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“सच्चाई की रक्षा: झूठ बोलने वाले गवाहों पर ट्रायल कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट का आदेश”

“साक्ष्य-वंचना और न्यायप्रक्रिया — जब गवाह सच नहीं बोलते तो क्यों आदेश हो सकता है ‘स्वयं प्रेरित’ कार्रवाई?”

भूमिका
न्याय व्यवस्था का मूल आधार है — तथ्य, साक्ष्य एवं प्रमाण-प्रक्रिया में निष्पक्षता। यदि गवाह-वाक्यों में विश्वास नहीं रह जाता, यदि गवाह समय-समय पर झूठ बोलते, दबाव में आते या पक्षपाती रूप से बयान देते हों, तो न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता कमजोर हो जाती है। हाल ही में Supreme Court of India ने एक हत्या-मुकदमे में उक्त समस्या की ओर शिकन लगाते हुए कहा है कि यदि ट्रायल अदालत को लगे कि कोई गवाह “सत्‍य नहीं बोल रहा” है, तो उसे स्वयं-प्रेरित (suo motu) कार्रवाई करनी होगी।
यह निर्णय अपने आप में महत्वपूर्ण है—यह गवाह-विलम्ब, गवाह-भय एवं गवाह-अपमान की चुनौतियों से निपटने के प्रतिज्ञा-रुप है।

नीचे हम इस विषय को विस्तार से चर्चा करेंगे — घटना-परिस्थिति, न्यायमूर्ति-दृष्टि, पूर्व-न्यायलयिक दृष्टांत, समस्या-मूल, कायदे-कायदा एवं सुझाव सहित।


१. घटना-परिस्थिति

इस मामले में एक हत्या (विजेन्द्र सिंह नामक व्यक्ति का, अप्रैल 2019 में दिल्ली के शाहदरा में) सामने आई थी। अभियुक्त में बेटे का नाम था राहुल शर्मा-पक्ष ने कहा कि मुकदमे में कई प्रोसिक्यूशन गवाह होस्टाइल हो गए, यानी उन्होंने पहले दिए गए बयान बदल दिए, या बोले कि याद नहीं है, या कथित रूप से अभियुक्तों के दबाव में आ गए।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए कि

  • राज्य सुनिश्चित करे कि बचे हुए गवाह (दो डॉक्टर, एवं फॉरेंसिक लैब के अधिकारी) को पुलिस सुरक्षा मिले, ताकि उन पर दबाव-प्रभाव न हो।
  • और यह कि यदि ट्रायल कोर्ट पाये कि कोई गवाह सच नहीं बोल रहा है, “court shall take suo motu cognizance of such conduct and initiate action in their individual capacity.”
    यानी: गवाहों के प्रति सिर्फ ‘होस्टाइल’ कहलाना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि यदि तथ्य-वाक्य-विरोध से यह लगता हो कि गवाह जानबूझकर झूठ बोल रहा है या पक्ष ले रहा है — तो अदालत स्वयं उसे नोटिस दे सकती है।

इस प्रकार यह निर्णय गवाह-विश्वासघात की समस्या को सीधे मुंह दे रहा है।


२. न्यायमूर्ति-दृष्टि एवं न्यायशास्त्रीय अर्थ

इस आदेश का महत्व निम्न बिंदुओं में हैः

  • गवाह-भय एवं गवाह-दबाव : यदि गवाह डर, धमकी, शारीरिक या मानसिक दबाव के कारण बयान बदलें, या अभियुक्त-पक्ष के दबाव में आ जाएँ — तो तथ्य-खोज और निष्पक्ष न्याय बाधित होता है। इस तरह की स्थिति में अदालत को सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
  • साक्ष्य-विश्वासयोग्यता : अदालत ने पूर्व में बार-बार कहा है कि “परमाणु संख्या नहीं, गवाहों का गुणवत्ता मायने रखती है।” यदि गवाह सच नहीं बोल रहा है, तो उसकी गवाही को छोड़कर भी मामला आगे चल सकता है, या गवाही का आधार कमजोर माना जाना चाहिए।
  • स्वयं-प्रेरित कार्रवाई (suo motu) का सिद्धान्त : आमतौर पर गवाहों के खिलाफ कार्रवाई (जैसे फरेज, सज़ा, जमानत निरस्तीकरण) अभियोजन द्वारा शुरू होती है। लेकिन यह निर्देश कहता है कि अगर ट्रायल कोर्ट को गवाह-व्यवहार में स्पष्ट अनियमितता लगे, तो अदालत स्वयं भी पहचान कर कार्रवाई कर सकती है। यह न्याय व्यवस्था के प्रति भरोसे का संकेत है।
  • न्याय-सुरक्षा संतुलन : गवाहों को संरक्षण देना (जैसे पुलिस संरक्षण), दबाव से मुक्त सुनवाई सुनिश्चित करना — ये न्याय-सुनिश्चितता के लिए जरुरी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राज्य को गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है।

३. पूर्व-न्यायालयिक दृष्टांत

यह कोई अकेला मामला नहीं है; गवाह-विश्वासघात से जुड़े अनेक पूर्व उदाहरण हैं — जिनसे यह सिद्ध होता है कि यह समस्या स्थायी है। कुछ उद्धरण नीचे दिए जा रहे हैंः

  • State (GNCT of Delhi) vs Sidhartha Vashisht (2013) में सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि 101 गवाहों में से 32 गवाहों ने होस्टाइल होने के बाद बयान बदले। अदालत ने कहा कि उन्हें नोटिस देकर समझावनी दी होनी चाहिए कि वे अपनी भूमिका स्पष्ट करें।
  • शोध-प्रबंध में “Hostile Witness and Evidentiary Value…” में कहा गया कि गवाह का होस्टाइल होना और गवाह का सच बोलने में विफल होना अलग बात है — कोर्ट को यह देखना होता है कि क्या गवाह जानबूझकर पक्षपाती हो गया है या दबाव में आ गया है।

इनसे स्पष्ट है कि गवाह-प्रक्रिया में विश्वास बने रखना आसान नहीं रहा — विशेषकर हत्या, बलात्कार जैसे मामलों में जहाँ गवाहों पर दबाव संभव है।


४. समस्या-मूल एवं चुनौतियाँ

गवाह-विश्वासघात की समस्या कई कारकों से उपजती है — नीचे प्रमुख चुनौतियाँ वर्णित हैंः

  1. दबाव-और-हिंसा
    अभियुक्त या उसके समर्थक गवाहों को धमका सकते हैं, या आर्थिक अथवा सामाजिक रूप से प्रभावित कर सकते हैं। गवाह बदल सकते हैं या बयान से हट सकते हैं।
  2. प्रोसेक्यूशन-गलतियाँ
    गवाहों की पहचान, समय-पर बयान लेना, पुलिस संरक्षण न देना, गवाह को उचित समझाना (warnings) न करना — ये सब कारण होते हैं कि बाद में गवाह होस्टाइल हो जाए।
  3. न्याय-प्रक्रिया में विलम्ब
    केस लंबित बहुत समय रह जाता है; गवाह की स्मृति कमजोर हो जाती है, भय-भाव बढ़ जाता है, अन्य हित-संघटनाएँ घुलती जाती हैं।
  4. गवाह-विश्वासहीनता
    जनता में धारणा बन जाती है कि गवाह बदले जा सकते हैं, बयान बदल सकते हैं, इसलिए वे वाक़ई सच बोलने में संकोच करते हैं। इससे प्रोसिक्यूशन को विश्वासपात्र गवाह मिलना कठिन हो जाता है।
  5. साक्ष्य-निर्भरता की असमर्थता
    कभी-कभी मामला गवाहों पर ही टिका होता है — यदि वे उलट जाएँ तो पूरा मामला ध्वस्त हो सकता है। जैसा लेख में बताया गया: “जब प्रमुख गवाह ही होस्टाइल हो जाए तो दुष्परिणाम होता है।”

५. आदेश-विवरण एवं उसके प्रभाव

इस ताज़ा निर्देश के तहत, सुप्रीम कोर्ट ने निम्न-प्रकार से कदम उठाये हैंः

  • ट्रायल कोर्ट को हिदायत दी गई है कि यदि उसे लगे कि गवाह ने पक्षपात किया है, या नहीं सच बोला है — तो वह स्वयं प्रेरित चरण में गवाह के खिलाफ उक्त व्यवहार की पहचान करे।
  • राज्य शासन को निर्देश है कि गवाहों की परीक्षण-मुकदमे में सुरक्षा सुनिश्चित की जाए — विशेष रूप से उन गवाहों का जिन्हें अभी तक नहीं खाँचा गया है।
  • आगे सुनवाई के लिए मामला 11 दिसंबर को सूचीबद्ध किया गया है।

प्रभाव-दृष्टि से यह देखें तो —

  • यह निर्देश न्याय­प्रक्रिया को गवाह-दबाव के रुझानों के प्रति सजग बनाता है।
  • यह गवाह-विश्वासघात के प्रति एक चेतावनी है कि केवल अभियोजन की जिम्मेदारी नहीं, судеб प्रक्रिया की भी जिम्मेदारी है।
  • यह ट्रायल अदालतों को सक्रिय रूप से गवाह-मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार देता है — केवल निष्पक्ष निष्कर्ष का इंतजार नहीं करना।
  • यह सामाजिक-संदेश देता है कि न्याय-व्यवस्था गवाहों को सुरक्षा और समर्थन देने के लिए तैयार है — तथा गवाहों को डराकर या प्रभावित कर क्रियान्वित करना स्वीकार नहीं किया जाएगा।

६. कायदे-कानून एवं सिद्ध प्रविधियाँ

गवाह-विश्वासघात के खिलाफ न्यायालयों और विधि-प्रणाली में कई नियम, दिशा-निर्देश तथा सिद्धांत मौजूद हैंः

  • Indian Evidence Act, 1872 के अनुसार गवाह का बयान स्वतंत्र रूप से आकलित किया जाना चाहिए, यदि गवाह ने पहले दिए बयान में बदलाव किया हो तो उसका प्रभाव पड़ सकता है।
  • Criminal Procedure Code, 1973 (साक्ष्य संकलन, गवाह-उपकरण सुरक्षा आदि) के अंतर्गत गवाहों को संरक्षण देने के निर्देश प्रदेश सरकारें और पुलिस विभागों द्वारा पालन किये जाते हैं।
  • न्याय-निर्णय में यह सिद्धांत स्पष्ट है कि “गवाही की संख्या नहीं, उसकी विश्वसनीयता ही मायने रखती है।
  • होस्टाइल गवाह की स्थिति में, उसके पुराने बयान (Section 162 Cr.P.C.) अथवा अन्य प्रमाणों से उसकी सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठाया जा सकता है।
  • स्वयं-प्रेरित (suo motu) कार्रवाई की सुविधा, जहाँ न्यायालय अपनी पहल से गवाह या अन्य पक्ष के व्यवहार पर कार्रवाई कर सकता है — यह न्यायप्रवृत्ति का विकास है।

७. सुझाव एवं सुधार-दृष्टिकोण

उक्त समस्या को दूर करने के लिए निम्न-सुझाव प्रासंगिक हैंः

  • साक्ष्य-सञ्चय में समयबद्धता : गवाह के बयान जल्द से जल्द लेने चाहिए, जिससे याददाश्त ताज़ा रहे और भय-दबाव कम हो।
  • गवाह-सुरक्षा यंत्रणा : पुलिस-प्रोटेक्शन, गवाह संरक्षण योजनाएँ प्रभावी होनी चाहिए। राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों को इस पर प्रोत्साहन देना चाहिए।
  • गवाह-प्रेरणा एवं जागरूकता : गवाहों को उनके कानूनी अधिकार और सुरक्षा-योजनाओं की जानकारी दी जानी चाहिए।
  • न्याय-प्रक्रिया में संवेदीकरण : ट्रायल अदालतें गवाह-उलटबांसी (hostility) को विश्लेषित करें; यदि परदा वापस-बयान, समय-विलम्ब, दबाव-दावे हैं — तो स्वतः संज्ञान लें।
  • प्रोसेक्यूशन-दृष्टिकोण सुधार : अभियोजन पक्ष को गवाह चयन, सम्बंधित दस्तावेज, तथा गवाह-विश्वास बढ़ाने के लिए बढ़चढ़ कर काम करना होगा।
  • लोक विश्वास-बढ़ाना : न्याय व्यवस्था को यह संदेश देना चाहिए कि गवाह बदलने, झूठ बोलने या दबाव में आने पर उसे माफ नहीं किया जाएगा — इससे गवाहों में सच बोलने की प्रवृत्ति बढ़ेगी।

८. निष्कर्ष

इस पूरे विवेचन से स्पष्ट है कि गवाह-विश्वासघात केवल एक तकनीकी समस्या नहीं, बल्कि न्याय-प्रक्रिया की आत्मा से जुड़ी चुनौती है। हालिया आदेश — जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल अदालत को कहा कि गवाह यदि सत्यनिष्ठा-विहीन हो तो स्वयं कार्रवाई करे — यह संकेत है कि न्यायपालिका इस समस्या को हल्के में नहीं ले रही।

यदि गवाह-विवरण दूषित हों, गवाह दबाव में हों, या सत्य नहीं बोल रहे हों — तो प्रोसिक्यूशन, पुलिस, न्यायालय तीनों को मिलकर उस पर सक्रियता दिखानी होगी। तभी हत्या जैसे गंभीर अपराधों में पीड़ित-परिवार को भरोसा होगा कि न्याय व्यवस्था उनकी आवाज सुनती है, गवाहों को सुरक्षा मिलती है, और सच्चाई सामने आती है।

इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि यह दिशा-निर्देश न्याय-व्यवस्था में एक सुधार-कड़ी है — लेकिन यह तभी असरदार होगी जब वास्तविकता में ट्रायल अदालत-प्रोसेक्यूशन-पुलिस स्तर पर लागू हो। दूसरी ओर, यह गवाहों को डराने का उपाय नहीं, बल्कि उन्हें सच बोलने और न्याय में सहयोग देने का सुरक्षा-आश्वासन भी है।