🚗 “धारा 163A मोटर वाहन अधिनियम: नो-फॉल्ट लायबिलिटी केवल तीसरे पक्ष तक सीमित या सभी दावों पर लागू?—सुप्रीम कोर्ट ने मामला बड़ी पीठ को भेजा”
भूमिका
भारत में सड़कों पर बढ़ते वाहनों की संख्या के साथ ही सड़क दुर्घटनाओं की घटनाएँ भी निरंतर बढ़ रही हैं। ऐसी दुर्घटनाओं में अनेक बार निर्दोष व्यक्ति घायल या मृत हो जाते हैं। लंबे समय तक मुआवजा पाने की प्रक्रिया जटिल और विलंबित रहने के कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में कठिनाई होती थी। इसी पृष्ठभूमि में संसद ने मोटर वाहन अधिनियम, 1988 में धारा 163A को जोड़ा, जिसके अंतर्गत “नो-फॉल्ट लायबिलिटी” (No-Fault Liability) की व्यवस्था की गई।
इसका उद्देश्य यह था कि जब भी किसी दुर्घटना में किसी व्यक्ति की मृत्यु या स्थायी विकलांगता हो जाए, तो उसे बिना यह सिद्ध किए कि चालक या वाहन स्वामी की गलती थी, एक निर्धारित राशि मुआवजे के रूप में मिल सके।
लेकिन अब यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया है कि —
“क्या धारा 163A के अंतर्गत किया गया दावा केवल तीसरे पक्ष (Third Party) के मामलों तक सीमित है, या यह मालिक/चालक अथवा उनके उत्तराधिकारियों पर भी लागू होता है?”
यह गंभीर प्रश्न अब सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ (Larger Bench) के समक्ष विचाराधीन है, जिससे इस धारा की व्याख्या का भविष्य तय होगा।
धारा 163A का उद्देश्य और स्वरूप
धारा 163A मोटर वाहन अधिनियम में 1994 के संशोधन द्वारा जोड़ी गई थी। इसका मूल उद्देश्य “तेज़, सरल और न्यायसंगत” मुआवजा व्यवस्था स्थापित करना था।
इस धारा के अनुसार —
यदि किसी मोटर वाहन के “उपयोग से उत्पन्न दुर्घटना” (arising out of the use of motor vehicle) के कारण किसी व्यक्ति की मृत्यु या स्थायी विकलांगता होती है, तो वाहन के स्वामी या अधिकृत बीमाकर्ता (authorised insurer) को पीड़ित व्यक्ति या उसके उत्तराधिकारियों को मुआवजा देना होगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दावेदार को यह सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती कि दुर्घटना किसी की लापरवाही, गलती या दोष के कारण हुई थी।
यही कारण है कि इसे “नो-फॉल्ट लायबिलिटी” कहा जाता है — अर्थात् बिना गलती साबित किए मुआवजा।
धारा की प्रमुख विशेषताएँ
- नो-फॉल्ट आधार (No-Fault Principle):
दावेदार को चालक या मालिक की गलती सिद्ध नहीं करनी होती।
यह एक “सामाजिक सुरक्षा उपाय” (social security measure) के रूप में देखा जाता है। - ओवरराइडिंग प्रावधान:
यह धारा किसी अन्य कानून, अनुबंध या पॉलिसी शर्तों से ऊपर लागू होती है (Notwithstanding anything contained in this Act or in any other law…). - संरचित सूत्र (Structured Formula):
मुआवजे की राशि “सेकंड शेड्यूल” (Second Schedule) में निर्धारित मानकों के अनुसार तय होती है। - तेज़ राहत (Speedy Remedy):
लंबे मुकदमों की प्रक्रिया से बचाते हुए तत्काल राहत देने का उद्देश्य। - विकल्प का सिद्धांत (Doctrine of Election):
धारा 163B के अनुसार दावेदार या तो धारा 140 या 163A में से किसी एक के अंतर्गत दावा कर सकता है — दोनों नहीं। 
मुख्य विवाद : तीसरे पक्ष तक सीमित या सार्वभौमिक?
सालों तक न्यायालयों ने धारा 163A की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की।
कुछ न्यायालयों ने कहा कि यह केवल “तीसरे पक्ष” (third party) के दावों के लिए है, जबकि अन्य ने इसे “सार्वभौमिक” (for all claims) माना।
1. तीसरे पक्ष तक सीमित मानने वाले मत:
कई उच्च न्यायालयों ने यह माना कि:
- मोटर वाहन अधिनियम का बीमा ढांचा “थर्ड पार्टी इंश्योरेंस” पर आधारित है।
 - बीमा कंपनी केवल तीसरे पक्ष को क्षति पहुँचाने वाले मामलों के लिए जिम्मेदार होती है, न कि मालिक या चालक स्वयं के लिए।
 - इसलिए यदि वाहन का स्वामी या चालक स्वयं दुर्घटना में मरता है, तो उसका दावा धारा 163A के अंतर्गत नहीं होगा।
 
इस मत के अनुसार, यदि कोई मालिक अपने वाहन से दुर्घटनाग्रस्त होता है, तो यह “ओन डैमेज” (own damage) का मामला है, जिसे केवल अलग बीमा पॉलिसी से कवर किया जा सकता है, न कि थर्ड पार्टी इंश्योरेंस से।
2. सभी दावों को सम्मिलित मानने वाला मत:
दूसरी ओर, कुछ न्यायिक दृष्टिकोणों में कहा गया कि:
- धारा 163A में “victim” और “legal heirs” शब्दों का प्रयोग हुआ है, इसमें कहीं भी यह नहीं कहा गया कि यह केवल तीसरे पक्ष पर लागू होगी।
 - धारा 163A एक “social welfare legislation” है — इसका उद्देश्य पीड़ित को तत्काल राहत देना है, न कि उसकी पहचान पर सीमित करना।
 - “Notwithstanding clause” इसे किसी अन्य कानून से ऊपर रखता है।
 - अतः यदि वाहन का स्वामी/चालक दुर्घटना में मारा जाए, तो उसके कानूनी उत्तराधिकारी भी मुआवजा पाने के पात्र हैं।
 
सुप्रीम कोर्ट की हाल की पहल : मामला बड़ी पीठ को भेजा गया
साल 2025 में सर्वोच्च न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने इस विषय पर गंभीर विचार करते हुए कहा कि इस मुद्दे पर न्यायिक मतों में विरोध है और यह स्पष्ट व्याख्या आवश्यक है।
इसलिए कोर्ट ने यह प्रश्न बड़ी पीठ (Larger Bench) को भेजा, ताकि यह तय हो सके कि —
“क्या धारा 163A मोटर वाहन अधिनियम के तहत किया गया दावा केवल तीसरे पक्ष के मामलों तक सीमित है, या वाहन स्वामी/चालक अथवा उनके उत्तराधिकारी भी इसका लाभ ले सकते हैं?”
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी कहा कि —
“धारा 163A की भाषा स्वयं में पर्याप्त रूप से व्यापक है और यह किसी व्यक्ति की पहचान के आधार पर सीमा नहीं लगाती। जब एक वैध बीमा पॉलिसी जारी की गई है, तो दावा केवल तीसरे पक्ष तक सीमित नहीं कहा जा सकता।”
इस टिप्पणी ने न्यायिक जगत में नई बहस छेड़ दी है।
विधिक व्याख्या : धारा 163A का पाठ और निहितार्थ
धारा 163A(1) कहती है:
“The owner of the motor vehicle or the authorised insurer shall be liable to pay in the case of death or permanent disablement due to accident arising out of the use of motor vehicle, compensation to the legal heirs or the victim, as the case may be…”
यहाँ स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि दायित्व “owner or authorised insurer” का है, और मुआवजा “victim or legal heirs” को दिया जाएगा।
इसमें यह कहीं नहीं कहा गया कि “victim” केवल तीसरा पक्ष होगा।
अतः भाषा-दृष्टि से यह धारा सभी पीड़ितों पर लागू होती है।
नीतिगत दृष्टिकोण (Policy Perspective)
भारत में मोटर वाहन कानून केवल निजी अधिकार का नहीं, बल्कि सामाजिक कल्याण नीति का भी हिस्सा है।
इसका उद्देश्य पीड़ित व्यक्ति को शीघ्र मुआवजा दिलाना है, न कि कानूनी तकनीकीताओं में उलझाना।
यदि धारा 163A को केवल तीसरे पक्ष तक सीमित कर दिया जाए, तो हजारों ऐसे मामलों में न्याय नहीं मिल पाएगा जहाँ:
- एक ही वाहन दुर्घटना में चालक या मालिक की मृत्यु होती है,
 - वाहन पलट जाता है, या
 - कोई अन्य पक्ष शामिल नहीं होता।
 
ऐसे मामलों में परिवारों को न तो बीमा कंपनी से मदद मिलती है, न ही दोष सिद्ध किए बिना मुआवजा।
दूसरी ओर, यदि इस धारा को सभी पर लागू किया जाए, तो यह सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप होगा, भले ही बीमा कंपनियों पर कुछ वित्तीय भार बढ़े।
बीमा कंपनियों की चिंता
बीमा कंपनियाँ यह तर्क देती हैं कि:
- थर्ड पार्टी इंश्योरेंस का उद्देश्य दूसरों को हुए नुकसान की भरपाई करना है, न कि स्वामी को स्वयं।
 - यदि स्वामी/चालक के लिए भी नो-फॉल्ट लायबिलिटी लागू हो जाएगी, तो बीमा प्रीमियम बढ़ाना पड़ेगा।
 - इससे बीमा उद्योग पर आर्थिक दबाव पड़ेगा।
 
हालांकि, इस तर्क का प्रत्युत्तर यह दिया जा सकता है कि:
- बीमा कंपनियाँ पहले से ही “Personal Accident Cover” का प्रावधान रखती हैं।
 - न्याय और मानवता के दृष्टिकोण से यह स्वीकार्य नहीं कि किसी परिवार को केवल इसलिए मुआवजा न मिले क्योंकि मृतक “स्वयं का वाहन” चला रहा था।
 
पूर्ववर्ती न्यायिक निर्णयों का विश्लेषण
1. Deepal Girishbhai Soni v. United India Insurance Co. Ltd. (2004)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 163A और 166 परस्पर विशिष्ट (mutually exclusive) हैं।
दावेदार इनमें से केवल एक ही रास्ता चुन सकता है।
2. Ramkhiladi v. United India Insurance Co. (2020)
इस मामले में कोर्ट ने कहा था कि यदि चालक स्वयं दुर्घटना में मारा जाए, तो उसके उत्तराधिकारी धारा 163A के तहत दावा नहीं कर सकते क्योंकि वह “स्वामी” था।
3. United India Insurance Co. Ltd. v. Sunil Kumar (2017)
यहाँ सुप्रीम कोर्ट ने माना कि धारा 163A के तहत दावेदार को लापरवाही सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती।
4. वर्तमान संदर्भ (2025)
हालिया आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त निर्णयों पर पुनर्विचार करते हुए कहा कि इन मतों में विरोधाभास है और इस विषय पर बड़ी पीठ को निर्णय देना आवश्यक है।
संभावित प्रभाव
1. यदि बड़ी पीठ धारा 163A को सार्वभौमिक मानती है:
- पीड़ित परिवारों को अधिक राहत मिलेगी।
 - न्यायिक प्रक्रिया अधिक मानवतावादी बनेगी।
 - बीमा कंपनियों को नीतिगत संशोधन और प्रीमियम में समायोजन करना पड़ सकता है।
 
2. यदि बड़ी पीठ इसे केवल तीसरे पक्ष तक सीमित रखती है:
- कई परिवार राहत से वंचित रहेंगे।
 - “नो-फॉल्ट” सिद्धांत का उद्देश्य अधूरा रह जाएगा।
 - सामाजिक न्याय की भावना को ठेस पहुँचेगी।
 
सुझाव और सुधार की आवश्यकता
- संसद को स्पष्ट संशोधन लाना चाहिए कि धारा 163A किन दावेदारों पर लागू होगी।
 - बीमा नियामक (IRDAI) को पॉलिसी संरचना में बदलाव कर “स्वामी/चालक” के लिए न्यूनतम व्यक्तिगत दुर्घटना कवर अनिवार्य करना चाहिए।
 - मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (MACT) को दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए कि ऐसे मामलों में शीघ्र निपटारा हो।
 - जनजागरूकता बढ़ाई जाए कि धारा 163A के तहत दावा करने के लिए गलती साबित करने की आवश्यकता नहीं है।
 - बीमा-कंपनियों को पारदर्शी ढंग से ऐसे दावे स्वीकार करने चाहिए ताकि मुकदमेबाजी कम हो।
 
न्यायशास्त्रीय विश्लेषण
सामाजिक न्याय (social justice) भारतीय संविधान का मूल तत्व है।
धारा 163A का उद्देश्य भी इसी भावना से प्रेरित है — यानी राज्य का दायित्व है कि नागरिकों को अनावश्यक देरी और जटिलता से मुक्त कर न्याय दिलाए।
यदि एक गरीब किसान या ड्राइवर अपने वाहन के पलटने से मारा जाता है, तो यह कहना कि “वह स्वयं स्वामी था इसलिए उसका परिवार मुआवजे का हकदार नहीं” — यह सामाजिक न्याय की भावना के विपरीत है।
इसलिए सर्वोच्च न्यायालय का यह कदम कि मामला बड़ी पीठ को भेजा गया है, न केवल कानूनी रूप से उचित है, बल्कि संवैधानिक न्याय की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम है।
निष्कर्ष
धारा 163A मोटर वाहन अधिनियम का वह प्रावधान है जिसने “नो-फॉल्ट” मुआवजे की अवधारणा को भारत में स्थापित किया।
परंतु इस धारा का वास्तविक दायरा — क्या यह केवल तीसरे पक्ष के लिए है या सभी दावेदारों पर लागू — इस पर वर्षों से मतभेद रहा है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस विवाद को बड़ी पीठ के समक्ष भेजे जाने से उम्मीद है कि जल्द ही इस विषय पर अंतिम और स्पष्ट निर्णय आएगा।
यदि बड़ी पीठ यह मान लेती है कि यह प्रावधान सभी दावेदारों पर लागू होता है, तो यह भारतीय न्याय प्रणाली के “मानव-केंद्रित न्याय” के सिद्धांत की बड़ी जीत होगी।
इसके विपरीत, यदि इसे केवल तीसरे पक्ष तक सीमित कर दिया जाता है, तो यह सामाजिक कल्याण की भावना के साथ अन्याय होगा।
इसलिए अब देश की नज़र इस बड़ी पीठ के निर्णय पर है —
क्योंकि यही तय करेगा कि “नो-फॉल्ट लायबिलिटी” वास्तव में सभी के लिए न्याय है या केवल कुछ के लिए।
लेखक टिप्पणी:
यह प्रावधान केवल कानूनी तकनीकीता नहीं, बल्कि मानव संवेदना से जुड़ा मुद्दा है।
धारा 163A का उद्देश्य “पीड़ित को राहत” है, न कि “पक्ष की पहचान”।
इसलिए न्याय का तकाजा यही है कि कानून को व्यापक, समावेशी और संवेदनशील दृष्टि से देखा जाए।