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प्रतिपरीक्षण का अधिकार: बिना लिखित बयान दायर किए भी प्रतिवादी को साक्षी से जिरह करने का संवैधानिक अवसर

“प्रतिपरीक्षण का अधिकार: बिना लिखित बयान दायर किए भी प्रतिवादी को साक्षी से जिरह करने का संवैधानिक अवसर – M/s Anvita Auto Tech Works Pvt. Ltd. बनाम M/s Aroush Motors & Anr., सर्वोच्च न्यायालय 2025 का ऐतिहासिक निर्णय”


भूमिका

न्यायिक कार्यवाही में “प्रतिपरीक्षण” (Cross Examination) का अधिकार न केवल विधिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह न्याय के सिद्धांतों का मूल स्तंभ भी है। भारतीय न्याय प्रणाली में सत्य की खोज ही मुख्य उद्देश्य है, और प्रतिपरीक्षण वह माध्यम है जिसके द्वारा न्यायालय साक्षी के बयानों की विश्वसनीयता एवं सच्चाई का मूल्यांकन करता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में M/s Anvita Auto Tech Works Pvt. Ltd. बनाम M/s Aroush Motors & Anr. (2025) के निर्णय में इस सिद्धांत को दोहराते हुए स्पष्ट किया कि—यदि प्रतिवादी लिखित बयान (Written Statement) दाखिल नहीं करता और उसके विरुद्ध वाद को एकतरफा (ex parte) रूप से आगे बढ़ाने का आदेश दिया गया है, तब भी उसका प्रतिपरीक्षण का अधिकार समाप्त नहीं होता।


मामले की पृष्ठभूमि

इस वाद में वादी M/s Anvita Auto Tech Works Pvt. Ltd. ने M/s Aroush Motors & Anr. के विरुद्ध एक दीवानी वाद दायर किया। प्रतिवादी ने न्यायालय के समक्ष कोई लिखित बयान प्रस्तुत नहीं किया, जिसके कारण न्यायालय ने वाद को एकतरफा रूप से आगे बढ़ाने का आदेश दिया।
वाद की सुनवाई के दौरान, वादी ने अपने पक्ष में गवाह प्रस्तुत किए, परंतु प्रतिवादी ने यह आग्रह किया कि उसे इन गवाहों का प्रतिपरीक्षण (cross-examination) करने का अवसर दिया जाए। निचली अदालत ने इसे अस्वीकार कर दिया यह कहते हुए कि, चूँकि कोई लिखित बयान नहीं दिया गया, अतः प्रतिवादी को अब कोई अवसर नहीं दिया जा सकता।

यह आदेश उच्च न्यायालय और तत्पश्चात सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती के रूप में प्रस्तुत हुआ।


सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि —
“लिखित बयान न देने से प्रतिवादी के सीमित बचाव के अधिकार स्वतः समाप्त नहीं हो जाते। प्रतिवादी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह वादी के साक्षियों से प्रतिपरीक्षण करके वादी के दावे की सच्चाई को परखे तथा यह सिद्ध करे कि वादी का मामला तथ्यों या विधि की दृष्टि से असत्य है।”

न्यायालय ने कहा कि दीवानी वाद की कार्यवाही में प्रतिपरीक्षण का उद्देश्य दोहरा होता है —

  1. सत्य को उजागर करना, और
  2. साक्षी की विश्वसनीयता परखना

भले ही प्रतिवादी ने लिखित बयान प्रस्तुत न किया हो, वह वादी के साक्ष्यों से यह स्थापित करने का प्रयास कर सकता है कि वादी का दावा सीमा अधिनियम (Law of Limitation) अथवा किसी अन्य वैधानिक प्रावधान से बाधित (barred) है।


न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ

  1. प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अनुपालन (Principles of Natural Justice):
    न्यायालय ने कहा कि “Audi Alteram Partem” अर्थात “दूसरे पक्ष को सुने बिना निर्णय न दो” का सिद्धांत न्याय का आधार है। यदि प्रतिवादी को प्रतिपरीक्षण का अवसर नहीं दिया गया, तो यह न्यायिक प्रक्रिया का उल्लंघन माना जाएगा।
  2. Ex-Parte कार्यवाही का अर्थ सीमित है:
    जब कोई पक्ष अनुपस्थित रहता है या लिखित बयान नहीं देता, तो न्यायालय वादी के साक्ष्य के आधार पर कार्यवाही आगे बढ़ा सकता है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि प्रतिवादी के सभी अधिकार स्वतः समाप्त हो जाएँ।
  3. प्रतिपरीक्षण का महत्व:
    न्यायालय ने यह कहा कि प्रतिपरीक्षण केवल औपचारिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि यह न्याय का “heart and soul” है। इसके माध्यम से ही साक्ष्य की विश्वसनीयता का परीक्षण होता है।
  4. सीमित बचाव का अधिकार:
    प्रतिवादी लिखित बयान के अभाव में भी यह तर्क रख सकता है कि वादी का दावा विधि द्वारा निषिद्ध (barred) है, जैसे कि —

    • वाद समयबद्धता की सीमा से बाहर है (barred by limitation),
    • अनुबंध अवैध या अमान्य है,
    • या वादी ने आवश्यक विधिक शर्तें पूर्ण नहीं की हैं।

प्रतिपरीक्षण का विधिक आधार

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 137 और 138 प्रतिपरीक्षण के अधिकार को मान्यता प्रदान करती हैं।

  • धारा 137 में examination-in-chief, cross-examination और re-examination की परिभाषा दी गई है।
  • धारा 138 यह निर्धारित करती है कि जब कोई पक्ष साक्षी प्रस्तुत करता है, तब प्रतिपक्ष को उस साक्षी से प्रतिपरीक्षण करने का पूर्ण अधिकार होता है।

इसके अतिरिक्त, संविधान का अनुच्छेद 21 न्यायिक प्रक्रिया में निष्पक्ष सुनवाई (Fair Hearing) की गारंटी देता है। अतः प्रतिपरीक्षण का अवसर न देना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन भी माना जा सकता है।


पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत

सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में कुछ प्रमुख पूर्ववर्ती निर्णयों का उल्लेख किया, जैसे:

  1. Vidhyadhar v. Manikrao (1999) 3 SCC 573
    जिसमें कहा गया था कि यदि कोई पक्ष साक्षी का प्रतिपरीक्षण नहीं करता, तो उस साक्षी के बयान को सत्य मान लिया जा सकता है।
  2. Kartar Singh v. State of Punjab (1994) 3 SCC 569
    इस निर्णय में कहा गया कि प्रतिपरीक्षण का अधिकार निष्पक्ष सुनवाई का अभिन्न अंग है।
  3. Krishna Janardhan Bhat v. Dattatraya G. Hegde (2008) 4 SCC 54
    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि साक्ष्य का परीक्षण तभी संभव है जब प्रतिपरीक्षण की अनुमति दी जाए।

इन निर्णयों के आलोक में Anvita Auto Tech Works Pvt. Ltd. के मामले में भी न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी का प्रतिपरीक्षण का अधिकार उसके लिखित बयान न देने के कारण समाप्त नहीं किया जा सकता।


न्यायालय की चेतावनी

सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट चेतावनी दी कि निचली अदालतों को तकनीकी आधारों पर प्रतिपरीक्षण के अधिकार को सीमित नहीं करना चाहिए।
न्यायालयों को यह सुनिश्चित करना होगा कि “Justice must not only be done but must also appear to have been done” अर्थात न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होता हुआ दिखाई भी देना चाहिए।


निर्णय का प्रभाव और महत्व

यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण मिसाल (landmark precedent) के रूप में सामने आया है। इसके प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं—

  1. न्याय के अधिकार की पुनः पुष्टि:
    अब यह स्पष्ट है कि लिखित बयान न देने पर भी प्रतिवादी अपने बचाव के कुछ सीमित अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।
  2. न्यायिक निष्पक्षता का संरक्षण:
    अदालतों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वादी द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों की सत्यता का परीक्षण प्रतिपरीक्षण द्वारा किया जाए, ताकि एकतरफा निर्णयों में भी निष्पक्षता बनी रहे।
  3. वकीलों की भूमिका:
    यह निर्णय अधिवक्ताओं को यह सीख देता है कि वे अपने मुवक्किलों के अधिकारों की रक्षा के लिए हर स्तर पर प्रयास करें, भले ही प्रक्रिया में कुछ चूक हो गई हो।
  4. वादियों के लिए चेतावनी:
    वादी को यह समझना होगा कि केवल ex parte आदेश प्राप्त कर लेने से उसका मामला स्वतः सिद्ध नहीं हो जाता। उसे अपने साक्ष्यों से न्यायालय को संतुष्ट करना होगा।

निष्कर्ष

M/s Anvita Auto Tech Works Pvt. Ltd. बनाम M/s Aroush Motors & Anr. का यह निर्णय भारतीय न्यायशास्त्र में “प्राकृतिक न्याय” की आत्मा को पुनर्जीवित करने वाला फैसला है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह संदेश दिया कि—

“सत्य की खोज केवल वादी के कथनों पर नहीं, बल्कि प्रतिपरीक्षण की कसौटी पर होती है।”

भले ही प्रतिवादी ने लिखित बयान दाखिल न किया हो, उसे यह अधिकार प्राप्त है कि वह वादी के साक्ष्य का परीक्षण कर सके और उसकी सच्चाई पर प्रश्न उठा सके।

इस प्रकार, यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता, निष्पक्षता और न्याय की भावना को सुदृढ़ करता है।
यह निचली अदालतों और वकीलों दोनों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करेगा कि—“प्रतिपरीक्षण का अधिकार केवल विधिक औपचारिकता नहीं, बल्कि न्याय का अनिवार्य तत्व है।”