“हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू नहीं होता है आदिवासी-समुदायों पर: सर्वोच्च न्यायालय ने पुनरुप्रत्ययित किया” रखा गया है। इसमें इस विषय को व्यापक रूप से देखा गया है — अधिनियम की व्यवस्था, आदिवासियों (Scheduled Tribes) को लेकर अद्यतन सुप्रीम-कोर्ट के रुझान, प्रमुख मामलों की विवेचना, संवैधानिक आयाम, और आगे के चुनौतियों एवं सुझावों पर विचार।
प्रस्तावना
भारतीय उत्तराधिकार-कानून में, यह विवादता बनी रही है कि Hindu Succession Act, 1956 (“HSA”) आदिवासी-समुदायों पर किस हद तक लागू होती है अथवा नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह स्पष्ट किया है कि HSA स्वचालित रूप से आदिवासी समुदायों के लिए लागू नहीं होती, क्योंकि अधिनियम की धारा 2(2) में आदिवासी-समुदायों (Scheduled Tribes) को अलग रखा गया है।
लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि इस गैर-लागू होने का अर्थ यह नहीं कि आदिवासी महिला-उत्तराधिकारी पूर्णतः वंचित रहेगी; न्याय, समानता, सामाजिक न्याय के मूल सिद्धांतों के आधार पर अदालतें उत्तराधिकार अधिकार सुनिश्चित कर सकती हैं।
इस विषय का महत्व इसलिए भी है क्योंकि सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े आदिवासी-समुदायों में पारंपरिक विधि-व्यवस्थाएँ अभी भी प्रचलित हैं, और वहाँ उत्तराधिकार-केस अक्सर “कस्टम”, “परंपरा” या “हिंदू कानून” की दलीलों से उलझ जाते हैं। इस लेख में हम क्रमशः — HSA का विवेचन, आदिवासी-समुदायों पर उसकी गैर-लागूता का तात्पर्य, सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख निर्णय-प्रवृत्तियाँ, संवैधानिक-न्यायिक आयाम तथा भविष्य के लिए सुझाव — देखेंगे।
HSA: संगठन, प्रावधान एवं उद्देश्य
HSA, 1956 का औचित्य यह है कि हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख आदि (कानून-प्रदर्शन में हिन्दू कानून क्षेत्र से सम्बद्ध) व्यक्तियों के लिए निर्जन (इंटैस्टेट) उत्तराधिकार की व्यवस्था को कोडिफाइ किया जाए।
मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:
- यह अधिनियम उन व्यक्तियों पर लागू है जो हिन्दू धर्म, बौद्ध, जैन, सिख आदि हैं, अथवा अन्य ऐसा व्यक्ति जिसे साबित हो सके कि वह – यदि अधिनियम न होता तो – हिन्दू कानून या उसके भाग के रूप में उत्तराधिकार के मामलों में कस्टम द्वारा नियंत्रित होता।
- विशेष रूप से, धारा 2(2) में यह कहा गया है कि “अनुच्छेद 366(25)” के अर्थ में Scheduled Tribes के सदस्यों पर यह अधिनियम लागू नहीं होगा, जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना न की जाए।
- 2005 में अधिनियम में संशोधन किया गया था, जिसमें विशेष रूप से पुत्र या पुत्री को कोपार्सनरी (सह-उत्तराधिकारी) बनाने तथा बेटी को समान अधिकार देने वाले प्रावधान थे।
इनसे यह स्पष्ट है कि HSA महिलाओं को उत्तराधिकार में बेहतर स्थिति देने का प्रयास करता है — परंतु आदिवासी-समूहों के लिए अधिनियम की स्वचालित applicability को पहले से ही सीमित किया गया था।
आदिवासी-समुदायों पर HSA क्यों लागू नहीं?
यह प्रश्न जटिल है, पर विवेचना निम्न बिंदुओं में संभव है:
1. संवैधानिक तथा विधान-प्रावधान
- संविधान के अनुच्छेद 366(25) में Scheduled Tribes की परिभाषा है।
- HSA की धारा 2(2) स्पष्ट करती है कि यदि कोई व्यक्ति Scheduled Tribe के अंतर्गत आता है, तो अधिनियम स्वतः लागू नहीं होगा, जब तक केंद्र सरकार अधिसूचित न करे।
- इस तरह, विधि-दृष्टि से यह मूल रूप से स्वीकार किया गया है कि आदिवासी-समुदायों की पारंपरिक कस्टम एवं विधि-रिति को संरक्षण दिया जाए, और उन्हें सामान्य हिन्दू उत्तराधिकार कानून से अलग रखा गया था।
2. “हिंदूकरण” या “हिंदुइजेशन” (Hinduisation) की समस्या
- एक पुरानी पद्धति यह रही है कि यदि आदिवासी समुदाय ने “पर्याप्त” रूप से हिन्दू रीति-रिवाज अपनाए हैं, तो उन्हें हिन्दू कानून के अधीन माना जाए। उदाहरण के लिए, निर्णय-माध्यम में यह देखा गया कि “सुपरफिशियल हिंदुइजेशन” से स्वचालित रूप से उत्तराधिकार कानून लागू नहीं होगा।
- लेकिन यह बहुत प्रमाणिक नहीं था कि कितना “हिंदुइजेशन” पर्याप्त होगा, और इसके कारण न्यायिक विवाद आए हैं।
3. सांस्कृतिक-विधि-स्वायत्तता
- आदिवासी-समुदायों के स्वायत्त विधि-साधनों (customary law) को संवैधानिक दृष्टि से कुछ-हद संरक्षण है। यह माना गया है कि सामान्य विधियों का स्वचालित विस्तार आदिवासियों पर न्यायसंगत नहीं होगा, खासकर जब उनकी कस्टम परंपराएं अलग हों।
- इसलिए, HSA को लागू करने का निर्णय केवल एक विधिक चयन नहीं था, बल्कि संवैधानिक-विभाजन (federal/tribal) और सांस्कृतिक-स्वायत्तता के तत्वों को भी ध्यान में रखा गया।
Supreme Court of India के द्वारा स्थापित नवीन प्रवृत्तियाँ
हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी उत्तराधिकार-मामलों में स्पष्ट प्रवृत्तियाँ विकसित की हैं। निम्नलिखित बिंदुओं में उन्हें संक्षिप्त रूप से देखा जा सकता है:
(अ) HSA की अनुप्रयोग-नही: पुष्टि
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि HSA, 1956 आदिवासी-समुदायों पर लागू नहीं होगी जब तक कि केंद्र द्वारा अधिसूचना न हो।
- उदाहरणस्वरूप, मामले Tirith Kumar v. Daduram (2024) में भी यही रुख अपनाया गया — कि HSA आदिवासी-समुदायों पर स्वचालित रूप से लागू नहीं है।
(ब) कस्टम एवं प्रमाणीकरण की आवश्यकता
- सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर बल दिया है कि यदि किसी आदिवासी-समुदाय में कस्टम प्रमाणित रूप से यह मानता हो कि महिलाएँ उत्तराधिकारी नहीं होंगी, तो वह कस्टम लागू हो सकती है; लेकिन उल्टा अनुमान करना कि महिलाएँ वंचित हैं, पर्याप्त नहीं है।
- उदाहरण के तौर पर, केस Ram Charan v. Sukhram (2025) में कोर्ट ने कहा कि “जो रस्में समय के साथ बदलती नहीं रह सकती” और “महिलाओं को उत्तराधिकार से बाहर रखना कस्टम नहीं साबित होता”।
( स ) न्याय, समानता एवं शुभविवेक के सिद्धांतों का प्रयोग
- जहां आदिवासी-समुदायों पर न तो HSA लागू होती है और न ही स्पष्ट कस्टम मौजूद है, वहाँ कोर्ट ने न्याय, समानता एवं शुभविवेक (justice, equity & good conscience) के सिद्धांतों को इस्तेमाल किया है।
- ऐसा इसलिए क्योंकि जब कोई विधि-वакуंसी (gap) हो, तो कोर्ट ने इन सिद्धांतों के माध्यम से निष्पक्ष निर्णय लेने की प्रवृत्ति दिखाई है।
( द ) संवैधानिक असमानता-रोक के दृष्टिकोण से
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि किसी आदिवासी-महिला को केवल इस आधार पर उत्तराधिकार से वंचित किया जाए कि वह आदिवासी-समुदाय की महिला है, तो यह Article 14 (समानता का हक) का उल्लंघन होगा — क्योंकि पुरुषों को वही अधिकार दिए जा रहे हैं।
- इस प्रकार, आदिवासी-महिलाओं का उत्तराधिकार-वंचित होना केवल इसलिए कि अधिनियम लागू नहीं है, न्यायसंगत नहीं माना गया है।
( इ ) विधायी सुझाव
- सुप्रीम कोर्ट ने कई बार केंद्र सरकार को सुझाव दिया है कि HSA की धारा 2(2) को संशोधित किया जाए ताकि आदिवासी-समुदायों में महिलाओं के उत्तराधिकार-हक को सुनिश्चित किया जा सके।
मुख्य निर्णय-मामले और उनका विश्लेषण
नीचे कुछ प्रमुख अनुसंधान-मामले दिए गए हैं, जिनसे हमारी समझ और गहराई प्राप्त होती है:
(i) Tirith Kumar v. Daduram (2024)
- यह मामला आदिवासी (Sawara-समुदाय) से संबंधित था। सुप्रीम कोर्ट ने पुन: पुष्टि की कि HSA आदिवासी-समुदायों पर लागू नहीं है क्योंकि धारा 2(2) स्पष्ट है।
- यद्यपि तत्काल उत्तराधिकार की स्थिति स्पष्ट नहीं थी, किन्तु न्याय, समानता एवं शुभविवेक के सिद्धांतों के आधार पर उच्च न्यायालय के निर्णय को बनाए रखा गया।
- विश्लेषण के रूप में, यह बताया गया कि “हिंदूकरण” के आधार पर स्वचालित रूप से हिन्दू उत्तराधिकार कानून लागू नहीं हो सकता — क्योंकि आदिवासी-स्थिति संवैधानिक रूप से निरंतर बनी रहती है।
(ii) Ram Charan v. Sukhram (2025)
- इस मामले में अदालत ने कहा कि जहाँ महिलाओं को उत्तराधिकार से वंचित किया गया था, वहाँ कस्टम का प्रमाण नहीं था कि महिलाएँ उत्तराधिकारी नहीं होंगी।
- वहाँ कोर्ट ने कहा: “कस्टम समय के साथ बदल सकती है; यदि कस्टम प्रमाणित नहीं हुआ कि महिलाओं का उत्तराधिकार वर्जित है, तो पुरुषों-महिलाओं में भेद करना अनुचित है।”
(iii) अन्य प्रासंगिक निर्णय
- उदाहरण के तौर पर, सत्र “Smt. Butaki Bai & Others v. Sukhbati & Others” में यह स्थापित हुआ कि यदि आदिवासी-समुदाय ने हिन्दू कानून अपनाया हो, तो स्वचालित रूप से HSA लागू हो सकता है, लेकिन यह एक विशिष्ट तथ्य-निर्धारण (fact-intensive) मामला है।
- यह दिखाता है कि आदिवासी-स्थिति को समाप्त करना आसान नहीं है; राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना तथा प्रकार्यात्मक हिंदूकरण का प्रमाण होना चाहिए।
संवैधानिक एवं सामाजिक-न्यायिक आयाम
इस विषय का विश्लेषण केवल कानूनी-तकनीकी नहीं है, बल्कि इसके पीछे संवैधानिक-न्याय, सामाजिक-न्याय एवं लिंग-समानता जैसे विचारात्मिक आयाम भी हैं।
समानता का अधिकार
- संविधान का Article 14 कहता है कि राज्य किसी व्यक्ति को विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं कर सकता। आदिवासी-महिला को केवल इस आधार पर उत्तराधिकार नहीं मिलने देना — जबकि अन्य समुदायों की महिलाओं को मिलता है — इस तरह के भेदभाव को संदेह-भावना से देखा गया है। उदाहरण के रूप में Ram Charan में यह विश्लेषित हुआ कि “जब गैर-आदिवासी समुदाय में बेटियों को समान अधिकार है, तो आदिवासी-समुदाय में क्यों नहीं?”
- इसके अतिरिक्त, Article 15(1) में लिंग-आधारित भेदभाव पर रोक है। इस दृष्टि से, उत्तराधिकार के मामलों में लिंग-आधारित वंचना संवैधानिक रूप से जोखिम-पूर्ण है।
सामाजिक-न्याय एवं पिछड़ापन
- संविधान के Article 46 (राज्य का दायित्व अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के सांस्कृतिक-शैक्षणिक विकास का) एवं Article 38 (सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की दिशा) भी इस विषय को समर्थित करते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस तथ्य को स्वीकारा है कि आदिवासी-समुदाय ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे हैं, और उन्हें उत्तराधिकार, भूमि-हक आदि मामलों में न्यायपूर्ण अवसर मिलना अपेक्षित है।
कस्टम-विधि एवं स्वायत्तता
- एक जटिल आयाम यह है कि आदिवासी-समुदाय की पारंपरिक कस्टम-विधियाँ मौजूद हैं, जिनका संरक्षण संवैधानिक रूप से माना गया है। इसलिए, सामान्य उत्तराधिकार कानून का स्वतः विस्तार करना कभी-कभी सांस्कृतिक-स्वायत्तता के दृष्टिकोण से चिंता-उत्पन्न हो सकता है। यह विचार “हिंदुइजेशन”-थ्योरी में भी दिखता है कि आदिवासी-समुदाय अगर हिन्दू रीति-रिवाज अपनाते हैं, तो क्या उन्हें हिन्दू कानून के अधीन माना जाए? सुप्रीम कोर्ट ने इस दृष्टिकोण में सतर्क रहने की बात कही है।
न्याय, समानता एवं शुभविवेक का उपयोग
- जब विधि-दृष्टि से (Statute) कोई स्पष्ट नियम उपलब्ध नहीं होता, तो न्यायालयों ने “justice, equity and good conscience” (न्याय, समानता एवं शुभविवेक) के सिद्धांतों का इस्तेमाल किया है।
- यह सिद्धांत विशेष रूप से तब उपयोगी होता है जब कस्टम प्रमाणित नहीं हो, और कानून-प्रावधान आदिवासी-समुदाय के लिए स्पष्ट नहीं हों। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन सिद्धांतों के आधार पर आदिवासी-महिलाओं को समान उत्तराधिकार दिलाया।
चुनौतियाँ एवं आगे की दिशा
इस विषय में अब भी कई चुनौतियाँ मौजूद हैं, तथा आगे विकसित करने योग्य दिशा-निर्देश हैं।
चुनौतियाँ
- कस्टम का प्रमाण-कठिनाई
– कई मामलों में आदिवासी-समुदायों की कस्टम-विधियाँ लिखित नहीं होतीं, प्रमाण-संग्रह कठिन होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बिना प्रमाण के अनुमान नहीं चलते।
– कस्टम समय-साथ बदलती रहती है, इसलिए पुरानी प्रमाणित परंपराएँ वर्तमान में लागू होंगी ये तय करना कठिन है। - हिंदुइजेशन-दलीलें
– समुदायों द्वारा “हिंदू रीति अपनाई” जाने का दावा किया जाता है, लेकिन यह सिर्फ रीति-रिवाजों का अपनाना नहीं पर्याप्त है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि आदिवासी-स्थिति केवल हिंदूकरण से स्वतः समाप्त नहीं होती। - न्यायलयिक जागरूकता और पहुँच
– आदिवासी-समुदायों में अक्सर न्याय-प्रक्रिया की पहुँच कठिन होती है — भाषा, सामाजिक-विभाजन, संसाधन आदि कारणों से। इसलिए, उत्तराधिकार-मामलों में असममर्थता बनी रहती है। - विधायी छोट-बड़ी विसंगतियाँ
– HSA को संशोधित तो किया गया, लेकिन आदिवासी-समुदायों की विशेष स्थिति को अभी तक समुचित रूप से समाहित नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इसे सुधारने का सुझाव दिया है। - भू-हक एवं पारंपरिक व्यवस्था का समन्वय
– आदिवासी-समुदायों में भूमि-व्यवहार, खसरा-खाता, पारंपरिक अधिकार आदि बहुत भिन्न हो सकते हैं। उत्तराधिकार-मुकदमों में इनकी जटिलताएँ भागीदारी करती हैं।
आगे की दिशा-निर्देश
- विधायी संशोधन
– केंद्र सरकार को HSA की धारा 2(2) और सम्वद्ध प्रावधानों पर विचार करना चाहिए ताकि आदिवासी-महिलाओं को उत्तराधिकार-हक स्पष्ट रूप से मिले। सुप्रीम कोर्ट ने इसे निर्देशित किया है।
– विधि-प्रस्ताव में आदिवासी-समुदायों की विविधता को ध्यान में रखते हुए अलग प्रावधान बनाने पर विचार हो सकता है — उदाहरण के लिए “आदिवासी उत्तराधिकार अधिनियम” या राज्य-स्तरीय विनियमन। - प्रमाणीकरण एवं जागरूकता वृद्धि
– आदिवासी-समुदायों में न्याय-साक्षरता और जागरूकता बढ़ानी होगी ताकि महिलाएँ अपने अधिकारों से अवगत हों व उन्हें मुकदमेबाजी-प्रक्रिया का भय न हो।
– स्थानीय न्याय-मंच, पंचायती व्यवस्था, ज़िला स्तर पर विशेष अधिवेशन एवं परामर्श-शिविरों की व्यवस्था कर सकते हैं। - कस्टम-विधियों का दस्तावेजीकरण
– आदिवासी-समुदायों में प्रचलित उत्तराधिकार-कस्टम्स का दस्तावेजीकरण होना चाहिए (ऐतिहासिक सर्वेक्षण, सामाजिक-विज्ञान अध्ययन) ताकि न्यायालयों को प्रमाण-संग्रह में सुविधा हो।
– साथ ही यह सुनिश्चित किया जाए कि कस्टम समय-साथ पुराने से नए परिस्थितियों (जैसे लिंग-समानता, शिक्षा-सशक्तिकरण) के अनुरूप हों। - सह-समन्वित न्याय-प्रक्रिया
– राज्य न्यायालय, राजस्व-मंच, आदिवासी कल्याण विभाग आदि को मिलकर काम करना चाहिए ताकि उत्तराधिकार-मुकदमे समयबद्ध एवं समुचित हों।
– न्यायालय द्वारा “न्याय, समानता एवं शुभविवेक” के सिद्धांतों का नियमित रूप से उपयोग सुनिश्चित हो। - लिंग-समानता की दिशा में सामाजिक-परिवर्तन
– केवल विधि-सुधार पर्याप्त नहीं; आदिवासी-समुदायों में सामाजिक परंपराओं-विचारों में बदलाव लाना आवश्यक है, ताकि महिलाएँ उत्तराधिकारी-हिस्सेदार-हाथ न छोड़ें जायेँ।
– शिक्षा-सशक्तिकरण, महिला-समूहों की सहभागिता एवं कृषि-भूमि-हक को लेकर विशेष कार्यक्रम चलाये जाएँ।
निष्कर्ष
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि —
- HSA, 1956 स्वचालित रूप से आदिवासी-समुदायों पर लागू नहीं होती है क्योंकि धारा 2(2) में उनका अपवाद रखा गया है।
- परंतु इस गैर-लागूता का अर्थ यह नहीं कि आदिवासी-महिलाएँ उत्तराधिकार-हक से वंचित हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह पुष्टि की है कि, जहाँ कस्टम प्रमाणित नहीं है, महिलाओं को पुरुषों के बराबर उत्तराधिकार मिलना चाहिए — न्याय, समानता एवं शुभविवेक के आधार पर।
- संवैधानिक दृष्टि से यह निर्णय बड़ी दिशा-परिवर्तन संकेत करता है — आदिवासी-समुदायों में उत्तराधिकार-न्याय को लिंग-समानता एवं सामाजिक-न्याय के आयाम से देखना आवश्यक है।
- आगे की चुनौतियाँ प्रचुर हैं — मुख्य रूप से विधायी सुधार, सामाजिक-जागरूकता, कस्टम-दस्तावेजीकरण एवं न्याय-प्रक्रिया-सुधार। यदि इन पर गंभीरता से काम होगा, तो आदिवासी-समुदायों में उत्तराधिकार-विवादों में महिलाओं का अधिकार संरक्षण बेहतर होगा।
इस लेख का उद्देश्य था कि विषय को व्यापक रूप से समझा जा सके — जिसमें कानूनी प्रावधान, सुप्रीम कोर्ट-प्रवृत्तियाँ, संवैधानिक विमर्श व भविष्य-दिशा शामिल है। यदि आप चाहें, तो हम इस शीर्षक पर विशेष राज्य-कानून (उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र में आदिवासी-भूमि-उत्तराधिकार) या विशिष्ट आदिवासी-समुदायों के उदाहरणों के साथ गहन विश्लेषण भी कर सकते हैं। ऐसी क्या चाहेंगे?