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समलैंगिक संबंधों पर धारा 498A IPC की लागू योग्यता पर दिल्ली उच्च न्यायालय की सुनवाई: लैंगिक समानता और आपराधिक न्याय की नई दिशा

समलैंगिक संबंधों पर धारा 498A IPC की लागू योग्यता पर दिल्ली उच्च न्यायालय की सुनवाई: लैंगिक समानता और आपराधिक न्याय की नई दिशा


परिचय

भारत में आपराधिक कानूनों की व्याख्या और उनका विकास सदैव सामाजिक वास्तविकताओं के अनुरूप होता आया है। किंतु जब समाज में नए आयाम, जैसे कि समलैंगिक संबंधों की स्वीकृति, सामने आते हैं, तो विधिक ढांचे की सीमाएँ स्पष्ट हो जाती हैं। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण प्रश्न वर्तमान में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष लंबित है—क्या भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A, जो पति द्वारा पत्नी के साथ क्रूरता से संबंधित है, समलैंगिक संबंधों पर लागू हो सकती है?

यह प्रश्न सिम्मी पाटवा बनाम राज्य (NCT of Delhi) मामले में उठा है, जिसमें याचिकाकर्ता सिम्मी पाटवा पर उनकी पूर्व महिला साथी द्वारा धारा 498A IPC के तहत मामला दर्ज किया गया है। यह विवाद न केवल विधिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता और LGBTQIA+ अधिकारों की दिशा में एक ऐतिहासिक मोड़ साबित हो सकता है।


मामले की पृष्ठभूमि

सिम्मी पाटवा और उनकी महिला साथी का संबंध कई वर्षों तक चला। बाद में उनके बीच मतभेद उत्पन्न हुए, जिसके पश्चात साथी ने सिम्मी पाटवा पर धारा 498A IPC, धारा 406 (आपराधिक विश्वासभंग) और धारा 34 (समान आशय से किया गया अपराध) के तहत मामला दर्ज कराया।

सिम्मी पाटवा ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर करते हुए तर्क दिया कि —

  1. धारा 498A का लागू क्षेत्र केवल पति-पत्नी संबंधों तक सीमित है।
  2. उनके और शिकायतकर्ता के बीच कोई वैधानिक विवाह नहीं था, अतः यह धारा लागू नहीं हो सकती।
  3. समलैंगिक संबंध, भले ही सहमति आधारित हों, अभी भी भारतीय कानून में “वैवाहिक संबंध” के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हैं।

धारा 498A IPC: उद्देश्य और सीमा

धारा 498A भारतीय दंड संहिता में वर्ष 1983 में जोड़ी गई थी, जिसका उद्देश्य था —

“पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा पत्नी के साथ क्रूरता करने वाले अपराधों को दंडनीय बनाना।”

इस धारा का मुख्य उद्देश्य विवाहित महिलाओं को घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीड़न और शारीरिक या मानसिक क्रूरता से सुरक्षा प्रदान करना था।

इस धारा के मुख्य तत्व हैं:

  1. अभियुक्त पति या पति का संबंधी होना चाहिए।
  2. पीड़िता पत्नी होनी चाहिए।
  3. क्रूरता या उत्पीड़न का कार्य विवाह के संदर्भ में होना चाहिए।

स्पष्ट रूप से, यह प्रावधान एक विषमलैंगिक विवाह (heterosexual marriage) के संदर्भ में तैयार किया गया था।


कानूनी प्रश्न

दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष मूल प्रश्न यह है:

“क्या समलैंगिक साथी को ‘पति’ या ‘पत्नी’ की श्रेणी में माना जा सकता है, जिससे कि धारा 498A IPC लागू हो सके?”

यदि उत्तर हाँ है, तो यह भारत में समान विवाह अधिकारों की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम होगा।
यदि उत्तर ना है, तो यह दर्शाएगा कि भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था अभी भी समलैंगिक संबंधों की कानूनी मान्यता के लिए तैयार नहीं है।


समलैंगिक संबंधों का संवैधानिक संदर्भ

भारत में समलैंगिक संबंधों को पहली बार Navtej Singh Johar v. Union of India (2018) में वैधानिक मान्यता मिली, जब सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 377 IPC को असंवैधानिक घोषित किया।
इस निर्णय में न्यायालय ने कहा कि —

“यौन अभिविन्यास (sexual orientation) व्यक्ति की गरिमा और निजता का अभिन्न अंग है, और इसे अपराध मानना संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 का उल्लंघन है।”

हालाँकि, यह निर्णय केवल सहमति आधारित यौन संबंधों को वैध ठहराता है, न कि समलैंगिक विवाहों को।
विवाह संबंधी अधिकारों पर सर्वोच्च न्यायालय ने Supriyo Chakraborty v. Union of India (2023) में कहा कि —

“भारत में विवाह एक वैधानिक संस्था है, और संसद ने अब तक समान-लैंगिक विवाह को मान्यता नहीं दी है।”

अतः कानूनी दृष्टि से समलैंगिक युगल अभी भी “पति” या “पत्नी” नहीं माने जा सकते।


समलैंगिक विवादों में वैधानिक शून्यता

वर्तमान विधिक ढांचे में समलैंगिक साझेदारों के लिए घरेलू हिंसा, संपत्ति, विरासत, या वैवाहिक विवादों से संबंधित कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है।
हालाँकि Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005 (PWDVA) की धारा 2(f) “relationship in the nature of marriage” को मान्यता देती है, परंतु यह परिभाषा भी पुरुष और महिला के बीच संबंधों तक सीमित मानी गई है।

इस प्रकार, समलैंगिक जोड़ों के लिए न तो वैवाहिक अधिकार हैं, न ही वैवाहिक अपराधों के खिलाफ सुरक्षा के प्रावधान।


विधिक तर्क: पक्ष और विपक्ष

(A) याचिकाकर्ता का पक्ष (सिम्मी पाटवा)

  1. धारा 498A का लिंग-विशिष्ट स्वरूप: यह केवल पति और पत्नी के बीच लागू होती है।
  2. वैवाहिक संबंध की अनुपस्थिति: उनके और शिकायतकर्ता के बीच कोई विवाह नहीं हुआ था।
  3. संविधानिक दृष्टि से समानता का प्रश्न: कानून समलैंगिक व्यक्तियों को वैवाहिक अधिकार से वंचित रखता है, अतः इस धारा का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।

(B) शिकायतकर्ता का पक्ष

  1. संबंध सामाजिक रूप से पति-पत्नी जैसा था — साथ रहना, आर्थिक निर्भरता, और भावनात्मक बंधन।
  2. इसलिए, उसे भी वैवाहिक क्रूरता से सुरक्षा मिलनी चाहिए।
  3. कानून को “लैंगिक तटस्थ” (gender-neutral) रूप में व्याख्यायित किया जाना चाहिए ताकि समान सुरक्षा सुनिश्चित हो।

न्यायिक दृष्टिकोण और पूर्व निर्णय

भारत में कुछ मामलों में न्यायालयों ने समलैंगिक संबंधों को “घरेलू संबंध” के समान माना है, किंतु वे सुरक्षात्मक कानूनों (जैसे DV Act) तक सीमित रहे हैं, न कि दंडात्मक कानूनों तक।

उदाहरण के लिए:

  • S. Sushma v. Commissioner of Police (Madras HC, 2021) में अदालत ने कहा कि समलैंगिक व्यक्तियों को समान अधिकार और गरिमा दी जानी चाहिए।
  • परंतु अब तक किसी भी अदालत ने 498A जैसे आपराधिक प्रावधान को समलैंगिक संबंधों पर लागू नहीं किया है।

विधिक और सामाजिक प्रभाव

यदि दिल्ली उच्च न्यायालय यह निर्णय देता है कि धारा 498A समलैंगिक संबंधों पर लागू हो सकती है, तो इसके गहरे प्रभाव होंगे:

  1. समान अधिकारों की दिशा में प्रगति: LGBTQIA+ समुदाय के लिए यह न्यायिक मान्यता एक ऐतिहासिक जीत होगी।
  2. आपराधिक न्याय में लैंगिक समानता: यह धारा gender-neutral बन जाएगी, जिससे पुरुष और महिला दोनों के साथ-साथ समलैंगिक साथी भी इसके तहत संरक्षण पा सकेंगे।
  3. विधायी संशोधन की आवश्यकता: संसद को IPC और अन्य कानूनों में “spouse” शब्द को शामिल करना पड़ सकता है।

वहीं, यदि न्यायालय इसे अप्रयोज्य घोषित करता है, तो यह एक बार फिर इंगित करेगा कि भारत के दंड कानूनों में लैंगिक और संबंध आधारित विविधता को मान्यता देने में अभी भी लंबा रास्ता तय करना बाकी है।


वर्तमान स्थिति और अपेक्षित परिणाम

अभी दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में अंतिम निर्णय नहीं दिया है, परंतु यह बहस आगे बढ़ चुकी है कि —
क्या हमारे दंड कानूनों को “लैंगिक तटस्थ” (gender-neutral) बनाया जाना चाहिए?

कई विशेषज्ञों का मत है कि भारत को अब पति-पत्नी जैसे पारंपरिक शब्दों से आगे बढ़कर spouse, partner या person in relationship जैसे समावेशी शब्दों का उपयोग करना चाहिए, ताकि कानून सभी के लिए समान हो सके।


निष्कर्ष

सिम्मी पाटवा बनाम राज्य (NCT of Delhi) मामला भारतीय विधिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह केवल एक आपराधिक मुकदमे का प्रश्न नहीं, बल्कि संविधानिक समानता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लैंगिक न्याय का मुद्दा है।

धारा 498A की भाषा “पति” और “पत्नी” तक सीमित है, परंतु समाज अब विविध संबंधों को स्वीकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। न्यायालय का यह निर्णय तय करेगा कि —

“क्या भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली समाज की इस नई वास्तविकता को स्वीकार करने को तैयार है?”

यदि न्यायालय इस धारा के दायरे को समलैंगिक संबंधों तक विस्तृत करता है, तो यह भारत में कानूनी समानता की नई परिभाषा गढ़ेगा।
और यदि नहीं, तो यह विधायिका के लिए एक स्पष्ट संदेश होगा कि —

“कानून को समाज की बदलती वास्तविकताओं के अनुरूप अद्यतन किया जाना अब अपरिहार्य है।”