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“भारत के विकास में न्यायपालिका की भूमिका: संजय सान्याल की आलोचना और न्यायमूर्ति ओका का संतुलित जवाब”

“रचनात्मक आलोचना नहीं: न्यायमूर्ति अभय ओका ने संजय सान्याल द्वारा ‘विकसित भारत’ में न्यायपालिका को ‘सबसे बड़ी बाधा’ कहे जाने पर प्रतिक्रिया दी”


यह लेख उन ताज़ा घटनाक्रमों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जहां आर्थिक सलाहकार-मंडल के सदस्य संजय सान्याल द्वारा भारत की न्यायपालिका को विकसित भारत की राह में सबसे बड़ी बाधा बताये जाने के बाद, सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अभय ओका ने अपनी प्रतिक्रिया दी है। इस विषय पर हम निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से विस्तृत चर्चा करेंगे:

  1. पृष्ठभूमि – संजय सान्याल की टिप्पणी
  2. न्यायमूर्ति अभय ओका की प्रतिक्रिया
  3. “रचनात्मक आलोचना” की अवधारणा एवं उसका न्यायपालिका पर लागू होना
  4. न्यायपालिका एवं विकास-परिप्रेक्ष्य — विवाद एवं यथार्थ
  5. आगे की राह — सुझाव, चिंताएँ एवं लोकतांत्रिक संतुलन
  6. निष्कर्ष

1. पृष्ठभूमि – संजय सान्याल की टिप्पणी

संजय सान्याल, जो कि भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार-मंडल (EAC) के सदस्य हैं, ने हाल ही में यह टिप्पणी की कि भारत की न्यायपालिका “विकसित भारत” (वर्ष 2047 तक) की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि न्यायिक प्रक्रिया में अत्यधिक समय होने, पारम्परिक शब्दावली (“माई लॉर्ड”, “प्रीयर” आदि) तथा पूर्व-मध्यस्थता की अनिवार्यता जैसी व्यवस्थाओं से विकासात्मक गति अवरुद्ध हो रही है।

इस टिप्पणी ने तुरंत ही सामाजिक-सांविधिक बहस को जन्म दिया: क्या न्यायपालिका वास्तव में विकास की राह में बाधक है? यदि हाँ, क्यों? यदि नहीं, तो ऐसी टिप्पणियाँ क्यों हो रही हैं?


2. न्यायमूर्ति अभय ओका की प्रतिक्रिया

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायमूर्ति अभय ओका ने संजय सान्याल की इस टिप्पणी पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह वास्तव में “रचनात्मक आलोचना” नहीं है।
उनका तर्क इस प्रकार है:

  • सान्याल ने अपनी टिप्पणी में विशिष्ट उदाहरण नहीं दिए कि कौन-से न्यायिक आदेश विकास के मार्ग में बाधा बने हैं। इस तरह की व्यापक और गंभीर टिप्पणी के लिए ठोस उदाहरण होना आवश्यक था।
  • यदि न्यायपालिका पर असंतोष है—तो उसे संवाद के माध्यम से, विश्लेषण-आधारित तरीके से प्रस्तुत करना ज़रूरी है न कि केवल प्रवचनात्मक व अनिश्चित कथनों से।
  • न्यायपालिका की भूमिका केवल विवाद सुलझाना नहीं है; यह संवैधानिक व्यवस्था का अंतःस्थ सदस्य है—इसलिए इसे विकास की ‘बाधा’ कहना चिंताजनक हो सकता है।
  • अभय ओका ने सुझाव दिया कि आलोचना तभी प्रभावशाली व न्यायसंगत मानी जाएगी जब उसमें निर्दिष्ट आदेश-विश्लेषण हो, वैकल्पिक प्रस्ताव हो और संवाद की संभावना हो।

उन्होंने कहा: “अगर आप कहते हैं कि न्यायपालिका विकास में बाधा है, तो मुझे बताइए- किस तरह, किस फैसले से, किस वजह से?” — इस तरह की मांग उन्होंने उठाई।


3. “रचनात्मक आलोचना” की अवधारणा एवं न्यायपालिका पर इसका अर्थ

“रचनात्मक आलोचना” (constructive criticism) का अर्थ है कि किसी संस्था, प्रक्रिया या व्यक्ति को सिर्फ दोषारोपण करना नहीं, बल्कि निर्माण-उन्मुख सुझाव, विकास-प्रस्ताव और स्पष्ट उदाहरण देना।
न्यायपालिका-संबंधी आलोचना के संदर्भ में यह निम्नलिखित मायनों में महत्वपूर्ण है:

  • पारदर्शिता: कतिपय आलोचनाएँ केवल विचार-प्रवृत्ति पर आधारित होती हैं—उन्हें स्वीकार्य बनाने के लिए तथ्यात्मक आधार आवश्यक है।
  • उत्तरदायित्व: न्यायपालिका लोकतंत्र के मूल स्तंभों में से है। इसलिए, इस पर उठ रहे सवालों का विश्लेषित और उत्तरदायी रूप से सामना होना चाहिए।
  • संविधान-संगत संतुलन: न्यायपालिका, कार्यपालिका व विधायिका के बीच संतुलन बनाए रखने में भूमिका निभाती है। इसलिए आलोचना ऐसे स्वरूप की होनी चाहिए कि यह लोकतांत्रिक संतुलन को नहीं खोले।
  • सुधार-उन्मुख दृष्टिकोण: यदि न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता है—तो उसे उभारने वाली आलोचना वास्तविक समाधानों की ओर संकेत करे, न कि सिर्फ-सिर्फ मौखिक प्रहार हो।

अभय ओका ने यही कहा कि संजय सान्याल की टिप्पणी “रचनात्मक” नहीं थी क्योंकि उसमें सुधार की दिशा, विश्लेषण और संवाद-आधार नहीं था।


4. न्यायपालिका एवं विकास-परिप्रेक्ष्य — विवाद एवं यथार्थ

यहाँ हम यह देखेंगे कि न्यायपालिका को विकास की राह में बाधा कहने के तर्क क्या हो सकते हैं – और इसके पीछे के यथार्थ क्या हैं:

4.1 तर्क-सिद्धियाँ (Arguments in favour of the “बाधा” कथन):

  • न्यायिक प्रक्रिया में विलंब बहुत अधिक होता है — लंबित मामलों का ढेर, सुनवाई की देरी आदि। इससे आर्थिक व विकासात्मक परियोजनाओं में अवरोध उत्पन्न हो सकते हैं।
  • पुरानी और जटिल न्यायिक प्रथाएँ (वाक्य-शैली, प्रक्रियाएँ) समयानुकूल नहीं लगतीं – जैसे “माई लॉर्ड”, “प्रीयर” आदि शब्दावली, बल्कि आधुनिकisation की मांग होती है। (सान्याल ने इन्हें उदाहरण के रूप में उद्धृत किया)
  • अक्सर कहा जाता है कि न्यायपालिका द्वारा आदेश, निष्कर्ष या प्रक्रिया में बदलाव आईए (Industries & Projects) का समय बढ़ा देते हैं — जिसका असर निवेश व ‘विकसित भारत’ की दिशा पर हो सकता है।

4.2 यथार्थ-चुनौतियाँ (Reality & Caveats):

  • न्यायपालिका का मुख्य कार्य विवादों का समाधान व संवैधानिक संरक्षण है। इसे केवल विकास-इंजन के रूप में नहीं देखा जा सकता।
  • विलंब के पीछे सिर्फ न्यायपालिका नहीं — विधिवत प्रक्रियाएँ, संसाधनों की कमी, अपर्याप्त न्यायिक संख्या, प्रशासनिक ढाँचा, केस-लोड आदि जिम्मेदार हैं।
  • यदि न्यायपालिका को ‘बाधा’ के रूप में देखा जाए, तो इससे उसकी स्वतंत्रता व प्रतिष्ठा पर प्रश्न उठ सकते हैं — जो एक लोकतांत्रिक समाज के लिए चिंताजनक है।
  • न्यायपालिका के आदेश न केवल विकास-पर्योजनाओं पर असर डालते हैं बल्कि नागरिकों के अधिकारों, सरकारों की जवाबदेही तथा सामाजिक न्याय की दिशा में भी महत्वपूर्ण होते हैं।

अतः, यह कथन कि “न्यायपालिका विकास की सबसे बड़ी बाधा है” अत्यधिक सामान्यीकरण प्रतीत होता है और इसमें विश्लेषण-आधारित आधार नहीं दिखाई देता — जैसा कि अभय ओका ने इंगित किया।


5. आगे की राह — सुझाव, चिंताएँ एवं लोकतांत्रिक संतुलन

आलोचना करने के लिए जैसे-जैसे स्वर उठ रहे हैं, यह ज़रूरी है कि हम आगे की दिशा पर भी विचार करें:

5.1 सुझाव एवं सुधार-क्षेत्र:

  • न्यायिक प्रक्रियाओं में गति लाने हेतु माध्यमिक सुधार की आवश्यकता है — जैसे सुनवाई गति बढ़ाना, घटना-आधारित प्रवाह सुनिश्चित करना, इलेक्ट्रॉनिक माध्यम का समुचित उपयोग।
  • पुरानी शब्दावली व प्रक्रिया का लाभ-हानि विश्लेषण करना चाहिए और यदि समुचित हो, तो उन्हें आधुनिक रूप देना चाहिए।
  • पूर्व-मध्यस्थता/वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को ऐसे ढांचे में स्थापति करना चाहिए कि वह न्यायिक बोझ को कम करे, लेकिन उससे न्याय का समय-साक्ष्य व प्रक्रिया की गुणवत्ता प्रभावित न हो।
  • न्यायपालिका-विधायिका-कार्यालय (executive) के बीच बेहतर संवाद और समन्वय जरुरी है — विवादों के त्वरित समाधान में यह सहायक हो सकता है।

5.2 चिंताएँ (Cautions):

  • अगर न्यायपालिका को ‘विकास की बाधा’ के रूप में देखा जाए, तो न्यायाधीशों पर राजनीतिक दबाव बढ़ने का खतरा है, जिससे न्यायनिर्णय की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है।
  • सिर्फ विकास-परिप्रेक्ष्य से न्यायपालिका का मूल्यांकन करना पर्याप्त नहीं — उसे सामाजिक न्याय, संवैधानिक संरक्षण और नागरिक अधिकारों के संदर्भ में भी देखना होगा।
  • आलोचना तभी स्वस्थ होती है जब उसमें तथ्य-परक आधार, निरूपित उदाहरण और सुधारात्मक दृष्टि हो। यही रचनात्मक आलोचना सुनिश्चित करती है कि न्यायपालिका को बेहतर बनाने में सहायता मिल सके।

5.3 लोकतांत्रिक संतुलन:
एक लोकतंत्र में शक्ति का विभाजन केंद्रीय अवधारणा है — विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उसे लागू करती है, और न्यायपालिका विवादों का निपटारा करती है। यदि किसी एक को विकास-अवरोधक बताया जाए तो संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिए, हमें यह सवाल करना चाहिए कि क्या हम आलोचना के पीछे समस्या-विश्लेषण कर रहे हैं या बस प्रवचन बना रहे हैं।


6. निष्कर्ष

सान्याल की टिप्पणी — “न्यायपालिका भारत के विकास की सबसे बड़ी बाधा है” — एक जन-चर्चा योग्य विषय है। लेकिन वहाँ महत्वपूर्ण यह है कि ऐसी टिप्पणी विशिष्ट उदाहरण, विवरण, तथ्य एवं सुझाव के साथ हो। न्यायमूर्ति अभय ओका ने इस कमी की ओर ध्यान आकर्षित किया और इसे “रचनात्मक आलोचना” नहीं माना।

यदि हम न्यायपालिका को सुधार-प्रस्तावों के हस्तक्षेप के माध्यम से विकास-रू पर लागू करना चाहते हैं, तो हमें आलोचना को निर्माता-उन्मुख, तथ्य-आधारित, तथा संवाद-सक्षम बनाना होगा। इसके बिना, ये बयान सिर्फ भावनात्मक और ध्वनि-प्रेरित रह जाते हैं, जो न्यायपालिका की प्रतिष्ठा — और अन्ततः लोकतंत्र की जड़ों — को प्रभावित कर सकते हैं।

अतः, विकसित भारत की दिशा में रेल चलाने के लिए सिर्फ इंजन बदलना नहीं, बल्कि पूरे ट्रैक, सिग्नल व्यवस्था, संवाद-सहयोग नेटवर्क और यातायात प्रणाली को सुव्यवस्थित करना होगा — और इसमें न्यायपालिका भी महत्वपूर्ण हिस्सेदार है। इसे “बाधा” कहने की बजाय, इसे “सुगम परिवर्तन” की दिशा में अग्रसर करने का विचार अधिक उपयुक्त होगा।