“पुलिस का अभद्र व्यवहार संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय — पावुला येसु दासन बनाम राज्य मानवाधिकार आयोग, तमिलनाडु (SLP(C) No. 20028/2022)”
प्रस्तावना
भारतीय संविधान नागरिकों को केवल स्वतंत्रता का अधिकार ही नहीं देता, बल्कि उस स्वतंत्रता के सम्मानजनक उपयोग की भी गारंटी प्रदान करता है। संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक व्यक्ति के “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार” को संरक्षित करता है, और यह अधिकार केवल जीवित रहने का नहीं बल्कि सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार भी है।
इसी सिद्धांत की पुनः पुष्टि करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पावुला येसु दासन बनाम राज्य मानवाधिकार आयोग, तमिलनाडु मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि —
“यदि कोई पुलिसकर्मी शिकायतकर्ता या किसी नागरिक के साथ थाने में अपमानजनक, अशिष्ट या अभद्र व्यवहार करता है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।”
यह निर्णय न केवल पुलिस प्रशासन के लिए एक चेतावनी है, बल्कि नागरिकों को यह विश्वास दिलाता है कि न्यायपालिका उनके सम्मान, सुरक्षा और गरिमा की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
मामला तमिलनाडु से संबंधित था, जहाँ एक व्यक्ति पावुला येसु दासन ने पुलिस के विरुद्ध शिकायत दर्ज कराई थी। आरोप यह था कि जब वह अपनी शिकायत दर्ज कराने थाने पहुँचा, तो वहां के पुलिसकर्मियों ने उसके साथ अभद्र भाषा का प्रयोग किया, उसे अपमानित किया, और उसकी बात सुनने के बजाय उसे डांट-फटकार कर भगा दिया।
शिकायतकर्ता ने इसे मानवाधिकार उल्लंघन मानते हुए तमिलनाडु राज्य मानवाधिकार आयोग (State Human Rights Commission) में याचिका दायर की। आयोग ने जांच के बाद पुलिसकर्मियों को दोषी पाया और ₹2,00,000 का हर्जाना (compensation) देने का आदेश दिया।
लेकिन राज्य सरकार और संबंधित पुलिस अधिकारियों ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी — यह कहते हुए कि पुलिस का व्यवहार “अनुशासनात्मक मामला” है, न कि “संविधानिक अधिकारों का उल्लंघन”।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख प्रश्न (Main Legal Issues Before the Supreme Court)
- क्या पुलिस का अपमानजनक या अभद्र व्यवहार संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना जा सकता है?
- क्या राज्य मानवाधिकार आयोग को ऐसे मामलों में मुआवज़ा देने का अधिकार है?
- क्या पुलिस अधिकारी का गैर-पेशेवर आचरण मानव गरिमा के हनन के समान है?
संविधान का अनुच्छेद 21 — “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार”
अनुच्छेद 21 कहता है —
“किसी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है।”
सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर इस अनुच्छेद की उदार व्याख्या (liberal interpretation) करते हुए इसे केवल शारीरिक जीवन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसके अंतर्गत मानव गरिमा (human dignity), सुरक्षा (safety), मानसिक शांति (mental peace) और सम्मान (respect) को भी सम्मिलित किया है।
इस निर्णय में अदालत ने स्पष्ट कहा कि पुलिस का अपमानजनक व्यवहार व्यक्ति की गरिमा को ठेस पहुँचाता है, और यह अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के समान है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ (Observations of the Court)
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने निर्णय में कहा —
“किसी नागरिक के साथ पुलिस थाने में अशोभनीय भाषा का प्रयोग करना, उसकी शिकायत को गंभीरता से न लेना या अपमानित करना, राज्य की शक्ति का दुरुपयोग है। यह संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकार — जीवन और गरिमा के अधिकार — का हनन है।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि —
- पुलिस की वर्दी उन्हें सम्मान और अधिकार देती है, लेकिन यह अधिकार नागरिकों को अपमानित करने का नहीं है।
- नागरिक का सम्मान करना पुलिस का संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य है।
- किसी भी प्रकार का अनुचित व्यवहार नागरिक के मन में भय और असुरक्षा की भावना पैदा करता है, जो लोकतांत्रिक शासन के लिए खतरनाक है।
मानवाधिकार आयोग का अधिकार क्षेत्र (Powers of Human Rights Commission)
सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में राज्य मानवाधिकार आयोगों की भूमिका को भी पुनः पुष्ट किया।
न्यायालय ने कहा कि —
- Protection of Human Rights Act, 1993 के तहत आयोग को अधिकार है कि वह किसी भी सार्वजनिक अधिकारी द्वारा किए गए मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में जांच करे और मुआवज़ा (compensation) या अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा करे।
- आयोग द्वारा दिए गए ₹2,00,000 के मुआवज़े का आदेश पूरी तरह उचित है, क्योंकि यह राज्य द्वारा नागरिक के सम्मान और अधिकारों की रक्षा में विफलता का परिणाम है।
न्यायालय का निर्णय (Judgment of the Supreme Court)
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की अपील को खारिज करते हुए कहा —
“The act of police personnel misbehaving, shouting, or humiliating a complainant in a police station is a direct violation of Article 21 of the Constitution. Such behaviour cannot be tolerated in a civilized society.”
न्यायालय ने आगे कहा कि —
- दोषी पुलिसकर्मी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए।
- ₹2,00,000 का मुआवज़ा शिकायतकर्ता को तुरंत दिया जाए।
- राज्य सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में ऐसे मामलों को रोकने के लिए पुलिस प्रशिक्षण और आचार-संहिता को और सख्त बनाया जाए।
न्यायिक तर्क (Judicial Reasoning)
- मानव गरिमा की सुरक्षा सर्वोच्च मूल्य है:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21 केवल जीवन के अधिकार तक सीमित नहीं है, बल्कि सम्मान के साथ जीने के अधिकार को भी शामिल करता है। पुलिस का दुर्व्यवहार इस गरिमा का हनन करता है। - राज्य की जिम्मेदारी:
जब पुलिस किसी व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार करती है, तो यह राज्य की positive obligation का उल्लंघन होता है, क्योंकि राज्य अपने कर्मचारियों द्वारा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए बाध्य है। - कानूनी उपायों की उपलब्धता:
अदालत ने यह भी कहा कि नागरिकों के पास अब यह अधिकार है कि वे ऐसे मामलों में मानवाधिकार आयोग या संविधानिक अदालतों (High Court/Supreme Court) में राहत के लिए जा सकते हैं।
महत्वपूर्ण नजीरें (Relevant Precedents)
- D.K. Basu v. State of West Bengal (1997)
- पुलिस हिरासत में नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा पर यह ऐतिहासिक निर्णय था।
- कोर्ट ने कहा था कि custodial torture और misconduct अनुच्छेद 21 का सीधा उल्लंघन है।
- Joginder Kumar v. State of U.P. (1994)
- न्यायालय ने कहा कि गिरफ्तारी के समय नागरिक की गरिमा और स्वतंत्रता का सम्मान किया जाना चाहिए।
- Nilabati Behera v. State of Orissa (1993)
- इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब राज्य के अधिकारी नागरिक के मौलिक अधिकार का हनन करते हैं, तो मुआवज़ा देना न्याय का अनिवार्य हिस्सा बन जाता है।
इन सभी मामलों की भावना पावुला येसु दासन केस में भी प्रतिध्वनित हुई।
निर्णय के व्यावहारिक प्रभाव (Practical Implications of the Judgment)
- पुलिस सुधारों पर बल:
यह निर्णय पुलिस विभाग को नागरिकों के साथ व्यवहार सुधारने और human rights sensitivity बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा। - जवाबदेही की प्रणाली मजबूत:
अब यदि कोई नागरिक पुलिस द्वारा अपमानित होता है, तो वह राज्य मानवाधिकार आयोग या अदालत में जाकर मुआवज़ा और न्याय प्राप्त कर सकता है। - अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनिवार्यता:
अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में केवल चेतावनी पर्याप्त नहीं है — दोषी पुलिसकर्मी के खिलाफ कठोर कार्रवाई आवश्यक है। - संविधानिक संस्कृति का विकास:
यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र में नागरिक सम्मान को सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थापित करता है।
नागरिकों के लिए संदेश (Message to Citizens)
- यदि किसी पुलिस अधिकारी द्वारा आपके साथ अशोभनीय या अपमानजनक व्यवहार किया जाता है, तो यह केवल अनुचित आचरण नहीं बल्कि संवैधानिक उल्लंघन है।
- आप निम्न संस्थाओं से न्याय प्राप्त कर सकते हैं —
- राज्य मानवाधिकार आयोग / राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC)
- संबंधित उच्च न्यायालय (Article 226 के तहत)
- सुप्रीम कोर्ट (Article 32 के तहत)
- पुलिस का कर्तव्य है कि वह नागरिक की सुरक्षा, सम्मान और न्याय सुनिश्चित करे, न कि उन्हें भयभीत करे।
निष्कर्ष (Conclusion)
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय “पावुला येसु दासन बनाम राज्य मानवाधिकार आयोग, तमिलनाडु” भारतीय लोकतंत्र और मानवाधिकारों की दिशा में एक मील का पत्थर है।
इस फैसले ने यह स्पष्ट किया कि कानून की शक्ति कभी भी नागरिक के सम्मान से ऊपर नहीं हो सकती।
संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार देता है — और जब पुलिस, जो इस अधिकार की रक्षा करने वाली संस्था है, स्वयं इस अधिकार का उल्लंघन करे, तो न्यायालय का यह कर्तव्य बनता है कि वह हस्तक्षेप करे और नागरिक की गरिमा को पुनः स्थापित करे।
इस निर्णय ने न केवल एक व्यक्ति के लिए न्याय सुनिश्चित किया, बल्कि पूरे समाज को यह संदेश दिया कि —
“भारतीय न्यायपालिका केवल कानून की व्याख्या नहीं करती, बल्कि मानव गरिमा की रक्षा करती है।”
संक्षिप्त निष्कर्ष:
“थाने में नागरिक के साथ अपमानजनक व्यवहार संविधान के अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के समान है — यह निर्णय पुलिस प्रशासन के लिए चेतावनी और नागरिक अधिकारों के लिए सुरक्षा कवच दोनों है।”