“नग्नता, विज्ञापन और आपत्तिजनकता-सीमा: एम.पी. हाईकोर्ट ने ‘Dainik Bhaskar विज्ञापन’ विवाद में निर्णय सुनाया”
प्रस्तावना
मीडिया-विज्ञापन, सार्वजनिक संसाधन और सामाजिक-मानदंडों का सम्बन्ध वर्तमान में बेहद संवेदनशील विषय बन गया है। जब किसी विज्ञापन में किसी महिला की नग्नता, या नग्न प्रतीत होने वाली तस्वीर प्रकाशित होती है, तो यह न केवल संवेदनशीलता का विषय बनती है बल्कि कानूनी, सामाजिक और नैतिक बहस का केंद्र भी बन जाती है। ऐसे में तथ्यों, सामाजिक मानदंडों और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य के बीच संतुलन बनाना न्यायप्रणाली के समक्ष एक गंभीर चुनौती है। ताज़ा उदाहरण है कि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक पुराने मामले में यह स्पष्ट किया — कि एक समाचारपत्र में प्रकाशित विज्ञापन जिसमें एक महिला की नग्नता जैसी स्थिति थी — वह स्वतः ही अपराध का निर्माण नहीं करती, यदि उक्त विज्ञापन या छवि ऐसा प्रकट न करे कि वह “लालच, कामवासना या नैतिक पतन” को प्रेरित करती हो। इस निर्णय ने विज्ञापन-माध्यमों, मीडिया संस्थानों तथा अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य की सीमाओं के बीच एक नया संकेत माना जा रहा है।
पृष्ठभूमि
मामला वर्ष 2012 का है। समाचारपत्र Dainik Bhaskar के रीवा संस्करण में, एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ था जिसमें 6 जनवरी 2012 को रिलीज हुई फ़िल्म Players (निर्देशक Abbas‑Mustan) का प्रमोशन किया गया था। उस विज्ञापन में एक महिला मॉडल/अभिनेत्री का लगभग नग्न चित्र था — हालांकि उसके महत्वपूर्ण अंग धुंधले (blurred) थे। उस विज्ञापन के शीर्षक में ‘Get Ready to Sizzle’ लिखा था।
वर्ष 2012 के कुछ समय बाद, एक अधिवक्ता Nagendra Singh Gaharwar ने निजी शिकायत दाखिल की कि इस विज्ञापन ने समाचारपत्र में प्रकाशित होकर अपराध उत्पन्न किया है — क्योंकि इसमें ऐसी छवि थी जो “लालसा या कामवासना” को प्रेरित कर सकती थी। उसने दावा किया कि यह विज्ञापन निम्नलिखित धारा अंतर्गत अपराध है:
- Indian Penal Code (IPC) की धारा 292 (obscene publications) और धारा 293 (obscene objects to young persons)
- Indecent Representation of Women (Prohibition) Act, 1986 की धारा 3, 4 एवं 6।
प्राथमिकी अदालत ने 06 नवम्बर 2012 को याचिका को स्वीकार नहीं किया। इसके बाद 21 फरवरी 2014 को रिविजनल अदालत ने उस निर्णय को बनाए रखा। अंततः वयक्ति ने उच्च न्यायालय की सहायता ली और वर्ष 2025 में न्यायालय ने 29 अक्टूबर 2025 को आदेश सुनाया।
मुद्दा
मुख्य कानूनी प्रश्न यह था — क्या उक्त विज्ञापन में प्रकाशित महिला की छवि-स्थिति ऐसी थी कि वह सामान्य पाठक-समूह (average person) में कामवासना, लालसा या नैतिक पतन उत्पन्न करने की क्षमता रखती थी — अर्थात् क्या यह ‘अश्लील’ (obscene) थी, या ‘अश्लीलता’ के दायरे में आती थी। इस संदर्भ में निम्न बातें जाँची गईं:
- क्या विज्ञापन में ऐसा तत्व था जो “लालस्यवर्धन” (prurient interest) को प्रेरित करता हो?
- क्या छवि या विज्ञापन का उद्देश्य व-प्रभाव (tendency) था कि लोगों के मन को भ्रष्ट या अपदस्थ करे?
- क्या छवि में महत्वपूर्ण अंग (breasts/genitals) स्पष्ट दिखाई दे रहे थे या नहीं — अर्थात् दृश्य-स्थिति नग्नता का स्तर क्या था?
- क्या विज्ञापन में किसी कलाकार-मॉडल की नग्नता-प्रदर्शन का उद्देश्य सिर्फ कामुकता को प्रोत्साहित करना था या विज्ञापन-प्रमोशन/वाणिज्यिक उद्देश्य अधिक था?
- क्या न सिर्फ छवि बल्कि विज्ञापन का समग्र प्रसंग (context) और उद्देश्य सामाजिक-मानदंडों (community standards) के अनुरूप था?
न्यायालय का विश्लेषण एवं निर्णय
न्यायमूर्ति Achal Kumar Paliwal की पीठ ने निम्न-प्रमुख तर्क दिए:
- उन्होंने ध्यान दिलाया कि IPC की धारा 292 में ‘obscene’ की परिभाषा नहीं है, पर सुप्रीम-कोर्ट ने यह माना है कि सिर्फ नग्नता (nudity) स्वयं में अश्लीलता नहीं बनाती — बल्कि यह देखा जाता है कि “क्या उस सामग्री का प्रभाव कामवासना को प्रेरित करना है?”।
- न्यायालय ने कहा कि विज्ञापन में महिला की छवि में तो वस्त्र नहीं दिखाई दिए, लेकिन उसकी स्तन और जननांगों (breasts & genitals) “पर्याप्त रूप से धुंधले (blurred)” थे। “Some words are also written in bold letters on genitals part of the lady.”
- इस प्रकार न्यायालय ने यह पाया कि यहाँ “लालसा” उत्पन्न करने का उद्देश्य नहीं दिख रहा है — अर्थात् वहाँ वह स्तर नहीं था जहाँ सामान्य-मानक व्यक्ति (average person) यह समझे कि यह दृश्य कामवासना को उत्प्रेरित करेगा।
- उन्होंने आगे कहा कि दोनों निचली अदालत-प्रशासन ने इस विषय में पर्याप्त विवेचना की थी, आवश्यक प्रमाण-साक्ष्य देखे थे और कोई त्रुटि नहीं पाई गई। इसलिए उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करने का कारण नहीं मिला।
- निष्कर्षतः उन्होंने कहा: “breasts as well as genitals part of the lady are not visible at all… aforesaid photograph … has no tendency to deprave or corrupt the minds of people in whose hands the newspaper would fall.”
- इसलिए, इस मामले में IPC की धारा 292 व 293 तथा I.R.W. Act की धारा 3,4,6 तहत कोई अपराध साबित नहीं हुआ। याचिका खारिज की गई।
विधिक-प्रवर्तनात्मक सिद्धांत
नग्नता और अश्लीलता का विभाजन
भारतीय न्यायप्रणाली में यह सिद्ध है कि नग्नता (nudity) और अश्लीलता (obscenity) समान नहीं हैं। सुप्रीम-कोर्ट के निर्णयों में बताया गया है कि नग्नता तभी अपराध बन सकती है जब वह कामवासना (lust) को प्रेरित करे, या “deprave and corrupt” करने की प्रवृत्ति रखती हो; और उसे समग्र-संदर्भ (context) में परखा जाना चाहिए।
समग्र-दृष्टिकोण (overall view) एवं वर्तमान सामाजिक-मानक (community standards)
उच्च न्यायालय ने यह पुनः पुष्टि की कि विज्ञापन या छवि को सिर्फ एक हिस्से से देखकर निर्णय नहीं होना चाहिए — उसे उस पूरे काम-प्रसंग, उद्देश्य, माध्यम, लक्षित-प्रेक्षक, समय-प्रसङ्ग आदि से देखना होगा।
प्रमाण-दायित्व (burden of proof)
जहाँ याचिकाकर्ता यह दावा करता है कि छवि अश्लील है, उसे यह साबित करना होगा कि विज्ञापन के प्रकाशित होने से लालसा उत्पन्न होगी या मानसिक भ्रष्टि होगी — और यह केवल सामान्य-शक (mere suspicion) पर नहीं बल्कि पर्याप्त प्रमाण-दृष्टि से साबित हो। इस मामले में न्यायालय ने पाया कि इस प्रमाण-दृष्टि का अभाव था।
अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य (freedom of speech) बनाम सार्वजनिक-शालीनता (public decency)
निर्णय ने याद दिलाया कि भारत के संविधान के तहत अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य है, लेकिन यह अनंत नहीं — जब सार्वजनिक-शालीनता, सामाजिक-मान्यता, नैतिकता आदि संविदानुसार reasonable restriction के अंतर्गत आते हैं। परंतु इन सीमाओं को लागू करते समय सावधानी बरतनी चाहिए कि स्व-सेंसिटिव समूह की असुविधा को ही ‘अश्लीलता’ का आधार न बनाया जाए।
सामाजिक-न्याय और मीडिया-प्रश्न
मीडिया-उत्तरदायित्व
यह मामला मीडिया-उद्योग को एक संकेत देता है कि विज्ञापन देते समय, छवि-विज्ञापन सामग्री में नैतिकता, सामाजिक-मानदंड और संवेदनशीलता को ध्यान में रखना आवश्यक है। यहाँ छवि धुंधली थी, स्पष्ट नग्नता नहीं थी — इसने न्यायालय को– उस विज्ञापन को तुरंत निषेध करने का कारण नहीं दिया।
नागरिक जागरूकता
यह निर्णय नागरिकों को यह समझने में मदद करता है कि सिर्फ नग्नता नहीं बल्कि उसकी प्रकट रूप से कामवासनाकारी प्रभाव न्याय-देखरेख का आधार बनता है। यदि नागरिक ऐसा विज्ञापन देखते हैं जिसे वे आपत्तिजनक मानते हैं, तो उन्हें यह जानना होगा कि कानूनी रूप से उसमें क्या-क्या मानदंड लागू होते हैं।
सामाजिक-मानदंडों का बदलता स्वरूप
न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि सामाजिक-मानदंड समय के साथ बदलते हैं — जो पूर्व में आपत्तिजनक था, आज उस पर दृष्टिकोण बदल सकता है। इसलिए “average person applying contemporary community standards” का पैमाना लिया गया।
विश्लेषणात्मक समीक्षा
यह निर्णय कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है:
- प्रिविलेज-उद्योग की सीमा: फिल्म-प्रमोशन विज्ञापनों में अक्सर आकर्षक-इमेजरी होती है। इस निर्णय से यह स्पष्ट हुआ कि ऐसा होना अपने-आप आपत्तिजनक नहीं है — यदि छवि में ऐसा तत्व न हो जो लालसा को प्रेरित करे।
- लॉन्ग-गू खाँचा (long-pending) मामला: याचिका वर्ष 2012 की थी; अदालत ने वर्ष 2025 में सुनवाई की। यह दर्शाता है कि ऐसे मामलों में समय-लंबितता होती है और प्रमाण-साक्ष्य स्मृति-क्षित हो सकती है।
- लापरवाही नहीं: यदि समाचारपत्र या विज्ञापनदाता ने धुंधली छवि प्रकाशित की थी, यह एक सुरक्षित-रूपांतर (blurred safety) माना गया। हालांकि यह पूर्ण-सुरक्षा नहीं है — यदि भविष्य में ऐसे विज्ञापन स्पष्ट नग्नता दिखाएँगे या उद्देश्य कामवासना प्रेरित करने का होगा, परिणाम अलग हो सकते थे।
- प्रयुक्त-परीक्षा (test) स्पष्ट: उत्तर-कोर्ट ने सुस्पष्ट रूप से बताया कि नग्नता-स्वतः अश्लीलता नहीं है; यह “tendency to deprave” व “excite sexual passion” जैसा परीक्षण से जाँची जाएगी।
संभावित चुनौतियाँ एवं आगे-के प्रश्न
- यदि छवि धुंधली नहीं होती या यदि मॉडल का पोज़ कामुकता-प्रेरक होता, परिणाम क्या होते? न्यायालय ने यह रेखांकित किया है कि तात्कालिक-रूप से इसे देखना होगा।
- क्या विज्ञापन-प्रसार-माध्यमों (न्यूज़पेपर, होर्डिंग, डिजिटल) में छवि-प्रस्तुति का प्रभाव अलग-हो सकता है? वर्तमान में डिजिटल-माध्यम में तेजी से परिवर्तन हो रहा है, जिससे इसमें संवेदनशीलता-मापदंडों पर पुनर्विचार आवश्यक हो सकता है।
- मीडिया-उद्योग और विज्ञापन-एजेंसियों के लिए यह चुनौती है कि “कॉमर्शियल उद्देश्य” और “सामाजिक जिम्मेदारी” के बीच संतुलन बनाएँ।
- न्याय-प्राप्ति-प्रक्रिया में लापरवाही कम होनी चाहिए ताकि ऐसे मामलों का त्वरित निष्पादन हो सके — वर्षों-साल इंतजार उचित नहीं है।
निष्कर्ष
इस प्रकार, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा सुनाये गए निर्णय ने यह संदेश दिया है कि विज्ञापन-सामग्री में नग्नता का अस्तित्व अपने-आप में अश्लीलता नहीं बनाती है — उसे प्रकाशन-उद्देश्य, प्रस्तुति-शैली, छवि-स्थिति, सामाजिक-मानदंड और अनुमानित-प्रभाव के प्रकाश में देखा जाना होगा। Dainik Bhaskar मामले में यह पाया गया कि छवि में उपलब्ध अंग धुंधले थे, विज्ञापन–प्रेरणा स्पष्ट नहीं थी कि कामवासना को बढ़ावा दिया गया हो, तथा याचिकाकर्ता ने पर्याप्त प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया। इसलिए, अदालत ने निचली अदालतों के निर्णय को बनाए रखा और याचिका खारिज कर दी।