“अपील का अधिकार पीड़ित का भी है: अभियुक्त की बरी होने के विरुद्ध अपील में ‘Victim’ की परिभाषा पर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय”
प्रस्तावना
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली का एक प्रमुख उद्देश्य है — न्याय सुनिश्चित करना न केवल आरोपी के लिए, बल्कि पीड़ित के लिए भी। लंबे समय तक हमारे दंड प्रक्रिया कानून (Criminal Procedure Code) में अभियुक्त के अधिकारों को प्राथमिकता दी जाती रही, जबकि पीड़ित का स्थान अपेक्षाकृत गौण था। परंतु पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने यह स्पष्ट किया है कि न्याय केवल अभियुक्त को दंड देने तक सीमित नहीं है, बल्कि पीड़ित को न्याय दिलाना भी उतना ही आवश्यक है।
इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय दिया है जिसमें यह कहा गया है कि “पीड़ित” (Victim) शब्द की व्याख्या व्यापक रूप में की जानी चाहिए — ताकि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने अपराध के परिणामस्वरूप हानि, चोट या क्षति झेली हो, वह अभियुक्त की बरी होने के विरुद्ध अपील करने का अधिकार रखे, भले ही वह ‘Complainant’ या ‘Informant’ न हो।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला उस स्थिति से संबंधित था जहां अभियुक्त को निचली अदालत द्वारा बरी कर दिया गया, परंतु जिस व्यक्ति को अपराध के कारण हानि और क्षति पहुँची थी, उसने स्वयं को “Victim” बताते हुए उस बरी होने के निर्णय के खिलाफ अपील दायर की।
राज्य सरकार की ओर से अपील दायर नहीं की गई थी, लेकिन पीड़ित पक्ष ने धारा 372 CrPC के Proviso के तहत यह दावा किया कि उसे अभियुक्त की बरी होने के विरुद्ध अपील करने का संवैधानिक व वैधानिक अधिकार है।
निचली अदालत ने यह कहते हुए अपील को अस्वीकार कर दिया कि अपील का अधिकार केवल वही व्यक्ति प्रयोग कर सकता है जो “शिकायतकर्ता” (Complainant) या “सूचनादाता” (Informant) हो।
मामला अंततः सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा, जहाँ यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि —
क्या ऐसा व्यक्ति जो अपराध से प्रभावित हुआ है परंतु शिकायतकर्ता या सूचनादाता नहीं है, वह भी अभियुक्त की बरी होने के विरुद्ध अपील कर सकता है?
संबंधित कानूनी प्रावधान
- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 372 (Proviso) यह कहती है:
“पीड़ित को अभियुक्त की बरी, दोषमुक्ति या सजा की अपर्याप्तता के विरुद्ध अपील का अधिकार होगा, बशर्ते कि ऐसी अपील सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में दायर की जाए।” -
धारा 2(wa) CrPC के अनुसार —
“Victim means a person who has suffered any loss or injury caused by reason of the act or omission for which the accused person has been charged, and the expression ‘victim’ includes his or her guardian or legal heir.”
इस परिभाषा से स्पष्ट है कि “पीड़ित” शब्द केवल शिकायतकर्ता तक सीमित नहीं है। जो भी व्यक्ति अपराध के कारण हानि या चोट झेलता है, वह ‘Victim’ कहलाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय का अवलोकन
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने विस्तृत निर्णय में कहा कि:
- CrPC की धारा 2(wa) में “Victim” की जो परिभाषा दी गई है, वह “Complainant” या “Informant” से कहीं अधिक व्यापक है।
- यदि किसी व्यक्ति को अपराध के परिणामस्वरूप आर्थिक, शारीरिक या मानसिक हानि हुई है, तो वह विधि की दृष्टि में पीड़ित माना जाएगा।
- यह मायने नहीं रखता कि एफआईआर किसने दर्ज कराई — यदि अपराध से प्रभावित व्यक्ति स्वयं सूचना देने में सक्षम नहीं था या पुलिस ने संज्ञान स्वतः लिया हो, तब भी वास्तविक हानि उठाने वाले व्यक्ति को “Victim” माना जाएगा।
न्यायालय ने आगे कहा कि न्याय का सिद्धांत यह नहीं हो सकता कि केवल राज्य को ही अभियुक्त की बरी के विरुद्ध अपील करने का अधिकार हो।
न्यायिक प्रक्रिया का उद्देश्य सत्य और न्याय की खोज है, और यदि कोई निर्दोष व्यक्ति अपराध का शिकार हुआ है, तो उसे अपील करने से रोका नहीं जा सकता।
न्यायालय का निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि —
“The term ‘victim’ under Section 2(wa) CrPC includes any person who has suffered loss or injury due to the act or omission for which the accused has been charged, even if such person is not the complainant or informant in the case.”
अर्थात्, “पीड़ित” का अधिकार केवल शिकायतकर्ता तक सीमित नहीं है, बल्कि वह किसी भी ऐसे व्यक्ति तक विस्तारित है जिसने अपराध के कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानि झेली हो।
इसलिए, ऐसे व्यक्ति को भी अभियुक्त की बरी के विरुद्ध अपील करने का वैधानिक अधिकार प्राप्त है।
न्यायालय की तर्कसंगतता
- न्याय के सिद्धांत की पूर्ति:
न्यायालय ने कहा कि यदि किसी व्यक्ति को अपराध से क्षति हुई है, तो उसे न्याय पाने का अवसर अवश्य मिलना चाहिए। यदि उसे अपील करने का अधिकार नहीं दिया जाए, तो न्याय प्रणाली एकतरफा और असंतुलित हो जाएगी। - पीड़ित केंद्रित न्याय (Victim-Centric Justice):
यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था को अभियुक्त केंद्रित से पीड़ित केंद्रित बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। - संविधान के अनुच्छेद 21 का संरक्षण:
अनुच्छेद 21 हर व्यक्ति को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार देता है। जब किसी व्यक्ति को अपराध के कारण क्षति होती है, तो उसका Article 21 का अधिकार प्रभावित होता है। इसलिए उसे न्याय पाने हेतु अपील करने का अधिकार होना चाहिए। - राज्य की निष्क्रियता से पीड़ित का अधिकार प्रभावित नहीं हो सकता:
कई बार राज्य सरकारें अभियुक्त की बरी के विरुद्ध अपील दायर नहीं करतीं। ऐसी स्थिति में यदि पीड़ित को अपील का अधिकार न दिया जाए, तो न्याय का उद्देश्य विफल हो जाएगा।
पूर्ववर्ती निर्णयों से तुलना
- Satya Pal Singh v. State of Madhya Pradesh (2015) 15 SCC 613:
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मृतक के पिता “Victim” हैं और उन्हें अभियुक्त की बरी के विरुद्ध अपील करने का अधिकार है, भले ही वे शिकायतकर्ता न हों। - Mallikarjun Kodagali v. State of Karnataka (2018) 14 SCC 1:
यहाँ न्यायालय ने यह दोहराया कि Victim को स्वतंत्र रूप से अपील करने का अधिकार है, और इसके लिए राज्य की अनुमति आवश्यक नहीं। - Rekha Murarka v. State of West Bengal (2020) 2 SCC 474:
इस मामले में भी न्यायालय ने कहा कि Victim का अधिकार स्वतंत्र और स्वायत्त है; वह अभियोजन की निष्क्रियता से प्रभावित नहीं होता।
इस प्रकार, वर्तमान निर्णय इन सभी पूर्ववर्ती निर्णयों की पुष्टि करता है और “Victim” की परिभाषा को और अधिक स्पष्ट एवं विस्तृत बनाता है।
निर्णय का सामाजिक और कानूनी महत्व
- पीड़ित की न्याय तक पहुँच (Access to Justice):
अब कोई भी व्यक्ति जिसने अपराध के परिणामस्वरूप क्षति झेली हो, न्यायालय में अपनी आवाज उठा सकता है। - न्यायिक जवाबदेही (Judicial Accountability):
यदि किसी न्यायालय द्वारा अभियुक्त को गलत तरीके से बरी किया जाता है, तो पीड़ित को अब सीधा अपील का अधिकार होगा। इससे न्यायिक प्रणाली में जवाबदेही बढ़ेगी। - न्याय प्रणाली में विश्वास की पुनर्स्थापना:
आम जनता में यह विश्वास बढ़ेगा कि कानून केवल राज्य का नहीं, बल्कि हर पीड़ित नागरिक का भी रक्षक है। - राज्य की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन:
इस निर्णय ने राज्य की भूमिका को पूरक बना दिया है — अब राज्य की निष्क्रियता के बावजूद न्याय की प्रक्रिया बाधित नहीं होगी।
व्यावहारिक प्रभाव
- अब यदि किसी व्यक्ति को आर्थिक हानि, मानसिक उत्पीड़न, या शारीरिक चोट अपराध के कारण होती है, तो वह सीधे उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अभियुक्त की बरी के खिलाफ अपील कर सकता है।
- यह निर्णय विशेष रूप से घरेलू हिंसा, दहेज, आर्थिक अपराध, और संपत्ति से संबंधित मामलों में अत्यंत प्रभावी साबित होगा।
- यह महिलाओं, वरिष्ठ नागरिकों और कमजोर वर्गों के लिए न्याय की पहुँच को आसान बनाता है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में पीड़ित के अधिकारों की पुनर्स्थापना का प्रतीक है।
“Victim” की व्यापक परिभाषा यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी व्यक्ति जो अपराध से प्रभावित हुआ है, उसे न्याय पाने से वंचित न किया जाए।
यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि —
“न्याय केवल राज्य की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर पीड़ित नागरिक का अधिकार भी है।”
अब भारतीय न्याय प्रणाली केवल अभियुक्त की दोषसिद्धि या बरी होने तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि यह पीड़ित की आवाज़ और न्याय की मांग को भी समान महत्व देगी।
सारांश:
यह ऐतिहासिक निर्णय न केवल विधिक दृष्टि से बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे यह संदेश गया है कि न्याय केवल शासन का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि यह हर उस व्यक्ति का अधिकार है जो किसी अपराध से पीड़ित हुआ है।