं है।

10. संचालकों की न्यूनतम संख्या (Minimum Number of Directors)- निजी कम्पनी को कम से कम 2 संचालक ही रखने पड़ते हैं।

11. संचालकों का पारी से अवकाश ग्रहण करना (Retirement of Directors by Rotation) – निजी कम्पनी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि संचालको की कुल संख्या के 2/3 संचालक पारी से अवकाश ग्रहण करें।

12. संचालकों की संख्या में वृद्धि (Increase in Number of Directors) – निजी कम्पनी को यह अधिकार है कि वह केन्द्रीय सरकार की अनुमति के बिना भी संचालकों की संख्या में वृद्धि कर सकती है।

13. योग्यता अंश (Qualification Shares) निजी कम्पनी मे संचालकों को योग्यता अंश लेना आवश्यक नहीं है और न ही पार्षद सीमानियम पर हस्ताक्षर करना आवश्यक है।

14. प्रबन्ध संचालक की नियुक्ति (Appointment of Managing Directors) – निजी कम्पनी के मामले में प्रबन्ध संचालक की नियुक्ति करने के लिए केन्द्रीय सरकार की आज्ञा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।

15. संचालक मण्डल पर कोई प्रतिबन्ध नहीं (No Restrictions on the Board of Directors) – निजी कम्पनी के संचालक मंडल की शक्तियों एवं अधिकारों पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

16. संचालकों को ऋण आदि (Loans etc. to the Directors) – निजी कम्पनी अपने संचालको को ऋण तथा अन्य आर्थिक सहायता देने हेतु केन्द्रीय सरकार की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती।

17. संचालकों के पारिश्रमिक में वृद्धि (Increase in the Remuneration of Directors) – निजी कम्पनी बिना केन्द्रीय सरकार की अनुमति के अपने संचालकों के पारिश्रमिक में वृद्धि कर सकती है।

प्रश्न 3. निजी कम्पनी को सार्वजनिक कम्पनी में बदलने की प्रक्रिया संक्षेप में बताइये।

उत्तर – निजी कम्पनी को सार्वजनिक कम्पनी में बदलना (Conversion of Private Company into Public Company) एक निजी कम्पनी को निम्नलिखित तरीको से सार्वजनिक कम्पनी में बदला जा सकता है –

(I) चूक द्वारा परिवर्तन अथवा स्वतः परिवर्तन (Conversion by Default or Automatic Conversion) कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 243 प्रावधान करती है कि यदि एक निजी कम्पनी कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 (68) के वैधानिक प्रावधानों में चूक करती है अर्थात् यह अपने अंशों के हस्तान्तरण पर रोक नहीं लगाती, अपने सदस्यों की संख्या 200 से ज्यादा हो जाने देती है या जनता को अभिदान हेतु आमंत्रित करती है तो यह सार्वजनिक कम्पनी हो जाती है।

(II) स्वेच्छा से परिवर्तन (Conversion by Choice) एक निजी कम्पनी को स्वेच्छा से एक सार्वजनिक कम्पनी में परिवर्तित किया जा सकता है। निजी कम्पनी को सार्वजनिक कम्पनी में परिवर्तित करने के निम्नलिखित तरीके है-

1. अन्तर्नियमों में परिवर्तन करना – कम्पनी अपने अन्तर्नियमों में उन प्रतिबन्धों को हटाती है जो अश हस्तान्तरण, सदस्यों की संख्या तथा अंश अभिदान से संबंधित होते हैं।

2. रजिस्ट्रार को प्रस्ताव की प्रति भेजना – प्रस्ताव पारित हो जाने के 30 दिनों के भीतर प्रस्ताव की प्रमाणित प्रति और परिवर्तित अन्तर्नियम तथा पार्षद सीमा नियम को रजिस्ट्रार के पास भेजा जाता है।

3. रजिस्ट्रार को प्रविवरण भेजना – अन्तर्नियमों में परिवर्तन के बाद 30 दिनों के भीतर रजिस्ट्रार के पास प्रविवरण दाखिल किया जाता है।

4. सदस्यों की संख्या निश्चित करना – यदि उपरोक्त कम्पनी में सदस्यों की संख्या 7 से कम है तो सदस्यों की संख्या को कम से कम 7 तक बढ़ाने के लिए कदम उठाना चाहिए।

5. संचालकों की संख्या निश्चित करना – संचालकों की संख्या कम से कम 3 तक बढ़ायी जानी चाहिए यदि वहाँ केवल 2 ही संचालक हैं।

6. नाम एवं पूँजी वाक्य में परिवर्तन – इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए अंशधारियों की 21 दिन के नोटिस पर एक सभा बुलाई जानी चाहिए। नाम वाक्य एवं पूँजी वाक्य में परिवर्तन करने के लिए विशेष प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में अंशधारियों की उपस्थिति 3/4 होनी चाहिए।

7. चुकता पूँजी को बढ़ाना (Enhancing the Paid up Capital) – कम्पनी को अपनी चुकता पूँजी को 5 लाख रुपये तक बढ़ाना होगा।” परिवर्तन की प्रक्रिया (Procedure of Conversion ) निजी कम्पनी को सार्वजनिक कम्पनी में परिवर्तित करने की प्रक्रिया निम्नलिखित है :-

1. विशेष प्रस्ताव पारित करना – निजी कम्पनी अपनी सामान्य सभा में एक विशेष प्रस्ताव पारित करायेगी जिसमें यह कहा जायेगा कि कम्पनी स्वयं को सार्वनिजक कम्पनी में बदलती है। परिवर्तन का प्रस्ताव विशेष प्रस्ताव के रूप में पारित किया जाता है। प्रस्ताव पारित होने के दिन से ही कम्पनी एक सार्वजनिक कम्पनी बन जाती है।

2. प्राइवेट शब्द हटाने के लिए परिवर्तन – कम्पनी विशेष प्रस्ताव के पास किये जाने की तिथि से ही सार्वजनिक कम्पनी बन जाती है लेकिन उसके नाम में प्राइवेट शब्द हटाने के लिए हुआ परिवर्तन केवल रजिस्ट्रार द्वारा समामेलन के नये प्रमाणपत्र के जारी किये जाने के पश्चात् ही प्रभावी होगा ।

3. रजिस्ट्रार से प्रमाणपत्र लेना – कम्पनी को रजिस्ट्रार से नया प्रमाणपत्र प्राप्त करना चाहिए।

4. वैधानिक घोषणा – ऐसे परिवर्तन करने के पश्चात् रजिस्ट्रार के पास इस आशय का एक घोषणापत्र भी देना पड़ता है जिसमें यह कहा जाता है कि कम्पनी को सार्वजनिक कम्पनी के रूप में परिवर्तन करने से संबंधित समस्त वैधानिक कार्य पूरे कर लिये गये हैं।

5. समामेलन प्रमाणपत्र जारी करना – रजिस्ट्रार उपरोक्त सभी प्रपत्रों की जाँच पड़ताल करने के बाद निजी कम्पनी को सार्वजनिक कम्पनी के रूप में रजिस्ट्री कर देता है तथा कम्पनी को नया समामेलन का प्रमाणपत्र जारी कर देता है। इस प्रमाणपत्र में इस बात का उल्लेख किया जाता है कि यह एक सार्वजनिक कम्पनी है। इसके बाद रजिस्ट्रार कम्पनी के नाम से प्राइवेट शब्द हटा देता है।

6. वैधानिक छूटों की समाप्ति – रजिस्ट्रार के द्वारा परिवर्तन करने के पश्चात् यह कम्पनी सार्वजनिक कम्पनी कहलाती है। ऐसी कम्पनी को मिलने वाली वे सारी सुविधाएँ एवं छूटें समाप्त हो जाती हैं जो निजी कम्पनी के रूप में मिलती थीं।

    सार्वजनिक कम्पनी बन जाने पर अन्तर्नियमों से उन सब बातों को हटा देना चाहिए जो उचित नहीं हैं और उन सब बातों को जोड़ देना चाहिए जो आवश्यक हैं।

प्रश्न 4. सरकारी कम्पनी से क्या आशय है ? इसकी विशेषताएँ बताइये।

अथवा

सरकारी कम्पनी से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर- सरकारी कम्पनी का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Government Company) – कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2(45) के अनुसार, सरकारी कम्पनी का आशय एक ऐसी कम्पनी से है जिसकी चुकता अंशपूँजी का कम से कम 51% भाग केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या सरकारों या अंशतः केन्द्रीय सरकार और अंशत: एक या अधिक राज्य सरकारों के पास होता है, तथा इसमें वह कम्पनी भी शामिल है जो ऐसी सरकारी कम्पनी की सहायक कम्पनी है” को भी शामिल किया जाता है।”

सरकारी कम्पनी की विशेषताएँ (Special Features of a Government Company) ये अग्रवत है-

1. चुकता अंशपूँजी का 51 प्रतिशत से अन्यून भाग होता है – (a) केन्द्रीय सरकार के पास, अथवा

(b) किसी एक राज्य की राज्य सरकार के पास, अथवा

(c) एक से अधिक राज्य सरकारों के पास

(d) आंशिक रूप से केन्द्रीय सरकार के पास तथा आंशिक रूप से एक या अधिक राज्य के  सरकारों पास।

2. सरकारी कम्पनी की सहायक कम्पनी को भी सरकारी कम्पनी माना जायेगा।

3. इसका अंकेक्षक भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की सलाह पर नियुक्त किया जाना।

4. अंकेक्षण रिपोर्ट का वार्षिक साधारण सभा में रखा जाना।

प्रश्न 5. कम्पनी अधिनियम, 2013 कहाँ तक सरकारी कम्पनी को शासित करता है ?

उत्तर- कम्पनी अधिनियम, 2018 का लागू होना (Enforcement of the Companies Act, 2013) धारा 395 केन्द्रीय सरकार को अधिकार देती है कि यह राजपत्र में अधिसूचना द्वारा राज्य सरकार को निर्देश दे सकती है कि अधिनियम या कौन-सा प्रावधान सरकारी कम्पनी पर लागू होगा तथा कौन-सा प्रावधान लागू नहीं होगा। धारा 394 के प्रावधान आदेशात्मक है तथा सभी सरकारी कम्पनियों को पूर्ण करने होते हैं। सरकारी कम्पनियों पर लागू होने वाले प्रावधान निम्नलिखित हैं-

(I) अंकेक्षण (Audit) – एक सरकारी कम्पनी के अंकेक्षण में निम्नलिखित नियम लागू होते हैं –

1. सरकारी कम्पनी का अंकेक्षक केन्द्रीय सरकार द्वारा भारत के नियंत्रक एवं महालेखाकार की सलाह से नियुक्त किया जाता है।

2. भारत के नियंत्रक एवं महालेखाकार के अग्रलिखित अधिकार होते है –

(a) अवेक्षण की विधि निर्धारित करना तथा निर्देश देना,

(b) कम्पनी के खातों की जाँच करना।

(II) अकेक्षण एवं वार्षिक रिपोर्ट को संसद/राज्य विधान सभा में रखना (Audit and Annual Report to be Placed before the Parliament / State Legislative) – सरकारी कम्पनी में केन्द्रीय सरकार के सदस्य होने पर केन्द्रीय सरकार द्वारा वार्षिक सामान्य सभा के तीन माह में वार्षिक रिपोर्ट बनायी जायेगी। इस रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों मे अंकेक्षण रिपोर्ट के साथ रखा जायेगा।

     राज्य सरकार के सदस्य होने पर राज्य सरकार भी इसे राज्य विधान मण्डल में रखेगी।

(III) कतिपय प्रावधानों से छूट (Exemption from the certain Provisions) कम्पनी अधिनियम, 2013 के निम्नलिखित प्रावधान सरकारी कम्पनियों पर … लागू नहीं होते –

(i) पूर्ण सरकारी स्वामित्व वाली कम्पनियों में संचालकों की नियुक्ति/पुनः नियुक्ति सम्बन्धी धारा 152 ।

(ii) प्रबंध संचालक/पूर्णकालीन संचालक की नियुक्ति एवं पारिश्रमिक।

(iii) संचालकों की नियुक्ति हेतु संकल्प।

(iv) विशेष लाभांश खाते में अदत्त लाभांश का हस्तान्तरण [ धारा 124]

(v) संचालकों को ऋण सम्बन्धी धारा 185 सरकारी कम्पनी के कर्मचारी सिविल सेवक नहीं होते।

     अंकेक्षक की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा भारत के नियंत्रक एवं महालेखा की सलाह से होती है।

नियंत्रक व महालेखा परीक्षक के अधिकार अग्रवत हैं:-

(i) अंकेक्षण की प्रक्रिया निर्धारित करने का अधिकार:

(ii) निर्देश देने का अधिकार;

(iii) कम्पनी की खाता पुस्तकों की परीक्षण जाँच कराने का अधिकार;

5. अंकेक्षण रिपोर्ट का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को दिया जाना;

6. महालेखा परीक्षक रिपोर्ट पर टिप्पणी कर सकता है।

7. केन्द्रीय सरकार के सदस्य होने पर केन्द्रीय सरकार इसकी वार्षिक रिपोर्ट प्राप्त करेगी।

8. यदि राज्य सरकार भी सदस्य हो तो वह भी इन कम्पनियों की वार्षिक रिपोर्ट प्राप्त करती है।

प्रश्न 6. कम्पनियाँ कितने प्रकार की होती हैं ?

  अथवा

कम्पनियों के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या कीजिए। 

उत्तर -कम्पनियों के प्रकार (Types of Companies)

      कम्पनी अधिनियम के अनुसार कम्पनियों को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता :-

1. निजी कम्पनी

2. सार्वजनिक कम्पनी।

सार्वजनिक कम्पनियों निम्न प्रकार की हो सकती है-

(a) अंशों द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी,

(b) प्रत्याभूति द्वारा सीमित दायित्व वाली कम्पनी,

(c) असीमित दायित्व वाली कम्पनी।

कम्पनियों के प्रकार

1- निजी कम्पनी      2- सार्वजनिक कम्पनी

(a) अंश सीमित कम्पनी

(b) गारन्टी-सीमित कम्पनी

(c) असीमित कम्पनी

कम्पनियों को निम्नवत भी विभाजित किया जा सकता है :

(A)(i) देशी कम्पनी

(ii) विदेशी कम्पनी

(B) (i) सरकारी कम्पनी

(ii) निजी कम्पनी

(iii) सार्वजनिक कम्पनी

(iv) विदेशी कम्पनी

(v) सहायक कम्पनी

(vi) सूत्रधारी कम्पनी

(vii) धार्मिक कम्पनी आदि।

प्रश्न 7- गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी कहाँ होती है ?

उत्तर- गारण्टी द्वारा सीमित कम्पनी (Company Limited by Guarantee) कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 4(1) (d) के अनुसार, गारन्टी द्वारा सीमित कम्पनियाँ वे कम्पनियाँ होती है जिनके सदस्य सदस्यता काल में या सदस्यता समाप्त होने के एक वर्ष के भीतर कम्पनी का समापन होने की दशा में यदि कम्पनी की सम्पत्तियों आदि कम्पनी के दायित्वों का शोधन करने के लिए पर्याप्त नहीं होती तो वे एक निर्धारित राशि तक भुगतान करने हेतु उत्तरदायी होते है। इसका वर्णन कम्पनी के कार्य सीमानियम में भी किया जाता है।

     प्रायः ये कम्पनियों गैर-लाभ वाली कम्पनियाँ होती है तथा ये धर्म, विज्ञान, कला खेलकूद आदि के विकास हेतु स्थापित की जाती है। ये दो प्रकार की हो सकती है –

1. अंशपूँजी सहित तथा      2. अंशपूँजी रहित ।

प्रश्न 8. निष्क्रिय कम्पनी पर टिप्पणी लिखिए

उत्तर –   निष्क्रिय कम्पनी  (Defunct Company)

      निष्क्रिय कम्पनी से आशय ऐसी कम्पनी से लगाया जाता है जिसने या तो व्यापार बंद कर दिया है या व्यापार नहीं करती। इस संबंध में कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 248 में निम्नलिखित प्रावधान दिये गये हैं-

1. रजिस्ट्रार द्वारा पत्र भेजना – यदि रजिस्ट्रार को यह विश्वास हो जाय कि अमुक कम्पनी व्यापार नहीं कर रही है तो वह कम्पनी के पास डाक द्वारा एक पत्र भेजेगा और पत्र मेंपूछेगा कि कम्पनी व्यापार कर रही है या नहीं।

2. दूसरा पत्र भेजना – पहला पत्र भेजने के बाद यदि एक माह के अन्दर रजिस्ट्रार को कोई जवाब नही मिलता है तो यह 14 दिनों के अन्दर पहले वाले पत्र का विवरण देते हुए पंजीकृत डाक से दूसरा पत्र भेजेगा।

3. सरकारी गजट में छपाना – दूसरे पत्र को भेजने के बाद यदि एक माह के अंदर कोई जवाब प्राप्त नहीं होता है तो रजिस्ट्रार सरकारी गजट में कम्पनी के नाम को रजिस्टर से हटाने की सूचना प्रकाशित कर देगा।

4. कम्पनी का नाम रजिस्टर से काटना – दूसरे पत्र का उत्तर न मिलने पर या यह उत्तर मिलने पर कि कम्पनी व्यापार नहीं कर रही है. रजिस्ट्रार एक सूचना कम्पनी के पास भेजता है और सरकारी गजट में प्रकाशित करवाता है। सूचना में यह लिखा जाता है कि नोटिस की तारीख के 3 माह के बाद कम्पनी का नाम रजिस्टर से हटा दिया जायेगा।

5. कम्पनी समापन की दशा में – जिस समय कम्पनी का समापन हो रहा होता है, उस समय यदि रजिस्ट्रार को यह विश्वास हो जाता है कि तो निस्तारक कार्य नहीं कर रहा है या समापन पूरा हो गया है लेकिन निस्तारक ने लगातार 6 महीने से रिपोर्ट नही बनाई है तो रजिस्ट्रार एक सूचना कम्पनी को भेजेगा और एक सरकारी सूचना गजट में प्रकाशित करवायेगा। सूचना में यह लिखा जायेगा कि सूचना देने के 3 माह बाद कम्पनी का नाम रजिस्टर से हटा दिया जायेगा।

6. कम्पनी का नाम हटाना – उपरोक्त वर्णित परिस्थितियों में रजिस्ट्रार के द्वारा जारी की गयी चुनाव की अवधि समाप्त हो जाने के बाद रजिस्ट्रार कम्पनी का नाम रजिस्टर से हटा देगा और इस बात की सूचना सरकारी गजट में प्रकाशित करेगा। सरकारी गजट में सूचना छपने के बाद कम्पनी समाप्त हो जायेगी।

      कम्पनी का प्रबन्ध संचालक या पूर्णकालिक संचालक या कोई दो संचालक इस बात का हलफनामा या क्षतिपूर्ति बन्धपत्र देते है कि कम्पनी की कोई सम्पत्ति या दायित्व नहीं है तथा कम्पनी कोई व्यवसाय नहीं कर रही है। उपर्युक्त हलफनामे के साथ वार्षिक अकेक्षित चिट्ठा भी संलग्न किया जाना चाहिए।

प्रश्न 9. (i) विदेशी कम्पनी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

(ii) एक व्यक्ति वाली कम्पनी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

अथवा

एक व्यक्ति वाली कम्पनी से आप क्या समझते है ?

अथवा

एकल व्यक्ति वाली कम्पनी को विवेचित कीजिए।

(a) स्वय द्वारा या भौतिक रूप से या इलेक्ट्रॉनिक विधि से भारत में व्यवसाय का स्थान

उत्तर- (i) विदेशी कम्पनी का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Foreign Company)  – विदेशी कम्पनी से आशय ऐसी कम्पनी से लगाया जाता है जिसका समामेलन भारत के बाहर किसी अन्य देश में हुआ हो तथा उसके द्वारा व्यापार भारत में किसी स्थान पर चलाया जा रहा हो। विदेशी कम्पनी को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है –

     धारा 2(42) के अनुसार विदेशी कम्पनी का आशय भारत के बाहर निगमित किसी कम्पनी या निगमित निकाय से है जिसका –

(a) स्वय द्वारा या भौतिक रूप से या इलेक्ट्रॉनिक विधि से भारत में व्यवसाय का स्थान हो, एव

(b) किसी अन्य रीति से भारत में कोई व्यवसाय चलाती हो।

(ii) एक व्यक्ति वाली कम्पनी (One Person Company) – एक व्यक्ति वाली कम्पनी एक नई अवधारणा है जिसे कम्पनी अधिनियम 2013 द्वारा बताया गया है। एक व्यक्ति वाली कम्पनी को केवल एक व्यक्ति द्वारा इसके सदस्य के रूप में बनाया जाता है। केवल एक सदस्य होने के कारण ये कम्पनियों कुछ प्राथमिकताओं या छूटो का लाभ उठाती है।

     धारा 2(62) के अनुसार एक व्यक्ति वाली कम्पनी का आशय एक ऐसी कम्पनी से है। जिसमे केवल एक व्यक्ति सदस्य के रूप में होता है।

     विशेषताये (Characteristics) – एक व्यक्ति वाली कम्पनी की विशेषतायें निम्नलिखित है –

1. केवल प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी के रूप में ‘रामामेलन होना,

2. केवल एक सदस्य होना,

3. केवल एक संचालक होना,

4. कम्पनी के नाम के नीचे कोटक में एक व्यक्ति वाली कम्पनी लिखना।

5. संचालक सभा तथा सामान्य सभाओं को बुलाने से छूट होना।

प्रश्न 10. (i) चार्टर्ड कम्पनी से आप क्या समझते हैं ?

(ii) सूत्रधारी कम्पनी से आप क्या समझते हैं ?

अथवा

नियंत्री कम्पनी एवं समनुषंगी कम्पनी को परिभाषित कीजिए। 

उत्तर – (i) चार्टर्ड कम्पनी (Chartered Company)- चार्टर्ड कम्पनियाँ रायल चार्टर द्वारा निगमित की जाती है जैसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी चार्टर्ड कम्पनियों इंग्लैण्ड के राजा द्वारा उसके प्राचीन विशेषाधिकारों के प्रयोग में निर्मित तथा विनियमित की जाती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि चार्टर्ड कम्पनी अपने चार्टर द्वारा विनियमित होती है तथा इन कम्पनियों के अन्दर कम्पनी अधिनियम लागू नहीं होता है।

(ii) सूत्रधारी कम्पनी (Holding Company) – सूत्रधारी कम्पनी को तब तक ठीक से नहीं समझा जा सकता जब तक कि सहायक कम्पनी को ठीक से न समझ लिया जाये। कम्पनी विधि में सूत्रधारी कम्पनी का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता है जब तक कि उसकी एक या अधिक सहायक कम्पनियों न हो।

सहायक कम्पनी (Subsidiary Company)- धारा 2(46) के अनुसार, “एक कम्पनी को किसी अन्य कम्पनी की सहायक कम्पनी निम्नलिखित दशाओं में कहा जाता है –

(a) जबकि अन्य कम्पनी उसके संचालक मण्डल के गठन पर नियंत्रण रखती है, अथवा

(b) जबकि अन्य कम्पनी उसकी समता अंशपूँजी के अंकित मूल्य में से पचास प्रतिशत या पचास प्रतिशत से अधिक मताधिकार को अपने पास रखती है, अथवा

(c) जबकि वह किसी ऐसी कम्पनी की सहायक है जो कि स्वयं उस अन्य कम्पनी की सहायक है।        [धारा 4(1) ]

     सूत्रधारी कम्पनी (Holding Company)- धारा 2(46) के अनुसार एक कम्पनी को दूसरी कम्पनी की सूत्रधारी तभी माना जायेगा. जबकि यह दूसरी कम्पनी उसकी सहायक हो

प्रश्न 11. अवैध संघों के क्या प्रभाव होते है ?

उत्तर- अवैध संघों के प्रभाव (Effects of Illegal Associations) – व्यक्तियों का ऐसा समूह जो कम्पनी अधिनियम 2013 की धारा 464 का उल्लंघन करता है. अवैध संघ कहलाता है। इसे अपंजीयत कम्पनी के रूप में भी जाना जाता है। धारा 464 के अनुसार इसके प्रभाव निम्नलिखित होते हैं-

1. सदस्यों का निजी दायित्व (Personal Liability of Members) – अवैध संघों का प्रत्येक सदस्य सभी दायित्वों के लिए व्यक्तिगत रूप से दायी होता है।

2. सदस्यों पर जुर्माना (Fine on Members) – अवैध संघ का प्रत्येक सदस्य 10,000 रु. तक के जुर्माने से दण्डनीय होगा।

3. कोई पृथक वैधानिक सत्ता या अस्तित्व न होना (No Separate Legal Entity or Existence)- एक अवैध संघ का कोई वैधानिक अस्तित्व नहीं होता। कानून इसे  मान्यता नहीं देता।

4. वाद का अधिकार न होना (No Right to Sue) –  न  तो अवैध संघ का सदस्य इस पर बाद कर सकता है और न ही अवैध संघ द्वारा सदस्य पर वाद किया जा सकता है। सदस्य अथवा अवैध संघ न्यायालय में संघ के बंटवारे या इसके विघटन हेतु वाद चलाने का अधिकार नहीं रखते हैं।

5. कोई कर छूट नहीं (No Income Tax Exemption) – अवैध संघ कर से कोई छूट प्राप्त नहीं कर सकता है।

प्रश्न 12. लोक कम्पनी से आपका क्या आशय है ?

अथवा

सार्वजनिक कम्पनी क्या होती है?

अथवा

सार्वजनिक कम्पनी से आप क्या समझते है

उत्तर-   लोक कम्पनी (Public Company)

लोक कम्पनी का आशय एक ऐसी कम्पनी से है।

(a) जो एक निजी कम्पनी न हो।

(b) जिसकी न्यूनतम दत्त पूँजी 5,00,000 रु अथवा ऐसी उच्च दत्त पूँजी हो, जो कि निर्धारित की जाय।

(c) जो ऐसी निजी कम्पनी हो जो किसी निजी कम्पनी की सहायक कम्पनी न हो। उसे इस अधिनियम के उद्देश्यार्थ वहाँ पर भी लोक कम्पनी माना जायेगा जहाँ ऐसी सहायक कम्पनी अपने अन्तर्नियमों में निजी कम्पनी बनी रहती है।

एक लोक कम्पनी निम्नलिखित प्रकार की हो सकती है-

1. सूचीयत लोक कम्पनी, अथवा

2. असूचीयत लोक कम्पनी

       सूचीयत कम्पनी ऐसी लोक कम्पनी होती है जिसकी कोई प्रतिभूतियों मान्यताप्राप्त स्कन्ध विपणि में सूचीयत हो ।

     असूचीयत लोक कम्पनी वह कम्पनी होती है जिसकी प्रतिभूतियों किसी मान्यताप्राप्त स्कन्ध विपणि में सूचीयत नही होती है।

प्रश्न 13. एक सार्वजनिक कम्पनी के निजी कम्पनी में परिवर्तन से आप क्या समझते है ?

उतर – सार्वजनिक कम्पनी का निजी कम्पनी में परिवर्तन (Conversion of a Public Company into a Private Company)- एक सार्वजनिक कम्पनी को निजी कम्पनी में परिवर्तित करने के लिए उसके समापन की आवश्यकता नहीं है, वरन ऐसा करने के लिए उसे एक विशेष संकल्प पारित करके अपनी अन्तर्नियमावली में वे प्रतिबन्ध लगाने होते है जो अधिनियम की धारा 2(68) के अधीन एक निजी कम्पनी के लिए आवश्यक है। सार्वजनिक कम्पनी को निजी कम्पनी में बदलने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया अपनायी जाती है –

1. संचालक मण्डल की सभा बुलाना (Calling Board of Directors Meeting) – कम्पनी द्वारा संचालक मण्डल की सभा बुलाकर परिवर्तन का प्रस्ताव पारित करना होता है।

2. सामान्य सभा करना (Convening General Meeting) – सामान्य सभा में इस बात के लिए एक विशेष प्रस्ताव पास किया जाता है जिससे कम्पनी में एक निजी कम्पनी वाले सभी लक्षण आ सके।

3. कम्पनी रजिस्ट्रार के पास संकल्प की प्रति भेजना (Sending a Copy of कम्पनी द्वारा Resolution to ROC) – विशेष संकल्प की प्रति को कम्पनी रजिस्ट्रार के पास 30 दिनों के भीतर भेजा जाता है।

4. अखबार में सूचना प्रकाशित करना (Publishing Notice in Newspaper) – आवेदन पत्र प्राप्त होने पर केन्द्रीय सरकार अर्थात कम्पनी रजिस्ट्रार आवश्यक कर सकता है कि कम्पनी द्वारा समाचार पत्र में उचित सूचना प्रकाशित की जायेगी तथा इसकी एक कटिंग रजिस्ट्रार के पास भेजी जायेगी।

5. परिवर्तित अन्तर्नियमों की एक प्रति को कम्पनी रजिस्ट्रार के पास भेजना (Sending a Copy of the Changed Articles of Association to the ROC) – केन्द्रीय सरकार के अनुमोदन के बाद कम्पनी द्वारा परिवर्तित अन्तर्नियमों की एक छपी हुई प्रति को एक माह के भीतर कम्पनी रजिस्ट्रार के पास भेजना होता है। अब रजिस्ट्रार द्वारा संशोधित निगमन प्रमाणपत्र दिया जाता है। अब कम्पनी के नाम के साथ प्राइवेट लिमिटेड शब्द लिखे जाने आवश्यक हो जाते हैं।

प्रश्न 14. नियंत्री एवं समनुषंगी कम्पनी में अन्तर कीजिये।

उत्तर – नियंत्री (Holding) तथा समनुषगी (Subsidiary) कम्पनी में मुख्य अन्तर निम्न प्रकार से है-

1. जब कोई कम्पनी किसी दूसरी कम्पनी पर नियंत्रण रखती है तो उसे नियंत्री कम्पनी कहा जाता है तथा वह कम्पनी जो ऐसी कम्पनी द्वारा नियंत्रित है. समनुषंगी कम्पनी कहलाती है। इस प्रकार नियंत्री कम्पनी का नियंत्रण समनुषंगी कम्पनी पर होता है परन्तु समनुषंगी कम्पनी का नियत्री कम्पनी पर नियंत्रण नहीं होता है।

2. नियंत्री कम्पनी द्वारा अपनी समनुषंगी कम्पनी के निदेशक मण्डल पर नियंत्रण रखा जाता है पर समनुषंगी कम्पनी नियंत्री कम्पनी के निदेशकों पर ऐसा नियंत्रण नहीं रखती।

3. नियत्री कम्पनी समनुषगी कम्पनी के 50% से अधिक शेयर धारण करती है जबकि समनुषगी कम्पनी को यह अधिकार नहीं प्राप्त होता है।

4. नियत्री कम्पनी समनुषगी कम्पनी के निदेशको को नामांकित करती है परन्तु समनुषी कम्पनी के पास यह अधिकार नहीं होता है।

5. समनुषनी कम्पनी के निदेशकों की नियुक्ति नियंत्री कम्पनी की सहमति से ही की जा सकती है। जबकि नियंत्री कम्पनी अपने निदेशको की नियुक्ति स्वयं करती है।

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