“NDPS Act की धारा 32-B के तहत सजा बढ़ाने के कारक अनिवार्य नहीं, केवल वैकल्पिक: सर्वोच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय”
(Supreme Court: Factors under Section 32-B of NDPS Act are Optional, Not Mandatory for Awarding Punishment Higher than Minimum)
भूमिका: न्यायिक विवेक और NDPS अधिनियम की सख्ती का संतुलन
भारत में मादक पदार्थों की रोकथाम और नियंत्रण अधिनियम, 1985 (NDPS Act) सबसे कठोर आपराधिक विधानों में से एक है। इस कानून के तहत मादक पदार्थों के उत्पादन, तस्करी, और उपयोग से संबंधित अपराधों के लिए कठोर दंड का प्रावधान है।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि NDPS अधिनियम की धारा 32-B में उल्लिखित कारक (factors) — जिन्हें सजा को न्यूनतम सीमा से अधिक करने के लिए देखा जाता है — “अनिवार्य नहीं बल्कि वैकल्पिक” (optional) हैं।
यह निर्णय इस बात पर प्रकाश डालता है कि न्यायालय को सजा तय करते समय विवेकाधिकार (discretion) का प्रयोग करने का अधिकार है, और धारा 32-B में दिए गए बिंदु केवल मार्गदर्शक कारक (guiding factors) हैं, न कि अनिवार्य शर्तें (mandatory conditions)।
प्रकरण की पृष्ठभूमि
इस मामले में आरोपी व्यक्ति को NDPS अधिनियम के तहत दोषी ठहराया गया था। ट्रायल कोर्ट ने अपराध की गंभीरता को देखते हुए न्यूनतम सजा से अधिक सजा सुनाई थी।
आरोपी ने उच्च न्यायालय में यह तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने धारा 32-B में बताए गए कारकों पर विचार नहीं किया, जो कि सजा बढ़ाने से पहले आवश्यक है।
उच्च न्यायालय ने सजा को बरकरार रखा, जिसके बाद आरोपी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की।
प्रश्न यह था —
क्या ट्रायल कोर्ट को सजा बढ़ाने से पहले धारा 32-B में दिए गए सभी कारकों पर विचार करना अनिवार्य है?
धारा 32-B NDPS Act का सारांश
NDPS अधिनियम की धारा 32-B कहती है कि —
जब किसी व्यक्ति को दोषी ठहराया जाता है और न्यायालय न्यूनतम सजा से अधिक सजा देना चाहता है, तब वह निम्नलिखित कारकों पर विचार कर सकता है:
(a) अपराध की प्रकृति और परिस्थितियाँ
(b) अपराध में आरोपी की भूमिका
(c) मादक पदार्थ की मात्रा और उसका प्रभाव
(d) अपराध का सामाजिक प्रभाव
(e) पूर्व अपराधों का रिकॉर्ड
(f) अन्य कोई प्रासंगिक तथ्य
मुख्य शब्द है — “may take into account” (विचार कर सकता है)
जो यह दर्शाता है कि यह प्रावधान अनिवार्य नहीं बल्कि विवेकाधीन (discretionary) है।
याचिकाकर्ता का तर्क (Appellant’s Argument):
- ट्रायल कोर्ट ने धारा 32-B में दिए गए कारकों का विश्लेषण किए बिना सजा बढ़ाई, जो कि कानून का उल्लंघन है।
 - जब कानून ने कुछ कारकों का उल्लेख किया है, तो न्यायालय को उन पर विचार करना चाहिए था।
 - सजा निर्धारित करते समय यह देखना आवश्यक है कि अपराध की परिस्थिति और आरोपी की भूमिका क्या थी।
 
राज्य पक्ष का तर्क (State’s Argument):
- धारा 32-B में “may” शब्द का प्रयोग किया गया है, जो इसे अनिवार्य नहीं बल्कि वैकल्पिक बनाता है।
 - न्यायालय सजा बढ़ाने के लिए अन्य आधारों पर भी विचार कर सकता है।
 - ट्रायल कोर्ट ने पर्याप्त कारण बताते हुए सजा बढ़ाई है, अतः इसे अवैध नहीं कहा जा सकता।
 
सर्वोच्च न्यायालय का विश्लेषण: न्यायिक विवेक और वैधानिक व्याख्या
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि—
- धारा 32-B का उद्देश्य केवल यह बताना है कि किन परिस्थितियों में न्यायालय न्यूनतम सजा से अधिक सजा देने का विचार कर सकता है।
 - यह धारा “may take into account” शब्दों से शुरू होती है, जो इसे वैकल्पिक बनाता है, न कि अनिवार्य।
 - यदि कानून बनाते समय संसद चाहती कि न्यायालय को इन कारकों पर अनिवार्य रूप से विचार करना है, तो “shall” शब्द का प्रयोग किया जाता।
 
अदालत ने आगे कहा कि न्यायालय के पास सजा तय करने का स्वतंत्र विवेकाधिकार (judicial discretion) है, और उसे अपराध की प्रकृति, मात्रा, आरोपी की भूमिका और सामाजिक प्रभाव जैसे अन्य कारकों पर भी विचार करने का अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि —
“Section 32-B of the NDPS Act does not restrict the discretion of the court to impose punishment higher than the minimum. The factors mentioned in clauses (a) to (f) are additional and optional, not mandatory.”
अर्थात्, धारा 32-B के कारक न्यायालय को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, लेकिन उनका अनुपालन सजा बढ़ाने के लिए पूर्व शर्त नहीं है।
अदालत ने यह भी कहा कि यदि ट्रायल कोर्ट ने अपने आदेश में अपराध की गंभीरता, आरोपी की भूमिका और समाज पर प्रभाव का उल्लेख किया है, तो यह पर्याप्त कारण है सजा बढ़ाने का।
न्यायालय की टिप्पणी:
“The court is not bound to mechanically reproduce the factors enumerated in Section 32-B. The discretion of the court cannot be curtailed by procedural rigidity when the object of the law is deterrence.”
अर्थात्, न्यायालय का विवेक सीमित नहीं किया जा सकता। NDPS अधिनियम का उद्देश्य समाज में मादक पदार्थों की रोकथाम और भय उत्पन्न करना है, न कि तकनीकी प्रक्रियाओं में न्याय को फँसाना।
न्यायिक दृष्टांत (Precedents):
- Union of India v. Kuldeep Singh (2004) 2 SCC 590
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सजा का निर्धारण अपराध की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करता है; धारा 32-B केवल एक मार्गदर्शक है। - State of Punjab v. Balwinder Singh (2012) 2 SCC 182
न्यायालय ने कहा कि “Section 32-B does not curtail the power of the trial court to impose higher punishment.” - Rafiq Qureshi v. State of Rajasthan (2021) 10 SCC 137
इसमें भी कहा गया कि “the word ‘may’ indicates discretion, not obligation.” 
इन निर्णयों ने इस बात को मजबूत किया कि न्यायालय का विवेक सर्वोपरि है।
NDPS कानून का उद्देश्य और न्यायिक संतुलन
NDPS अधिनियम का मुख्य उद्देश्य मादक पदार्थों की आपूर्ति श्रृंखला को समाप्त करना और समाज को नशे की बुराइयों से मुक्त करना है।
लेकिन इसके साथ ही यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया आरोपी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न करे।
इस संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह संतुलन स्थापित किया है कि —
- अदालत सजा बढ़ाने के लिए स्वतंत्र है,
 - लेकिन उसे तर्कसंगत आधार प्रस्तुत करना होगा।
 - धारा 32-B के कारक सहायक मार्गदर्शक हैं, न कि कानूनी बाध्यता।
 
संवैधानिक दृष्टिकोण: अनुच्छेद 21 और न्याय का विवेक
संविधान का अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति को “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” के अनुसार ही दंडित किया जाएगा।
NDPS अधिनियम जैसी कठोर विधि के तहत, न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि दंड उचित, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण हो।
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय इस बात को पुष्ट करता है कि—
“न्यायिक विवेक कानून का पूरक है, उसका प्रतिस्थापन नहीं।”
सामाजिक प्रभाव: कठोर कानून और न्याय की मानवीयता
NDPS अधिनियम के अंतर्गत सजा अत्यंत कठोर होती है — कई मामलों में न्यूनतम 10 वर्ष से लेकर अधिकतम 20 वर्ष तक।
इसलिए, यदि अदालत को यह लगता है कि अपराध संगठित, योजनाबद्ध या समाज के लिए अत्यंत घातक है, तो उसे सजा बढ़ाने का पूर्ण अधिकार है।
परंतु, यह निर्णय यह भी सुनिश्चित करता है कि अदालत केवल तकनीकी औपचारिकताओं के आधार पर सजा तय न करे, बल्कि मामले के वास्तविक तथ्यों पर विचार करे।
व्यावहारिक प्रभाव: न्यायिक विवेक की पुनर्पुष्टि
यह निर्णय देशभर के NDPS मामलों में निम्नलिखित प्रभाव डालेगा:
- ट्रायल कोर्ट अब आत्मविश्वास के साथ न्यूनतम से अधिक सजा दे सकेगा यदि उसे अपराध की गंभीरता उचित लगे।
 - अभियोजन पक्ष को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं कि सभी 6 कारक (a)-(f) पर विचार हुआ है।
 - आरोपी केवल तकनीकी तर्क के आधार पर सजा को चुनौती नहीं दे सकेगा।
 - न्यायिक विवेक और न्याय की भावना को प्राथमिकता मिलेगी।
 
न्यायालय का अंतिम निष्कर्ष:
“The NDPS Act is a special statute designed to combat drug menace. The factors in Section 32-B are intended to assist the court, not to bind it. What matters is the reasoning, not the ritual.”
अर्थात्, अदालत का विवेक और उसका तर्क ही सजा का आधार है, न कि केवल धारा 32-B का यांत्रिक अनुपालन।
निष्कर्ष: न्याय की कठोरता और विवेक का संतुलन
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय NDPS मामलों में एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
यह न केवल न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की पुष्टि करता है बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कानून की कठोरता के बीच भी न्याय की मानवीयता बनी रहे।
यह आदेश इस सिद्धांत को पुनः स्थापित करता है कि —
“कानून का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं, बल्कि न्याय करना है।”
इस प्रकार, NDPS अधिनियम की धारा 32-B अब न्यायालयों के लिए एक मार्गदर्शक उपकरण (guiding tool) है, न कि कोई बंधनकारी शर्त (binding condition)।