“क्या पटाखे फोड़ना किसी धर्म का आवश्यक अंग है?” — संवैधानिक अधिकार, सामाजिक ज़िम्मेदारी और पर्यावरणीय नैतिकता का विश्लेषण
— न्यायमूर्ति अभय एस. ओका (पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज) की टिप्पणी के प्रकाश में विस्तृत लेख
भूमिका: धर्म की आड़ में प्रदूषण का प्रश्न
भारत विविधता का देश है — यहाँ असंख्य पर्व, उत्सव और धार्मिक मान्यताएँ हैं। दीपावली, ईद, गुरुपर्व, क्रिसमस, नववर्ष, और अनेक क्षेत्रीय पर्व हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा हैं। लेकिन जब त्योहारों के नाम पर प्रदूषण, स्वास्थ्य जोखिम, पर्यावरणीय संकट और सामाजिक असुविधा बढ़ने लगे, तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या धर्म के नाम पर किसी व्यक्ति को दूसरों को हानि पहुँचाने का अधिकार है?
इसी संदर्भ में पूर्व सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति अभय एस. ओका की गहरी प्रश्नाकुल टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है:
“क्या कोई यह कह सकता है कि पटाखे फोड़ना किसी धर्म का आवश्यक हिस्सा है जो संविधान द्वारा संरक्षित है?… जब पटाखे बुजुर्गों, बीमार व्यक्तियों, पक्षियों और जानवरों को नुकसान पहुँचाते हैं तो इसे उत्सव और खुशी कैसे कहा जा सकता है?”
यह प्रश्न केवल कानूनी या धार्मिक नहीं, बल्कि नैतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय भी है।
यह लेख इस संवेदनशील मुद्दे की गहराई से पड़ताल करता है।
धर्म, मौलिक अधिकार और “आवश्यक धार्मिक प्रथा”
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता देता है। लेकिन यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है — यह “सार्वजनिक स्वास्थ्य, नैतिकता और सार्वजनिक व्यवस्था” के अधीन है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में स्पष्ट किया है कि हर धार्मिक गतिविधि संविधान के संरक्षण के योग्य नहीं होती। केवल Essential Religious Practices (आवश्यक धार्मिक प्रथाएँ) ही संरक्षित होती हैं — यानी ऐसे कार्य जो धर्म के मूल सिद्धांत का अंग हों।
प्रश्न यह है — क्या किसी भी धर्म में पटाखे फोड़ना अनिवार्य धार्मिक परंपरा है?
उत्तर स्पष्ट है — नहीं।
न वेद, न पुराण, न कुरान, न बाइबल, न गुरु ग्रंथ साहिब में कहीं पटाखे फोड़ने को धार्मिक कर्तव्य कहा गया है।
यह एक सांस्कृतिक प्रथा है, धार्मिक आवश्यकता नहीं।
इसलिए धर्म का अधिकार लेकर प्रदूषण फैलाना संवैधानिक रूप से वैध नहीं माना जा सकता।
सामाजिक आनंद बनाम स्वास्थ्य का अधिकार
जब कुछ लोग कहते हैं — “पटाखे हमारी खुशियों का हिस्सा हैं”, तो यह खुशी किस कीमत पर मिलती है?
पटाखों के गंभीर परिणाम:
- बुजुर्गों और हृदय रोगियों को सांस व रक्तचाप संबंधी समस्याएँ
- दमा, एलर्जी और फेफड़ों की बीमारी वाले मरीजों के लिए घातक
- नवजात शिशुओं पर स्वास्थ्य प्रभाव
- शोर और धुएँ से मानसिक तनाव
- जानवरों और पक्षियों की पीड़ा
- पर्यावरण में जहरीली गैसें
- आग और दुर्घटनाएँ
- प्रदूषण से शहरों में धुंध और दृश्यता में कमी
समाधान का मूल प्रश्न यह है —
क्या अपनी खुशी के लिए दूसरों को कष्ट पहुँचाना न्यायसंगत है?
संविधान का अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) हमें सुरक्षित, स्वच्छ और प्रदूषण-मुक्त जीवन का अधिकार देता है।
इसलिए, यदि एक ओर किसी को “खुशी का अधिकार” मिलता है और दूसरी ओर किसी को “स्वास्थ्य का अधिकार”, तो स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए।
“परंपरा” का तर्क — कितना वैध?
बहुत लोग तर्क देते हैं —
“हम बचपन से पटाखे फोड़ते आए हैं, यह हमारी परंपरा है।”
लेकिन क्या हर परंपरा सही होती है?
एक समय सती प्रथा, दहेज प्रथा, बाल विवाह भी परंपरा थीं।
समय के साथ समाज सुधार होता है और गलत परंपराएँ समाप्त होती हैं।
परंपरा तब तक ही सम्मानित है, जब तक वह दूसरों को नुकसान न पहुँचाए।
धर्म-त्योहार और पर्यावरण — एक संतुलन
भारत में त्योहारों का अर्थ है प्रकाश, प्रेम, प्रार्थना और सकारात्मकता। पटाखों के बिना दीपावली मनाने के अनेक तरीके हैं:
- दीपक और मोमबत्तियाँ जलाना
- घर सजाना
- पूजा-अर्चना
- मीठाइयाँ और दान
- गरीबों को कपड़े और भोजन देना
- परिवार और समाज के साथ समय बिताना
- बच्चों को पर्यावरण शिक्षा देना
त्योहार का मतलब जीवन में रोशनी लाना है, धुआँ फैलाना नहीं।
सुप्रीम कोर्ट और पटाखों पर दिशा-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु कई महत्वपूर्ण आदेश दिए हैं —
- केवल ग्रीन क्रैकर्स की अनुमति
- समय-सीमा का पालन
- ध्वनि और प्रदूषण स्तर पर नियंत्रण
- लाइसेंस और बिक्री के नियम
- उल्लंघन पर दंड
यह भी मान्यता है कि मौलिक अधिकारों का प्रयोग दूसरों को नुकसान पहुँचा कर नहीं किया जा सकता।
विज्ञान, डेटा और स्वास्थ्य तथ्य
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार पटाखों के धुएँ में शामिल होते हैं:
- सल्फर डाईऑक्साइड
- नाइट्रोजन ऑक्साइड
- भारी धातुएँ
- PM2.5 और PM10 कण
ये तत्व फेफड़ों, हृदय, तंत्रिका तंत्र और आँखों को नुकसान पहुँचाते हैं। NCR क्षेत्र में दीपावली के बाद AQI अक्सर गंभीर श्रेणी में चला जाता है।
क्या हम सिर्फ एक दिन के उत्सव के लिए समाज को ऐसी स्थिति में डाल सकते हैं?
जानवरों और पक्षियों का दर्द — मूक पीड़ा
धमाकों से:
- कुत्ते-बिल्लियाँ घबराहट से भाग जाती हैं
- पक्षी दिशा-भ्रम से मरते हैं
- वृद्ध और बीमार पालतू जानवरों पर मानसिक प्रभाव
- दूध देने वाले पशुओं में तनाव व उत्पादन में कमी
क्या इंसानी उत्सव का अर्थ पशुओं के आतंक से जुड़ा होना चाहिए?
कानून का सिद्धांत: “एक की स्वतंत्रता वहीं तक जहां से दूसरे की नाक शुरू होती है”
संविधान में स्वतंत्रता है, लेकिन जिम्मेदारी भी।
त्योहार का अर्थ आनंद है, दूसरों की पीड़ा नहीं।
धार्मिक स्वतंत्रता और पर्यावरण संरक्षण में संतुलन आवश्यक है। न्यायमूर्ति ओका का प्रश्न समाज को नई दिशा देता है —
खुशी का अधिकार महत्वपूर्ण है, लेकिन मानवीय संवेदना और पर्यावरणिक जिम्मेदारी उससे भी अधिक महत्वपूर्ण हैं।
कौन-सा उत्सव श्रेष्ठ?
वह जहाँ —
✅ वातावरण में दीप जलें, धुआँ न हो
✅ दिलों में रोशनी हो, डर नहीं
✅ प्रार्थना हो, प्रदूषण नहीं
✅ करुणा हो, क्रूरता नहीं
✅ समाज आगे बढ़े, पीछे न गिरे
उत्सव का असली उद्देश्य प्रेम, कृतज्ञता और सकारात्मकता है।
निष्कर्ष: धर्म और आनंद के नाम पर कर्तव्य न भूलें
- पटाखे धार्मिक अनिवार्यता नहीं
- संविधान धर्म और सार्वजनिक स्वास्थ्य में संतुलन चाहता है
- समाज की खुशी केवल इंसानों के लिए नहीं, बल्कि
- बुजुर्गों
- बच्चों
- बीमार व्यक्तियों
- पशुओं
- पक्षियों
- पर्यावरण
का भी ध्यान रखने की ज़िम्मेदारी है
न्यायमूर्ति ओका की टिप्पणी केवल पटाखों पर नहीं, बल्कि यह संदेश है कि धर्म का मूल्य शांति और करुणा में है, प्रदूषण में नहीं।
यदि हमारी खुशी किसी अन्य की पीड़ा बन रही है, तो यह खुशी नहीं अज्ञान और अहंकार है।
त्योहार मनाएँ, लेकिन सभ्यता, संवेदना और संविधान के साथ।
समापन पंक्तियाँ
“असली दीपावली तब होती है जब हम अपने भीतर की अंधकार को मिटाकर, प्रकृति और मानवता की रक्षा करते हुए रोशनी फैलाते हैं।”
“प्रकृति माता, शांति और दया की रक्षा ही सर्वोत्तम पूजा है।”