“एक पक्षीय आदेश (Ex Parte Order) के बाद याचिकाकर्ता द्वारा तुरंत उपस्थिति: न्यायालय का दायित्व व याचिकाकर्ता को सुनवाई में शामिल करने का सिद्धांत”
प्रस्तावना
न्यायप्रक्रिया में प्राधान्य यह है कि सभी पक्षों को सुनने का अवसर मिले, जिससे प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) का अधिकार सुनिश्चित हो सके। जब किसी पक्ष की अनुपस्थिति में न्यायालय द्वारा आदेश पारित हो जाता है — जिसे सामान्यतः “एक पक्षीय आदेश” (ex parte order) कहा जाता है — तब प्रश्न उठता है कि क्या उस आदेश के बाद उस पक्ष जिसे अनुपस्थित माना गया था, अगर वह अगली सुनवाई तिथि पर निर्विवाद रूप से उपस्थित हो जाए, तो क्या न्यायालय उसे आगे की कार्यवाही में शामिल करने के लिए बाध्य है?
विभिन्न न्यायालयों ने इस विषय पर निर्णय दिए हैं, एवं सिद्धांत विकसित हो गए हैं कि याचिकाकर्ता/प्रतिवादी की तत्काल उपस्थिति पर उसे सुनवाई के आगे-चरण में शामिल करने का अवसर मिलना चाहिए, बशर्ते कि उससे प्रतिपक्ष को अप्रत्यक्ष हानि न हो।
इस लेख में हम क्रमशः — (1) एक पक्षीय आदेश की अवधारणा, (2) भारतीय सिविल प्रक्रिया में प्रासंगिक प्रावधान, (3) न्यायाधीशों द्वारा स्थापित सिद्धांत एवं प्रमुख निर्णय-विवेचन, (4) “अभी उपस्थिति” पर न्यायालय का दायित्व-विश्लेषण, (5) व्यावहारिक सुझाव व सीमाएँ, तथा (6) निष्कर्ष — प्रस्तुत करेंगे।
I. “एक पक्षीय आदेश” की अवधारणा
“Ex parte order” या “एक पक्षीय आदेश” का तात्पर्य ऐसा आदेश है, जिसे न्यायालय ने सुनवाई के समय मौजूद नहीं रहे एक पक्ष (प्लेन्टिफ या प्रतिवादी) की अनुपस्थिति में पारित किया हो। इसमें पक्ष को सुनने का अवसर न मिला हो या उसने अनुपस्थित रहने की वजह से अपनी दलील प्रस्तुत नहीं की हो।
ऐसे आदेश की विशेषताएँ निम्न हैं:
- पक्षीय अनुपस्थिति (non-appearance) के कारण सुनवाई एक तरफ से हो सकती है।
- आदेश पारित होते समय न्यायालय ने उस पक्ष की ओर से तर्क-प्रस्तुति नहीं सुनी हो सकती।
- इसके बाद उस आदेश को चुनौती देने की प्रक्रिया (जैसे आवेदन द्वारा सेट-आसाइड) न्यायप्रक्रिया में उपलब्ध होती है।
- एक पक्षीय आदेश पारित होना प्राकृतिक न्याय की मूलभूत आवश्यकता — कि प्रत्येक पक्ष को अपना पक्ष रखने का अवसर मिले — से परे नहीं जाना चाहिए।
न्यायिक प्रक्रिया में इसे इसलिए महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि पक्षीय निष्क्रियता या अनुपस्थिति का असर सुनवाई-प्रक्रिया को अनुचित रूप से प्रभावित न करे।
II. भारतीय सिविल प्रक्रिया – प्रावधान एवं प्राचीन नियम
भारत में इस सन्दर्भ में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के अंतर्गत महत्वपूर्ण प्रावधान Order IX (Order 9) Rules 7 और 13 हैं।
- Order IX Rule 7 CPC: यदि प्रतिवादी (या पक्ष) को दिए गए समय पर सुनवाई के लिए पेश नहीं किया गया है, तो न्यायालय परीक्षा कर सकता है कि क्या समुचित सेवा हुई है; यदि सेवा ठीक से हुई है तथा पक्ष उपस्थित नहीं हुआ है, तो सुनवाई एक-पक्षीय रूप से (ex parte) हो सकती है।
- Order IX Rule 13 CPC: एक पक्षीय निर्णय (ex parte decree) के विरुद्ध उस पक्ष द्वारा आवेदन करने का मार्ग देता है — जहाँ समन सही तरीके से नहीं पहुँचाया गया हो, या अन्य “पर्याप्त कारण” उपस्थित हो।
उपर्युक्त प्रावधान इस बात को इंगित करते हैं कि न्यायालय को एक पक्षीय आदेश पारित करने के बाद भी सुविधाजनक रूप से उस पक्ष को सुनने का अवसर देना चाहिए — विशेषकर जब वह अगले सुनवाई दिन उपस्थित हो जाए। किंतु यह स्वतः नहीं कि यदि आदेश पारित हो गया तो पक्ष पूरी तरह बाहर हो गया।
III. न्यायिक सिद्धांत एवं प्रमुख निर्णय
भारतीय न्यायपालिका में यह सिद्धांत विकसित हुआ है कि एक पक्षीय आदेश के बाद उपस्थित पक्ष को फिर सुनवाई-प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर मिलना चाहिए — विशेष रूप से यदि उसकी अनुपस्थिति का कारण न्यून हो, या उसने तुरंत उपस्थिति दर्ज कराई हो। नीचे प्रमुख बिंदु दिए जा रहे हैं।
प्रमुख सिद्धांतीय बिंदु
- उपस्थिति पर सुनवाई में शामिल होने का अधिकार
न्यायालयों ने माना है कि यदि प्रतिवादी/याचिकाकर्ता तुरंत उपस्थिति दर्ज कराए-जैसे अगले दिन-तो उसे आगे की प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर मिलना चाहिए। उदाहरणतः, “If a party does appear on the day to which the hearing of the suit is adjourned, he cannot be stopped from participating in the proceedings simply because he did not appear on the first or some other hearing.”
इस प्रकार, एक पक्षीय आदेश पारित होना प्रारंभिक सुनवाई-रूप है — परंतु यह पक्ष को पूरी तरह बाहर नहीं करता कि वह आगे शामिल न हो सके। - प्रारंभिक चरण से नहीं, उस स्तर से शामिल होने का अर्थ
यदि पक्ष अनुपस्थित रहने के कारण प्रकरण में नहीं था, जब वह उपस्थित हो जाता है तब न्यायालय उसे प्रक्रिया-उस स्तर से आगे चलने दे सकता है — लेकिन उसे पिछली सुनवाई-अवस्थाओं को पीछे से वापस ले आने का अधिकार नहीं है। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है:“…he cannot set back the hands of the clock.”
अर्थात्, उपस्थित हो जाने पर भी वह उस समय-बिंदु से पहले के कार्यवाही (पृष्ठभूमि) को पुनः नहीं चला सकता, बल्कि उस जोड़ीबिंदु (stage) से शामिल होना पड़ेगा जहाँ से आगे जाना संभव हो। - न्यायालय का विवेक एवं पूर्व दृष्टिगतता
न्यायालय के पास विवेक होता है यह निर्णय करने का कि किसी अनुपस्थित पक्ष को सुनवाई-प्रक्रिया में कब शामिल किया जाए या कब पुनः शुरुआत दी जाए। यदि अनुपस्थिति के कारण-विज्ञान पर्याप्त हों, तो न्यायालय एक पक्षीय आदेश को हटाकर फिर से पक्ष को शामिल कर सकता है (setting aside the ex parte decree) — परन्तु यह स्वतः नहीं होता।
उदाहरण के लिए सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि “condonation of delay” और “setting aside ex parte decree” के लिए अलग-अलग विचार किए जाते हैं। - अन्य पक्ष को अप्रत्यक्ष हानि न होनी चाहिए
यदि प्रतिवादी की अनुपस्थिति से बहुत आगे-कार्रवाई हो चुकी हो, जैसे कि गवाहों की सुनवाई समाप्त हो चुकी हो, या मुकदमे की दिशा इतनी बदल चुकी हो कि प्रतिवादी का शामिल होना प्रतिपक्ष को असहाय स्थिति में डाल दे — ऐसी स्थिति में न्यायालय पक्ष को शामिल करने में संकोच कर सकता है।
प्रमुख निर्णय-संदर्भ
- निर्णय “Arjun Singh vs Mohindra Kumar & Ors (1963)” में यह स्पष्ट किया गया कि जब प्रतिवादी अगले सुनवाई दिन उपस्थित हो जाता है, तो उसे शामिल होने से नहीं रोका जाना चाहिए, परंतु पिछली कार्रवाई को पीछे ले जाना संभव नहीं है।
- अनेक उच्च न्यायालयों ने यह माना है कि Order IX Rule 7 के तहतex parte आदेश पारित होने पर भी, उपस्थित होने पर प्रतिवादी/याचिकाकर्ता आगे की कार्यवाही-चक्र में शामिल हो सकता है।
- लेख-संख्या स्रोतों में यह संकेत मिलता है कि भारतीय न्यायालय इस विषय में व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हैं — “The mere appearance of the defendant grants them the right to participate, and the court cannot impose costs or restrict this right arbitrarily.”
IV. “याचिकाकर्ता तुरंत उपस्थिति दर्ज कराता है” — न्यायालय का दायित्व
जब याचिकाकर्ता (या प्रतिवादी) एक पक्षीय आदेश के बाद अगली सुनवाई-तिथि पर उपस्थित हो जाता है, तो निम्न-बिंदु-दृष्टि से न्यायालय को उसे आगे की कार्यवाही में शामिल करने का दायित्व माना जाता है:
- प्राकृतिक न्याय का आधार
न्यायिक प्रक्रिया में प्रत्येक पक्ष को “सुने जाने का अवसर” मिलना चाहिए। उपस्थिति में भाग लेने का अवसर देना-न देना इस मूल सिद्धांत से जुड़ा है। यदि पक्ष तुरंत उपस्थित हो गया है, तो उसे शामिल न करना न्यायशास्त्रीय दृष्टि से अनुचित होगा। - सुनवाई-प्रक्रिया में समायोजन का विवेक
न्यायालय को यह देखना चाहिए कि क्या उपस्थित होने के बाद उस पक्ष को शामिल करने से प्रतिपक्ष को अप्रत्यक्ष हानि होगी या नहीं; यदि नहीं, तो तत्काल शामिल करना उचित होगा। यदि किसी कारण से शामिल करना संभव न हो (उदाहरण- जब पूरी मुकदमा-कार्रवाई समाप्त हो चुकी हो) तो न्यायालय विवेकपूर्वक निर्णय ले सकती है। - पीछे ले जाने का नहीं, आगे सम्मिलित होने का अवसर
जैसा नियम है — उपस्थित होने पर पक्ष को बिल्कुल शुरू से शामिल नहीं करवाया जाएगा, बल्कि उस चरण से शामिल किया जाएगा जहाँ से आगे न्यायिक प्रक्रिया संभव हो। यह विधि-द्वारा-स्मरण (procedural fairness) के अनुरूप है। - प्रविष्टि-दिन (appearance date) की महत्वता
याचिकाकर्ता/प्रतिवादी को तुरंत अगली सुनवाई-तिथि पर उपस्थित होना चाहिए; विलम्ब या अपरिचित कारण से उपस्थिति न हो तो न्यायालय द्वारा अतिरिक्त शर्तें लगाई जा सकती हैं। - याचिका-प्रस्ताव और शर्तें
याचिकाकर्ता को उपस्थित होते ही आवेदन करना चाहिए कि उसे शामिल किया जाए, और यदि संभव हो तो कारण बताना चाहिए कि वह पहले अनुपस्थित था। इससे न्यायालय को निर्णय-प्रक्रिया में सहायता मिलती है।
इस प्रकार, अगर याचिकाकर्ता ने अगली-तिथि पर उपस्थित हो गया है, न्यायालय को सामान्यतः उसे कार्यवाही में शामिल करने का अवसर प्रदान करना चाहिए — यह दायित्व है, न कि विकल्प।
V. व्यावहारिक सुझाव एवं सीमाएँ
सुझाव
- याचिकाकर्ता/प्रतिवादी को जितनी जल्दी हो सके अगली सुनवाई दिन उपस्थित होना चाहिए।
- उपस्थित होते समय यह स्पष्ट करें कि आप पूर्वी सुनवाई से अनुपस्थित थे-क्या कारण था-और आगे शामिल होने हेतु इच्छुक हैं।
- अदालत में प्रस्तुत आवेदनों में संक्षिप्त रूप से उल्लेख करें कि “उपस्थित हूँ, कृपया मुझे आगे-चरण में शामिल करें”।
- प्रतिपक्ष को कोई अप्रत्यक्ष हानि नहीं होगी, इसका आश्वासन देना उपयोगी रहेगा।
- यदि पिछली सुनवाई में महत्वपूर्ण कार्रवाई हो चुकी है (जैसे गवाह-साक्ष्य, अंतिम बहस आदि) तो याचिका-आवेदन में इन पर टिप्पणी करें-इसे न्यायालय दृष्टिगत करेगा।
सीमाएँ
- यदि सुनवाई-प्रक्रिया बहुत आगे बढ़ चुकी हो (उदाहरण- अंतिम बहस तक पहुँच चुकी हो, या पूरी कार्यवाही संपन्न हो चुकी हो) तो न्यायालय याचिकाकर्ता को प्रारंभ-से शामिल करने की बजाय उस चरण से शामिल करने का निर्देश दे सकती है।
- अनुपस्थिति के कारण यदि न्यायाधीश को युक्त न लगे (उदाहरण- जानबूझकर गैर-हाजिरी), तो याचिकाकर्ता को शामिल करने में शर्तें लग सकती हैं, जैसे खर्च-मुकदमा-व्ययी (costs) का निर्धारण।
- एक पक्षीय आदेश का स्वतः निरसन (automatic setting aside) नहीं होता — याचिकाकर्ता को सक्रिय रूप से आवेदन करना होगा।
- प्रतिपक्ष द्वारा विरोध होने पर न्यायालय को यह विचार करना होगा कि शामिल होने से मुकदमे की निष्पक्षता प्रभावित नहीं होगी।
VI. निष्कर्ष
एक पक्षीय आदेश पारित हो जाना यह नहीं दर्शाता कि उस पक्ष का न्याय-प्रवेश बंद हो गया हो। यदि वह अगली-तिथि पर उपस्थित हो जाता है, तो न्यायालय को उसे सुनवाई-प्रक्रिया में शामिल करने का अवसर प्रदान करना अच्छा न्यायशास्त्रीय अभ्यास है। यह प्रक्रिया प्राकृतिक न्याय तथा सुचारू न्यायप्रक्रिया-सिद्धांतों का पालन करती है।
हालाँकि इसमें न्यायालय के विवेक का स्थान है — यह देखना होगा कि शामिल होने से प्रतिपक्ष को अप्रत्याशित रूप से हानि न हो तथा सुनवाई-प्रक्रिया में व्यवधान न आए। याचिकाकर्ता के लिए सबसे उत्तम मार्ग यही है कि अनुपस्थिति के बारे में समय रहते स्पष्टीकरण दें, और जैसे ही उपस्थित हों, प्रभावित पक्ष और न्यायालय को अवगत कराएँ।
इस प्रकार, “याचिकाकर्ता ने तुरंत उपस्थित होकर आगे की कार्यवाही में शामिल होने का आवेदन किया है” — ऐसी स्थिति में यह माना जाना चाहिए कि न्यायालय उसे आगे-चरण में शामिल करने के लिए बाध्य है, बशर्ते प्रतिपक्ष को अप्रत्यक्ष हानि न हो और न्याय-प्रक्रिया को कोई गंभीर बाधा न हो।