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“केंद्र सरकार न्यायिक अवसंरचना को सुदृढ़ करने के प्रति प्रतिबद्ध — न्याय सुनिश्चित हो कि वह प्रत्येक नागरिक के पहुँच के भीतर रहे : कानून मंत्री Arjun Ram Meghwal”

“केंद्र सरकार न्यायिक अवसंरचना को सुदृढ़ करने के प्रति प्रतिबद्ध — न्याय सुनिश्चित हो कि वह प्रत्येक नागरिक के पहुँच के भीतर रहे : कानून मंत्री Arjun Ram Meghwal”


प्रस्तावना

भारतीय न्याय प्रणाली में न्यायिक अवसंरचना (infrastructure) का महत्व अत्यंत है — यह सिर्फ इमारतों, इंटरनेट-कनेक्शन या कोर्टरूम तक सीमित नहीं है, बल्कि न्याय की गुणवत्ता, पहुंच, दक्षता और विश्वसनीयता को प्रभावित करती है। केंद्र सरकार ने इस दिशा में स्पष्ट रूप से अपनी प्रतिबद्धता जताई है। कानून मंत्री अर्‍जुन राम मेघवाल ने हाल ही में एक कार्यक्रम में यह कहा है कि राज्य- न्यायपालिका-वित्तीय संसाधनों-प्रौद्योगिकी के समन्वित प्रयास के माध्यम से यह सुनिश्चित किया जाएगा कि न्याय “देर न हो, नहीं टले और हर नागरिक की पहुँच में हो”।
इस लेख में हम इस प्रतिबद्धता के विभिन्न आयामों, वर्तमान चुनौतियों, सरकार की पहलों तथा भविष्य की दिशा-निर्देशों का विश्लेषण करेंगे।


न्यायिक अवसंरचना किसे कहा जाता है?

न्यायिक अवसंरचना से तात्पर्य केवल ऊँची कोर्ट-भवन, जजों के कक्ष एवं बॉयलर-रूम तक ही नहीं है। यह व्यापक रूप से निम्नलिखित तत्वों को सम्मिलित करती है:

  • कोर्ट हॉल, जज की कक्षाएँ, रोस्टर-प्लानिंग, वकील व लॉयर्स-हॉल आदि भवन सुविधाएँ।
  • तकनीकी अवसंरचना — कंप्यूटरीकरण, इलेक्ट्रॉनिक फाइलिंग (e-Filing), वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, डिजिटल रिकार्डिंग, वाइड एरिया नेटवर्क (WAN) आदि।
  • मनुष्य-संसाधन — पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश,क्लर्क/स्टाफ, प्राविधिक कर्मचारियों की उपस्थिति।
  • प्रशासनिक प्रक्रियाएँ — ई-कोर्ट्स, डेटा मैनेजमेंट, रिकॉर्ड आराइविंग/स्कैनिंग, सुविधा-कक्ष (e-Sewa Kendras) एवं लॉगिस्टिक्स।
  • पहुँच और सुगमता — न्यायालयों की भौगोलिक स्थिति, परिवहन व पहुँच-सुविधा, अक्षम व्यक्तियों हेतु अनुकूलता, डिजिटल सुलभता आदि।

इसलिए जब मंत्री मेघवाल कहते हैं कि “न्याय सुनिश्चित हो कि वह प्रत्येक नागरिक के पहुँच में हो”, तो इसका अर्थ इसी व्यापक दृष्टिकोण से है।


केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता – कुछ प्रमुख संकेत

  1. भवन-उद्घाटन एवं इंफ्रास्ट्रक्चर सुधार
    उदाहरणस्वरूप, मंत्री मेघवाल ने Madras High Court के एक हेरिटेज बिल्डिंग के उद्घाटन अवसर पर कहा:

    “This court has been a guiding light for the entire nation. … let it be a reaffirmation of our… resolve to ensure that justice is not delayed, not denied and justice remains within reach of every citizen.”
    इस प्रकार के उद्घाटन समारोह सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि यह संकेत देते हैं कि पुरानी इमारतें नवीनीकृत की जा रही हैं और न्याय-प्रवेश पॉइंट नागरिकों के लिए आसान बनाने की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं।

  2. डिजिटलीकरण एवं तकनीकी सुधार
    • eCourts Mission Mode Project (ई-कोर्ट्स) के तीसरे चरण (Phase III) को मंजूरी दी गई है जिसमें लगभग ₹7,210 कौड़ की अधोसंरचना अपग्रेड का प्रस्ताव है, जिसमें 9,000 से अधिक न्यायालय, 500 जेल व 700 अस्पतालों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से जोड़ने की योजना है।
    • उच्च न्यायालय एवं जिला न्यायालय के रिकॉर्ड्स को डिजिटाइजेशन के अंतर्गत लाया गया है — उदाहरण के लिए जून 2025 तक हाई कोर्ट व जिला न्यायालयों में कुल 513 करोड़ से अधिक पृष्ठ स्कैन किये गए।
    • वाइड एरिया नेटवर्क (WAN) द्वारा लगभग 99.4% कोर्ट-कॉम्प्लेक्स को इंटरनेट बैंडविड्थ से जोड़ा गया है।
      इस तरह तकनीक को एक सक्षम उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है ताकि न्याय प्रणाली ज्यादा पारदर्शी, तेज व सुलभ बने।
  3. वित्तीय सहायता एवं संसाधन प्रावधान
    • केंद्र सरकार ने राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों को सहायता-के माफिक धन उपलब्ध कराया है जैसे कि कोर्ट हॉल, न्यायिक अधिकारी-क्वार्टर, वकील-हॉल, डिजिटल कंप्यूटर रूम आदि निर्माण के लिए।
    • उदाहरणस्वरूप, 1993-94 से लेकर अब तक कोर्ट हॉलों की संख्या काफी बढ़ी है: राज्य एवं केन्द्रशासित प्रदेशों में अब तक 23,074 कोर्ट हॉल एवं 20,889 न्यायिक अधिकारी-क्वार्टर बनाए जा चुके हैं।
  4. राष्ट्रीय मुकदमہ नीति (National Litigation Policy) व समन्वय
    न्याय मंत्री ने यह भी बताया कि केंद्र सरकार ने उस नीति को अपनाया है जिससे राज्य के बीच एवं केंद्र व राज्य के बीच मुकदमों की संख्या कम हो सके — जिससे न्यायालयों पर बोझ कम होगा और संसाधन बेहतर तरीके से उपयोग होंगे।

सामना कर रही चुनौतियाँ

हालाँकि सरकार की सक्रियता स्पष्ट है, परंतु कुछ बुनियादी चुनौतियाँ अभी भी न्यायिक इंफ्रा के समक्ष खड़ी हैं:

  • न्यायाधीशों एवं न्यायिक कर्मचारियों की कमी
    देश में प्रतीÂक्षित संख्या के मुताबिक न्यायाधीशों की कमी है — उदाहरणस्वरूप, लेख में बताया गया कि लगभग 19 न्यायाधीश प्रति मिलियन जनता हैं, जबकि लक्ष्य 50 प्रति मिलियन था।
    अदालत और न्यायालयों में पर्याप्त न्यायाधीश-कर्मी नहीं होने से मामलों की पेंडेंसी बढ़ती जा रही है।
  • पेंडेंसी और लंबित मामले
    अवसंरचना व डिजिटल सुधार के बावजूद, सुनवाई-लंबित मामलों की संख्या बहुत अधिक है। इससे न्याय मिलने में देरी होती है, जो “न्याय में देरी = न्याय का इनكار” के समीकरण को जन्म देती है।
  • रियायती एवं पिछड़े इलाकों में पहुंच
    शहरों के मुकाबले ग्रामीण एवं दूरदराज़-प्रांतों में न्यायालयों की पहुँच कम है, परिवहन-सुविधा व कानून-समर्थन कम है, जो सुदूर-क्षेत्रीय न्याय के सिद्धांत को प्रभावित करती है।
  • प्रौद्योगिकी-उपकरणों तथा संचालन में असमानता
    जहाँ बड़े कोर्टों में डिजिटल नेटवर्क व वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वहीं स्थानीय स्तर पर कई न्यायालयों में बुनियादी सुविधाओं जैसे वकील-हॉल, टॉयलेट, इंटरनेट कनेक्शन, स्व-प्रकाशित दस्तावेज-स्कैनिंग आदि अभी भी अधूरी अवस्था में हैं। उदाहरण के लिए Reddit पोस्ट्स में न्यायालय भवनों की जीर्ण-स्थिति को उजागर किया गया है।

आगे की दिशा-निर्देश एवं रणनीतियाँ

कानून मंत्री तथा केंद्र सरकार ने निम्नलिखित रणनीतिक बिंदुओं की ओर संकेत किया है, जिन्हें भविष्य की दिशा माना जा सकता है:

  1. सबसे पहले पहुंच-के बिंदु पर ध्यान
    न्याय सतह-पटल पर पहुँच सके, इसके लिए जिला-उपजिला न्यायालयों के भवन-संरचना, डिजिटल-उपकरण, वकील-हॉल, पब्लिक सुविधा-कक्ष आदि का विशेष ध्यान आवश्यक होगा।
    मंत्री मेघवाल ने कहा कि “न्यायालय बनने चाहिए जनता-के द्वार पर, न कि जनता को न्याय-के द्वार तक भागना पड़े।”
  2. तकनीक का उपयोग, लेकिन मानव न्यायाधीश के नेतृत्व में
    डिजिटलकरण महत्वपूर्ण है — लेकिन यह याद रखना होगा कि न्याय-निर्णय मानव-संपर्क, संवेदना और वैधानिक विवेक के बिना अधूरा है। मेघवाल ने कहा कि प्रौद्योगिकी न्याय प्रक्रिया का स्थान नहीं बल्कि समर्थन है।
  3. मानव संसाधन व प्रशिक्षण में निवेश
    सिर्फ भवन व उपकरण पर्याप्त नहीं; न्यायाधीशों, सिस्टम-कर्मियों, क्लर्क्स व वकीलों को तकनीक-उन्मुख प्रशिक्षण देना होगा। इससे न सिर्फ कार्यदक्षता बढ़ेगी बल्कि नए विवाद और डिजिटल विधि-परिस्थितियों से निपटने की क्षमता भी।
  4. मुकदमे की संख्या कम करना और न्याय-प्रवाह सुनिश्चित करना
    नेशनल मुकदमे नीति जैसी पहल इस दिशा में हैं। इसके तहत सरकार खुद जवाबदेह मुदादी बनने की ओर है, ताकि न्यायालयों की भागीदारी-बोझ कम हो।
    इसके अलावा, विशेष रूप से अवशिष्ट/प्राथमिक मामलों को प्राथमिकता देना, पुराने मामलों का निराकरण बढ़ाना, न्यायालय-प्रबंधन में सुधार लाना आवश्यक है।
  5. पारदर्शिता, निगरानी और गुणवत्ता-सुनिश्चिति
    न्यायिक इंफ्रास्ट्रक्चर हेतु जारी सीएसएस (Centrally Sponsored Scheme) को नियमित रूप से मॉनिटर करना, निधि उपयोग व परिणाम-मापदंडों पर निगरानी रखना आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप, “Nyaya Vikas Portal 2.0” जैसी निगरानी प्रणालियाँ पहले ही लागू की गई हैं।

निष्कर्ष

समग्र रूप से देखा जाए, तो केंद्र सरकार द्वारा न्याय-अवसंरचना के सुदृढ़ीकरण की दिशा में उठाए जा रहे कदम प्रेरणादायक हैं। कानून मंत्री अर्‍जुन राम मेघवाल द्वारा दिए गए वक्तव्यों से यह स्पष्ट हुआ है कि यह सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि व्यावहारिक प्रतिबद्धता है — न्यायों की संख्या बढ़ानी है, उनकी गति बढ़ानी है, उनकी पहुँच बढ़ानी है और उनकी गुणवत्ता सुनिश्चित करनी है।

हालाँकि चुनौतियाँ मौजूद हैं — न्यायाधीशों की संख्या, पेंडेंसी, ग्रामीण-क्षेत्रीय पहुँच, संसाधनों का समुचित प्रयोग आदि। मगर यदि ऊपर वर्णित रणनीतियाँ प्रभावी रूप से लागू हुईं, तो आने वाले वर्षों में भारत की न्याय प्रणाली न सिर्फ “अधिक सक्षम” बल्कि “अधिक सुलभ” और “न्याय के प्रति भरोसेमंद” बन सकती है।

यह ध्यान देने योग्य है कि न्याय-प्रक्रिया में समय-मान, आधुनिक उपकरण व मानव संसाधन के संयोजन से ही “न्याय विलम्बित नहीं होगा, न्याय वंचित नहीं होगा” की प्रतिबद्धता वास्तव में साकार हो सकती है।