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सिविल प्रक्रिया में साक्ष्य परीक्षण: प्रतिपक्ष द्वारा पहले से परीक्षित पक्षकार को पुनः विपक्षी के साक्षी के रूप में बुलाना विधि का दुरुपयोग

गुजरात उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय — सिविल प्रक्रिया में साक्ष्य परीक्षण: प्रतिपक्ष द्वारा पहले से परीक्षित पक्षकार को पुनः विपक्षी के साक्षी के रूप में बुलाना विधि का दुरुपयोग


भूमिका (Introduction)

न्यायिक प्रक्रिया का मूल उद्देश्य निष्पक्ष सुनवाई और न्याय की स्थापना है। इस सिद्धांत के अंतर्गत साक्ष्य (Evidence) का प्रस्तुतिकरण और परीक्षण (Examination of Witnesses) अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दीवानी प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code – CPC) में साक्ष्य से संबंधित कई प्रावधान निहित हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रत्येक पक्ष को अपनी बात रखने, साक्ष्य प्रस्तुत करने, और प्रतिपरीक्षा करने का पूरा अवसर मिले।

हालांकि, न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग तब होता है जब कोई पक्ष अपने स्वार्थ के लिए विधिक सीमाओं से परे जाकर साक्ष्य प्रक्रिया में अनावश्यक या अवैध कदम उठाने का प्रयास करता है।

गुजरात उच्च न्यायालय का हालिया निर्णय इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी पक्षकार को प्रतिपक्ष द्वारा पहले से परीक्षित किए जाने के बाद पुनः विपक्षी के साक्षी के रूप में बुलाना विधिसम्मत नहीं है। ऐसा करना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग (abuse of process of law) है।


मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)

इस मामले में प्रतिवादी (defendant) ने वादी (plaintiff) को अपने साक्षी के रूप में बुलाने के लिए आवेदन किया। उल्लेखनीय है कि वादी पहले ही प्रतिपक्ष (defendant) द्वारा परीक्षा और प्रतिपरीक्षा (examination and cross-examination) से गुजर चुका था।

फिर भी, प्रतिवादी ने एक और आवेदन दायर किया जिसमें उसने वादी को पुनः बुलाने और उसे अपने पक्ष के साक्षी के रूप में परीक्षित करने की मांग की। ट्रायल कोर्ट ने इस आवेदन को अस्वीकार कर दिया और कहा कि यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है।

प्रतिवादी ने इस आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।


मुख्य विधिक प्रश्न (Legal Issue Involved)

इस मामले में मुख्य प्रश्न यह था —

“क्या किसी पक्ष को यह अधिकार है कि वह अपने प्रतिपक्ष (opponent) को अपने साक्षी (witness) के रूप में बुला सके, जबकि वह प्रतिपक्ष पहले ही परीक्षा और प्रतिपरीक्षा से गुजर चुका हो?”


संबंधित प्रावधान (Relevant Provisions)

  1. दीवानी प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code, 1908):
    • Order XVIII Rule 2: यह प्रावधान बताता है कि प्रत्येक पक्ष को पहले अपने साक्ष्य प्रस्तुत करने और फिर प्रतिपक्ष के साक्ष्यों को चुनौती देने का अवसर मिलेगा।
  2. भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act, 1872):
    • Section 135: यह बताता है कि साक्षियों की परीक्षा की क्रमबद्धता न्यायालय द्वारा नियंत्रित की जाएगी।

इन दोनों प्रावधानों से स्पष्ट है कि साक्ष्य परीक्षण की प्रक्रिया न्यायालय के नियंत्रण में होती है और इसे उचित विधिक सीमाओं के भीतर ही संचालित किया जा सकता है।


गुजरात उच्च न्यायालय का निर्णय (Judgment of the Gujarat High Court)

न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि:

“ऐसा कोई विधिक प्रावधान नहीं है जो किसी पक्ष को अपने प्रतिद्वंदी को उसके साक्षी के रूप में बुलाने का अधिकार देता हो, विशेषकर तब जब वह व्यक्ति पहले ही परीक्षा और प्रतिपरीक्षा से गुजर चुका हो।”

अदालत ने आगे कहा कि:

“वादी को पुनः बुलाने और उसे प्रतिवादी के साक्षी के रूप में परीक्षित करने हेतु एक साथ आवेदन करना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। ऐसा कदम मुकदमे को अनावश्यक रूप से लंबा खींचने और न्याय में देरी करने की मंशा दर्शाता है।”

अतः ट्रायल कोर्ट द्वारा प्रतिवादी का आवेदन अस्वीकार करने का आदेश पूर्णतः न्यायोचित और विधिसम्मत ठहराया गया।


न्यायालय की कानूनी विवेचना (Court’s Legal Reasoning)

  1. साक्ष्य का उद्देश्य
    साक्ष्य का उद्देश्य सत्य की खोज करना है, न कि किसी पक्ष को परेशान करना या प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से जटिल बनाना। जब एक गवाह (यहाँ वादी) पहले ही बयान दे चुका है और उसका प्रतिपक्ष उसे प्रतिपरीक्षा कर चुका है, तो उसे पुनः बुलाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता।
  2. विधिक प्रावधानों की सीमाएँ
    CPC या Evidence Act में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो किसी पक्ष को यह अनुमति दे कि वह अपने प्रतिपक्ष को अपने साक्षी के रूप में पेश करे।
  3. न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग (Abuse of Process)
    अदालत ने इस बात पर बल दिया कि ऐसी मांगें न्यायिक प्रणाली का दुरुपयोग हैं, जो न्यायालय का समय बर्बाद करती हैं और मुकदमे की सुनवाई को अनावश्यक रूप से विलंबित करती हैं।
  4. पूर्व के निर्णयों का हवाला
    अदालत ने पूर्व में दिए गए निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि एक बार जब कोई पक्षकार न्यायालय में गवाही दे चुका है और उस पर प्रतिपरीक्षा पूरी हो चुकी है, तो उसे दोबारा गवाह बनाना against the principle of fairness होगा।

इस निर्णय का विधिक महत्व (Legal Significance of the Judgment)

यह निर्णय सिविल मुकदमों में साक्ष्य प्रक्रिया के दुरुपयोग पर रोक लगाने के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके माध्यम से न्यायालय ने कुछ प्रमुख सिद्धांत स्थापित किए हैं:

  1. साक्ष्य प्रक्रिया में अनुशासन और नियंत्रण आवश्यक है।
  2. किसी पक्षकार को प्रतिपक्ष के साक्षी के रूप में पुनः बुलाना विधिक रूप से निषिद्ध है।
  3. अदालतों को ऐसे प्रयासों पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए, जो न्याय की प्रक्रिया को लंबा करने या दुरुपयोग करने के उद्देश्य से किए जाते हैं।
  4. न्यायालय के पास यह अधिकार है कि वह ऐसी अर्जी को अस्वीकार कर दे जो न्याय की भावना के विपरीत हो।

न्यायिक दृष्टिकोण (Judicial Philosophy Behind the Decision)

इस निर्णय के पीछे न्यायालय की दर्शन यह है कि न्याय केवल किया जाना ही नहीं चाहिए, बल्कि होते हुए दिखाई भी देना चाहिए।
यदि पक्षकारों को न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग की अनुमति दी जाए, तो मुकदमों की गंभीरता समाप्त हो जाएगी और न्यायिक संसाधनों पर अनावश्यक बोझ पड़ेगा।

न्यायालय ने संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए यह सुनिश्चित किया कि दोनों पक्षों को निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार मिले, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कोई पक्ष न्यायिक प्रणाली के साथ छेड़छाड़ करे।


निष्कर्ष (Conclusion)

गुजरात उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया की शुचिता (sanctity) की रक्षा का प्रतीक है। इसने स्पष्ट कर दिया कि:

“वादी को प्रतिवादी के साक्षी के रूप में पुनः बुलाने की मांग विधिसम्मत नहीं है; ऐसा करना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है।”

यह निर्णय यह संदेश देता है कि अदालतें केवल न्याय करने के लिए ही नहीं हैं, बल्कि न्याय की प्रक्रिया की मर्यादा बनाए रखने के लिए भी हैं।
कानूनी प्रक्रिया के किसी भी चरण में अनुचित या दुर्भावनापूर्ण प्रयत्नों को न्यायालय कभी स्वीकार नहीं करेगा।

अंततः, यह निर्णय भारत की न्यायिक प्रणाली को अधिक पारदर्शी, तर्कसंगत और प्रभावी बनाने की दिशा में एक सशक्त कदम है।