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गलत तरीके से चेक बाउंस करने पर एसबीआई पर कार्रवाई: दिल्ली उपभोक्ता आयोग ने दिया मुआवज़ा आदेश

“गलत तरीके से चेक बाउंस करने पर एसबीआई पर कार्रवाई: दिल्ली उपभोक्ता आयोग ने दिया मुआवज़ा आदेश एसबीआई को कार-लोन ईएमआई बाउंस के लिए ₹1.70 लाख का भुगतान करने का निर्देश दिया”

प्रस्तावना

आधुनिक बैंकिंग-परिस्थिति में ग्राहक-सेवा (customer service) का महत्व बहुत बढ़ गया है, विशेष रूप से जब बैंकिंग लेन-देन स्वचालित (ECS/ईएमआई डेबिट) रूप से होते हों। यदि बैंक अपनी प्रक्रिया-नियंत्रण, स्वचालित डेबिट या ईएमआई कटौती प्रणाली में असमर्थ या त्रुटिपूर्ण हो जाए, तो उपभोक्ता को न केवल वित्तीय नुकसान हो सकता है बल्कि मानसिक कष्ट व प्रतिष्ठा-हानि का सामना करना पड़ता है। इस दृष्टि से जब डेली बैंकिंग कार्यप्रवाह में त्रुटि होती है, तो उपभोक्ता संरक्षण-कानून सक्रिय भूमिका में आता है। ताज़ा उदाहरण के रूप में DSCDRC ने SBI को खाता धारक के खाते से कटा जाना था लेकिन गलती से या प्रक्रिया-विफलता के कारण कट न पाया गया ईएमआई (48 महीनों में) को बाउंस मानने और बाउंस-फी वसूलने के लिए “दोषपूर्ण सेवा” माना है। इस निर्णय ने उपभोक्ता-बैंक संबंधों, बैंक-लेन-देन-स्वचालन और उपभोक्ता-नियंत्रण संरचना की दिशा में महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं।


पृष्ठभूमि

मामले का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:

  • याचिकाकर्ता श्रीमती Chhaya Sharma (Karawal Nagar शाखा की ग्राहक) ने बैंक में बचत खाता खुलवा रखा था और ने एक कार-लोन (from HDFC Bank Ltd.) लिया था — कुल राशि लगभग ₹2.60 लाख थी। वह लोन 48 महीनों में चुकाने का था, प्रत्येक ईएमआई लगभग ₹7,054 थी।
  • उसने बैंक को एक ECS (इलेक्ट्रॉनिक क्लियरिंग सर्विस) मण्डेट दिया था कि her SBI खाते से स्वतः हर माह उक्त क़िस्त काटी जाए। खाता में संतोषजनक शेष (sufficient balance) भी था।
  • बावजूद इस व्यवस्था के, बैंक ने 11 महीनों की EMI कटौती न की — तीन क़िस्तें “insufficient funds” दाखिल की गई थीं तथा आठ क़िस्तें “invalid account” रूप से बाउंस दर्ज हुई थीं। इसके अतिरिक्त बैंक ने ₹4,400 के बाउंस-फी वसूल की थीं।
  • याचिकाकर्ता ने बैंक अधिकारियों से शिकायत की लेकिन संतोषजनक समाधान नहीं मिला। इसके बाद उसने जिला उपभोक्ता फोरम में याचिका दायर की — जिसमें बैंक पर “सेवा में कमी (deficiency in service)” व “अनुचित व्यापार व्यवहार (unfair trade practice)” का आरोप लगाया।
  • जिला फोरम ने इस याचिका को खारिज कर दिया था, यह कहते हुए कि मामला ECS-तकनीकी विषय है, बैंक ने किसी दोषी-वृत्ति की स्वीकारोक्ति नहीं की।
  • याचिकाकर्ता ने इसके विरुद्ध प्रथम अपील DSCDRC में दाखिल की, जहाँ DSCDRC ने 9 अक्टूबर 2025 के आदेश में बैंक को ₹1,50,000 (मानसिक कष्ट व प्रतिष्ठा-हानि) + ₹20,000 (विधिक खर्च) = कुल ₹1.70 लाख का भुगतान करने का निर्देश दिया।
  • आदेश में यह भी कहा गया कि यदि बैंक इस राशि का भुगतान देरी से करेगा तो उस पर 7 % प्रति-वर्ष ब्याज लागू होगा।

आयोग-निर्णय के तर्क

DSCDRC ने इस मामले में निम्नलिखित मुख्य तर्क अपनाये:

  • आयोग ने पाया कि बैंक ने ग्राहक द्वारा दिया गया ECS मण्डेट स्वीकार किया था, खाते में पर्याप्त शेष भी था, फिर भी बैंक द्वारा 11 EMI डेबिट अस्वीकृत रहे। यह “स्वचालित (automatic) कटौती प्रक्रिया” है — जिसका बैंक ने मण्डेट प्राप्त करने के बाद समुचित पालन नहीं किया।
  • बैंक द्वारा उठाया गया तर्क था कि “ECS माण्डेट मै गलत खाता संख्या (Account No.) दी गई थी” जिससे ट्रांजैक्शन अस्वीकृत हुआ। लेकिन आयोग ने देखा कि उसी खाते से अन्य क़िस्तें सफलतापूर्वक कट गई थीं — इस तथ्य ने बैंक के इस तर्क को भरोसे-लायक नहीं माना।
  • बैंक ने यह भी तर्क दिया कि यह तकनीकी प्रणाली की त्रुटि थी, और कोई “मानव-दोष” (human error) नहीं था। परंतु आयोग ने कहा कि बैंक की सेवा-प्रक्रिया (ECS मण्डेट पंजीकरण, स्वचालित कटौती) के प्रति जिम्मेदारी है — यदि तकनीकी सिस्टम त्रुटिपूर्ण हो जाए तो वह सेवा-कमी (deficiency) मानी जाएगी।
  • आयोग ने यह स्पष्ट किया कि बैंक द्वारा बाउंस चार्ज वसूलने तथा डेबिट-असफल होने पर न-हों के बावजूद बैंक द्वारा कार्रवाई न करने से ग्राहक को प्रतिष्ठा-हानि, मानसिक कष्ट एवं संभावित वित्तीय समस्या हुई — इन सभी को ध्यान में रखते हुए ₹1.50 लाख का हर्जाना उचित माना गया।
  • इसके अतिरिक्त विधिक खर्च के लिए ₹20,000 का निर्देश भी दिया गया — ताकि ग्राहक को न्याय-प्राप्ति कराने में हुए खर्च का कुछ भार कम हो सके।
  • आदेश में समय-सीमा भी निर्धारित की गई कि बैंक तीन (3) महीनों के अंदर भुगतान करे; यदि देर हो तो 7 % प्रति-वर्ष ब्याज लागू होगा।

कानूनी विश्लेषण

उपभोक्ता-संरक्षण कानून एवं बैंक-सेवा

उपभोक्ता प्रोटेक्शन ऐक्ट-1986 एवं उसके अधीन आने वाली न्यायाधिक संगठनों ने यह स्थापित किया है कि बैंक – उपभोक्ता सेवा प्रदाता के रूप में – “सेवा” का उचित स्तर सुनिश्चित करें। बैंक-सेवा में “उपयुक्तता, विश्वसनीयता, पारदर्शिता” अपेक्षित है। यदि बैंक ने अपने दायित्वों का पालन नहीं किया, तो यह “सेवा में कमी (deficiency)” मानी जा सकती है। ऐसा आयोग ने इस मामले में माना।

स्वचालित कटौती (ECS/ईएमआई) प्रक्रिया में बैंक की जिम्मेदारी

ईएमआई या ECS जैसी सुविधाएं ग्राहक-सुविधा हेतु हैं पर उनका अर्थ यह है कि बैंक के सिस्टम को सुनिश्चित होना चाहिए कि मण्डेट के अनुरूप समय-पर कार्य हो। यदि खाता में पैसे हों और मण्डेट वैध हो — लेकिन बैंक प्रणाली में त्रुटि के कारण कटौती न हो — तो बैंक को “लाईबिलिटी” (liable) माना जा सकता है। इस मामले में यह देखा गया कि खाता में पैसे थे, मण्डेट जमा था, पर बैंक ने कटौती नहीं की।

बाउंस-चार्ज वडसूल व बैंक की जवाबदेही

जब बैंक स्वचालित कटौती प्रणाली में विफल रहता है, और इसके बावजूद बाउंस-फी वसूलता है — तो यह ग्राहक-अनुकूलता के दृष्टि से गंभीर है। बाउंस-फी वसूलना इस आधार पर किया गया कि कटौती न हो पाई, जबकि वास्तव में खाता में टैम था — तो बैंक द्वारा चार्ज वसूलना अनुचित और “सेवा-कमी” का संकेत माना गया।

मुआवजा-निर्धारण (compensation) का आधार

आयोग ने उपभोक्ता द्वारा अनुभव की गयी “मानसिक कष्ट, प्रतिष्ठा-हानि, भरोसा-भंग” को मुआवजे का आधार माना। यहाँ बैंक द्वारा गिरती वित्तीय-प्रक्रिया के कारण ग्राहक को निरंतर बैंक-बाउंस, बैंक-शाखा-दौड़, पत्राचार आदि सहना पड़ा। इसलिए ₹1.50 लाख का मुआवजा उचित माना गया।


सामाजिक-प्रभाव एवं उपभोक्ता-साझेदारी

बैंक-ग्राहक रिश्ते में भरोसा-मजबूती

इस आदेश ने बैंक-क्षेत्र में यह संदेश दिया है कि ग्राहक-सुविधा सिर्फ सेवा-घोषणा नहीं है — बैंक को भरोसे-योग्य, समय-पर, त्रुटि-रहित प्रक्रिया सुनिश्चित करनी होगी। यदि बैंक प्रणाली में विफल रहती है, तो उपभोक्ता-सुरक्षा-संस्था सक्रिय भूमिका लेगी।

उपभोक्ता-सक्रियता एवं न्यायप्राप्ति

यह निर्णय उपभोक्ताओं को यह संकेत देता है कि यदि बैंक-सेवा में त्रुटि हो रही है और शिकायतों का समाधान नहीं हो रहा — तो उनके पास न्याय-लाभ हेतु संस्थागत विकल्प मौजूद है (उदाहरण स्वरूप DSCDRC)। इससे उपभोक्ता-सचेतना बढ़ेगी।

बैंक-प्रशासन में सुधार की प्रेरणा

बैंकें अब अन्याय-दृष्टि से कार्रवाई को गंभीरता से लेंगी — जैसे स्वचालित कटौती व ECS प्रणाली-प्रक्रिया में त्रुटि-स्कैन, मण्डेट-रजिस्ट्रेशन समय-सीमा, बाउंस-चार्ज वसूली मानक आदि। यह बैंक-प्रबंधन को उपभोक्ता-केन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने हेतु प्रेरित करेगा।


चुनौतियाँ एवं आगे-दृष्टि

  • यह सत्य है कि बैंक सिस्टम बहुत विशाल और स्वचालित हैं — इनकी त्रुटियाँ तकनीकी कारणों से होती हैं। परंतु ग्राहक-झेलितन (customer distress) तथा सेवा-कमी के लिए बैंक को जवाबदेह ठहराना होगा।
  • बैंक को उपभोक्ता-शिकायत निवारण प्रणाली (internal grievance redressal) और त्वरित समाधान-यंत्र विकसित करना होगा — ताकि उपभोक्ता-हर्जा (consumer harassment) कम हो।
  • उपभोक्ता-संस्था को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि अशुद्ध आइडेंटिटी, मण्डेट-गलती आदि को स्पष्ट रूप से जाँचे — क्योंकि बैंकें तकनीकी कारण भी प्रस्तुत करती हैं।
  • भविष्य में बैंकिंग-डिजिटलीकरण एवं स्वचालन के युग में, इस तरह के निर्णय बैंक-प्रणाली-विश्वास व उपभोक्ता-मूलकता के लिए महत्वपूर्ण माइलस्टोन होंगे।

निष्कर्ष

इस प्रकार, डीएससीडीआरसी द्वारा SBI को ₹1.70 लाख का भुगतान निर्देश देने वाला यह निर्णय बैंक-उपभोक्ता संबंधों में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। इसने यही पुष्टि की है कि:

  • बैंक स्वचालित कटौती प्रणाली में त्रुटि होने पर “सेवा-कमी” के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं।
  • मण्डेट व खाते की स्थिति सत्य होने पर ग्राहक को कटौती अस्वीकृति व बाउंस-चार्ज से बचाया जा सकता है।
  • उपभोक्ता-न्याय प्रणाली सक्रिय है और ग्राहकों को अधिकार-वितरण सुनिश्चित करती है।
  • बैंक-सिस्टम को सिर्फ तकनीकी रूप से काम करने मात्र नहीं, बल्कि ग्राहक-अनुभव-विहीन त्रुटि-रहित प्रक्रिया सुनिश्चित करनी होगी।