“साढ़ सात साल बाद: 37 वर्ष पुराने पदच्युति निर्णय को Supreme Court of India द्वारा रद्द कर, रेल्वे TTE के कानूनी उत्तराधिकारियों को लाभ देने का आदेश”
प्रस्तावना
यह लेख हाल ही में दायर महत्वपूर्ण निर्णय पर आधारित है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 37 वर्ष पुराने पदच्युत निर्णय को रद्द किया एवं एक पूर्व रेल्वे टीटीई (Travelling Ticket Examiner) के कानूनी उत्तराधिकारियों को लाभ देने हेतु आदेश जारी किया। इस निर्णय की पृष्ठभूमि, तथ्य, न्यायिक विश्लेषण एवं भविष्य में सर्विस कानून के दृष्टिकोण से इसके प्रभावों का सम्यक विवेचन नीचे किया गया है।
1. प्रकरण की पृष्ठभूमि
- वर्ष 1988 की घटना: V. M. Saudagar (मृतक) नामक टीटीई, Central Railway (Nagpur डिवीजन) में तैनात थे। 31 मई 1988 को Dadar-Nagpur एक्सप्रेस में सर्विलांस टीम ने अचानक जाँच की थी।
- उस जाँच के बाद विभागीय कार्रवाई आरंभ हुई जिसमें चार प्रमुख आरोप लगाए गए थे:
- यात्रियों से अवैध रिश्वत माँगना।
- अधिभार नकद राशि (excess cash) अपने पास रखना।
- किराये का अंतर (fare difference) वसूलने में विफल रहना।
- एक ड्यूटी पास को फर्जी तरीके से बढ़ाना/मियाद आगे बढ़ाना (forgery of duty card pass)।
- 7 जून 1996 को उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।
- इसके उपरांत, 2002 में Central Administrative Tribunal (CAT), Mumbai (Camp Nagpur) ने बर्खास्ति को रद्द कर पुनः नियुक्ति सहित लाभ देने का आदेश दिया था।
- परन्तु, बाद में Bombay High Court (Nagpur Bench) ने CAT के इस निर्णय को 21 सितंबर 2017 को पलट दिया।
- इस दौरान, वीडर कर्मचार्ी का निधन हो चुका था और उनके कानूनी उत्तराधिकारी मामला आगे ले गए।
2. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
- 27 अक्तूबर 2025 को एक बैंक ने न्यायमूर्ति Sanjay Karol व न्यायमूर्ति Prashant Kumar Mishra की संयुक्त पीठ ने उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द करते हुए CAT के आदेश को बहाल किया।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जांच अधिकारी तथा उच्च न्यायालय द्वारा किए गए निष्कर्ष “पर्वर्स” (perverse) थे—अर्थात् प्रमाण-सिद्धि के अभाव में व्यक्त किए गए थे।
- विशेष रूप से, मुख्य आरोपों पर टिप्पणी:
- रिश्वत माँगने के आरोप में लिखित शिकायतकर्ता (Hemant Kumar) को विभागीय जाँच में पेश ही नहीं किया गया तथा प्रतिवादी को क्रॉस-एक्जामाइन (cross-examination) का अवसर नहीं मिला।
- नकद राशि रखने का आरोप: उस समय कोई नियम नहीं था कि टीटीई के पास कितनी नकद राशि रखी जा सकती है; विभाग ने 1997 में जारी सर्कुलर को 1988 के समय पर लागू कर दिया था, जो कि retrospective तरीके से लागू नहीं हो सकता।
- किराये का अंतर वसूलने में विफल रहने का आरोप: यात्री और रसीद बुक प्रस्तुत नहीं की गई थी; निरीक्षक की गवाही ही आधार बनी थी, जिससे निष्कर्ष अव्यवस्थित था।
- ड्यूटी पास फर्जी करने का आरोप: हस्त-लिखित प्रमाण या फोरेंसिक जांच नहीं हुई थी, इसलिए आरोप अक्षरशः सुबूत-रहित था।
- परिणामस्वरूप, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि “संबंधित मौद्रिक लाभ तथा पेंशन संबंधी लाभ” मृतक कर्मचारी के कानूनी उत्तराधिकारियों को तीन महीनों के भीतर जारी किये जाएँ।
3. न्यायिक विचार-विमर्श
- प्रकाश में लाई गई महत्वपूर्ण कानून-सिद्धियाँ:
- विभागीय अनुशासनात्मक जाँच (disciplinary enquiry) में प्राकृतिक न्याय (natural justice) का पालन अनिवार्य है—विशेष रूप से क्रॉस-एक्जामिनेशन का अवसर। देखें कि यहाँ मुख्य शिकायतकर्ता पेश नहीं हुआ।
- निष्कर्ष तभी टिकते हैं जब अनुभवजन्य प्रमाण (testimonial evidence), दस्तावेजी प्रमाण, तथा प्रक्रिया का पालन इसें सुनिश्चित करें; सिर्फ निरीक्षक की गवाही पर भारी निर्णय नहीं किया जाना चाहिए।
- नियमों/सर्कुलरों का समय-सापेक्ष (temporal) प्रभाव होता है; यदि घटना 1988 की है और विभाग 1997 का सर्कुलर आधार बना रहा है तो तय है कि यह प्रतिगामी लागू नहीं हो सकता।
- न्यायसंगत पुनरावलोकन (judicial review) तभी होता है जब जाँच अधिकारी/विभागीय निर्णय “परवर्स” हो गए हों यानी तथ्यों के विपरीत या प्रमाण-सिद्धि विहीन हों।
- न्यायालय ने यह भी विचार किया कि इतने वर्षों बाद विवाद का लंबित रह जाना न्याय के दृष्टिकोण से सही नहीं है—विशेषकर जब कर्मचारी का निधन हो चुका हो। न्याय को विलंब का दोष नहीं देना चाहिए।
- इस प्रकार, निर्णय ने यह संदेश भी दिया है कि दंडात्मक कार्रवाई हेतु “संदेह” पर्याप्त नहीं, बल्कि “न्याय-सिद्धि” (legal proof) होनी चाहिए।
4. इस निर्णय का सेवा-कानून (Service Law) पर प्रभाव
- यह निर्णय सरकार/सुधारित सेवा नियमों (Service Rules) के तहत आने वाले कर्मचारियों को संकेत देता है कि विभागीय कार्रवाई में प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ गंभीर रूप से निरस्त कर दी जाएँगी।
- उच्च न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों को संकेत मिलता है कि CAT जैसे ट्रिब्यूनल द्वारा दी गई विस्तृत कारणपरक अंतर्दृष्टि (reasoned orders) को युक्तिसंगत ट्विस्ट के बिना सहजतः उलटना नहीं चाहिए।
- कानूनी उत्तराधिकारियों के लिए भी महत्वपूर्ण है: यदि कर्मचारी की सेवा अवधि में विवाद हो रहा हो और कर्मचारी का निधन हो जाए, तो उत्तराधिकारियों को भी लाभ प्राप्ति का अधिकार है।
- अंततः, विभागों को यह सीख मिलती है कि आरोपपत्र तैयार करते समय प्रमाणों की सुदृढ़ता एवं किताबी नियमों का समय-सापेक्ष प्रभाव अवश्य देखना होगा।
5. समस्या एवं चुनौतियाँ
- समय-विलम्ब: इस मामले में 37 वर्ष की देरी हुई। इतना लंबा समय न सिर्फ उत्तराधिकारियों के लिए आर्थिक असुविधा है, बल्कि न्यायप्राप्ति के सिद्धांत के विपरीत भी है।
- प्रमाण जुटाना: इतने वर्षों बाद गवाहों की स्मृति कमजोर हो सकती है, दस्तावेज खो सकते हैं — जिससे विभागीय और न्यायिक पक्ष दोनों को समस्या होती है।
- मानव-स्त्रोत एवं प्रक्रिया-उलंघन: इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि जाँच में भाग लेने वाले मुख्य गवाह को पेश नहीं करना, क्रॉस-एक्जामिनेशन का अवसर न देना आदि प्रकिया-उलंघन हैं।
- पुनरावलोकन का दायरा: विभागों द्वारा निर्णय देने के बाद न्यायालयों का हस्तक्षेप कब उचित होगा — इस पर निरंतर चर्चा बनी रहेगी, पर यह निर्णय एक मील का पत्थर माना जा सकता है।
6. सारांश एवं निष्कर्ष
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने न्याय के मूलप्रेरणा—साक्ष्य-परक निष्कर्ष एवं प्रक्रिया-न्याय (procedural fairness)—को दृढ़ता से उजागर किया है। 37 वर्ष पुराने मामले में भी यह दिखाया गया कि प्रक्रिया-विरोधी दंडात्मक निर्णय निरस्त किये जा सकते हैं। साथ ही, कानूनी उत्तराधिकारियों को औपचारिक लाभ तक पहुँच सुनिश्चित करना न्याय की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
सेवा-कानूनकारी दृष्टिकोण से यह निर्णय महत्वपूर्ण है: यह विभागों को सजग रहने का संदेश देता है कि निष्पादन में पद्धतिक त्रुटियाँ देरसवेर न्यायव्यवस्था में भारी पड़ सकती हैं। कर्मचारियों तथा उनके उत्तराधिकारियों के लिए यह एक आश्वासन है कि लंबित विवादों में भी न्यायप्राप्ति संभव है।