IndianLawNotes.com

“मौत की सजा और निर्दोषता: क्या मुआवजा ही असली न्याय है?”

क्या गलत तरीके से मृत्युदंडित निर्दोष व्यक्तियों को मुआवजा मिलना चाहिए?

(Should Innocent Men Wrongly Sentenced to Death Get Compensation?)

प्रस्तावना

किसी भी शासन-प्रणाली में, अपराध एवं दंड का संतुलन कानून-व्यवस्था की मूल आधारशिला है। जब कोई व्यक्ति भय-प्रकार के अपराध के कारण दंडित किया जाता है, विशेषकर यदि वह मृत्यु दंड (capital punishment) हो, तो न्यायिक प्रक्रिया की अक्षुण्णता, त्वरिता एवं निष्पक्षता का प्रश्न सर्वोपरि बन जाता है। यदि बाद में यह साबित हो जाता है कि व्यक्ति निर्दोष था — अर्थात् उसे अदालत द्वारा गलत तरीके से मृत्यु दंड दिया गया था — तो क्या राज्य को उस व्यक्ति या उसके परिजनों को मुआवजा देना चाहिए? इस प्रश्न के जवाब में न सिर्फ कानूनी, बल्कि नैतिक, संवैधानिक, मानवाधिकार एवं पॉलिसी-आयामी दृष्टिकोण मौजूद हैं।

वर्तमान में भारत में Supreme Court of India ने ऐसे मामलों पर विचार­मंच खोलना शुरू किया है — उदाहरण के तौर पर तीन अभियुक्तों द्वारा दायर याचिकाएँ, जिन पर मृत्युदंड लगाया गया था और बाद में उन्हें रिहा किया गया। इस पृष्ठभूमि में इस विषय पर विस्तृत रूप से चर्चा करना आवश्यक है।

विषय का महत्व

  1. मृत्युदंड का अल्पकालीन, लेकिन अटल परिणाम — मृत्यु दंड यदि किसी निर्दोष को दिया जाए तो पुनरावृत्ति संभव नहीं, न्याय हस्तांतरणीय नहीं।
  2. संविधान­गत अधिकारों का उल्लंघन — यदि गलत तरीके से दंड हुआ हो, तो यह व्यक्ति के जीवन-मान (Article 21 के तहत) एवं अन्य मूलभूत अधिकारों का हनन हो सकता है।
  3. न्याय-विश्वास एवं शासन-विश्वास का मामला — यदि राज्य अथवा न्यायप्रक्रिया प्रणाली ने दोष साबित करने में त्रुटि की हो, तो जनता का न्याय-प्रणाली पर विश्वास डगमगा सकता है।
  4. मुआवजे की आवश्यकता — केवल रिहाई पर्याप्त नहीं हो सकती; जीवन, प्रतिष्ठा, पारिवारिक स्थिति, सामाजिक जीवन पर गहरा असर हुआ हो सकता है, जिसे बहाल करना है।
  5. नैतिक एवं पॉलिसी-प्रश्न — क्या राज्य को अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए? मुआवजे का निर्धारण किस आधार पर होगा? संसाधन कैसे जुटेंगे?

वर्तमान कानूनी-प्रसंग

  • हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने तीन पुरुषों (नाम से संज्ञात) की याचिकाएँ स्वीकार कीं, जो कि मृत्युदंड पर थे और बाद में अदालत द्वारा बरी किए गए थे। उदाहरण के लिए एक ने 12 साल जेल में बिताए जिनमें 6 साल मृत्युदंड पर रहे।
  • अदालत ने यह संकेत दिया है कि अगर राज्य द्वारा दोषपूर्ण कार्यवाही हुई हो — गलत गिरफ्तारी, दोष न होने पर मुकदमा, तिरछी जांच आदि — तो मुआवजे का प्रश्न न्याय-संगत दिखाई देता है।
  • भारत में अभी तक ऐसा कोई व्यापक कानून नहीं है जो गलत तरीके से मृत्युदंडित या क्रूर, अन्यायपूर्ण तरीके से सजा पाए व्यक्तियों के लिए स्वचालित मुआवजे (statutory compensation) का प्रावधान करता हो।
  • अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुसार, मृत्युदंड अन्तिम उपाय होना चाहिए, और जब व्यक्ति निर्दोष पाये जाते हैं तो राज्य की जिम्मेदारी अधिक स्पष्ट हो जाती है।

मुआवजे का तमाम तर्क

(A) न्याय-सिद्धांत से

  • न्याय का अर्थ केवल दोषियों को दंडित करना नहीं, बल्कि निर्दोषों को संरक्षित करना भी है। यदि निर्दोष को दंडित किया गया हो, तो मूल उद्देश्य विफल हुआ।
  • मुआवजा एक प्रकार से न्याय बहाली (remedial justice) है — यह फौरी राहत है कि जिसने बहुत कुछ खोया है, उसे कुछ हासिल हो।
  • संवैधानिक दृष्टि से, यदि राज्य ने प्रक्रिया में त्रुटि की हो या मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो, तो मुआवजा देना एक सामाजिक-न्याय-दायित्व हो सकता है।

(B) मानवाधिकार एवं कानूनी आधार से

  • ‘जीवन का अधिकार’ (Article 21) को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने व्यापक अर्थ दिया है — जिसमें जीवन की गुणवत्ता, प्रतिष्ठा, सामाजिक अस्तित्व भी शामिल हैं। यदि गलत तरीके से मृत्युदंड के कारण ये प्रभावित हुए हों, तो राज्य को जवाबदेह माना जाना चाहिए।
  • अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी, जब दोष सिद्ध नहीं होता, या न्याय में गंभीर त्रुटि होती है, कई न्यायालयों ने मुआवजे का प्रावधान स्वीकार किया है।
  • मुआवजे के बिना, न्यायप्रक्रिया का पूरा औचित्य खंडित हो जाता है।

(C) नैतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से

  • एक निर्दोष व्यक्ति को मृत्युदंड का सामना करना पड़ा, उसकी प्रतिष्ठा बुरी तरह प्रभावित हुई, परिवार का जीवन बदला हुआ, सामाजिक उखड़ापन हुआ — इन सबका मूल्य केवल “रिहाई” से पूरा नहीं होता।
  • राज्य-कर्तव्य के रूप में, यह स्वीकार करना कि “गलती हुई” और उसके लिए मुआवजा देना, सामाजिक विश्वास को पुनर्स्थापित करता है।
  • इससे भविष्य में जांच-प्रक्रिया, अभियोजन-प्रक्रिया तथा न्यायनिर्णय में सावधानी बढ़ने का संकेत मिलता है — त्रुटि की संभावना कम होती है।

चुनौतियाँ एवं विपक्ष-तर्क

(A) मुआवजे की जिम्मेदारी एवं साधन

  • यदि राज्य को मुआवजा देना होगा, तो किस पैरामीटर पर? कितने वर्ष जेल, मृत्युदंड कब तक रहा, कितनी आर्थिक व सामाजिक हानि हुई— ये सब मापना मुश्किल है।
  • संसाधन-बाधाएँ: राज्य-वित्तीय भार बढ़ सकता है। यदि बहुत सारे मामले होंगे, तो वित्तीय जिम्मेदारी भारी हो सकती है।
  • पूर्ववर्ती केस-लॉ (precedent) का अभाव: भारत में स्वचालित मुआवजे की व्यवस्था फिलहाल नहीं है, इसलिए न्यायिक दिशा-निर्देशों के आधार पर न्याय करना होगा।

(B) दोष सिद्धि-प्रमाणि-संकट

  • यह तय करना कठिन होगा कि कौन “निर्दोष” है — कितने मामलों में पुनर्जीवित अभियुक्त बरी हुआ हो, किन्हें दोष सिद्ध नहीं हुआ हो।
  • गलत सजा, या प्रक्रिया-त्रुटि का प्रमाण मिलना ही पर्याप्त नहीं; कभी-कभी कानूनी समीक्षा में आपत्तियाँ होती हैं।
  • यदि मुआवजे का द्वार खुला होगा, तो राज्य पर बोझ बढ़ेगा, संभवतः गलत आरोपों का खतरा ही बढ़ सकता है कि लोग मुआवजे के लिए प्रेरित हों।

(C) राजनीतिक-न्यायिक एवं नीतिगत पक्ष

  • मुआवजा देना एक पॉलिसी-निर्णय है — क्या इसे सामान्य व्यवस्था बनाना चाहिए या सिर्फ विशेष, अति दुर्लभ मामलों में ही देना चाहिए?
  • क्या मुआवजा पाने का फरमान “खरीदारी” का रूप ले सकता है, जहाँ राज्य-दोष की स्वीकारोक्ति की जगह केवल मुआवजा देना हो?
  • न्यायिक प्रणाली को यह देखना होगा कि मुआवजा देने से प्रक्रिया-सुधार (eg: जांच-प्रक्रिया, अभियोजन-मानक, न्यायधीश-नियोजन) की उपेक्षा न हो जाए।

प्रस्तावित दिशा-निर्देश एवं समाधान

नीचे कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं जिन पर विचार करना उपयोगी होगा — यह नीतिगत सुझाव हैं, जिन्हें विधायी रूप देना होगा।

  1. स्वचालित मुआवजे का कानून
    • एक ऐसा कानून स्वीकार किया जाए जिसमें तय हो कि यदि किसी व्यक्ति को मृत्युदंड दिया गया और बाद में सच्चाई से बरी पाया गया, तो उसे (या उसके कानूनी उत्तराधिकारियों को) मुआवजा मिलेगा।
    • मुआवजे के लिए पात्रता-मानदंड स्पष्ट हों: (i) मृत्युदंड की अवधि कितनी रही (ii) जेल-काल कितने वर्ष रहा (iii) दोषी-सिद्धि में त्रुटि साबित हुई हो (iv) परिवार/परिजन की आर्थिक/सामाजिक हानि का प्रमाण।
    • मुआवजे की राशि निर्धारण हेतु एक फॉर्मूला तय हो सके — उदाहरण के लिए प्रत्येक वर्ष जेल-काल के लिए निश्चित राशि, साथ में प्रतिष्ठा-हानि व सामाजिक पुनर्स्थापना का प्रावधान।
  2. न्याय-प्रक्रिया में सुधार
    • दोष-सिद्धि एवं मृत्युदंड के मामलों में अभियोजन-मानक और जांच-प्रक्रिया में बेहद कड़ाई हो। Error-margin न्यूनतम हो।
    • न्यायालयों द्वारा “रैत का वाद” (rarest of rare) सिद्धांत के अंतर्गत मृत्युदंड देने से पहले, व्यक्तिगत, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्थितियों का विश्लेषण करना अनिवार्य हो।
    • दोष सिद्धि न होने पर अभियुक्त को त्वरित सुनवाई एवं रिहाई पाने का अवसर सुनिश्चित करना हो।
  3. पुनर्स्थापना (rehabilitation) का विकल्प
    • मुआवजे के साथ-साथ, बरी हुए व्यक्ति की सामाजिक पुनरावलोकन (reintegration) एवं मानसिक स्वास्थ्य सहायता की व्यवस्था हो।
    • राज्य या केंद्र द्वारा विशेष कार्यक्रम बनाए जाएँ — कानूनी सहायता, रोजगार-व्यवस्था, प्रतिष्ठा सुधार के लिए सामाजिक सहायता।
  4. जवाबदेही एवं सार्वजनिक-पारदर्शिता
    • यदि दोषपूर्ण प्रक्रिया (जांच-कैदी, अभियोजन-त्रुटि) पाई जाती है, तो अभियुक्त अधिकारी/जांच-कर्मी/प्रोस्क्युशन को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
    • मुआवजे के आंकड़े, मामले सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हों ताकि सरकार एवं न्यायप्रणाली दोनों पर निगरानी बनी रहे।
  5. वित्तीय स्रोत एवं बजट व्यवस्था
    • मुआवजे की व्यवस्था के लिए केंद्रीय तथा राज्य बजट में निर्धारित प्रावधान बने।
    • एक विशेष न्याय घटना मुआवजे कोष (Compensation Fund) बनाया जा सकता है, जिसमें राज्य तथा केंद्र मिलकर योगदान करें।

विरोधी एवं द्वार खोलने-वाले दृष्टिकोण

  • कुछ विचारक यह तर्क देते हैं कि मृत्युदंड स्वतः अकल्पनीय रूप से गलत नहीं होता; यदि अभियुक्त दोषी सिद्ध हो गया हो तो राज्य को मुआवजा नहीं देना चाहिए।
  • मुआवजे की व्यवस्था यदि बहुत विस्तृत हो जाए, तो इस बात का डर है कि अभियोजन-प्रक्रिया में गिरावट आ सकती है क्योंकि जिम्मेदारी समाप्त हो जाएगी।
  • विधि-विधान में यह प्रश्न सामने आता है कि मुआवजे के बाद क्या राज्य को प्रतिदान (“counter-liability”) के लिए अधिकार मिलना चाहिए — उदाहरण के लिए अभियोजन-त्रुटि साबित होने पर शिकायतकर्ता राज्य से शुल्क वसूल सके?
  • सामाजिक दृष्टि से यह भी प्रश्न है कि मुआवजे से क्या वास्तविक न्याय हो जाता है? क्या मृत्युदंड के कारण की गई सामाजिक, मनोवैज्ञानिक एवं प्रतिष्ठात्मक क्षति को मुआवजे मात्र से पूरा किया जा सकता है?

निष्कर्ष

त्रुटियों से मुक्त न्यायप्रक्रिया संभव नहीं है — यह कहना भ्रामक होगा कि कोई प्रणाली पूरी तरह दोषरहित हो सकती है। परंतु यह अनिवार्य है कि जब गलती की ओर संकेत मिले — विशेषकर मृत्युदंड जैसे अप्रत्याशित एवं अपरिहार्य दंड के मामले में — तो राज्य एवं न्यायप्रणाली दोनों को सुधारात्मक जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

मैं यह निष्कर्ष देता हूँ कि हाँ, ऐसे निर्दोष जिन्हें गलत तरीके से मृत्युदंडित या लंबी अवधि तक मृत्युदंड-प्रत्याशा में रखा गया और बाद में बरी हुआ, उन्हें मुआवजा मिलना चाहिए — यह न्याय का और संवैधानिक शासन का अनिवार्य पक्ष है। साथ ही यह मुआवजा केवल आर्थिक रूप से नहीं, बल्कि सामाजिक, प्रतिष्ठात्मक, और पुनर्स्थापनात्मक दृष्टि से होना चाहिए।

साथ ही यह प्रतिपादित होना चाहिए कि मुआवजे से मात्र क्षतिपूर्ति नहीं होगी — न्यायप्रक्रिया में सुधार, जवाबदेही का तंत्र स्थापित करना और भविष्य में ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकना इसकी सम­वान जरूरत है।

अतः सरकार, संसद, न्यायपालिका एवं समाज मिलकर इस दिशा में एक संरेखित नीति-विधान तैयार करें — जिससे न सिर्फ वर्तमान में बरी हुए व्यक्तियों को न्याय मिले, बल्कि भविष्य में ऐसे अनुपयुक्त दंडों की संभावना न्यूनतम हो।