प्राइवेट शिकायत और FIR का आदेश: जब मजिस्ट्रेट धारा 156(3) CrPC के तहत FIR दर्ज करने का निर्देश दे, भले ही शिकायतकर्ता ने धारा 154(1) और 154(3) का पालन न किया हो — पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय
भूमिका (Introduction)
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) में अपराध की जांच, प्राथमिकी (FIR) का पंजीकरण, और न्यायिक हस्तक्षेप से संबंधित अनेक प्रावधान दिए गए हैं। इन प्रावधानों के अंतर्गत धारा 154, 156(3) और 190 विशेष रूप से महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।
हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि यदि कोई व्यक्ति सीधे मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) CrPC के अंतर्गत आवेदन प्रस्तुत करता है, तो ऐसी प्राइवेट शिकायत (Private Complaint) केवल इस आधार पर अवैध नहीं मानी जाएगी कि शिकायतकर्ता ने पहले धारा 154(1) और 154(3) के तहत पुलिस अधिकारियों से संपर्क नहीं किया।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
मामले में शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि उसके साथ धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात हुआ है। उसने सीधे मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन दाखिल किया, जिसमें मजिस्ट्रेट से अनुरोध किया गया कि पुलिस को FIR दर्ज करने और जांच करने का निर्देश दिया जाए।
मजिस्ट्रेट ने इस आवेदन पर विचार करते हुए CrPC की धारा 156(3) के अंतर्गत आदेश पारित किया और पुलिस को FIR दर्ज कर जांच शुरू करने का निर्देश दिया।
इस आदेश को चुनौती देते हुए आरोपी पक्ष ने तर्क दिया कि –
शिकायतकर्ता ने पहले धारा 154(1) (थाना स्तर पर आवेदन) और 154(3) (वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को आवेदन) के तहत कोई प्रयास नहीं किया।
इसलिए मजिस्ट्रेट का आदेश प्रक्रिया की दृष्टि से अवैध (illegal) है।
मुख्य कानूनी प्रश्न (Legal Issues before the Court)
- क्या शिकायतकर्ता बिना धारा 154(1) और 154(3) CrPC के तहत पुलिस को आवेदन दिए, सीधे मजिस्ट्रेट के पास जा सकता है?
 - क्या मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे मामलों में धारा 156(3) CrPC के तहत FIR दर्ज करने का आदेश वैध है?
 - यदि मजिस्ट्रेट ऐसा आदेश दे देता है, तो क्या उसे “अवैध” या केवल “अनियमित (irregular)” माना जाएगा?
 
याचिकाकर्ता के तर्क (Arguments of the Petitioner)
याचिकाकर्ता (आरोपी) की ओर से यह तर्क दिया गया कि CrPC की धारा 154(1) और 154(3) स्पष्ट रूप से कहती हैं कि –
- पहले पुलिस अधिकारी को अपराध की सूचना दी जानी चाहिए,
 - और यदि पुलिस FIR दर्ज नहीं करती, तब शिकायतकर्ता वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को आवेदन दे सकता है।
 
केवल इन दोनों चरणों के पालन के बाद ही मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 156(3) का आवेदन किया जा सकता है।
याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Priyanka Srivastava v. State of U.P., (2015) 6 SCC 287 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि धारा 156(3) के अंतर्गत आवेदन के साथ शपथपत्र (affidavit) और पूर्व में पुलिस से संपर्क के प्रमाण आवश्यक हैं।
प्रतिवादी के तर्क (Arguments of the Respondent/Complainant)
शिकायतकर्ता की ओर से यह कहा गया कि अपराध गंभीर था और पुलिस अधिकारी शिकायत सुनने को तैयार नहीं थे। ऐसे में न्याय पाने का एकमात्र उपाय था कि मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन किया जाए।
शिकायतकर्ता ने यह भी कहा कि भले ही धारा 154(1) और (3) का औपचारिक पालन न हुआ हो, परंतु न्यायालय का अधिकार क्षेत्र (jurisdiction) इससे सीमित नहीं हो सकता।
उच्च न्यायालय का अवलोकन (Court’s Observations)
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने विस्तृत रूप से इस मुद्दे पर विचार किया और कहा कि —
- CrPC की धारा 156(3) मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि वह किसी भी संज्ञेय अपराध की जांच के लिए पुलिस को निर्देश दे सके।
 - यह धारा पुलिस की जांच को सक्षम करने वाली न्यायिक निगरानी (judicial supervision) का हिस्सा है।
 - यदि मजिस्ट्रेट ने यह आदेश जारी किया है, तो केवल इस आधार पर कि शिकायतकर्ता ने पहले धारा 154(1) या 154(3) के तहत पुलिस से संपर्क नहीं किया, आदेश को “अवैध” नहीं कहा जा सकता।
 - हालांकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसी स्थिति को “अनियमितता (irregularity)” के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि आदर्श रूप से शिकायतकर्ता को पहले पुलिस के पास जाना चाहिए था।
 
महत्वपूर्ण उद्धरण (Important Judicial Quote)
न्यायालय ने कहा:
“यदि मजिस्ट्रेट ने धारा 156(3) के तहत जांच का निर्देश दिया है, भले ही शिकायतकर्ता ने धारा 154(1) और (3) का पालन नहीं किया हो, तो ऐसा आदेश प्रक्रिया की दृष्टि से अनियमित है, परंतु यह आदेश अवैध या शून्य नहीं माना जा सकता।”
न्यायालय के निर्देश (Court’s Directions)
- मजिस्ट्रेट के आदेश को वैध ठहराया गया, क्योंकि इसमें कोई “jurisdictional error” नहीं पाया गया।
 - न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार (judicial discretion) तब तक सम्मानित रहेगा, जब तक वह दुर्भावनापूर्ण या विधि-विरुद्ध न हो।
 - उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि भविष्य में ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट यह सुनिश्चित करें कि शिकायतकर्ता ने पुलिस से संपर्क करने का प्रयास किया हो या न किया हो, इस बात का संक्षिप्त उल्लेख आदेश में होना चाहिए।
 
न्यायालय का तर्क (Reasoning of the Court)
न्यायालय ने दो प्रमुख सिद्धांतों पर बल दिया:
(i) न्याय का प्राथमिक उद्देश्य (Substance over Procedure)
कानून का उद्देश्य केवल प्रक्रिया का पालन नहीं, बल्कि न्याय की प्राप्ति है। यदि किसी व्यक्ति को न्याय की तलाश में मजिस्ट्रेट के पास जाना पड़ा, तो उसे केवल इस तकनीकी आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता कि उसने पहले पुलिस के पास शिकायत नहीं दी थी।
(ii) मजिस्ट्रेट का विवेकाधिकार (Magistrate’s Discretion)
धारा 156(3) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के पास यह अधिकार है कि वह यह तय करे कि मामला पुलिस जांच के योग्य है या नहीं। यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट है कि मामला संज्ञेय अपराध का है, तो वह FIR का आदेश दे सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के प्रासंगिक निर्णय (Relevant Supreme Court Precedents)
- Lalita Kumari v. Government of U.P., (2014) 2 SCC 1
- संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
 
 - Priyanka Srivastava v. State of U.P., (2015) 6 SCC 287
- मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि धारा 154(1) और (3) का पालन हुआ है।
 
 - Sakiri Vasu v. State of U.P., (2008) 2 SCC 409
- यदि पुलिस FIR दर्ज नहीं करती, तो मजिस्ट्रेट धारा 156(3) के तहत निर्देश दे सकता है।
 
 
उच्च न्यायालय ने कहा कि उपर्युक्त निर्णयों का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत करना है, न कि तकनीकी त्रुटियों के कारण न्याय से वंचित करना।
कानूनी महत्व (Legal Significance of the Judgment)
यह निर्णय कई स्तरों पर महत्वपूर्ण है:
- यह स्पष्ट करता है कि प्राइवेट शिकायत (Private Complaint) मजिस्ट्रेट के समक्ष तब भी बनाए रखी जा सकती है जब शिकायतकर्ता ने पहले पुलिस के पास आवेदन नहीं किया।
 - इससे न्यायिक विवेकाधिकार की सीमा को और स्पष्टता मिलती है।
 - यह निर्णय यह भी बताता है कि प्रक्रिया में हुई त्रुटि (procedural lapse) न्याय को प्रभावित नहीं करनी चाहिए।
 
संवैधानिक दृष्टिकोण (Constitutional Perspective)
अनुच्छेद 21 के तहत “न्याय तक पहुंच का अधिकार” (Right to Access Justice) एक मौलिक अधिकार है। यदि नागरिक को पुलिस के माध्यम से न्याय नहीं मिलता, तो न्यायालयों का दायित्व है कि वे हस्तक्षेप कर पीड़ित को राहत दें। यह निर्णय इसी संवैधानिक भावना का विस्तार करता है।
व्यवहारिक प्रभाव (Practical Impact)
- अब मजिस्ट्रेट्स को यह स्पष्ट मार्गदर्शन मिला है कि 156(3) के आदेश में तकनीकी त्रुटियाँ अवैधता नहीं बनतीं।
 - शिकायतकर्ताओं के लिए यह निर्णय राहतकारी है — वे सीधे मजिस्ट्रेट के पास जा सकते हैं, यदि पुलिस निष्क्रिय है।
 - यह निर्णय पुलिस अधिकारियों को भी यह संदेश देता है कि FIR दर्ज करने में अनावश्यक टालमटोल से न्यायालय का हस्तक्षेप सुनिश्चित है।
 
निष्कर्ष (Conclusion)
यह निर्णय भारतीय दंड प्रक्रिया की लचीलापन और न्यायिक विवेक की शक्ति को दर्शाता है।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि मजिस्ट्रेट ने अपनी समझ और विवेक के आधार पर FIR दर्ज करने का आदेश दिया है, तो केवल तकनीकी आधारों पर उसे अवैध नहीं ठहराया जा सकता।
न्यायालय ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि –
“कानूनी प्रक्रिया का उद्देश्य न्याय में सहायता करना है, न कि उसे बाधित करना।”
इस निर्णय से यह संदेश स्पष्ट है कि भारत में न्यायपालिका नागरिकों की न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए तैयार है — चाहे पुलिस निष्क्रिय रहे या प्रशासनिक प्रक्रिया धीमी क्यों न हो।
➡️ संक्षेप में:
यह निर्णय न्यायिक विवेक, संवैधानिक अधिकार और आपराधिक प्रक्रिया के बीच संतुलन स्थापित करता है। धारा 156(3) CrPC के अंतर्गत मजिस्ट्रेट का आदेश केवल इसलिए असंवैधानिक नहीं हो सकता कि शिकायतकर्ता ने पहले पुलिस को आवेदन नहीं दिया। यह केवल procedural irregularity मानी जाएगी — illegality नहीं।