प्रश्न 1. पर्यावरण के अर्थ एवं परिभाषा का विश्लेषण कीजिए। Analyse meaning and definition of environment.
अथवा
पर्यावरण को परिभाषित कीजिये। Define Environment.
उत्तर – पर्यावरण का आशय (Meaning of Environment) – धरती पर व्याप्त पर्यावरण प्रकृति का सर्वोत्तम वरदान है। यह सारी पृथ्वी का वह पक्ष है | जिसने पृथ्वी को जीवित जगत् का गौरव प्रदान किया है। ‘पर्यावरण’ का अंग्रेजी समानार्थी शब्द ‘Environment’ है जो फ्रेंच भाषा के Environer’ शब्द से बना है जिसका आशय आसपास के आवरण से है। हिन्दी भाषा का पर्यावरण शब्द दो शब्दों की संधि से निर्मित है-परि आवरण।
पर्यावरण परिस्थितियों एवं पदार्थों का समुच्चय है जो इस भू-भाग के जीवधारियों के पालन पोषण में सहायक होता है। इस प्रकार अंतरिक्ष, आकाश, सूर्य, चन्द्र, दिन एवं रात, वायु, जल, वनस्पतियाँ, पहाड़, ऋतुयें आदि पर्यावरण की समुच्चय हैं। संभवत: इसी कारण धर्मग्रंथियों में भी सृष्टि संचालन | एवं जीवन संभाव्यता को दृष्टि में रखकर इन सभी तत्वों का वर्णन किया गया है। पर्यावरण में सभी भौतिक तत्व एवं जीव सम्मिलित हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसकी जीवन क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। वातावरण तो केवल वायुमण्डल से संबंधित तत्वों का समूह होने के कारण पर्यावरण का एक अंग है। पर्यावरण में अनेक जैविक एवं अजैविक कारक होते हैं जिनका परस्पर गहरा सम्बन्ध होता है। सभी प्राणियों को जीवन के लिए अजीवों की एक उचित मात्रा की आवश्यकता होती है। जब तक प्रकृति में जैविक एवं अजैविक घटकों की उचित मात्रा विद्यमान रहती है तब तक प्राकृतिक सन्तुलन बना रहता है परन्तु वर्तमान में विकास की अंधी आँधी के कारण पर्यावरण का संतुलन बिगड़ गया है और वह प्रदूषित हो गया है।
इस प्रकार सामान्य अर्थ में पर्यावरण परिवेश या उन स्थितियों का द्योतक है जिनमें व्यक्ति या वस्तु अस्तित्व में रहते हैं और अपने स्वरूप का विकास करते हैं। पर्यावरण में भौतिक पर्यावरण तथा जैव पर्यावरण सम्मिलित हैं। भौतिक एवं जैव पर्यावरण एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। भौतिक पर्यावरण में कोई परिवर्तन जैव पर्यावरण में भी परिवर्तन उत्पन्न कर देता है।
पर्यावरण की परिभाषाएँ
(Definitions of Environment)
पर्यावरण को परिभाषित करना एक जटिल कार्य है। ‘पर्यावरण’ दो शब्दों परि आवरण से मिलकर बना है। ‘परि’ का अर्थ चारों तरफ तथा ‘आवरण’ का अर्थ है घेरा। इस प्रकार पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ हमारे चारों तरफ का घेरा है। इस तरह से यह कहा जा सकता है कि हमारे चारों तरफ प्रकृति तथा मानव निर्मित जीवित एवं अजीवित वस्तुयें हैं, उन्हीं के पारस्परिक मेल पर्यावरण बनता है। पर्यावरण एक अत्यंत व्यापक अर्थ एवं प्रभाव वाला शब्द है, अतः इसको सही-सही परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है। फिर पर्यावरणविदों ने इसको निम्न प्रकार से परिभाषित करने का प्रयास किया है
ए. गाउडी ने अपनी पुस्तक The Nature of Environment में पृथ्वी के भौतिक घटकों को ही पर्यावरण का प्रतिनिधि माना है तथा उनके अनुसार पर्यावरण को प्रभावित करने में मनुष्य एक महत्वपूर्ण कारक है। परन्तु अन्य लोगों ने पर्यावरण को और अधिक व्यापक रूप में परिभाषित किया है।
संयुक्त राज्य पर्यावरण गुणवत्ता परिषद् के अनुसार, “मनुष्य की कुल पर्यावरण संबंधी प्रणाली में न केवल जैव मण्डल सम्मिलित है बल्कि उसके प्राकृतिक तथा मानव निर्मित परिवेश के साथ उसकी अन्तर्क्रियायें भी सम्मिलित हैं।”
अपनी पुस्तक “Practical Plant Ecology” में ए. जी. टांसले ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहा है कि “यह प्रभावकारी दशाओं का योग है जिसमें जीव रहते हैं।”
इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में पर्यावरण को “जीव, भौतिक तथा अजैविक दोनों पर कार्य करते हुए बाह्य प्रभाव का सम्पूर्ण क्षेत्र, अर्थात् अन्य जीव, व्यक्ति की प्रतिवेशी, प्रकृति का बल” के रूप में परिभाषित किया गया है।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 2 (क) में पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि – “पर्यावरण में जल, वायु तथा भूमि और अन्तर्सम्बन्ध सम्मिलित हैं जो जलवायु तथा भूमि तथा मानव जीवों, अन्य जीवित प्राणियों, पादपों, सूक्ष्म जीवों तथा संपत्ति के बीच विद्यमान हैं।
हर्सकोविदुस के अनुसार, “पर्यावरण सम्पूर्ण बाह्य परिस्थितियों तथा उसके जीवधारियों पर पड़ने वाला प्रभाव है जो जैव जगत् के विकास का नियामक है।” अर्थात् पृथ्वी एक जीवित कोशिका है और इसके चारों ओर फैला हुआ पर्यावरण उसका रक्षा कवच है।
इस प्रकार, संक्षेप में पर्यावरण विश्व का समग्र दृष्टिकोण है जिसे हम सामान्य रूप से इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं कि “पर्यावरण एक अविभाज्य समष्टि है। यह एक अत्यंत जटिल प्रतिभास है जिसे पूर्णत: समझने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र, पारिस्थितिकी तथा जैव मण्डल के बारे में गहन ज्ञान आवश्यक है।
प्रश्न 2. पर्यावरण के स्वरूप की विवेचना कीजिए।
Discribe nature of environment.
अथवा
पर्यावरण की प्रकृति की व्याख्या कीजिए। Explain nature of environment.
अथवा
पर्यावरण के संरचनात्मक स्वरूप को स्पष्ट कीजिए। Clarify structural nature of environment.
उत्तर- पर्यावरण हमारे लिए प्रकृति की अमूल्य देन है। इसके मुख्यतः दो क्षेत्र हैं –
(1) जैवमण्डल (Biosphere) तथा
(2) पारिस्थितिक मण्डल (Ecosphere)
(1) जैवमण्डल (Biosphere) जैवमण्डल पृथ्वी के चारों तरफ फैला हुआ एक आवरण या परत है जहाँ पर शाश्वत रूप से जीवन संभव है और जहाँ पर सभी जीवधारी प्राणी या पौधे पाये जाते हैं। पर्यावरण के इस भाग में पृथ्वी से संबंधित समुद्र, महाद्वीपों की ऊपरी सतह और सम्बद्ध वायुमण्डल तथा क्षोभमण्डल (Tropospere) सम्मिलित हैं। परन्तु ध्रुवीय बर्फीली चोटियाँ तथा हिमरेखा के ऊपर का उच्च ढलान (Slope) इसमें सम्मिलित नहीं है।
पर्यावरण सदैव गतिशील रहता है। यह समय तथा स्थान के साथ परिवर्तनशील है इसी कारण जीवों की जीवन क्रियायें सुचारूपूर्वक संचालित होती हैं तथा उनका जीवनचक्र पूर्ण होता है।
पर्यावरण के तत्व (Elements of Environment) – पर्यावरण एक जटिल समष्टि है। इसके तत्वों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –
(क) अजैव तत्व वर्ग, (Abiotic or physical components), तथा
(ख) जैव तत्व वर्ग, (Biotic components)
(क) अजैव या भौतिक तत्व वर्ग (Abiotic or Physical Components) – इस वर्ग में आने वाले भौतिक तत्व निम्न हैं –
(अ) जलवायविक तत्व (Climatic Factors)
(ब) स्थलजात तत्व ( Tropographic Factors)
(स) जल स्रोत (Water Bodies)
(द) मृदा (Soil)
(य) खनिज एवं चट्टानें (Minerals and Rocks)
(र) भौगोलिक स्थिति (Geographical Locations)
(ख) जैव तत्व वर्ग (Biotic Components)
(क) अजैव या भौतिक तत्व (Abiotic or Physical Elements) अजैव या भौतिक तत्व में आने वाले पर्यावरणीय तत्व निम्न हैं –
(अ) जलवायविक तत्व (Climatic Factors) इस वर्ग में सूर्य, प्रकाश, ऊर्जा, तापमान, हवा, वर्षा, आर्द्रता, वायुमण्डलीय गैसें आदि सम्मिलित हैं।
(ब) स्थलजात तत्व ( Tropographic Elements) इस वर्ग में मुख्यत: उच्चावच, ढाल (Slope), पर्वत, दिशायें आदि आती हैं।
(स) जल स्रोत (Water Bodies) इस वर्ग में सागर, महासागर झीलें, भूमिगत जल आदि सम्मिलित हैं।
(द) मृदा (Soil) इस वर्ग में मृदारूप, मृदा जल, मृदा वायु आदि सम्मिलित है।
(य) खनिज एवं चट्टानें (Minerals and Rocks) इस वर्ग के तत्वों में धात्विक (Metalic), अधात्विक खनिज, ऊर्जा खनिज तथा चट्टानें सम्मिलित हैं।
(र) भौगोलिक स्थिति (Geographical Factors) भौगोलिक तत्वों में तटीय (Coastal) मध्य प्रदेशीय तथा पर्वतीय भाग आदि जैसे तत्व सम्मिलित हैं जो पर्यावरण पर प्रकाश डालते हैं।
(ख) जैव वर्गीय तत्व (Biotic Components) इस वर्ग के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु, मानव तथा सूक्ष्म जीवों का वर्ग आता है।
प्रश्न 3. पर्यावरण के विभिन्न प्रकारों को वर्गीकृत कीजिए।
Classify various types of environment.
उत्तर- यद्यपि पर्यावरण कई प्रकार का होता है, परन्तु यहाँ उसके मुख्य प्रकारों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया जा रहा है
(1) भौतिक पर्यावरण (Physical Environment)
(2) जैविक अथवा कार्बनिक पर्यावरण (Biological or Organic Environment)
(3) सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment)
(1) भौतिक वातावरण (Physical Environment) भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत सभी अजैविक तत्व आते हैं। ये तत्व निम्न प्रकार के होते हैं, यथा
(i) सृष्टि संबंधी (Cosmic )
(11) भौतिक भौगोलिक (Physio-geographic)
(iii) मिट्टी (Soil)
(iv) जलवायु (Climatic Elements )
(v) अकार्बनिक (Inorganic)
(vi) प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources)
(vii) प्राकृतिक यांत्रिक प्रक्रियायें (Natural Mechanical Devices)
(i) सृष्टि संबंधी (Cosmic) सृष्टि संबंधी पर्यावरण के अन्तर्गत सूर्य का ताप, विद्युत संबंधी अवस्थायें, उल्कापात, चन्द्रमा का ज्वारभाटा पर प्रभाव आदि को सम्मिलित किया जा सकता है।
(ii) भौतिक- भौगोलिक पर्यावरण (Physio-geographic Environment) इसके अन्तर्गत सभी भौगोलिक संरचनाओं को सम्मिलित किया जा सकता है; जैसे- पर्वत, समुद्र, नदी, घाटियाँ, दरें इत्यादि ।
(iii) मिट्टी (Soil) – इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की मिट्टियाँ सम्मिलित हैं।
(iv) जलवायु (Climate) – जलवायु संबंधी पर्यावरण में मुख्यतः तापमान का संबंध,आर्द्रता, ऋतु चक्र आदि को शामिल किया जाता है।
(v) अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Matter) इसमें खनिज पदार्थों, धातुयें तथा पृथ्वी के रासायनिक आदि गुणों को सम्मिलित किया गया है।
(vi) प्राकृतिक साधन (Natural Sources) प्राकृतिक साधनों के अन्तर्गत जल प्रपात, हवायें, ज्वार-भाटा (Tides), सूर्य की किरणों आदि को रखा जा सकता है।
(vii) प्राकृतिक यांत्रिक प्रक्रियाओं में पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति (Gravitational force of the earth) को रखा गया है-
(2) जैविक अथवा कार्बनिक पर्यावरण (Biological or Organic Environment) जैविक वर्ग में निम्न को रखा गया है –
(i) सूक्ष्म अवयव; जैसे- कीटाणु एवं वैक्टोरिया।
(ii) परोपजीवी कीटाणु जो फसलों को प्रभावित करने वाले कीटाणु होते हैं।
(iii) पेड़-पौधे-इसमें विभिन्न प्रकार के पेड़ों तथा पौधों को रखा गया है।
(iv) भ्रमणशील पशुओं में विभिन्न प्रकार के जंगली जानवरों को रखा गया है।
(v) हानिप्रद पशु एवं जीवों में विभिन्न प्रकार के पशुओं एवं जीवों को रखा गया है जो पर्यावरणीय दृष्टि से हानिकरक होते हैं।
(vi) वृक्षों तथा पशुओं की परिस्थिति जो प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को प्रभावित करती है।
(vii) पशुओं के जन्म के पूर्व का वातावरण।
(viii) प्राकृतिक जैविकीय प्रक्रियायें जिसके अन्तर्गत प्रजनन, विकास, रक्त संचरण, मल निर्गमन आदि की प्रक्रियायें आती हैं।
(3) सांस्कृतिक पर्यावरण (Cultural Environment) सांस्कृतिक पर्यावरण के अन्तर्गत बस्तियाँ, आर्थिक गतिविधियाँ, धर्म, रहन-सहन की दशायें, पुनरुत्पादन एवं समायोजन आदि जैसी गतिविधियाँ आती हैं।
सांस्कृतिक पर्यावरण में पारिस्थितिक तंत्र, पारिस्थितिकी, जैव मण्डल तथा सीमा कारक एवं इनको गतिविधियाँ आती हैं।
प्रश्न 4. पर्यावरण परिवर्तक किसे कहते हैं? विस्तृत वर्णन कीजिए।
What is meant by environment variable in detail.
अथवा
‘पर्यावरण’ के परिवर्तक से आप क्या समझते हैं ?
What do you mean by variables of Environment?
उत्तर – पर्यावरण परिवर्तक (Environment Variable) पर्यावरण के क्षेत्र में पर्यावरणीय परिवर्तक एक नई संकल्पना है। इसके द्वारा सभी प्रकार के कार्यों, महोत्सव, वसूली समारोहों आदि क्षेत्रों में दृश्यों के द्वारा पहुँचाया जा सकता है। यह विशेष प्रकार का होता है तथा विशेष रूप से चलाने के दौरान ही परोक्षण विधि के लिये उपलब्ध रहता है। पर्यावरण परिवर्तक निम्न प्रकार के हो सकते –
(1) निर्मित पर्यावरण चर यह पर्यावरण के मानकों के परीक्षण के नाम, कार्य, कार्य का नाम परीक्षण पथ, स्थानीय होस्ट का नाम, ऑपरेटिंग सिस्टम के प्रकार आदि की जानकारी प्रदान कर सकता है परन्तु इसकी भी एक सीमा होती है और यह अपने कथित सीमा के अन्दर ही रहकर कार्य करता है।
(2) उपयोगकर्त्ता निर्धारित चर यह बटन पैरामीटर तथा नाम और मूल्य के प्रवेश के लिये क्लिक किया जाता है। उपयोगकर्त्ता बाहरी निर्धारित चर एक एक्स एम एल के रूप में एक बाहरी फाइल में संग्रह किया जा सकता है तथा यह गतिशील दशा में लोड किया जा सकता है।
सम्पूर्ण जीवों के लिये पर्यावरण प्रकृति का एक अमूल्य वरदान है। पर्यावरण सदैव गतिशील रहता है। यह समय तथा स्थान के साथ गतिशील रहता है. इसी कारण जीवों के जीवन को क्रियाएँ सुचारु रूप से संचालित होती है तथा उनका जीवन चक्र पूरा होता है। यह मुख्य रूप से दो रूपों में बंटा है पहला जैव मण्डल तथा दूसरा पारिस्थितिक मण्डल।
जैव मण्डल – जैव मण्डल पृथ्वी के चारों तरफ फैला हुआ एक आवरण या परत है जहाँ पर शाश्वत रूप से जीवन संभव है तथा सभी प्रकार के जीव एवं पेड़-पौधे पाये जाते हैं। पर्यावरण के इस भाग में पृथ्वी से सम्बन्धित महाद्वीपीय ऊपरी सतह, समुद्र तथा सम्बन्धित वायुमण्डल एवं क्षोभमण्डल सम्मिलित हैं।
पारिस्थितिक मण्डल यह एक जटिल पारिस्थितिक समुदाय है जो पादप जन्तु तथा सूक्ष्म जीवों, उनके समुदायों तथा अजैव पर्यावरण जोकि एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं, आदि की क्रियाशील इकाई का जैविक समुदाय तथा भौतिक पर्यावरण है जिसमें स्थल, जल तथा वायु जैसे तत्व सम्मिलित हैं तथा एक साथ सम्मिलित होकर पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करते हैं।
प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में भौतिक प्रक्रम तथा प्रक्रियायें जीवों के लिये विभिन्न प्रकार की अनुकूल आवास क्षेत्रों का निर्माण करती है जबकि जैविक समुदाय मुख्य रूप से मनुष्य भौतिक पर्यावरण में परिवर्तन कर रहे हैं। वास्तव में पृथ्वी पर जीवों की उत्पत्ति के समय से ही विभिन्न प्रकार के जीव भौतिक पर्यावरण के विभिन्न संघटकों में परिवर्तन एवं परिमार्जन करते जा रहे हैं परन्तु सन् 1860 में विश्व स्तर पर औद्योगीकरण की शुरुआत से मनुष्य आधुनिक प्रौद्योगिकी से सम्पन्न होकर सर्वाधिक शक्तिशाली पर्यावरणीय प्रक्रम के रूप में उभर कर सामने आया है।
वर्तमान स्थिति यह है कि अब वह भौतिक पर्यावरण के बड़े पैमाने पर परिवर्तित करने में समर्थ हो गया है। वास्तव में मनुष्य सभी जीवों में सर्वाधिक बुद्धिमान तथा शक्तिशाली जीव है तथा वह पर्यावरण को उस सीमा तक परिवर्तित करने में सामर्थ्यवान हो गया है जो न केवल जीवों के लिये घातक होगा वरन उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। वर्तमान में जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि होने के कारण प्राकृतिक संसाधनों का जनसंख्या की आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों का लोलुपतापूर्ण धुंआधार विदोहन हो रहा है। इसका परिणाम यह है कि भौतिक पर्यावरण के कुछ संघटकों में इतना अधिक परिवर्तन हो गया है कि उसकी क्षतिपूर्ति भौतिक पर्यावरण के अंतः निर्मित होम्योस्टेटिक क्रियाविधि द्वारा सम्भव नहीं है। परिणामस्वरूप परिवर्तित पर्यावरणीय दशाओं का जीवमण्डल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पर्यावरण परिवर्तक से जीवन की गुणवत्ता में ह्रास होने लगता है। परिणामस्वरूप जीवन का तत्व बदलने लगता है एवं गतिरोध के फलस्वरूप विकास की •प्रक्रिया विपरीत दिशा में मुड़कर अवनति का मार्ग प्रशस्त करने लगती है। पर्यावरण के जैविक एवं अजैविक संघटकों का समुच्चय जब निवास्य की सुरक्षा में विफल होने लगता है तब जीवधारियों का जीवन संकटपूर्ण हो जाता है।
प्रश्न 5. पर्यावरण प्रदूषण के कारणों की व्याख्या कीजिए। Explain causes of environmental pollution.
अथवा
“पर्यावरण प्रदूषण मानवता और प्रकृति के विरुद्ध अपकृत्य है। ” इस कथन पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
“Environmental Pollution is a tort against humanity and nature.” Write an essay on the above statement.
अथवा
पर्यावरण संरक्षण की समस्याओं की व्याख्या कीजिये तथा इसका समाधान भी बताइये।
Explain the problems of Environmental Protection and give the solution regarding the problems.
अथवा
‘पर्यावरण प्रदूषण’ मानवता और प्रकृति के विरुद्ध एक अपकृत्य है। टिप्पणी कीजिए।
‘Environmental Pollution’ is a tort against humanity and nature. Comment.
उत्तर – पर्यावरण प्रदूषण अथवा पर्यावरण अवनयन के दो मुख्य कारण हैं –
(1) प्राकृतिक कारण (Natural Causes) पर्यावरण प्रदूषण के प्राकृतिक कारण अनेक हैं। इनमें सूखा, बाढ़, भूकम्प, आँधी, तूफान, ज्वालामुखी विस्फोट के कारण निकलने वाला लावा, जल प्रवाह, महामारी आदि जैसे कारण पर्यावरण को अत्यधिक क्षति पहुँचाते हैं। ये कारण चूँकि प्रकृति के अभिकर्ताओं के द्वारा उत्पन्न होते हैं और इन पर मानव का कोई भी नियंत्रण नहीं होता, अत: इन्हें प्राकृतिक कारणों के रूप में जाना जाता है।
(2) मानव निर्मित कारण (Human made Causes) – मानव निर्मित कारण ही पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य कारण हैं। ये मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं और पर्यावरण संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं :-
(अ) जनसंख्या वृद्धि (Population Growth)- अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि (जनसंख्या विस्फोट) मुख्य परिवर्तन है जो पर्यावरण को गंभीरता से प्रभावित करता है। जनसंख्या वृद्धि का जब कुछ सामाजिक संरचनाओं के साथ, यथा-प्रौद्योगिकी तथा उपभोग के प्रतिमान, मिलकर पर्यावरणीय प्रदूषण या अवनयन की दशा को और भी गंभीर ढंग से प्रभावित करती है। 20वीं सदी तथा 21व सदी के आरम्भिक वर्षों में जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधि कि दबाव पड़ा है जिसके कारण निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का अनाप-शनाप विदोहन किया जा रहा है। आधुनिक प्रौद्योगिकी की प्रगति तथा मानव के आर्थिक क्रिया कलापों में अतिशय वृद्धि के कारण इस विदोहन की मात्रा बहुत बढ़ गयी है जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण के कुछ घटकों में इतना अधिक परिवर्तन हो गया है कि उसकी क्षतिपूर्ति पर्यावरण से अन्तःनिर्मित समस्थैतिक क्रियाविधि द्वारा संभव नहीं हो पा रही है और पर्यावरण की समस्या दिन-प्रतिदिन और खराब होती जा रही है।
पृथ्वी तथा उसके प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं परन्तु जनसंख्या असीमित होती जा रही है। मानव का प्रत्येक नया चेहरा प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक उत्पादों का बहुत अत्यधिक मात्रा में उपभोग कर रहा है। परिणामत: प्राकृतिक संसाधन सिकुड़ते या खत्म होते जा रहे हैं।
अतिशय जनसंख्या वृद्धि गरीबी का मूल कारण है जो पर्यावरण के विपरीत ढंग से प्रभावित कर रही है।
(ब) गरीबी (Poverty) गरीबी तथा पर्यावरण प्रदूषण में बहुत घनिष्ठ संबंध है। यह जनसंख्या वृद्धि तथा पर्यावरण प्रदूषण दोनों का बहुत महत्वपूर्ण कारण है। गरीबी किसी व्यक्ति अथवा परिवार की जीवन निर्वाह के लिए न्यूनतम मापदण्ड की आपूर्ति की असमर्थता को कहा जाता है। गरीबी में जीवन प्रत्याशा अत्यधिक कम बच्चों की मृत्युदर अधिक तथा प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग दर अधिक होता है। गरीबी जनता की प्राकृतिक संसाधनों के सुव्यवस्थित विदोहन की क्षमता को अत्यंत कम कर देती है और पर्यावरण पर दबाव को प्रबल कर देती है।
वन संसाधनों के अनियोजित विदोहन के करण जंगल में रहने वाले लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से वर्षा की मात्रा कम होती जा रही है। प्राकृतिक आपदाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है और हमारा मौसम एवं जलवायु चक्र प्रभावित हो रहा है। वृक्ष ही पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं परन्तु जंगलों के विनाश के कारण प्रकृति का यह कारक भी पर्यावरण के अवनयन को रोकने में अपर्याप्त साबित हो रहा है।
झमिंग तथा चल खेती के कारण भी वनों का विनाश हो रहा है। जंगल की खानाबदोश जातियाँ इसका प्राय: प्रयोग करती हैं। इससे जंगलों का विनाश तो होता ही है साथ ही साथ मृदा का क्षरण भी होता है।
गरीबी अनेक अन्य सामाजिक समस्याओं की जननी है। मलिन बस्तियों का विस्तार सुविधा विहीन लोग पर्यावरण को विपरीत ढंग से प्रभावित कर रहे हैं। अत: पर्यावरण अवनयन को रोकने हेतु गरीबी की समस्या का प्रभावी समाधान आवश्यक है।
सर्वोच्च न्यायालय ने ओल्गाटेलिस बनाम मुम्बई म्युनिसिपल निगम (1985) 3-S.C.C 545 के मामले में संप्रेक्षित किया है कि पक्के रास्तों पर रहने वाले तथा मलिन बस्तियों में रहने वालों को वहाँ से निष्कासित करने के पूर्व उनके आवास की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। उनके लिए पेयजल, सामूहिक शौचालय, पक्की सड़कें, बिजली तथा स्वास्थ्यकर पर्यावरण आदि जैसी मौलिक जीवन सुविधाओं को उपलब्ध करवाया जाना चाहिए।
(स) शहरीकरण (Urbanization) अनियोजित अंधाधंध शहरीकरण भी पर्यावरण प्रदूषण एवं अवनयन का एक महत्वपूर्ण कारक है। वस्तुत: यह समस्या गरीबों के गाँव से रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की तरह अनन्त तथा अनवरत पलायन के कारण उत्पन्न हुई है।
आज स्थिति यह है कि देश का हर पाँचवा व्यक्ति शहरों में निवास कर रहा है। इसमें से काफी बड़ी संख्या मलिन बस्तियों में निवास कर रही है जहाँ मौलिक सुविधाओं का नितांत अभाव है जिसके परिणामस्वरूप उनकी नित्य क्रियाएँ खुले में हो रही हैं जिसके कारण वहाँ चारों तरफ गंदगी का साम्राज्य है। इसके कारण वहाँ रहने वाले का ही नहीं बल्कि आस-पास के रिहायशी इलाकों का पर्यावरण भी तेजी से विपरीत ढंग से प्रभावित हो रहा है तथा लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
1999 में जारी अपनी 5वीं रिपोर्ट में विज्ञान तथा पर्यावरण केन्द्र ने यह आकलन प्रस्तुत किया है कि भारत में शहरी पर्यावरण पूर्णतः नष्ट होने के कगार पर है। अनेक शहर कूड़ा-करकट के ढेर बने हुए हैं। औद्योगिक प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। नदियाँ एवं अन्य जल स्रोत प्रदूषित हो गये हैं।
शहरी क्षेत्र के पर्यावरण पर श्री नाथ जी का संप्रेक्षण काफी सुसंगत है –
शहरीकरण के विचारण में भारत में पर्यावरणीय बातों को बहुत कम महत्व दिया जाता है। परन्तु वे बेहद महत्वपूर्ण है और उनका महत्व बढ़ते हुए शहरीकरण के साथ बढ़ता जायेगा। शहरों में जल तथा वायु का प्रदूषण बहुत बढ़ गया है और वे जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ असह्य स्तर तक बढ़ते जायेंगे।
जयपुर शहर जिसे भारत ही नहीं बल्कि विश्व में ‘पिंक सिटी’ के नाम से जाना जाता है, के संदर्भ में राजस्थान उच्च न्यायालय ने एल. के. कूल बनाम राजस्थान AIR 1988 Raj 2 के मामले में इस शहर की गंदी स्थिति को उजागर किया तथा शहर की साफ-सफाई के लिए 6 मास का समय दिया।
(द) औद्योगीकरण (Industrialization)- औद्योगीकरण वर्तमान अर्थव्यवस्था की धुरी है। यद्यपि इसे विकास के मोटर के नाम से पुकारा जाता है परन्तु यह पर्यावरण प्रदूषण एवं ‘अवनयन का सबसे बड़ा कारण भी बन गया है।
बीते समय में वायु, जल एवं मृदा को प्रदूषित करने के खतरे को सही ढंग से नहीं समझा गया परिणामस्वरूप आज यह हमारे जीवन के लिए खतरा बनता जा रहा है।
बढ़ती आबादी की भूख मिटाने हेतु ‘अधिक अन्न उपजाओ’ का नारा दिया गया और इसके लिए उन्नतशील बीजों के साथ-साथ रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खरपतवार नाशक आदि रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग किया गया जिसके कारण वातावरण एवं मृदा में प्रदूषण की समस्या तीव्र गति से फैली और इसके कारण अनेक पशु-पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ ही लुप्त हो गयीं।
अंधाधुध औद्योगीकरण हमारे लिए कितना खतरनाक है, इसे निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है –
(i) 1956 की मशहूर जापानी बीमारी मिनमाता,
(ii) 1945 की हिरोशिमा एवं नागासाकी बमबारी,
(iii) 1979 की अमेरिका की तीन मील आईलैण्ड परिघटना,
(iv) 1984 की भोपाल मित्र गैस दुर्घटना,
(v) 1986 की चर्नेबिल परमाणु दुर्घटना,
(vi) सुनामी के कारणों जापानी परमाणु रियेक्टरों की दुर्घटना इत्यादि। इन सभी घटनाओं ने यह बता दिया कि यदि औद्योगीकरण मानव जाति के लिए आवश्यक है तो इसका अनियोजित एवं अनियंत्रित प्रयोग सिर्फ मानव जाति ही नहीं बल्कि पृथ्वी पर के समूचे जीवन के लिए विनाश का सबब भी बन सकता है।
उद्योगों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का आधा-अधूरा प्रयोग, उनसे निकला कचरा, धुआँ, विषैली गैसें आदि वातावरण को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। साबुन, चीनी, तेल, डीजल, पेट्रोल, पैकेजिंग, रबड़, रेअन आदि के लिए कच्चे प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता होती है जिसके लिए इनका अनियंत्रित विदोहन किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप निकट भविष्य में इनके समाप्त हो जाने की आशा है।
उद्योगों के अवशेषों को जलस्रोतों एवं नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है जिससे आज स्थिति यह है कि हमारे लिए स्वच्छ पेयजल का अभाव होता जा रहा है।
वातावरण में वाहन तथा उद्योगों से निकली कार्बन डाइआक्साइड, प्रशीतकों से प्रयुक्त क्लोरों फ्लोरो कार्बन, लेड आक्साइड आदि के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है जिसके कारण भविष्य में ग्लेशियरों के पिघलने से तटवर्ती इलाकों के जलमग्न होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। अतः यदि मानव के अस्तित्व को कायम रखना है तो प्रभावी पर्यावरण संतुलन की ओर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है, अन्यथा विकास का यह चक्र हमारे लिए विनाश का कारण बन जायेगा।
प्रश्न 6. प्रदूषण के मुख्य प्रकारों की विवेचना कीजिए Discuss main types of pollution.
अथवा
प्रदूषण क्या है? यह कितने प्रकार का होता है? व्याख्या कीजिए। What is pollution ? How many kinds of it are ? Explain.
उत्तर – पर्यावरण प्रदूषण परिवेश – अभीच्छित (Desired) परिवेश का प्रतिकूल परिवर्तन है। प्रदूषण का शाब्दिक अर्थ गंदा करना है। ‘पल्यूट’ शब्द के बेबस्तर शब्दकोष में एक समान अर्थ के कई शब्द दिये गये हैं। वस्तुतः इसका अर्थ है-गंदा करना, दूषित करना, अशुद्ध करना आदि।
वास्तव में “प्रदूषण वायु, जल एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक तथा जैविक विशेषताओं का वह अवांछनीय परिवर्तन है जो मनुष्य और उसके लिए लाभदायक दूसरे जन्तुओं, पौधों, भौगोलिक संसाधनों तथा दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुँचाता है। प्रदूषण की इस परिभाषा में प्रदूषण के प्रकारों यथा- जल, वायु एवं भूमि की ओर संकेत किया गया है। इसके अनुसार प्रदूषण निम्न प्रकार का होता है –
(1) वायु प्रदूषण (Air Pollution)
(2) जल प्रदूषण (Water Pollution)
(3) मृदा प्रदूषण (Soil Pollution)
(4) ध्वनि प्रदूषण (Noise Pollution)
(5) जैव प्रदूषण (Biotic Pollution) तथा
(6) ठोस अपशिष्ट प्रदूषण (Solid Pollution)
इनका संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार से है –
(1) वायु प्रदूषण (Air Pollution)
वायु जीवनदायिनी तत्व तथा स्वस्थ जीवन का आधार है। वायु के बिना जीवधारियों का अस्तित्व संभव नहीं है। एक आदमी प्रतिदिन 16 किग्रा वायु 22 हजार बार साँस के जरिये लेता है। यदि आँकड़ों का हम विश्लेषण करें तो एक घनमीटर वायु का भार 1172 मिलीग्राम होता है जिसमें –
(i) नाइट्रोजन = 879 मिलीग्राम,
(ii) आक्सीजन = 269 मिलीग्राम,
(iii) आर्गन = 15 मिलीग्राम,
(iv) जलवाष्प = 8 मिलीग्राम,
(v) कार्बन डाइ ऑक्साइड = 0.5 मिलीग्राम,
(vi) नियोन = 14 मिलीग्राम,
(vii) क्रिप्टन = 0.8 मिलीग्राम,
(viii) हीलियम = 0.5 मिलीग्राम तथा
(ix) हाइड्रोजन = 0.05 मिलीग्राम होती है।
इस प्रकार एक स्वस्थ आदमी एक दिन में 14000 घनमीटर हवा का प्रयोग करता है जिसमें निहित आक्सीजन रक्त संचार को बनाये रखती है और मानव के लिए प्राणु वायु कहलाती है। वायु का स्रोत हमारा वायुमण्डल है। वायुमण्डल पृथ्वी के चारों ओर से घिरा गैसों का एक घेरा या आवरण है। हमारा वायुमण्डल कई तरह की गैसों का घेरा है जिसमें नाइट्रोजन का 3/4 भाग नाइट्रोजन तथा आक्सीजन का भाग लगभग पाँचवाँ है।
वायु (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम 1981 [Air (Pollution Removal and Control) Act 1981] की धारा 2 (ख) के अनुसार वायु प्रदूषण से वातावरण में वायु प्रदूषकों का विद्यमान होना अभिप्रेत है।”
धारा 2 (क) के अनुसार वायु प्रदूषक से वातावरण में ऐसे संकेंद्रण में विद्यमान ठोस, तरल अथवा गैसीय पदार्थ से अभिप्रेत है जो मानव प्राणी, अन्यजीवित प्राणियों, पौधों तथा सूक्ष्म जीवाणुओं, संपत्ति तथा पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं।
वायु प्रदूषण के स्रोत (Sources of Air Pollution) – वायु प्रदूषण के मुख्य स्रोत निम्न हैं –
(1) ताप बिजलीघर द्वारा उगली गयी राख, कालिख, सल्फर डाइआक्साइड ।
(2) परिवहन संसाधनों द्वारा उत्सर्जित सीसा, कार्बन मोनो-आक्साइड, हाइड्रोकार्बन, नाइट्स आक्साइड, सल्फर डाइआक्साइड, ऐरोमैटिक हाइड्रोकार्बन आदि।
(3) रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, अमोनिया, हाइड्रोकार्बन आदि।
(4) घरेलू वायु प्रदूषक, अपमार्जक, सिगरेट, बीड़ी, हुक्का, सिगार, लकड़ी, एयरकंडीशनर, फ्रिज आदि से निकला धुँआ एवं प्रदूषक तत्व ।
(5) सीवर, नालियाँ, मेनहोल आदि।
(2) जल प्रदूषण (Water Pollution)
आज अधिकांश जल स्रोत प्रायः प्रदूषित हो गये हैं। वास्तव में जल को स्वच्छ तब माना जाता है जब उसमें घुलित खनिज तत्वों के आयन, लवण इत्यादि अपेक्षित एवं संतुलित मात्रा में पाये जाते हैं, परन्तु जब जल में विषैले पदार्थ यथा- कारखानों के अपशिष्ट, रासायनिक पदार्थ, वाहितमल, कूड़ा करकट इत्यादि गिरते, मिलते रहते हैं तो यह अपेक्षित संतुलन बिगड़ जाता है और प्रदूषित हो जाता है।
प्रदूषित जल को ग्रहण करने से जीवधारियों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारत में जल प्रदूषण को रोकने हेतु जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 को पारित किया गया है परन्तु इसका अपेक्षित परिणाम अभी आना शेष है।
(3) भूमि प्रदूषण
(Land or Soil Pollution)
आज भूमि प्रदूषण की समस्या भी काफी गंभीर हो चुकी है। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों, कूड़ा-करकट तथा कल-कारखानों के कचरों के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति काफी कम होती जाती है जिसके कारण भूमि की उपजाऊ क्षमता प्रभावित होती है।
मृदा प्रदूषण के कारक (Factors of Soil Pollution) मृदा प्रदूषण के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक निम्न हैं –
(1) भूमि के उपयोग में व्यापक परिवर्तन तथा मिट्टियों का अपरदन,
(2) वर्षा की मात्रा तथा तीव्रता जिसके कारण भूमि कटाव काफी तेज होता है,
(3) रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशक आदि का बारम्बार प्रयोग,
(4) अपशिष्ट जल का सिंचाई हेतु प्रयोग किया जाना,
(5) औद्योगिक एवं नगरीय क्षेत्रों में अपशिष्ट एवं ठोस पदार्थों की डम्पिंग,
(6) प्रदूषित जल की कोशिका क्रिया विधि द्वारा पृथ्वी के अन्दर के जल स्रोतों में मिलना तथा उसका पुन: उपयोग।
(4) ध्वनि प्रदूषण (Sound Pollution)
सामान्यत: किसी भी वस्तु से जनित सामान्य आवाज को ध्वनि कहते हैं। ध्वनि एक सीमा तक ही हमारे लिए लाभदायक एवं आवश्यक है। जब यही ध्वनि अनचाही तीव्रता तक बढ़ जाती है तो यह शोर का रूप धारण कर लेती है। अवांछित एवं अरुचिकर शोर का वातावरण में इस प्रकार से फैलना कि वह प्राणी जगत् पर विपरीत प्रभाव डालने लगे, की ही ध्वनि प्रदूषण कहा जाता है। इस.. प्रकार अनचाही आवाज ही ध्वनि प्रदूषक का मुख्य कारण एवं स्रोत है। ध्वनि प्रदूषण के बारे में विक्टर गुएन ने कहा है कि शोर मृत्यु का मंद गति अभिकर्ता है। यह हमारा अदृश्य शत्रु है। ध्वनि प्रदूषण से बहरापन, नाड़ी एवं मानसिक दबाव तथा शिल्प कलाकृतियों का क्षरण हो जाता है। इसमें मानव की दक्षता, आराम तथा आनन्द पर काफी गहरा विपरीत प्रभाव पड़ता है। 160 डेसीबेल की ध्वनि यदि अधिक समय तक रहे तो यह स्थायी बहरेपन का कारण बन सकती है।
(5) जैव प्रदूषण (Biotic Pollution)
जैव प्रदूषण का मुख्य कारक आधुनिकता की अंधी दौड़ है। इससे वनस्पतियाँ तथा कृषिगत पौधों की गुणवत्ता नष्ट हो रही है तथा इनके प्रयोग में मानव तथा अन्य जीवों में भयंकर रोग उत्पन्न हो रहे हैं। मृदा ही वनस्पति जगत् का आधार है। मृदा प्रदूषण वनस्पतियों को प्रदूषित कर रहा है। • नाइट्रोजन, पोटाश तथा फॉस्फेट के अधिक प्रयोग में पौधे प्रभावित हो रहे हैं। वायु प्रदूषण, अम्ल वर्षा, कारखाने का गंदा पानी इत्यादि के कारण वनस्पतियाँ प्रदूषित हो रही हैं। साग-सब्जियों में अवांछनीय रसायनों की मात्रा बढ़ रही है। गर्मी के दिनों में प्रदूषित गन्ने का रस बीमारी उत्पन्न कर रहा है। गंदे जल में पाया जाने वाला सोसा एवं पारा मछलियों को प्रदूषित कर अखाद्य बना रहा है। आज तो स्थिति यह है कि उत्तरी अटलांटिक तट पर पारे की अधिक मात्रा के कारण उनका व्यापार ही बंद कर देना पड़ा है।
(6) ठोस अपशिष्ट प्रदूषण (Solid Waste Pollution)
वर्तमान समय की सबसे गंभीर समस्या ठोस अपशिष्ट प्रदूषण है। घर के कचरे से लेकर मोटरकारों आदि के अपशिष्ट धरती पर छोड़ दिये जा रहे हैं। बिक्री के सामानों को आकर्षक ढंग से प्रदर्शित करने हेतु कागज के साथ प्लास्टिक, टीन, काँच आदि का प्रयोग बहुतायत में किया जा रहा है। आज की ‘use and throw on road’ की संस्कृति के कारण भी प्रदूषण की समस्या काफी गंभीर होती जा रही है। प्लास्टिक के बर्तन, प्याले, कप, पालीथीन की थैलियाँ आदि का बहुतायत प्रयोग प्रदूषण की गति को काफी तीव्र कर रहा है। तम्बाकू, गुटखा, खैनी आदि में प्रयुक्त प्लास्टिक का क्षय आसानी से नहीं हो पाता और सालों-साल वैसे पड़े रहते हैं जिससे अपशिष्ट प्रदूषण की समस्या काफी गंभीर होती जा रही है।
(7) नाभिकीय प्रदूषण (Nuclear Pollution)
नाभिकीय प्रदूषण पर्यावरणीय प्रदूषणों में सबसे हानिकारक है। हिरोशिमा, नागासाकी आज भी इससे पूर्णत: मुक्त नहीं हो पाये हैं, परमाणु ऊर्जा की विकिरण, नाभिकीय रियेक्टरों से होने वाला रिसाव, परमाणु विस्फोट से फैली विकिरण आदि का प्रभाव काफी समय तक रहता है जो हमारी जीन कोशिका तथा आने वाली संतानों को भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।
प्रश्न 7. जल प्रदूषण क्या है? इसके विभिन्न स्रोतों एवं प्रभावों की व्याख्या कीजिए। What is water pollution? Explain its various sources and effects.
अथवा
जल प्रदूषण को स्पष्ट कीजिए। Explain Water Pollution.
अथवा
जल प्रदूषण का अर्थ बताइए। Explain the meaning of Water Pollution.
उत्तर- जल प्रदूषण (Water Pollution)- जैवमण्डल में पाये जाने वाले सभी प्राकृतिक संसाधनों में जल सर्वाधिक मूल्यवान है। यह सभी जीवित प्राणियों के जीवन का आधार है। गुणवत्ता के आधार पर जल को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है –
(1) शुद्ध जल (Clean or pure water),
(2) सुरक्षित जल (Safe water),
(3) संदूषित जल (Contaminated water), तथा
(4) प्रदूषित जल (Polluted water)।
आज की मुख्य समस्याओं में जल प्रदूषण काफी गंभीर है।
गिल्पिन के अनुसार, “जल के रासायनिक, भौतिक तथा जैविक गुणों में मुख्य रूप से मानवीय क्रियाओं द्वारा उत्पन्न गिरावट को जल प्रदूषण कहा जाता है। “
इस परिभाषा में जल प्रदूषण हेतु मानवीय क्रियाओं को ही मुख्य रूप से दोषी ठहराया गया है। परन्तु साउथ बिक ने इस प्रदूषण हेतु प्राकृतिक क्रियाओं को भी दोषी माना है। उनके अनुसार, “प्रदूषण से तात्पर्य है ज के रासायनिक, भौतिक एवं जैविक गुणों का ह्रास हो जाना जो मानव क्रियाओं तथा/अथवा प्राकृतिक प्रक्रियाओं जो जल संसाधन में अपघटित एवं वनस्पति पदार्थ तथा अपक्षप पदार्थों को मिलती है, द्वारा उत्पन्न होता है।”
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 277 में जल प्रदूषण को अपराध घोषित किया गया है।
पाकले बनाम बी.पी. अय्यास्वामी AIR 1969 Mad. 351 के मामले में चेन्नई उच्च न्यायालय ने संप्रेक्षित किया है कि “प्रदूषण से आशय है जल के गुणों में ऐसा परिवर्तन जिसके द्वारा वह किसी भी ऐसे उद्देश्य के लिए जिसके लिए वह स्वाभाविक रूप में उपयोग में लाया जाता, कम उपयोगी हो जाये।”
प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 की धारा 2 (ङ) में जल प्रदूषण की व्यापक परिभाषा करते हुए निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है –
(1) प्रदूषण से जल का ऐसा संदूषण या जल के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों का ऐसा परिवर्तन या
(2) किसी मल या व्यावसायिक बहिःस्राव, या
(3) किसी अन्य द्रव्य, गैसीय, या
(4) ठोस पदार्थ का जल में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से ऐसा निस्सरण अभिप्रेत है जो,
(5) न्यूर्सेस उत्पन्न करे अथवा जिससे न्यूसेंस उत्पन्न होना संभाव्य हो, या
(6) ऐसे जल को लोक स्वास्थ्य क्षेम, या
(7) घरेलू, वाणिज्यिक, औद्योगिक, कृषि या अन्य विधिसम्मत उपयोग के लिए, या
(8) जीव जन्तुओं या पौधों या अलीय जीवों के जीवन और (स्वास्थ्य के लिए अपहानिकर) या
(9) क्षतिकारक बनाता है या संभाव्य बनाता है।” माना है।
मुख्य पर्यावरणविदों एवं विधिवेत्ताओं ने प्रदूषण का तात्पर्य उसके प्राकृतिक गुणों का परिवर्तन माना है।
उपर्युक्त सभी परिभाषाओं का यदि हम सूक्ष्म विश्लेषण करें तो जल प्रदूषण के बारे में निम्न बातें उभर कर सामने आती हैं – (क) जल प्रदूषण जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में विपरीत परिवर्तन है।
(ख) यह जल की गुणवत्ता में ह्यस उत्पन्न करता है तथा इसके उपयोग को हानिकारक बनाता है।
(ग) यह प्रदूषण किसी बाह्य पदार्थ के जरिये उत्पन्न होता है चाहे वे प्राकृतिक हो अथवा मानवकृत।
(घ) प्रदूषित जल मानव सहित सभी जीव-जन्तुओं के लिए हानिकारक हो जाता है।
जल प्रदूषकों के प्रकार
(Types of Water Pollutants)
भौतिक तथा रासायनिक गुणों के आधार पर जल प्रदूषकों को निम्न दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –
(1) भौतिक प्रदूषक (Physical Pollutants), तथा
(2) रासायनिक प्रदूषक (Chemical Pollutants) |
भौतिक प्रदूषण के अन्तर्गत कीचड़, तेल, गंध, सूक्ष्मकण, जीवांश तथा कीटाणु एवं रंग इत्यादि आते हैं।
रासायनिक प्रदूषकों में क्लोराइड, सल्फाइड, कार्बोनेट, अमोनिया, नाइट्रोजन, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, ऐन्टीबायोटिक एवं सेप्टिक दवायें, पारा, कृत्रिम रसायन, नमक तथा रेडियो धर्मिता गुणों वाले पदार्थ सम्मिलित हैं।
जल प्रदूषण के आधार पर प्रदूषकों को मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित किया गया है –
(i) औद्योगिक प्रदूषक (Industrial Pollutants )
(ii) कृषिजन्य प्रदूषक (Agricultural Pollutants )
(iii) नगरीय प्रदूषक (Urban Pollutants) तथा (iv) प्राकृतिक प्रदूषक (Nature Generated Pollutants )
(i) औद्योगिक प्रदूषक (Industrial Pollutants) – औद्योगिक प्रदूषकों में मुख्यत: औद्योगिक अपशिष्ट तथा रासायनिक तत्व मुख्य हैं। इन रासायनिक तत्वों में-क्लोराइड, सल्फाइड, कार्बोनेट, अमोनिया, नाइट्रोजन नाइट्रेट आदि सम्मिलित हैं जबकि पारा, सीसा, जस्ता, ताँबा आण्विक कचरा जैसे प्रदूषण भी इसमें सम्मिलित हैं जो भारी धात्विक पदार्थों की श्रेणी में आते हैं।
(ii) कृषिजन्य प्रदूषकों में कीटनाशक, खरपतवारनाशक, रासायनिक उर्वरक आदि रसायन सम्मिलित हैं।
(iii) नगरीय प्रदूषकों में वाहनों से उत्सर्जित तत्वों के आयन, गंदा एवं प्रदूषित जल, मलमूत्र, कचरा, कूड़ा-करकट, पशुओं के मृत शरीर तथा डिटरजेंट आदि मुख्य हैं।
(iv) प्राकृतिक प्रदूषक (Natural Pollutants) – प्राकृतिक प्रदूषक मुख्यत: प्राकृतिक क्रियाओं के परिणाम होते हैं। इनमें ज्वालामुखी से निकले मैग्मा, अपदन, अवसाद तथा विघटित और नविघटित होने वाली जैविक सामग्रियाँ आदि सम्मिलित हैं।
जल प्रदूषण का प्रभाव (Effects of Water Pollution) जल प्रदूषण से विभिन्न जीवों की पोषण क्षमता विपरीत ढंग से प्रभावित होती है। अधिकांशत: विकासशील देशों के नागरिक ही इससे प्रभावित होते हैं क्योंकि ऐसे देशों में प्रबन्धन तन्त्र का सामान्यत: अभाव अथवा कमजोर होता है।
हैजा, डायरिया, मलेरिया, टायफाइड, पोलियो, पीत ज्वर, डेंगू ज्वर, ट्राकोमा, लीश्मा नियासिस गीनियावर्म आदि का मुख्य कारण जल प्रदूषण है। इन सभी रोगों से प्रति वर्ष लाखों लोग अकाल मौत के मुँह में चले जाते हैं। अत: देश के नागरिकों की स्वास्थ्य रक्षा हेतु जल जैसी आवश्यक एवं अमूल्य प्राकृतिक धरोहर की सुरक्षा एवं संरक्षा आवश्यक है।
प्रश्न 8. वायु प्रदूषण क्या है? प्रमुख वायु प्रदूषकों, इनके स्रोतों तथा प्रभाव पर प्रकाश डालिए। What is air pollution? Throw light on main air pollutants, its sources and effects.
अथवा
वायु प्रदूषण के अर्थ, परिभाषा, मुख्य कारकों तथा प्रभाव की व्याख्या कीजिए। Explain meaning, definition, main causes and effects of air pollution.
उत्तर – वायु प्रदूषण का अर्थ (Meaning of Air Pollution) सामान्यतः वायु प्रदूषण एक ऐसी दशा है जिसमें बाह्य वायुमण्डल की वायु की परतों में ऐसे पदार्थों का जमाव हो जाता है जो मानव तथा उसके चारों और विस्तरित पर्यावरण के लिए हानिकारक होते हैं। यह संकेन्द्रण ठोस, द्रव अथवा गैस के रूप में हो सकता है।
परिभाषाएँ (Definitions)
हेनरी परकिन्स के अनुसार, ” बाह्य पर्यावरण में धूल, धुआँ, गैस, तुषार, गंध अथवा जल वाष्प में से किसी एक या अधिक प्रदूषक की हानिकारक मात्रा एवं कालावधि में उपस्थिति जो मानव, पौधों अथवा पशु जीवन तथा संपत्ति के लिए घातक हो अथवा जो तर्कहीन ढंग से जीवन के आनन्द और संपत्ति में बाधा उत्पन्न करती हो, वायु प्रदूषण कहलाती है।
हैस्केभ के अनुसार, “वायु में ऐसे वाहाह्य तत्व की उपस्थिति जो मनुष्य के स्वास्थ्य अथवा / तथा कल्याण हेतु हानिकारक हो, वायु प्रदूषण कहलाता है।”
वायु (प्रदूषण तथा निवारण) अधिनियम 1981 (Air (Pollution and Removal) Act 1981)) में वायु प्रदूषण को धारा 2 (ख) में निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है।
“वायु प्रदूषण से वातावरण में ‘वायु प्रदूषक’ का विद्यमान होना अभिप्रेत है।”
इस अधिनियम की धारा 2(क) में प्रदूषक को निम्न प्रकार से परिभाषित किया गया है-
‘वायु प्रदूषक से वातावरण में ऐसे संकेन्द्रण में विद्यमान ठोस, तरल अथवा गैसीय पदार्थ से अभिप्रेत है जो मानव प्राणी, अन्य जीवित प्राणी, पौधे तथा सूक्ष्म जीवाणु, संपत्ति अथवा पर्यावरण के लिए हानिकारक है।”
इस प्रकार वायु प्रदूषण का तात्पर्य संकेन्द्रण में ठोस, तरल या गैसीय पदार्थों की हानिकारक रूप में विद्यमानता है।
वायु प्रदूषकों के विभिन्न प्रकार (Various Types of Air Pollutants) – रासायनिक संगठन के आधार पर हम वायु प्रदूषकों को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं –
(1) गैसें (Gases) – यथा:
(i) कार्बन-डाइऑक्साइड
(ii) कार्बन मोनो आक्साइड
(iii) नाइट्रोजन आक्साइड
(iv) सल्फर डाइआक्साइड
(v) ओजोन तथा फ्लोरीन
(vi) कार्बोलिक अम्ल, तथा
(vii) सल्फर डाइआक्साइड जैसे अकार्बनिक अम्ल । –
(2) वायु कण (Aerosols) इस श्रेणी में धुआँ, धूम्र, कुहासा, राख, गंधयुक्त धुआँ तथा धूल आदि शामिल हैं।
(3) गंध (Odours) – इसमें विभिन्न प्रकार के गंधयुक्त पदार्थ आते हैं।
(4) मानव जनित स्रोत (Human Sources) अपनी विभिन्न क्रियाओं द्वारा मानव भी वायुमण्डल को काफी हद तक प्रदूषित कर रहा है। वायु प्रदूषण के मानवीय स्रोत निम्न हैं-
(i) दहन द्वारा (By Combustion) – इसमें निम्न को सम्मिलित किया जा सकता है।
(क) घरेलू कार्यों में प्रयुक्त दहन,
(ख) वाहनों के माध्यम से होने वाला दहन,
(ग) ताप विद्युत ऊर्जा में होने वाला दहन ।
(ii) उद्योगों के द्वारा वायु प्रदूषण,
(iii) कृषि कार्यों के द्वारा वायु प्रदूषण,
(iv) विलायकों के प्रयोग से होने वाला दहन,
(v) रेडियोधर्मी पदार्थों से उत्पन्न विकिरण द्वारा वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Air Pollution) – वायु प्रदूषण मुख्यत: जीवधारियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है। इसके मुख्य प्रभाव निम्न प्रकार से हैं –
(i) मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव जैसे कार्बन मोनोआक्साइड, आक्सीजन के ऊतकों को घटा कर साँस के रोगियों पर कुप्रभाव डालता है। सल्फर डाइऑक्साइड साँस की बीमारी को बढ़ाता है, N20 बच्चों के नजले तथा जुखाम का कारण होता है। विभिन्न प्रकार के आक्सीडेंट और ओजोन दृश्य-मानता को घटाता है जबकि ओजोन पौधों को बुरी तरह से प्रभावित करता है।।
(ii) वनस्पतियों पर प्रभाव,
(iii) जीव जन्तुओं पर प्रभाव,
(iv) जलवायु पर प्रभाव,
(v) ग्रीन हाउस प्रभाव, कार्बन डाइ आक्साइड की मात्रा में वृद्धि, मौसम तथा सूर्य किरणों की तीव्रता पर प्रभाव।
(vi) लोहे आदि पर जंग लगना, कपड़ा, कागज, संगमरमर आदि प्रभाव। इसी कारण ताजमहल में लगा संगमरमर पीला पड़ता जा रहा है यद्यपि वहाँ के क्षेत्र को हरित जोन घोषित किया जा चुका है।
इस प्रकार वायु प्रदूषण एक क्रमशः वायुमण्डल में घुलता हुआ जहर है जो सिर्फ मानव जाति को ही नहीं बल्कि समस्त प्राणीजगत को प्रभावित कर रहा है।
वायुमण्डल को नियंत्रित करने के उद्देश्य से भारत में 1981 में वायु (प्रदूषण एवं निवारण)। अधिनियम पारित किया गया है। यद्यपि यह अधिनियम स्टाकहोम में सम्पन्न हुए मानवीय पर्यावरण सम्मेलन के निर्णयों को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से पारित किया गया है परन्तु अभी तक इसका प्रभाव परिलक्षित नहीं हो पा रहा है और वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।
प्रश्न 9. वायु प्रदूषण को परिभाषित कीजिये। क्या अम्ल वर्षा प्रदूषण में सम्मिलित है ? विस्तृत व्याख्या कीजिये। Define Air Pollutions. Is acid rain include in air pollution? Describe in detail.
उत्तर – अम्लवर्षा (Acid rain)- अम्लवर्षा वायु प्रदूषण में सम्मिलित है क्योंकि वायुमण्डल में व्याप्त गैसे सल्फर, नाइट्रोजन आक्साइड तथा हाइड्रो कार्बन की बढ़ी हुई मात्रा ही इसका मुख्य कारण है। वास्तव में अम्ल वर्षा वायु प्रदूषण का प्रभाव है। क्योंकि जब उपरोक्त गैसों की मात्रा वायुमण्डल में एक सीमा से अधिक हो जाती है तो ये वायु मण्डल की नमी के साथ अभिक्रिया करके सल्फ्यूरिक अम्ल तथा नाइट्रिक अम्ल में बदल जाती है जो पानी की बूँदों के रूप में, ओस या कुहरे के रूप में भूमि पर टपकने लगती है।
इस प्रकार जब कल कारखानों, वाहनों तथा तेल शोधक कारखानों से निकली सल्फर डाई ऑक्साइड वायुमण्डल में जाकर वायु की नमी से क्रिया करती है तो यह सल्फ्यूरिक एसिड में बदल जाती है। यह पानी की बूँदों के घुलकर ओस या जल की बूंदों के साथ मिलकर धरातल पर टपकने लगती है और अपने अम्लीय प्रभाव के कारण जैवीय तथा अजैवीय तत्व का क्षरण करती है। इसी प्रक्रिया को अम्ल वर्षा या Acid Rain कहा जाता है। वर्षा के जल का सामान्य PH मान 5 होता है परन्तु सल्फर डाई आक्साइड तथा वायु की नमी या वर्षा के जल से मिलकर यह जब सल्फ्यूरिक एसिड में बदल जाती है तो यह पानी का PH मान 4 से भी कम कर देती है। जिसके कारण जल की अम्लीयता अत्यधिक बढ़ जाती है और यह जैव-अजैव सभी के लिए हानिकारक बन जाती है।
अम्ल वर्षा के प्रभाव / परिणाम (Consequences of Acid Rain)
1. अम्लवर्षा से जल प्रदूषण बढ़ता है जिनसे इनमें रहने वाले जीव-जन्तु नष्ट होने लगते हैं। इसी कारण अम्ल वर्षा को ‘झीलों का कातिल’ कहा जाता है क्योंकि इससे झीलों तथा अन्य जलाशयों, मछलियों तथा अन्य जीव-जन्तुओं की मृत्यु होने लगती है। आज कनाडा ओन्टोरियो प्रान्त 2,50,000 की झीलों में से 50,000 झीलें अम्ल वर्षा से अत्यधिक प्रभावित हैं और इनमें से 150/- झीलों को ‘मृत झील’ घोषित कर दिया गया है।
2. अम्ल वर्षा से मृदा की अम्लीयता भी बढ़ जाती है जिससे इसकी उत्पादकता घट जाती है क्योंकि अम्लता के बढ़ने के कारण मृदा में उपस्थित खनिज तथा अन्य पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं।
3. अम्ल वर्षा खेतों में खड़ी फसल को भी नुकसान पहुँचाती है क्योंकि इसके प्रभाव के कारण फसलों की पत्तियाँ झुलस जाती हैं और पौधे रोगग्रस्त हो जाते है।
4. अम्ल वर्षा वनों, वृक्षों को भी भारी नुकसान पहुँचाती है क्योंकि इसके कारण वृक्षों की प्रकाश-संश्लेषण सहित अन्य सारी गतिविधियाँ मंद पड़ जाती है जिससे वन्य वृक्ष धीरे-धीरे सूखने लगते हैं।
5. अम्ल वर्षा के कारण भवनों का संक्षरण होने लगता है जिसके कारण अनेक ऐतिहासिक इमारतों के समक्ष अस्तित्व का प्रश्न उत्पन्न हो गया है और वे अपनी सुन्दरता तेजी से खोती जा रही है।
6. अम्ल वर्षा का पूरा प्रभाव मानव समुदाय के साथ-साथ अन्य जीव-जन्तुओं पर भी व्यापक रूप से पड़ रहा है। इससे स्वास तथा त्वचा अनेक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। आँखों में जलन तथा हृदय और फेफड़ों से संबंधित अनेक रोग भी इससे हो जाते हैं।
इस प्रकार अम्ल वर्षा पृथ्वी पर जैव जगत के लिए एक नवीन संकट है। यद्यपि इसका समाधान संभव है परन्तु इस पर आने वाला खर्च इतना ज्यादा है कि इसके बारे में विश्व के अधि कांश देश सोच भी नहीं सकते। अतः प्रदूषण पर नियंत्रण करना ही इसके समाधान का एकमात्र संभव तरीका है।
प्रश्न 10. ध्वनि प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? इसके मुख्य स्रोतों तथा प्रभाव का विवेचन कीजिए। What do you understand by noise pollution? Discuss its main causes and effects.
अथवा
ध्वनि प्रदूषण क्या है? यह मानव स्वास्थ्य को किस प्रकार प्रभावित करता है? । What is noise pollution? How it affects human health.
अथवा
ध्वनि प्रदूषण को स्पष्ट कीजिए। Explain noise Pollution.
अथवा
ध्वनि प्रदूषण को परिभाषित कीजिए और इसके निवारण के लिए न्यायिक नियंत्रण की व्याख्या कीजिए। Define the Noise Pollution and to prevent this pollution explain Judicial control.
अथवा
ध्वनि प्रदूषण से आप क्या समझते हैं? ध्वनि प्रदूषण के निवारण हेतु विधिक नियंत्रण की व्याख्या कीजिए। What do you mean by noise pollution? Explain the legal control to prevent the noise pollution.
अथवा
ध्वनि प्रदूषण को परिभाषित कीजिये। ध्वनि प्रदूषण को निवारित करने के लिए न्यायिक नियंत्रण की व्याख्या कीजिए। Define ‘Noise Pollution’. Explain the Judicial control to prevent the Noise Pollution.
उत्तर – ध्वनि एक विशिष्ट प्रकार की दाब तरंग है। किसी माध्यम की सहायता से संचरण करती है। परन्तु एक सीमा या तीव्रता की ध्वनि ही हमारे लिए सुखद होती है और अवांछित ध्वनि शोर बन जाती है। इस प्रकार ध्वनि स्तर जब धीमा हो तो वह ध्वनि कहलाती है परन्तु जब यह ज्यादा तीव्र हो जाती है तो यह शोर का रूप ग्रहण कर लेती है इससे और तीव्र होने पर यह प्रदूषण का रूप ग्रहण कर लेती है। ध्वनि प्रदूषण की परिभाषा (Definition of Noise Pollution)
ध्वनि प्रदूषण विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न शोर द्वारा उत्पन्न मानव के लिए असहिष्णुता एवं अनाराम की दशा की ओर संकेत करता है। विभिन्न विधिशास्त्रियों ने इसे निम्न प्रकार से परिभाषित किया है –
डॉ. वी. राय के अनुसार, “अनिपूर्ण ध्वनि जो कि मानवीय सुविधा, स्वास्थ्य एवं गतिशीलता हस्तक्षेप करती है अथवा प्रभावित करती है, ध्वनि प्रदूषण कहलाती है।”
सिगन्स के अनुसार, “बिना मूल्य की अथवा अनुपयोगी ध्वनि ही ध्वनि प्रदूषण है।”
रोथम हैरी ने ध्वनि की परिभाषित करते हुए कहा है कि-“किसी भी स्रोत से निकलने वाली ध्वनि तब प्रदूषण का रूप लेती है जब वह असह्य हो जाती है।”
उड़ीसा उच्च न्यायालय ने विजयानन्द पात्र बनाम डी. एम. कटक AIR 200 उड़ीसा 70 के मामले में यह स्पष्ट किया है कि ध्वनि प्रदूषण वातावरण में अनिच्छित ध्वनि का परिचालक है। यह अनिच्छित है क्योंकि इसमें सहमत सौहार्द्रपूर्ण गुणवत्ता की कमी है। इसलिए स्वर ध्वनि है परन्तु यह प्रदूषण है जबकि ध्वनि का प्रभाव अवांछनीय बन जाता है।
यह अनिच्छित एवं असह्य ध्वनि ही शोर है जो प्रदूषणकारी बन जाती है।
ध्वनि प्रदूषण के स्रोत या कारक (Sources or Factors of Noise Pollution)
ध्वनि प्रदूषण के स्रोत मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं –
(1) प्राकृतिक स्रोत (Natural Source)
(2) अप्राकृतिक स्रोत (Non-natural Source)
(1) प्राकृतिक स्रोत के मुख्य उदाहरण निम्न हैं-
(i) बादलों की कड़क (Thunder cloud),
(ii) उल्का पिण्डों का गिरना,
(iii) भूकम्प से भवनों का गिरना,
(iv) ज्वालामुखी विस्फोट,
(v) भूस्खलन,
(vi) समुद्री लहरें (Waves of the sea)
(2) ध्वनि प्रदूषण के अप्राकृतिक स्रोत दो प्रकार के होते हैं-
(क) अचल स्रोत (Non Moveable Sources) तथा
(ख) सचल स्रोत (Moveable Sources) ।
(क) अप्राकृतिक अचल स्रोत (Non-natural Non-moveable Sources) – ध्वनि प्रदूषण के अचल स्रोत निम्न हैं।
(i) उद्योग एवं कल कारखाने,
(ii) रेडियो, टेलीविजन
(iii) एग्जास्ट पंखे (Exhaust Fan)
(iv) फसलों अथवा घास की कटाई या थ्रेसिंग करने वाली मशीनें,
(v) मिलों के सायरन,
(vi) लाउडस्पीकर तथा सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में बजने वाली ध्वनि,
(vii) ध्वनि विस्तारक यंत्रों के प्रयोग से उत्पन्न होने वाली ध्वनि
(ख) अप्राकृतिक सचल स्रोत (Non-natural Moveable Sources) इस वर्ग में निम्न माध्यमों से उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण को शामिल किया जा सकता है-
(i) सड़क परिवहन (Road Transport),
(ii) रेल परिवहन (Rail Transport),
(iii) वायुयान, जेट विमानों, हेलीकाप्टरों आदि की ध्वनि,
(iv) स्पोर्ट्स कारों की ध्वनियाँ,
(v) राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान प्रयुक्त उपकरणों की ध्वनियाँ,
(vi) परमाणु एवं अन्य विस्फोटों के समय उत्पन्न होने वाली ध्वनियाँ। ध्वनि प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को निम्न चार वर्गों में बाँटा जा सकता है –
(1) सामान्य प्रभाव (General Effect) – ध्वनि प्रदूषण के सामान्य प्रभाव में बातचीत तथा निद्रा में हस्तक्षेप आदि को रखा जा सकता है।
(2) श्रवण संबंधी प्रभाव (Audiological Impact)- इसमें कान के पर्दे फट सकते. – हैं। 105 db की ध्वनि से नाड़ी गति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो जाता है जबकि 150 db की ध्वनि त्वचा में जलन तथा 160 db की ध्वनि अधिक समय तक रहने पर व्यक्ति को स्थायी रूप से बहरा बना सकती है।
(3) मानसिक प्रभाव (Mental Impact)- ध्वनि प्रदूषण जब मानसिक असंतुलन उत्पन्न करता है तो पारिवारिक कलह आदि उत्पन्न होते हैं।
(4) शारीरिक प्रभाव (Physical Impact)- ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव रक्त प्रवाह तथा हृदय की स्पन्दन गति पर भी पड़ता है। इसके कारण ग्रसिका तथा आँतों में मरोड़ उत्पन्न होने लगता है। हृदय रोग, हाई ब्लड प्रेशर का भी यह कारण बन सकता है। अधिक तीव्रता की ध्वनि से गर्भस्थ शिशु में जन्मजात दोष भी उत्पन्न हो सकते हैं।
प्रश्न 11. मृदा प्रदूषण क्या है? इसके स्रोतों एवं प्रभावों का वर्णन कीजिए। What is soil pollution? Describe its sources and effects.
उत्तर- मृदा मानव के लिए मूल्यवान वस्तु है। पृथ्वी के 71% भू-भाग पर जल तथा शेष पर मृदा सहित अन्य पहाड़ी, पठारी एवं मरुस्थलीय संरचनाएँ हैं। कृषि योग्य भूमि ग्लोब का मात्र 2% है। वन ग्लोब के 8.6% भू-भाग पर फैले हैं जबकि घास के मैदानों का विस्तार 7.2% है। इस प्रकार मृदा का लगभग 2% भू-भाग ही खेती के लिए उपलब्ध है जिस पर विश्व खाद्यान्न का 71% भाग उत्पादित किया जाता है। अतः मृदा का संरक्षण मानव जाति के लिए पक्ष प्रश्न से कम नहीं है।
इस प्रकार भूमि अथवा ‘भू’ एक व्यापक शब्द है जिसमें पृथ्वी का सम्पूर्ण धरातल समाहित है परन्तु मूल रूप से पृथ्वी के अत्यंत छोटे भू-भाग पर ही कृषि एवं विविध मानव क्रियायें सम्पन्न होती हैं। इस परत की रचना विभिन्न प्रकार की शैलों से होती है जिसमें किसी भी प्रकार से अपक्षरण मृदा को जन्म देता है। इसमें विभिन्न कार्बनिक एवं अकार्बनिक तत्वों का योग होता है। जब मानवीय अथवा प्राकृतिक कारणों से भूमि का प्राकृतिक स्वरूप अपक्षमित होने लगता है तो वहीं से मृदा प्रदूषण का जन्म होता है।
इस प्रकार, भूमि के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवांछित परिवर्तन जिसके प्रभाव से भूमि की प्राकृतिक गुणवत्ता तथा उपयोगिता नष्ट हो, भूमि का प्रदूषण कहलाता है।
वास्तव में मिट्टी की अपनी एक उत्पादक क्षमता है परन्तु जनसंख्या आधिक्य के कारण अधिक अन्न उपजाने हेतु मिट्टी का अनावश्यक अतिशय दोहन किया जाता है और रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों तथा खरपतवार नाशकों का अंधाधुंध प्रयोग किया जाता है जिसका दुष्प्रभाव मिट्टी पर पड़ता है जिससे उसकी उत्पादकता एवं मानव, पेड़-पौधों तथा जानवरों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः मृदा की गुणवत्ता में इस ही मृदा प्रदूषण है जो आज गंभीर संकट का रूप धारण करता जा रहा है।
मृदा प्रदूषण के स्रोत (Sources of Soil Pollution)
मृदा प्रदूषण मुख्यतः निम्न प्रकार का होता है –
(1) ठोस अपशिष्ट पदार्थ (Solid Waste Materials) तथा
(2) रासायनिक पदार्थ (Chemical Materials) |
(1) ठोस अपशिष्ट पदार्थ (Solid Waste Materials)- यह मानव समुदायों की सामान्य रीतियों से उत्पन्न होने वाला एक प्रकार का अवांछित अथवा परित्यक्त ठोस पदार्थ होता है। जिसमें कूड़ा-करकट, निस्सार पदार्थ, सड़कों का कूड़ा, राख घरों का कचरा तथा अन्य औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थ सम्मिलित होते हैं। ठोस अपशिष्ट पदार्थ दो प्रकार का हो सकता है-
(i) घरेलू, नगरीय, व्यापारिक अपशिष्ट, कूड़ा करकट तथा औद्योगिक दूषित जल एवं कचरा ।
(ii) खनन के परिणामस्वरूप उत्पन्न अवशिष्ट पदार्थ ।
भूमि प्रदूषण का एक बहुत बड़ा भाग घरेलू अपशिष्ट का होता है। घरों की सफाई से जहाँ एक और धूल एवं मिट्टी निकलती है वहीं दूसरी ओर प्लास्टिक, कागज, गत्ता, कपड़ा, लकड़ी एवं कई प्रकार की धातुएँ भी होती हैं सब्जियों, फलों के छिलके, चाय की पत्तियाँ तथा अन्य सड़े-गले खाद्य पदार्थ भी होते हैं। इन्हें सामान्यतः किसी स्थान पर या खुली सड़कों पर फेंक दिया जाता है। विकसित देशों में इसके निस्तारण की व्यवस्था होती है परन्तु विकासशील देशों में इस प्रकार की किसी व्यवस्था का प्रायः अभाव होता है जिसके कारण ये पदार्थ सामान्य रूप से खुले में सड़ते हैं जिससे विभिन्न प्रकार के विषाणु एवं जीवाणु उत्पन्न होते हैं जो प्रदूषण एवं अन्तत: अनेक गंभीर रोगों का कारण बनते हैं।
कृषि अपशिष्टों का भी मृदा प्रदूषण में महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसमें कृषि कार्य के उपरान्त उसका बचा भूसा, डंठल, घास-फूस आदि को एक स्थान पर प्राय: छोड़ दिया जाता है जो वर्षा का पानी पाकर सड़ता है तथा जैविक क्रिया के परिणामस्वरूप यह प्रदूषण का गंभीर कारण बन जाता है। कृषि कार्य में प्रयुक्त रासायनिक उर्वरक कीट एवं खरपतवार नाशक भी मृदा को विषाक्त बनाते हैं। नगरपालिका के अपशिष्ट भी सुनियोजित निस्तारण की व्यवस्था न होने से इसी प्रक्रिया से गुजरकर प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
औद्योगिक संस्थान चाहे वह किसी भी प्रकार का कच्चा माल प्रयुक्त करें उनसे दूषित जल एवं कचरा काफी बड़ी मात्रा में निकलता है। इससे निकलने वाले रासायनों के अवशेष क्रमशः वातावरण एवं मृदा को प्रदूषित करते हैं।
(2) रासायनिक पदार्थ (Chemical Materials)- रासायनिक पदार्थों में मुख्यतः रासायनिक उर्वरक कीटनाशक, खरपतवारनाशक तथा फसलों के रोगनाशक आते हैं जो मृदा तथा मानव स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करते हैं।
परमाणुघरों से निकला कचरा तथा रेडियोएक्टिव तत्वों से निकलने वाली विकिरण भी अन्ततः मृदा एवं मानव स्वास्थ्य को काफी अधिक प्रभावित करती है। परमाणु विस्फोट तथा परमाणु बिजली घरों में दुर्घटना आदि के कारण निकलने वाली विकिरण तो मानव जीवन को ही अनियोजित एवं विकट कर देती है जिसका दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ी को भी भुगतना पड़ता है।
मृदा प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Soil Pollution)- मृदा प्रदूषण का मुख्यतः निम्न प्रभाव पड़ता है-
(1) प्रदूषण के कारण मृदा की गुणवत्ता में ह्रास हो जाता है और क्रमशः वह अनुपजाऊ हो जाती है।
(2) रासायनिक खादें तथा जैवनाशक दवाओं का प्रयोग जन्तुओं में विभिन्न प्रकार के रोग तो उत्पन्न करता ही है। इसके प्रयोग से प्रतिवर्ष लाखों लोग मर भी जाते हैं।
(3) रासायनिक उर्वरकों तथा कीट एवं खरपतवारनाशक रसायनों के प्रयोग से उत्पादित खाद्यान्नों, फलों आदि में पोषक तत्वों का काफी ह्रास हो जाता है जो मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित करता है।
(4) अपशिष्ट पदार्थों में उत्पन्न होने वाले अनेक जीव-जन्तु, मक्खियाँ, मच्छर, तिलचट्टे, वायरल हिपेटाइटिस, कुष्ठरोग, आँतों की बीमारी तथा त्वचा एवं आँखों से संबंधित रोग उत्पन्न करते हैं।
(5) मृदा प्रदूषण मानव के स्वास्थ्य पर कई प्रकार से प्रभाव डालता है। इससे भूमि की उपयोगिता तो घटती ही है साथ ही साथ हमारे जल स्रोत भी दूषित हो जाते हैं क्योंकि बरसात के पानी के साथ यह प्रदूषित पदार्थ जल स्रोतों में जाकर जमा हो जाते हैं।
प्रश्न 12. पर्यावरण प्रदूषण रोकने के विभिन्न उपायों पर प्रकाश डालिए। Throw light on various measures to control pollution.
अथवा
पर्यावरण संरक्षण पर एक टिप्पणी लिखिये। Write a note on Environmental Protection.
उत्तर- प्रदूषित वस्तु के आधार पर पर्यावरण प्रदूषण को मुख्यतः निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-
1. वायु प्रदूषण (Air Pollution),
2. जल प्रदूषण (Water Pollution),
3. भूमि प्रदूषण (Land Pollution),
4. खाद्य प्रदूषण (Food Pollution),
5. ध्वनि प्रदूषण (Sound Pollution),
6. रेडियोएक्टिव प्रदूषण (Radioactive Pollution)
इन्हें नियंत्रित एवं रोकने हेतु निम्न उपायों पर ध्यान देना आवश्यक है –
(1) पर्यावरण अपकर्षण अर्थात् जल, वायु तथा अन्य प्रकार के प्रदूषण की रोकथाम के उपायों को अधिक गतिशील बनाया जाये।
(2) कार्यपालिका, विधायिका आदि के पर्यावरण प्रदूषण रोकने की विफलता को लोकहित वादों के माध्यम से उजागर किया जाये। न्यायपालिका इस दिशा में अधिक सक्रिय हो अन्यथा नेता-माफिया तथा उद्योगपति गठजोड़ प्रदूषण नियंत्रण के प्रयास को विफल करते रहेंगे।
(3) प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
(4) पारिस्थितिक तंत्र को हर कीमत पर सुरक्षित रखा जाये।
(5) औद्योगिक प्रदूषण रोकने हेतु विभिन्न अधिनियमों के प्रावधानों को अधिक सख्त बनाया जाये तथा उनका कठोरता से अनुपालन करवाया जाये।
(6) सभी बड़े शहरों (Mega cities) में प्रदूषण रोकने की व्यवस्थित एवं कारगर व्यवस्था की
(7) वन संरक्षण के प्रावधानों का काठोरता से अनुपालन करवाया जाये।
(8) अवैध खनन पर प्रतिबंध लगाया जाये तथा पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील खननों को तुरन्त बंद करवाया जाये।
(9) वृक्षारोपड़ कार्यक्रम को एक मिशन के रूप में लागू किया जाये।
(10) कीटनाशकों तथा उर्वरकों के स्थान पर जैविक उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाये।
(11) बड़े बांधों तथा जलाशयों का विकास पर्यावरण के अनुकूल रीति से किया जाये।
(12) संवैधानिक व्यवस्था के तहत् अनु० 21, 38, 43क, 47 तथा 48क को कारगर ढंग से लागू किया जाये।
(13) लोकस्वास्थ्य कार्यक्रमों से अधिकाधिक लोगों को परिचित कराया जाये।
(14) प्रदूषण के संबंध में जागरूकता अभियान चलाया जाये।
(15) स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में प्रारम्भ से ही पर्यावरण के फायदों/हानियों के बारे में बच्चों को निचले स्तर से ही परिचित करवाया जाये।
प्रश्न 13. भारतीय पर्यावरण विधि के इतिहास की विवेचना कीजिए। Explain history of Indian Environmental Laws.
अथवा
भारतीय पर्यावरण विधि के विकास पर एक टिप्पणी लिखिए। Write a comment on the development of Indian Environmental Law.
भारत में पर्यावरण विधि के ऐतिहासिक विकास पर एक निबंध लिखिये।
अथवा
Write an essay on Historical Development of Indian Environmental law.
अथवा
भारतीय पर्यावरण विधि के इतिहास पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए। Write a long essay on the History of Indian Environmental Law.
उत्तर – मानव के सामाजिक एवं आर्थिक एवं व्यक्तिगत जीवन में पर्यावरण की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है परन्तु तकनीकी प्रगति तथा औद्योगीकरण के आज के दौर में पर्यावरण की शुद्धता पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ा है, जबकि सम्पूर्ण मानव जाति को यह भलीभाँति ज्ञात है कि उसके जीवन एवं अस्तित्व के लिए स्वच्छ पर्यावरण अपरिहार्य है। शायद आज इसी कारण स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार एक संवैधानिक एवं मानव अधिकार के रूप में उभर कर सामने आ रहा है।
प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में पर्यावरण (Environment in Ancient Religious Texts) – भारत के प्राचीन धर्मग्रंथों, यथा वेद, पुराण, स्मृति आदि में पेड़-पौधों, पृथ्वी, आकाश, वायु, जल और वन्य जीवों की उपासना का भाव प्रकट हुआ है। हिन्दू धर्म में प्रकृति के संरक्षण पर सदैव आदर भाव एवं जोर दिया गया है। इन ग्रंथों में मनुष्य को प्रकृति में देवत्व का भाव दिखाया गया है। वृक्ष, पशु, नदियों, पहाड़ों को प्रकृति का प्रतिनिधि माना गया है। हिन्दू धर्म में अनादि काल से ही प्रकृति की शुद्धता बनाये रखने पर जोर दिया गया है हिन्दू धर्म की मान्यता है कि मनुष्य का शरीर पाँच प्राकृतिक तत्वों- वायु, जल, अग्नि, गगन तथा पृथ्वी अर्थात् मिट्टी से मिलकर बना है। इस प्रकार हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार हमारा शरीर प्रकृति से बना है जो हमारे लिये पर्यावरण के महत्व को खुद व खुद दर्शा देता है।
मौर्य काल में पर्यावरण ( Environment in Mauryan Period)- मौर्य काल पर्यावरण की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। इस काल में कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अनुसरण किया जाता था। शहरों तथा कस्बों का विकास नियोजित था। स्वच्छता के विनियमन हेतु कानून काफी कड़े थे और उनका कड़ाई से अनुपालन करवाया जाता था। लोक स्थानों पर प्रदूषण फैलाना दण्डनीय अपराध था। जंगल, जंगल जीवन तथा इसके उत्पादों को काफी महत्व दिया जाता था। जंगल नीति काफी व्यापक थी। पेड़ों को काटना तथा जंगलों को क्षति पहुँचाना दण्डनीय अपराध था। प्रकृति विरोधी किसी भी कार्यकलाप को धर्म विरोधी माना जाता था।
इस प्रकार वेद, पुराण, उपनिषद् आदि में वन्य जीवन को मानव के लिए उपयोगी माना जाता था। इनमें सूर्य, वायु, पृथ्वी, अग्नि तथा जंगलों के देवी तथा देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। सम्राट अशोक के काल में कतिपय जीवों की हत्या निषिद्ध थी।
अपने अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने जंगल प्रशासन पर जोर दिया है। यही नहीं हड़प्पा सभ्यता में भी जनसंख्या पारिस्थितिकी के अनुरूप रहती थी और उनकी दैनिक आवश्यकताएँ भी पर्यावरण के अनुकूल थीं।
प्रकृति के प्रति सहानुभूति का उपदेश सभी प्राचीन धर्मों में दिया गया है। बौद्ध धर्म अनुभव एवं तर्क पर आधारित था। सिक्ख धर्म में भी शरीर को पाँच तत्वों से मिलकर बना हुआ माना गया है।
मुगल काल (Mughal Period) यद्यपि इस्लाम में मनुष्य तथा प्रकृति में संतुलन का भाव व्यक्त किया गया है परन्तु मुगल काल में प्रकृति की हानि हुई। पर्यावरणविदों के यह सामान्य मत हैं कि मुगल शासक प्रकृति के प्रेमी थे और इसी कारण उन्होंने अनेक बाग-बगीचे एवं फलदार वृक्ष लगवाये। परन्तु इस काल में प्राकृतिक पर्यावरण की उन्नति हेतु कोई प्रयास नहीं किया गया।
मुगल काल में कई बार आयी अस्थिरता के कारण प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। कुछेक शासकों को छोड़ कर सभी विलासी जीवन में मग्न थे। राजमहलों के आसपास बाग-बगीचों को रोपड़ महलों की भव्यता को बढ़ाने मात्र की दृष्टि से किया गया यद्यपि कुछ उदाहरण राजमार्गों पर भी वृक्षारोपड़ के पाये जाते हैं।
ब्रिटिश काल में पर्यावरण (Environment in British Period) – ब्रिटिश लोग भारत में व्यापार करने आये थे और सदा व्यापारी बनकर लाभ कमाने में ही व्यस्त रहे। जंगल को ब्रिटिश साम्राज्य के उत्कर्ष में बाधक माना जाता था। तत्कालीन कृषि नीति का मुख्य जोर उत्पादन और लगान बढ़ाने पर था। इस प्रक्रिया में जंगलों को साफ करो तथा कृषि जोत को बढ़ाने का नारा दिया गया ताकि ब्रिटिश राजस्व में अधिकतम वृद्धि हो सके।
इस दिशा में ब्रिटिश काल में 1853 में रेलवे के विकास ने भी जंगलों को काफी क्षति पहुँचायी। ब्रिटिश सरकार का इस दिशा में प्रथम कदम जंगलों पर एकाधिकार प्राप्त करना था जिसके 1865 में जंगल अधिनियम पारित किया गया। 1878 में इसमें संशोधन करके अधिकांश क्षेत्रों पर इसका विस्तार किया गया और जंगलों पर राज्यशक्ति को बढ़ाकर व्यापक बना दिया गया।
ब्रिटिश सरकार ने अपनी प्रथम जंगल नीति 19 1884 को घोषित की जिसका उद्देश्य देश के सामान्य कल्याण, वातावरण, लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति था परन्तु वास्तव में यह व्यापार में वृद्धि के दृष्टिकोण से ही पारित किया गया था ताकि रेलवे की पटरियों हेतु सागौन की लकड़ी प्राप्त होती रहे।
ब्रिटिश काल में अधिकांश अधिनियम जल प्रदूषण को नियंत्रित करने की दृष्टि से पारित गये। इसमें से मुख्य निम्न हैं-
(1) द शोर न्यूर्सेस (बाम्बे एवं कोल्वा) अधिनियम, 1853
(2) ओरियण्ट गैस कम्पनी अधिनियम, 1857.
(3) भारतीय दण्ड संहिता, 1860,
(4) द सराय अधिनियम 1867,
(5) द इंडियन पोर्ट्स एक्ट 1908,
(6) द प्वायजन अधिनियम, 1919,
(7) द इंडियन फॉरेस्ट ऐक्ट, 1927।
दि शो न्यूर्सेस अधिनियम सबसे प्राचीन एवं जल प्रदूषण के बारे में है। 1927 में पारित भारतीय वन अधिनियम बहुत व्यापक एवं विस्तृत था। इसमें भूमि प्रयोग नीति भी समाविष्ट थी जिसके अधीन सभी प्रकार की वन्य भूमियों को अधिग्रहण किया जा सकता था। इसकी धारा 5 द्वारा जंगल जल क्षेत्र को विषाक्त करना दण्डनीय अपराध बना दिया गया। यह अधिनियम आज भी लागू है।
इस प्रकार ब्रिटिश काल में भी पर्यावरण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। बाद में स्वतन्त्रता के बाद इसमें परिवर्तन आया परन्तु आज भी प्रदूषण नियंत्रण की कई सुव्यस्थित व्यवस्था नहीं है।
प्रश्न 14. पर्यावरण विधि की प्रभाविकता पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिए एवं पर्यावरण विधि की कमियों का उल्लेख कीजिए। Write a critical comment on effectiveness of environmental and describe the demerits of environmental law.
उत्तर – पर्यावरण के संरक्षण तथा इसमें व्याप्त प्रदूषण के लिये भारत सहित विश्व के अनेकों देशों द्वारा विधियों का निर्माण किया गया है। साथ विश्व के अनेकों संगठनों द्वारा स्वच्छ पर्यावरण हेतु विभिन्न प्रकार के अधिसमय किये गये हैं तथा इन अधिसमयों के दस्तावेजों पर उसमें भाग लेने वाले सदस्य देशों ने अपना हस्ताक्षर करके उसके प्रति बाध्यता प्रदर्शित की है। पर्यावरण विधि, पर्यावरण के संरक्षण से सम्बन्ध रखती है तथा पर्यावरण प्रदूषण का नियंत्रण करती है। इसके लिये वह पर्यावरण प्राधिकारियों का गठन करती है, उनको शक्तियाँ प्रदान करती है तथा उनके कृत्यों एवं दायित्वों को प्रदर्शित करती है। पर्यावरण विधि का सम्बन्ध अनेक क्षेत्रों से है जैसे – जैविकी, पारिस्थितिकी, अर्थशास्त्र, जल विज्ञान, जीव प्रौद्योगिकी, चिकित्सा विज्ञान, राजनीतिशास्त्र, लोक प्रशासन आदि। यहाँ यह स्मरणीय है कि पर्यावरण विधि को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता तथा इसका अध्ययन पारिस्थितिकी एवं अर्थशास्त्र की जानकारी की भी अपेक्षा करता है।
आत्मनिर्भरता के मानदण्ड की उत्पत्ति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण के संरक्षण तथा पर्यावरण विधि को राज्य विधि की सीमाओं से परे जाने के लिये तथा इसके प्राधिकार को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के क्षेत्र तक विस्तारित करने के लिये हुआ है। पर्यावरण संरक्षण पर 1972 में स्टाकहोम में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन एक युगान्तकारी घटना है। इस सम्मेलन में इस बात पर बल दिया गया कि अपने परिवेश को रूपान्तरित करने की मनुष्य की सामर्थ्य का बुद्धिमत्ता से प्रयोग किया जाना। चाहिए। इसका गलत एवं अंधाधुंध प्रयोग मानव तथा मानवीय पर्यावरण को गणनातीत क्षति पहुँचा सकता है। सम्मेलन में उन क्षेत्रों को बताया गया है तथा उन सिद्धान्तों को अभिकथित किया गया है। जिन पर राष्ट्रों को पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन के लिये विधियों को पारित करना चाहिए।
प्रथम विश्व पृथ्वी सम्मेलन में यह कहा गया कि उत्तरी एवं दक्षिणी सभी राष्ट्रों के समान सहयोग से मानवता के लिये खतरा उत्पन्न करने वाली पारिस्थितिक समस्याओं का समाधान ढूँढ़ना चाहिए। संकल्प में यह भी कहा गया कि हमें पृथ्वी की रक्षा अवश्य करनी चाहिए तथा साथ में मानवता का भी।
उपर्युक्त के परिप्रेक्ष्य में भारत ने भी पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक विधियों का निर्माण किया है। जैसे- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986, जल संरक्षण अधिनियम, वायु संरक्षण अधिनियम, वायु प्रदूषण अधिनियम आदि।
पर्यावरण विधि की आलोचना- पर्यावरण विधि अपने मूलभूत उद्देश्यों को प्राप्त करने में पूर्ण रूप से असफल रही है। वर्ष 1992 के पृथ्वी घोषणा सिद्धान्त में अपेक्षा की गई थी कि दबाव, अधीनस्थता तथा स्वामित्वाधीन लोगों के प्राकृतिक संसाधन एवं पर्यावरण को संरक्षण मिलना चाहिए। शान्ति, विकास तथा पर्यावरण संरक्षण एक-दूसरे पर अविभाजित तथा अविभाज्य हैं। एक राज्य द्वारा की गई गतिविधियाँ सामान्यत: दूसरे राज्य के प्राकृतिक संसाधन तक पहुँच जाती है तथा पर्यावरण को प्रभावित करती हैं। इसके सिवाय प्रत्येक राज्य की कुछ अपनी आवश्यकताएँ होती है तथा उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये वह पर्यावरण पर पूरा ध्यान नहीं दे पाता है क्योंकि पर्यावरण के संरक्षण हेतु वह आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं होता है।
पर्यावरण विधि की कमियाँ – पर्यावरण विधि सार्वभौमिक है तथा इसकी सार्वभौम मान्यता है। कभी-कभी अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के सदस्य राज्य तथा अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमयों पर हस्ताक्षर करने वाले राज्य बच जाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके अनेक कारण माने जाते हैं।
पहला- नाभिकीय हानि को छोड़कर एक तटस्थ दायित्व का इसमें अभाव है।
दूसरा- इसके अनुपालन की अपेक्षा उल्लंघन में अधिक माना जाता है।
तीसरा- पर्यावरण विधि के दायित्वों का प्रवर्तन अत्यधिक अनिश्चित है।
चेर्नोबिल परमाणु विस्फोट तथा फ्रांस द्वारा नाभिकीय परीक्षणों की सीमा से परे प्रभाव के लिये। दायित्व का प्रवर्तन नहीं किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय बात यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अन्तर्गत घोषित पर्यावरण प्रदूषण के लिये दायित्व सिविल विधि एवं राज्य विधि के अन्तर्गत घोषित दायित्व के बीच विभाजन रेखा क्षीण होती जा रही है। प्रदूषक भुगतान करे नामक अन्तर्राष्ट्रीय. प्रदूषण दायित्व सम्बन्धी मानक का राज्यों द्वारा प्रवर्तनीय नियम का रूप देना इसका प्रमाण है। पर्यावरण विधि के सम्बन्ध में एक समस्या यह है कि परस्पर वैचारिक हितों का मूल्यांकन किस तरह करके सन्तुलन कायम किया जाय।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पर्यावरण विधि में कमियों के बावजूद ये पर्यावरण प्रदूषण की समस्या को कम करने में सहायक साबित हो रही है। यद्यपि कि अन्य विधियों की भाँति ये उतनी प्रभावकारी नहीं है तथापि अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में एक सीमा तक सफल रही हैं। इसके साथ अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमयों के योगदान को भी महत्वपूर्ण मानने से इंकार नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न 15. पर्यावरण विधि के क्षेत्र एवं महत्व की व्याख्या कीजिए। Explain scope and importance of environmental law.
उत्तर – पर्यावरण विधि पर्यावरण के प्रबंधन और पर्यावरण को प्रभावित करने वाली समस्याओं का सामना करने वाली युक्तियों से संबंधित वह विधि है जो कि पर्यावरण का संरक्षण करती है और निवारण करने वाली विधि है। यद्यपि पर्यावरण प्रदूषण के संकट का सामना करने के लिए इसमें अनेक निवारक और उपचारी उपाय भी सम्मिलित हैं।
पर्यावरणीय विवादों के व्यापक स्पेक्ट्रम भी इसके अन्तर्गत आ जाते हैं। इसके अन्तर्गत पर्यावरण यानी स्वास्थ्य, सामाजिक तथा पृथ्वी पर विद्यमान भौतिक दशायें यथा वायु एवं जल और मानव पर्यावरण अर्थात् स्वास्थ्य सामाजिक तथा धरती पर मानवीय प्राणियों को प्रभावित करने वाली मानव निर्मित दशायें भी इसके अन्तर्गत आ जाती हैं।
इस प्रकार पर्यावरण विधि का संबंध कई अन्य विधाओं से भी है तथा जैविकी पारिस्थितिकी, अर्थशास्त्र, जल विज्ञान, बायो-टेक्नॉलाजी, चिकित्सा, मनोविज्ञान लोक प्रशासन तथा चिकित्सा विज्ञान से भी वह जुड़ा हुआ है। इसका अध्ययन पारिस्थितिकी तथा अर्थशास्त्र से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण विधि की यह अन्तर्निर्भरता (Interdependence) ही इसे विधि की एक सुभिन शाखा के रूप में कर पाती है।
पर्यावरणीय विधि को कॉमन लॉ तथा सांविधिक विधि (Statutory Law) के सिद्धांतों का सम्मिश्रण माना जा सकता है। यह कई अन्य विधियों में प्रतिपादित सिद्धांतों, संकल्पनाओं, मानकों तथा मानों (Values) का संश्लेषण है।
पर्यावरणीय विधि का महत्व (Importance of Environmental Law) – पृथ्वी पर व्याप्त पर्यावरण मानव तथा अन्य प्राणियों के लिए प्रकृति का सर्वोत्तम वरदान है। पर्यावरण ही वह पक्ष है जिसने पृथ्वी का हरित ग्रह का गौरव प्रदान किया है। इस ब्रह्माण्ड में पृथ्वी से भी बड़े अनगिनत ग्रह है, परन्तु प्रमाणिक जानकारी के अनुसार केवल पृथ्वी पर ही जीवन का विकास संभव हो पाया है।
अन्य जीवित प्राणियों को भाँति मानव को भी द्रव्य एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। अन्य प्राणियों की तरह मानव को भी अपने लिए पदार्थों को कृत्रिम रूप से तैयार करना पड़ता है। पर्यावरण ही जैव जगत का प्राणवायु है।
उपरोक्त से मानव के लिए पर्यावरण का महत्व स्पष्ट हो जाता है। पर्यावरण के बिना मानव ही नहीं बल्कि अन्य जीव-जन्तुओं का अस्तित्व भी संभव नहीं है। इस प्रकार पर्यावरण जीवधारियों के लिए अपरिहार्य है।
चूँकि सभी मनुष्य या अधिकांश मनुष्य पर्यावरण से व्यक्तिगत या निजी लाभ अधिक से अधिक प्राप्त करना चाहते हैं और इस प्रक्रिया में पर्यावरण का अनाप सनाप विदोहन करके उसे क्षति भी पहुँचाते हैं। अतः पर्यावरण को स्वच्छ एवं संतुलित बनाये रखने के लिए उनकी इन गतिविधियों पर नियंत्रण आवश्यक है अन्यथा पर्यावरण हमारे लिए कष्टकारी हो जायेगा। यह नियंत्रण पर्यावरण विधि के माध्यम से स्थापित किया जाता है। अतः पर्यावरण विधि भी उतनी ही हमारे लिए अपरिहार्य है जितना कि स्वच्छ एवं संतुलित पर्यावरण आवश्यक है।
अतः पर्यावरण विधि भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। जैसे जैसे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता जायेगा और हमारे सामने अस्तित्व के लिए यक्ष प्रश्न खड़ा करेगा वैसे-वैसे पर्यावरण विधि का महत्व बढ़ता जायेगा क्योंकि आज के औद्योगिक एवं भौतिकवादी युग में पर्यावरण प्रदूषण को पर्यावरण विधि के माध्यम से ही नियंत्रित और रोका जा सकता है।
प्रश्न 16. ओजोन परत की क्षीणता के कारण, परिणाम तथा उसके संरक्षण हेतु अन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों का विवेचन कीजिए। Discuss causes, impact and international efforts for the conservation of the minimization of ozone layer.
उत्तर – प्रायः कहा जाता है कि प्रकृति समस्या एवं समाधान को साथ-साथ लेकर चलती है। सूर्य सृष्टि एवं ऊर्जा का मूल स्रोत है। यही बीजों के अंकुरण एवं वृद्धि से लेकर जीवधारियों के जीवन एवं विकास का माध्यम है। परन्तु सूर्य किरणें भी संतुलन से बाहर जाने पर हमारे लिए घातक साबित होती हैं। सूर्य से पृथ्वी की ओर जाने वाली अल्ट्रावायलेट किरणें जैव जगत के लिए खतरनाक है। परन्तु इस संकट को दूर करने का उपाय भी प्रकृति ने बनाया है। इससे बचाव के लिए प्रकृति ने ओजोन मण्डल में ओजोन परत का निर्माण किया है जो पृथ्वी के लिए चतुर्दिक एक छतरी के रूप में 15 से 30 किमी दूरी तक व्याप्त है। आधुनिक मत के अनुसार यह परत पृथ्वी के ऊपर 40 से 50 किमी की ऊँचाई तक माना गया है। यही ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली खतरनाक पराबैगनी (Ultraviolet) किरणों को अवशोषित कर पृथ्वी पर आने से रोकती है और हमारे जीवन का पृथ्वी पर निरापद बनाती है।
वस्तुत: ओजोन एक तीव्र गंध वाली क्रियाशील एवं विषैली वायुमण्डल में पायी जाने वाली गैस है। आक्सीजन के तीन परमाणुओं के संयोग से ओजोन का एक अणु बनता है। इसकी खोज एक जर्मन वैज्ञानिक फ्रेडरिक श्यीन वाइन ने 1839 में की थी। इसका उपयोग पानी साफ करने, तेलों तथा कपड़ा उत्पादन में किया जाता है परन्तु पृथ्वी की सतह के पास इसका उत्पादन हो कार्बन, नाइट्रोजन आक्साइड तथा कार्बन मोनोआक्साइड की धूप में आपसी प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप होता है।
ओजोन गैस श्वांस क्रिया के माध्यम से शरीर में पहुँचने पर हानिकारक प्रभाव डालती है। मानव शरीर में विद्यमान थायोल, एमीन तथा प्रोटीन के आक्सीकरण तथा असंतृप्त (Unsaturated) वसा अम्लों के पराक्सीकरण से स्वतन्त्र मूलकों की उत्पत्ति होती है जो फेफड़ों में घाव तक उत्पन्न कर देते हैं। ये स्वतन्त्र मूलक हमारी कोशिकाओं के गुणसूत्रों में भी परिवर्तन कर देते हैं जिससे उसके आनुवंशिक गुण तक बदल जाते हैं।
ओजोन नाशक रसायन (Ozone Destroying Chemicals) – ओजोन को विनष्ट करने वाले रसायन को ओजोन नाशक रसायन कहा जाता है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन ब्रोमोफ्लोरो कार्बन या हैलो कार्बन ट्रेटाक्लोराइड, मिथाइल क्लोरोफार्म एवं मिथाइल ब्रोमाइड आदि मुख्य ओजोन नाशक रसायन हैं।
क्लोरोफ्लोरो कार्बन फ्लोरीन तथा कार्बन के संयोग से बना एक मानव जनित रसायन है। यह अविषाक्त रसायन है और इसका प्रयोग मुख्यत: सर्जिकल उपकरणों को कीटाणु रहित करने, फोम, कुशन, गद्दे, गाड़ियों की सीट, कोल्ड स्टोरों, एयरकंडीशनरों, रेफ्रिजरेटरों, आरा मशीनों आदि में किया जाता है। यह कार्बन की तुलना में 20,000 गुना अधिक गर्मी को अवशोषित करता है और इसके अणु स्ट्रेटो स्फीयर में 65 में से 110 वर्ष तक बने रह सकते हैं। विश्वव्यापी तापमान को बढ़ाने में इसका योगदान लगभग 14% है।
ब्रोमोफ्लोरो कार्बन – ब्रोमोफ्लोरो कार्बन का प्रयोग सामान्यतः अग्निशामक के रूप में किया जाता है। इसकी ओजोन नाशक क्षमता सी.एफ.सी. की तुलना में 10 गुना अधिक है।
कार्बन टेट्राक्लोराइड – इस रसायन का उपयोग मुख्यतः सी.एफ.सी के उत्पादक में किया जाता है। इसके अलावा कुछ दवाइयों, क्लोरीनेटेड रबर, कृषि रसायनों एवं टेक्सटाइल क्लीनिंग में भी यह प्रयुक्त होता है। यह एक विषाक्त एवं प्रभावी कैंसरकारक रसायन है।
मिथाइल क्लोरोफार्म – यह एक प्रभावी क्लीनिंग ऐजेंट है और मुख्यत: इलेक्ट्रॉनिक उद्योगों में धातुओं की सफाई, ड्राइक्लीनिंग, कीटनाशकों, ऐरोसोल एवं कोटिंग उद्योग में किया जा रहा है। इसकी ओजोन नाशक क्षमता बहुत कम लगभग 10% होती है।
मिथाइल ब्रोमाइड- यह मुख्यत: Soil Pumigation के रूप में प्रयुक्त होता है।
ओजोन रिक्तीकरण (Ozone Depletion) – ओजोन की उच्चता वातावरण में सूर्य की हानिकारक पराबैगनी किरणों को दूर फेंकने का कार्य करती है। परन्तु अब यह गैस वातावरण में कम होने लगी है। इसका कारण उद्योगों में इस्तेमाल होने वाले उपर्युक्त रसायन है जो हवा में पहुँचकर वातावरण के शिखर पर तैरने लगते हैं और ओजोन के साथ अभिक्रिया करके उस कमजोर कर देते है। इसमें सर्वाधिक घातक रसायन सी. एफ सी है जिसका प्रयोग मुख्यत: रेफ्रिजरेटर, एयरोसोल स्प्रे, प्लास्टिक फोम आदि बड़े उद्योगों में होता है।
अभी तक विश्व में दो स्थानों पर ओजोन छिद्रों या ओजोन परत के क्षीण होने का पता चला है।
(1) अंटार्कटिक महासागरीय परिक्षेत्र में ओजोन परत सर्वाधिक पतली हैं और यहाँ पर वर्ष के कई महीनों में ओजोन छिद्र बना रहता है। ऐसा पता चला है कि यह छिद्र बड़ा होता जा रहा है और स्थायित्व ग्रहण करता जा रहा है।
(2) आर्कटिक महासागरीय क्षेत्र के ऊपर दूसरे ओजोन छिद्र का पता चला है। यह अधिक खतरनाक है, क्योंकि इस क्षेत्र के नीचे घनी आबादी का वास है।
(3) उत्तरी गोलार्द्ध के कुछ एक स्थानों पर भी ओजोन परत में पतलापन पाया गया है। चूँकि यह गोलार्द्ध ही दुनिया की सर्वाधिक घनी आबादी वाला परिक्षेत्र है। इस कारण इस क्षेत्र के लोगों को पराबैंगनी किरणों से त्वचा कैंसर का सर्वाधिक खतरा है।
ओजोन लेयर में यह क्षीणता मौसम तथा ऊँचाई के अनुसार परिवर्तित होती पायी गयी है। स्विट्जरलैण्ड, उत्तरी अमेरिका तथा कनाडा परिक्षेत्र के ऊपर भी ओजोन परत में गिरावट पायी गयी है। इस प्रकार यह अब एक वैश्विक समस्या का रूप लेती जा रही है और आज इसके संरक्षण की सर्वाधिक आवश्यकता है।
ओजोन परत की क्षीणता के कारण (Couses of Depletion of Ozone Layer)- ओजोन परत की क्षीणता के मुख्यतः निम्न कारण हैं
(1) मानवीय कारण (Human Causes)
(2) प्राकृतिक कारण (Natural Causes)
(3) रासायनिक कारण (Chemical Causes)
(4) पराध्वनिक वायुयान (Ultrasounding Planes)
(5) नाइट्रोजन युक्त उर्वरक (Nitrogenous Fertilizers )
(6) ज्वालीमुखी उद्भेदन (Balconic Erruptions)
ओजोन तथा क्लोरीन की अभिक्रिया से ओजोन बनती है। रसायनों का अत्यधिक एवं मनमाना प्रयोग वातावरण में कई विषाक्त गैसों को जन्म देता है जो हवा में दूर-दूर तक फैल जाती है। क्लोरो फ्लोरो कार्बन आज ओजोन क्षरण के लिए सर्वाधिक दायी है।
कुछ प्राकृतिक कारण भी ओजोन परत को नुकसान पहुँचा रहे हैं। सूर्य के तीव्र प्रकाश के बाद जब कास्मिक किरणें तथा सौर प्रोटोन्स उत्सर्जित होते हैं तो ये समताप तथा मध्य मण्डल में फैल जाते हैं और नाइट्रोजन का विखण्डन कर देते हैं। इससे ओजोन तथा आक्सीजन के साथ एक श्रृंखली प्रतिक्रिया प्रारम्भ होती है जो नाइट्रिक आक्साइड बन कर ओजोन मण्डल को प्रदूषित कर रही है।
क्लोरीन एक सदा कार्यरत एवं कुप्रभावी तत्व है। यह एक ओजोन अणु के तोड़ने के बाद समाप्त नहीं हो जाता बल्कि बारम्बार ऐसा करता है और यह रासायनिक अभिक्रिया तब तक चलती। रहती है जब तक कि यह क्लोरीन का परमाणु लगभग एक लाख ओजोन अणुओं को विघटित नहीं कर देता है।
ओजोन परत के क्षरण में कुछ रसायनों का भी बड़ा योगदान है जिसमें क्लोरीन नाइट्रिक आक्साइड, परमाणु विस्फोट कास्मिक किरणें नाइट्रिक ऑक्साइड तथा ज्वालामुखी फूटने में उत्पन्न क्लोरीन इत्यादि उत्प्रेरक (Catalyst) का कार्य करते हैं।
पराध्वनि जेट वायुयानों से उच्च ज्वाला तापमान के कारण दहन प्रक्रिया के दौरान नाइट्रिक आक्साइड गैस बनती है जो अन्ततः ओजोन परत को क्षीण कर रही है।
ज्वालामुखी उदगार के परिणामस्वरूप निकला धुंआ युक्त बादल 50 किमी की ऊँचाई तक समताप मण्डल में पहुँच जाता है और क्लोरीन की मात्रा को बढ़ाकर ओजोन परत को क्षीण करता रहता है।
ओजोन क्षीणता के कुप्रभाव (Bad Effects of Ozone Layer Depletion)- ओजोन परत को क्षीणता का केवल मानव पर ही प्रभाव नहीं पड़ेगा बल्कि यह वनस्पतियों, पशुओं, छोटे-बड़े अन्य जीव जन्तुओं, पक्षियों तथा कृषि को भी अपनी चपेट में लेगा। नैरोवी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम 1983 में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार इसके प्रभाव से खाद्यानों यथा-मूँगफली की पैदावार में 50% मक्के में 10%, गेहूँ में 30% तथा सोयाबीन के उत्पादन में 45% तक की कमी आ गयी है।
ओजोन परत की क्षीणता के अनेक विनाशकारी प्रभाव भी पड़ेंगे। इससे विकरित में अप्रत्याशित वृद्धि, घातक चर्म कैंसर शाक सब्जियों में प्रदूषण तथा कृषि उत्पाद में काफी कमी और हमारे पारिस्थितिक सिस्टम में अव्यवस्था बढ़ने की प्रबल संभावना ही नहीं है बल्कि यह आज दिखायी भी देने लगा है। पराबैंगनी किरणों से हमारा सीधा सम्पर्क मानव तथा अन्य प्राणियों की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर सकता है। आँख में मोतियाबिंद की समस्या तथा चर्म कैंसर की संभावना प्रबल हो जायेगी।
ओजोन परत की सुरक्षा हेतु विश्वव्यापी प्रभाव (International Efforts for the Protection)- ओजोन परत की क्षीणता आज विश्वव्यापी समस्या बनती जा रही है। इस समस्या की व्यापकता एवं गंभीरता को देखते हुए 1980 के दशक में अनेक महत्वपूर्ण अभिसमयों तथा प्रोटोकालों का निर्माण किया गया। इन अभिसमयों का बीजारोपण स्टाकहोम सम्मेलन के घोषणा पत्र के 21 वें सिद्धांत के माध्यम से हुआ। वियना अभिसमय 1985 इसकी अगली कड़ी थी जिसमें सी. एफ.सी. के विस्तार के नियंत्रण द्वारा ओजोन परत को पराबैंगनी किरणों के विकिरण द्वारा उत्पन्न पृथ्वी के जीवन का संरक्षण करने के लिए कार्यरत ऊपरी परत के प्रति खतरों का सामना करने के लिए प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास था। यह अभिसमय ओजोन परत के संरक्षण की दिशा में विश्वव्यापी सहयोग का प्रारम्भिक बिन्दु है। इसके पश्चात् ओजोन परत का क्षरण करने वाले पदार्थों पर मांट्रियल प्रोटोकाल को अंगीकर किया गया। इसमें जून, 1990 में संशोधन किया गया तथा विकासशील राज्यों की विकास संबंधी आवश्यकताओं तथा पदार्थ प्रौद्योगिकी के अन्तरण की आवश्यकता पर विशेष जोर दिया गया और अन्ततः एक विकास निधि की स्थापना की गयी।
16 दिसम्बर 1987 को इस प्रोटोकाल का लाभ 56 देशों द्वारा हस्ताक्षर किया गया जिसका मुख्य ध्येय ओजोन परत को नष्ट करने वाले पदार्थों पर पाबंदी लगाना था परन्तु कुछ बड़े देशों ने इसकी सफलता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया।
1989 में वियना अभिसमय तथा मांट्रियल प्रोटोकाल में प्रतिनिधित्व करने वाली सरकारों तथा यूरोपीय समुदाय द्वारा हेलसिंकी घोषणा जारी किया गया जिसमें मुख्यतः यह माना गया कि ऐसे उपाय तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक कि कठोर नियंत्रण उपाय न किये जायेंगे। इसमें सी. एफ.सी. के उत्पादन में कमी यथाशीघ्र लाने तथा किसी भी दशा में सन् 2000 तक इसे अवश्य पूरा कर लेने पर जोर दिया गया। यह भी कहा गया कि ओजोन क्षरण करने वाले हैलोन और अन्य तत्वों को भी कम किया जाये तथा इस हेतु अन्य वैकल्पिक उपायों का प्रयोग किया जाये। इसमें विकासशील देशों की पहुँच सुसंगत वैज्ञानिक सूचना शोध परिणामों तथा प्रशिक्षण तक पहुँचाने पर भी जोर दिया। गया।
भारत में प्रतिवर्ष 16 सितम्बर को ओजोन परत संरक्षण दिवस को इस संदर्भ में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से व्यापक रूप से मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपने पर्यावरण कार्यक्रम के तहत् पर्यावरण दिवस 1989 के लिए विश्व उष्णता, विश्व चेतावनी का नारा दिया था। इसी के अनुरूप प्रतिवर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण संरक्षण दिवस मनाया जाता है।