“प्राथमिकता शेयरहोल्डर्स निवेशक हैं, ‘वित्तीय लेनदार’ नहीं: Insolvency & Bankruptcy Code, 2016 (IBC) के तहत दिवालियापन याचिका हेतु सक्षम नहीं”
प्रस्तावना
हाल में, Supreme Court of India ने 28 अक्टूबर 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि EPC Constructions India Limited के लिक्विडेटर द्वारा Matix Fertilizers and Chemicals Limited के खिलाफ दाखिल की गई याचिका असंगत थी क्योंकि प्राथमिकता (Cumulative Redeemable) शेयरधारक ‘वित्तीय लेनदार’ (financial creditor) नहीं माने जा सकते।
यह निर्णय दिवालियापन एवं बैंकरप्सी क्षेत्र में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे स्पष्ट हो गया है कि शेयर-इक्विटी निवेश और ऋण-देयताओं के बीच की रेखा कितनी निर्णायक है।
इस लेख में हम इस निर्णय की पृष्ठभूमि, कानूनी विश्लेषण, प्रासंगिक प्रावधान, निर्णय के तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव तथा व्यावहारिक सुझावों का विवेचन करेंगे।
पृष्ठभूमि तथ्य
- EPC Constructions India Ltd. (पूर्व में Essar Projects India Ltd.) ने 2009-10 में Matix Fertilizers & Chemicals Ltd. के एक उर्वरक संयंत्र निर्माण के ठेके लिए भागीदारी की थी।
- ठेके संबंधी देय राशि करीब ₹ 572.72 करोड़ तक पहुँच गई थी।
- इस देय राशि को पुनः व्यवस्थित करने हेतु Matix ने प्रस्ताव रखा कि कुछ राशि को 8 % Cumulative Redeemable Preference Shares (CRPS) में परिवर्तित किया जाए। परिणामस्वरूप 26 अगस्त 2015 को Matix ने 2.5 करोड़ (25,00,00,000) 8 % CRPS (₹ 10 प्रति शेयर) अर्थात् ₹ 250 करोड़ का निर्गम EPC को किया।
- उक्त CRPS तीन वर्षों (रिडेम्पशन अवधि) के बाद परिपक्व होने वाली थीं।
- EPC Constructions को बाद में खुद में कॉर्पोरेट दिवालियापन (CIRP) प्रक्रिया के अंतर्गत लाया गया।
- EPC के लिक्विडेटर ने Matix के खिलाफ Insolvency & Bankruptcy Code, 2016 की धारा 7 के अंतर्गत याचिका दाखिल की कि Matix ने CRPS का रिडेम्पशन नहीं किया, इसलिए ‘वित्तीय देयता’ (financial debt) का default हुआ है।
- इस पर पहले National Company Law Tribunal (NCLT) ने याचिका खारिज की, फिर National Company Law Appellate Tribunal (NCLAT) ने उसे अपरिवर्तित रखा। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने EPC की अपील खारिज कर दी।
कानूनी मुद्दे
इस निर्णय में केंद्रीय रूप से निम्नलिखित कानूनी प्रश्न थे:
- क्या CRPS के धारक ‘वित्तीय लेनदार’ (financial creditor) की श्रेणी में आ सकते हैं और धारा 7 के अंतर्गत याचिका दाखिल कर सकते हैं?
- क्या CRPS का रिडेम्पशन न होना, IBC की परिभाषा के अंतर्गत ‘डिफ़ॉल्ट’ (default) माना जा सकता है?
- क्या CRPS को ‘वित्तीय देयता’ (financial debt) माना जा सकता है, या यह निवेश (equity investment) माना जाना चाहिए?
- क्या लेन-देय संबंध को सिर्फ खातों में लिखे जाने या अनुबंध की अभिप्राय से बदलकर देखना चाहिए (“commercial effect of borrowing”)?
प्रासंगिक प्रावधान
- धारा 3(12) IBC — “डिफ़ॉल्ट” की परिभाषा: देय वित्तीय देयता का भुगतान नहीं होना।
- धारा 3(33) IBC — “लेनदेन” की परिभाषा; IBC के अंतर्गत विभिन्न लेन-देय शामिल हैं।
- धारा 5(7) IBC — “वित्तीय लेनदार” का अर्थ।
- धारा 5(8) IBC — “वित्तीय देयता” (financial debt) की परिभाषा, जिसमें (f) उपधारा विशेष रूप से “उसी लेनदेन का वाणिज्यिक प्रभाव ऋण लेने जैसा” (commercial effect of borrowing) करता है।
- Companies Act, 2013 की धारा 43 एवं 55 — कंपनियों में प्राथमिकता शेयर (preference shares) के निवेश और पुनःभुगतान (redemption) संबंधी नियम। विशेष रूप से धारा 55 के अनुसार प्राथमिकता शेयर केवल उस लाभांश (profits) से या ताज़ा इक्विटी निर्गम से पुनःभुगतान हो सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का तर्क एवं निर्णय
1. प्राथमिकता शेयर = इक्विटी निवेश, ऋण नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कंपनियों के कानून के तहत प्राथमिकता शेयर कंपनी के भाग-अंश (share capital) का हिस्सा हैं, तथा उनके लिए जमा की गई राशि ऋण (loan) नहीं मानी जाती। “It is well settled in Company Law that preference shares are part of the company’s share capital and the amounts paid up on them are not loans.”
यह तर्क इस आधार पर दिया गया कि यदि शेयरधारक को लाभांश के अंकित हिस्से के बिना भुगतान किया जाए तो वह पूँजी का अवैध प्रत्यावर्तन (illegal return of capital) होगा।
2. डिफ़ॉल्ट नहीं हुआ – देयता ‘due and payable’ नहीं थी
सुप्रीम कोर्ट ने यह देखा कि CRPS का रिडेम्पशन तभी संभव था जब कंपनी के पास लाभांश योग्य लाभ (profits available for dividend) हो या ताज़ा इक्विटी निर्गम (fresh issue of shares) द्वारा पुनर्भुगतान संभव हो। यह Companies Act, 2013 की धारा 55 में वर्णित है।
स्तिथि में Matix ने लाभ नहीं कमाए थे, इसलिए पुनर्भुगतान के लिए कोई लाभांश योग्य राशि उपलब्ध नहीं थी। इस के कारण CRPS ‘due and payable’ (देय और भुगतान योग्य) नहीं मानी गई, अतः IBC की धारा 3(12) के अंतर्गत डिफ़ॉल्ट नहीं माना जा सकता।
3. खातों में ऋण-लेखांकन निर्णायक नहीं
EPC ने यह तर्क दिया कि Matix ने अपने खातों में CRPS को “अनसिक्योर्ड लोन” या “अन्य वित्तीय देयता” के रूप में दर्शाया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल लेखांकन एंट्री (accounting entry) प्रकृति नहीं बदलती कि वह ऋण (debt) हुआ। “Treatment in books of account … will not be determinative of the nature of relationship between the parties.”
4. ‘वित्तीय देयता’ की परिभाषा के अनुरूप नहीं
धारा 5(8) IBC के अंतर्गत वित्तीय देयता तभी मानी जा सकती है जब वह समय-मूल्य (time value) के लिए कोई राशि दी गयी हो, या ऋण की commercial effect हो। सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि ‘preference shares’ को इस प्रावधान में शामिल नहीं किया गया है; इसलिए यह स्पष्ट है कि Legislature ने उन्हें ‘financial debt’ की श्रेणी में नहीं रखा।
5. निष्कर्ष – याचिका योग्य नहीं
मामले के विश्लेषण के पश्चात सुप्रीम कोर्ट ने EPC की अपील खारिज कर दी क्योंकि CRPS धारक ‘वित्तीय लेनदार’ नहीं हो सकते और Section 7 याचिका अस्वीकृत। “We are convinced … that the appellant … could not have maintained an application under Section 7 IBC.”
महत्वपूर्ण बिंदु एवं विश्लेषण
(i) निवेश और ऋण के बीच अंतर
- निवेश (equity) और ऋण (debt) की मूलभूत विभेद यह है कि निवेशक को कंपनी के लाभ पर निर्भर होकर लाभांश मिलता है, जबकि ऋणदाता को निश्चित ब्याज एवं मूलधन की देयता होती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस अंतर को दोबारा पुष्टि की।
- प्राथमिकता शेयरधारक (preference shareholders) को लाभांश तभी मिलता है जब कंपनी लाभ अर्जित करे; यही कारण है कि इसे ऋण नहीं माना गया।
(ii) ‘डिफ़ॉल्ट’ की अवधारणा
सिर्फ रिडेम्पशन अवधि समाप्त होना या ऑबिलिगेशन से परिपक्व होना पर्याप्त नहीं है। एक देयता तभी ‘डिफ़ॉल्ट’ मानी जाएगी जब उसे देने की वैध देय स्थिति उत्पन्न हो गई हो और देय राशि समय-मूल्य समेत चुकने योग्य हो। इस मामले में यह स्थिति उत्पन्न नहीं थी।
(iii) व्यावसायिक प्रभाव (commercial effect) का परीक्षण
EPC ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि लेन-देय व्यवस्था असल में एक ऋण-निर्माण (borrowing) थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ लेबल बदल देने से वास्तविक ऋण की प्रकृति नहीं बन जाती; लेन-देय के दस्तावेज़, उसका उद्देश्य, लाभांश योग्यता, पुनर्भुगतान आधार सभी को देखा जाना चाहिए।
(iv) विधान सभा की मंशा
इसे स्पष्ट किया गया कि यदि प्राथमिकता शेयर को ‘वित्तीय देयता’ माना जाता तो DH भूमिका एवं फैक्टर्स बदल जाते; लेकिन IBC में इस तरह का स्पष्टीकरण नहीं किया गया। अतः श्रेणी बदलने की अनुमति नहीं।
निर्णय का प्रभाव
सकारात्मक प्रभाव
- यह निर्णय स्पष्ट करता है कि जो निवेश इक्विटी-इक्विटी जैसा है, उसे ऋण जैसा ट्रिट नहीं किया जा सकता। इससे कंपनी-वित्तीय ऋण व्यवस्था में पारदर्शिता बढ़ेगी।
- IBC की धारा 7 के दायरे को सीमित करना, ताकि केवल वास्तव में ‘वित्तीय लेनदार’ ही याचिका दाखिल कर सकें। इससे न्यायिक संसाधन की बचत होगी।
- शेयर-इक्विटी निवेशकों की अपेक्षाएं (expectations) और जोखिम-वितरण (risk allocation) स्पष्ट होंगे।
चिंताएं / संभावित चुनौतियाँ
- विलाक्षण (hybrid) रूप से संरचित वित्त-उपकरण जो निवेश और ऋण के बीच आते हैं, उसकी भूमिका विवादास्पद हो सकती है।
- संरचनात्मक रूप से तैयार निवेश को ऋण-मूलक रूप दे देने की प्रवृत्ति हो सकती है — इस निर्णय ने इस तरह के प्रयासों को सीमित किया।
- निवेशक-संरचना कंपनियों में, विशेष रूप से स्टार्ट-अप एवं प्रोजेक्ट-फाइनेंस मामलों में इस सीमा का नियोजन करना होगा।
व्यावहारिक सुझाव (Practitioner Tips)
- कंपनी-लेगल सलाहकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यदि निवेश को ऋण के रूप में दिखाया जा रहा हो तो उसका दस्तावेजी स्वरूप व व्यवहार बिल्कुल ऋण-रूप ही हो।
- निवेशकर्ता जो क्रेडिट-इंजीनियरिंग (debt to equity) कर रहे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि एक बार शेयर निवेश के रूप में परिवर्तित हो जाने पर IBC दायित्व (liability) में ऋण-लेनदार का दर्जा नहीं मिलेगा।
- लेन-देय के सारे दस्तावेज, बोर्ड-रिज़ॉल्यूशन, खाता-प्रविष्टियाँ, पुनर्भुगतान क्षमता आदि को ध्यानपूर्वक तैयार एवं देखना चाहिए।
- धन लगाते समय यह ध्यान करें कि पुनर्भुगतान की जिम्मेदारी लाभांश योग्य लाभ एवं ताज़ा इक्विटी निर्गम से ही होगी — इसलिए जोखिम अधिक है।
- यदि निवेश को ऋण-उपकरण के रूप में देना हो तो विशिष्ट ऋण-संविदाओं (loan agreements), ब्याज-देयता, समय-मूल्य की शर्तें सुनिश्चित करें, ताकि IBC के अंतर्गत ‘financial debt’ के मानदंड पूरे हों।
निष्कर्ष
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल पूर्ववर्ती नियमों को पुष्ट करता है बल्कि भविष्य में वित्त-संरचना एवं दिवालियापन-प्रक्रिया के लिए एक स्पष्ट दिशा-निर्देश का काम करेगा। यह सुनिश्चित करता है कि निवेशक-पात्र (shareholders) व लेनदार-पात्र (creditors) की श्रेणियाँ स्पष्ट रहें और IBC के तहत संरचित प्रक्रिया बिना विचलन के चले।