“जेंडर-न्युट्रल JAG नियुक्तियों की दिशा-निर्देशात्मक पद्धति पीछे नहीं जाएगी: सर्वोच्च न्यायालय का रुख और विवेचन”
प्रस्तावना
भारतीय सेना की Judge Advocate General (JAG) शाखा में महिलाओं और पुरुषों के बीच नियुक्तियों को लेकर हालिया सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने संवैधानिक और न्यायशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में नया मोड़ दिया है। मुख्य रूप से, न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि जेंडर-न्युट्रल (लिंग-तटस्थ) नियुक्ति संबंधी निर्देश—जो हालिया फैसले में दिए गए थे—वे पिछली प्रक्रियाओं (जो निर्णय से पहले अधिसूचित हो चुकी थीं) पर लागू नहीं हो सकते।
इस लेख में हम पहले पृष्ठभूमि देखेंगे, उसके बाद Arshnoor Kaur फैसले की विशेषताएँ, फिर इस नए निर्देशात्मक निर्णय का विश्लेषण करेंगे—क्यों न्यायालय ने यह निर्णय लिया, उसकी तर्क-संरचना, संवैधानिक और न्यायशास्त्रीय आयाम एवं निहित परिणाम। अंत में एक निष्कर्ष व सुझावात्मक टिप्पणी होगी।
पृष्ठभूमि
- JAG (Judge Advocate General) शाखा क्या है?
JAG शाखा सेना का वह विभाग है जिसमें विधि (law) के विहारों को देखना, कानूनी सलाह देना, कोर्ट मार्टिअल आदि कार्य करना शामिल है। JAG अधिकारियों का दायित्व सैन्य कानून, अनुशासनात्मक मामले, अदालती प्रक्रिया, अनुबंध आदि में सेना सरकार को विधिक सलाह देना है। - पूर्व स्थितियाँ एवं विभाजन नीति
सेना द्वारा 2023 में जारी की गई अधिसूचना में, JAG भर्ती (Short Service Commission, Law Graduates) में महिलाओं को सीमित अवसर (vacancies) दिए गए — उदाहरण के लिए, आठ पदों में पुरुषों के लिए अधिक रिक्तियाँ और महिलाओं के लिए कम — और पुरुष तथा महिलाएं अलग-अलग मेरिट सूची (merit list) में रखी जाती थीं। - महिला आवेदकों की चुनौती / याचिका
कुछ महिला आवेदिकों ने यह तर्क किया कि वे मेरिट में पुरुष आवेदकों से बेहतर अंक प्राप्त करती थीं, फिर भी चुनी नहीं गईं क्योंकि महिलाओं की सीटें सीमित थीं। उन्होंने कहा कि यह विभाजन असमान और भेदभावपूर्ण है, और संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 (समानता, भेदभाव की निषेध, चयन में समान अवसर) का उल्लंघन करता है। - आरशनूर कौर मुकदमा और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
इस विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त 2025 को Arshnoor Kaur & Anr. vs Union of India & Ors. मामले में निर्णय दिया। इस निर्णय में कोर्ट ने कहा कि JAG भर्ती अब से (henceforth) लिंग-तटस्थ (gender-neutral) होनी चाहिए और पुरुष-विशिष्ट सीट आरक्षण / विभाजन नीति (जैसे पुरुषों के लिए अधिक पद, महिलाओं के लिए कम) को निरस्त किया गया। इसके साथ ही, संयुक्त मेरिट सूची (common merit list) तैयार करने का निर्देश दिया गया।लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि कोर्ट ने उस निर्णय में यह स्पष्ट किया कि इसका प्रभाव केवल आगे की नियुक्तियों के लिए होगा — यानी निर्णय के बाद जारी होने वाली अधिसूचनाएं।
- नई चुनौती — Seerat Kaur याचिका
निर्णय के बाद, एक आवेदिका Seerat Kaur ने 35वीं भर्ती चक्र (October 2025) में आवेदन किया और उसका प्रदर्शन मेरिट में अच्छा रहा (कुल 8 चयनित उम्मीदवारों में वह 6वें स्थान पर थीं)। परन्तु उन्हें चयन नहीं दिया गया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि Arshnoor Kaur निर्णय को तत्काल प्रभाव से लागू किया जाए और उन्हें नियुक्त किया जाए।इस पर न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि क्योंकि 35वीं भर्ती की अधिसूचना निर्णय से पहले जारी हुई थी, इसलिए उस भर्ती पर नए आदेश लागू नहीं होंगे। अतः निर्णय का प्रभाव पिछली प्रक्रियाओं (pre-existing recruitment) पर नहीं होगा।
नया निर्देशात्मक निर्णय: तर्क एवं आदेश
न्यायालय की खंडपीठ (Justices Dipankar Datta और AG Masih) ने Seerat Kaur की याचिका पर निर्णय देते समय निम्न तर्क और निर्देशन प्रस्तुत किए:
- “Henceforth” (आगे से) सिद्धांत
कोर्ट ने यह ध्यान दिया कि Arshnoor Kaur फैसले में विशेष रूप से कहा गया था कि जेंडर-न्युट्रल भर्ती निर्देश “henceforth” (आगे से लागू) होंगे। यानी निर्णय को तत्कालीन और भविष्य की भर्ती प्रक्रियाओं को प्रभावित करने के लिए रेखांकित किया गया था, न कि उन प्रक्रियाओं को जो पहले शुरू हो चुकी थीं।इस तरह, न्यायालय ने निर्णय को पूर्वानुभव (retrospective) लागू करने के बजाय केवल भविष्य दिशात्मक (prospective) रूप दिया।
- अधिसूचना जारी होने की समयरेखा
क्योंकि 35वीं भर्ती की अधिसूचना निर्णय से पहले प्रकाशित की गई थी, न्यायालय ने यह माना कि उसमें नए निर्देश लागू करना न्यायसंगत नहीं होगा। इस आधार पर, न्यायालय ने यह कहा:“… we see no reason to hold that the directions contained in such judgment will apply retrospectively so as to affect any process of recruitment for appointment to the post of JAG that has been initiated prior thereto, including the 35th recruitment cycle which is under consideration.”
- अंतरिम आदेश (Interim Relief)
यद्यपि मूल अनुरोध (appointment) नहीं दिया गया, कोर्ट ने महिला आवेदिका को यह अनुमति दी कि यदि वह चाहे तो प्रशिक्षण पाठ्यक्रम (training course) में शुरू कर सकती है। यदि किसी कारणवश चयनित आठ उम्मीदवारों में से कोई प्रशिक्षण पूरा नहीं कर पाता या अयोग्य हो जाता है, तो केवल उसी स्थिति में Seerat Kaur को समायोजित (accommodate) किया जाए। लेकिन कोर्ट यह स्पष्ट करती है कि यह विशेष आदेश सिर्फ इस विशेश मामले के लिए है, और इसे आगामी मामलों का नजीर (precedent) नहीं माना जाना चाहिए।इसका अर्थ यह था कि यदि सभी चयनित उम्मीदवार सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा करें और नियुक्ति पा लें, तो Seerat Kaur के पास इस भर्ती चक्र के आधार पर कोई और दावा नहीं रहेगा।
- नए आदेशों का नजीर न बनना
कोर्ट ने विशेष रूप से कहा कि यह निर्देश भविष्य के मामलों में मिसाल नहीं बनें, अर्थात् इस विशेषीय आदेश को सामान्य आधार नहीं माना जाना चाहिए। - निर्णय का निष्कर्ष
याचिका को इस शर्त पर खारिज कर दिया गया कि यदि सभी चयनित उम्मीदवार नियुक्त हो जाते हैं, तो आवेदिका को इस भर्ती के आधार पर नियुक्ति नहीं दी जाएगी। यदि कोई रिक्ति होती है या चयन प्रक्रिया में कोई उम्मीदवार बाहर हो जाता है, तो आवेदिका को उपयुक्त शर्तों पर विचार किया जाए।
संवैधानिक और न्यायशास्त्रीय विश्लेषण
इस नए निर्णय की समीक्षा करते समय हमें निम्न मुख्य बिंदुओं पर विचार करना होगा:
- पूर्वानुभव (Retrospective) बनाम दिशात्मक (Prospective) आदेश
कानून में यह सामान्य सिद्धांत है कि संवैधानिक निर्णयों के आदेशों को पूर्ण रूप से पूर्वानुभव (retrospective) लागू करना हमेशा संभव या न्यायसंगत नहीं होता। न्यायालय अक्सर यह परीक्षा करता है कि निर्णय का प्रभाव कौन-कौन सी प्रक्रियाओं पर होगा, और क्या पूर्वानुभव लागू करने से धारा, विश्वसनीयता या वैधानिक सुरक्षा प्रभावित होगी।इस मामले में, Arshnoor Kaur फैसले में “henceforth” शब्द का समावेश यह संकेत देता है कि न्यायालय स्वयं ने यह सीमित किया कि आदेशों का प्रभाव भविष्य पर हो। इस आधार पर, Seerat Kaur मामले में कोर्ट ने फैसला किया कि पिछली भर्ती प्रक्रियाओं को विस्थापित करना न्यायसंगत न होगा।
- न्यायसंगत अपेक्षा (Legitimate Expectation) और प्रशासनिक सुरक्षा
जब एक भर्ती अधिसूचना पहले जारी हो चुकी हो और उम्मीदवारों ने उस अधिसूचना के अनुसार आवेदन किया हो, तो उन्हें एक प्रकार की न्यायसंगत अपेक्षा (legitimate expectation) होती है कि वे उसी नियमावली के अधीन न्यायोचित तरीके से मूल्यांकन होंगे। यदि कोई निर्णय मध्य-कार्यवाही में लागू कर दिया जाए, तो पुराने उम्मीदवारों को अपर्याप्त सूचना, असमय परिवर्तन या झटका लग सकता है।अतः सुप्रीम कोर्ट ने यह मानने का रास्ता अपनाया कि यदि अधिसूचना पहले जारी हुई हो, तो उसमें बाद के निर्णय को लागू करना न्यायसंगत नहीं होगा।
- संवैधानिक अधिकारों की समीक्षा
- अनुच्छेद 14 (समानता): JAG भर्ती में लिंग-विशिष्ट आरक्षण यदि बिना तर्क या विचलन के लागू किया गया हो, तो वह समानता के अधिकार का हनन हो सकता है। Arshnoor Kaur फैसले ने इसे unconstitutional माना।
- अनुच्छेद 15 (लिंग आधारित भेदभाव निषेध): स्त्रियों पर कोई प्रतिबंध मूलतः भेदभावपूर्ण हो सकता है यदि वह लिंग के आधार पर उन्हें सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से असमान स्थिति में रखे। Arshnoor Kaur फैसले ने यह पक्ष प्रमुख रूप से उठाया।
- अनुच्छेद 16 (नौकरी में समान अवसर): सार्वजनिक सेवा में चयन में लिंग आधारित पिछली नीति को समान अवसर के सिद्धांत के विरुद्ध माना जा सकता है। Arshnoor Kaur फैसले ने कहा कि भर्ती अब महिला और पुरुष दोनों के लिए समान अवसर पर होनी चाहिए।
परंतु, संवैधानिक समीक्षा यह करती है कि क्या पुराने निर्णयों को नई संवैधानिक व्याख्या से बाधित करना न्यायसंगत और विधिनुसार है।
- न्यायालयीय विवेक (Judicial Discretion) एवं परिसीमन
इस मामले में न्यायालय ने यह विवेक उपयोग किया कि विशेषतः यदि सभी चयनित उम्मीदवार सफल हों, तो आवेदिका को नियुक्ति नहीं दी जाए, पर यदि रिक्ति उत्पन्न हो — तो उसे विचार किया जाए। यह एक मञ्च और संतुलन की नीति है — एक तरह का हार्मनाइजेशन (समन्वय) विकल्प।साथ ही, कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यह आदेश सामान्य मिसाल नहीं बनेगा — इससे यह संकेत मिलता है कि न्यायालय आगे के मामलों में भिन्न विश्लेषण कर सकती है।
- न्यायशास्त्रीय सिद्धांत एवं नीति विमर्श
- न्याय और निश्चितता (Rule of Law): न्यायालयीय परिवर्तन को अत्यधिक अप्रत्याशित नहीं होना चाहिए, जिस कारण नियुक्ति प्रक्रिया पहले से पारदर्शी व निश्चित हो।
- अनुक्रमिकता (Prospectivity) का सिद्धांत: संवैधानिक विकास और सामाजिक न्याय के मामलों में, नए मानदंड को पूर्ण रूप से तुरंत लागू करना निहित रूप से जटिल हो सकता है यदि अनेक प्रक्रियाएँ पहले से प्रगति में हों।
- समयबद्धता, न्यूनतम हस्तक्षेप और मौलिक हानिकारकता के सिद्धांत: न्यायालय को यह देखना चाहिए कि आदेश का पूर्वानुभव प्रभाव किन पर पड़ेगा, और उन लोगों को अनचाही हानि से कैसे बचाया जाए।
संभावित आलोचनाएँ और चुनौतियाँ
- न्यायसंगत अपेक्षा का पक्ष
महिला आवेदिका (Seerat Kaur) की ओर यह तर्क हो सकता है कि उसने आवेदन, प्रतिस्पर्धा आदि पहले ही कर लिया था और यदि नए निर्देश तुरंत लागू किए जाते, तो वह चयनित हो सकती थी। इसलिए पुराने प्रक्रिया पर असर डालना — विशेष रूप से यदि नए निर्णय लिंग-न्याय की संवैधानिक व्याख्या पर आधारित हों — न्यायसंगत अपेक्षा की सुरक्षा का उल्लंघन हो सकता है। - रियायती अमलीकरण में अंतर
यदि कोर्ट ने आदेशों को पूर्वानुभव रूप से लागू कर दिया होता, तो उन भर्ती चक्रों में जहां महिलाओं को लाभ नहीं मिला हो, पुनर्संतुलन संभव हो सकता था। परन्तु न्यायालय ने इसे न करने का रुख अपनाया। यह दृष्टिकोण उन आवेदकों के लिए अन्याय की संभावना पेश कर सकता है, जो पहले चयनित नहीं हुए। - दिशात्मक आदेशों का सीमित दायरा
यह तर्क भी उठ सकता है कि यदि संवैधानिक निर्णय की व्याख्या हो चुकी है कि पुरुष-विशिष्ट आरक्षण अवैध है, तो पहाड़ से नीचे जाने वाली प्रक्रियाएँ — भले ही अधिसूचित हो चुकी हों — उन्हें स्वतः प्रभावित करना चाहिए ताकि संविधान की व्याख्या सुसंगत हो। - न्यायपालिका की भूमिका और नीति नियंत्रण
न्यायालय को यह सतर्क रहना होगा कि वह विधायिका या कार्यपालिका की भूमिका का अधिरोपण न करे। यदि हर संवैधानिक निर्णय को पूर्वानुभव रूप से लागू किया जाए, तो यह प्रशासन और भर्ती प्रक्रिया में व्यवधान ला सकता है। इसलिए, निर्णय का सीमित लागू होना न्यायपालिका की विवेकशीलता को दर्शाता है। - निजी प्रभाव और समान अवसर का ह्रास
यदि सिद्धांत रूप से लिंग-न्युट्रल भर्ती नीति स्थापित हो गई है, लेकिन उसे सिर्फ भविष्य के चक्रों में लागू किया जाना है, तो पुराने चक्रों में महिलाओं को हुए नुकसान का प्रतिकार नहीं हो पाएगा। इस अंतर को संवैधानिक न्याय और नीति विमर्श के दृष्टिकोण से चुनौती दी जा सकती है।
निष्कर्ष एवं सुझाव
इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया है कि:
- जेंडर-न्युट्रल नियुक्ति निर्देश केवल आगे से (prospective) लागू होंगे, और वे उन भर्ती प्रक्रियाओं पर नहीं लागू होंगे जो पहले से जारी हो चुकी थीं।
- न्यायालय ने संतुलन बनाए रखने की कोशिश की — संवैधानिक व्याख्या और नियमों की बदलती दिशा के बीच — ताकि पूर्वाभियोग (vested rights) और न्यायसंगत अपेक्षाओं का उल्लंघन न हो।
- इस निर्णय का यह अर्थ नहीं कि पहले की नीतियाँ सही थीं, बल्कि यह कि न्यायालय ऐसा परिवर्तन देर-सबेर करना अधिक न्यायसंगत माना।
कुछ सुझाव एवं विचार:
- सरकार / सेना को स्पष्ट निर्देश जारी करने चाहिए
अब से JAG भर्ती में पूरी तरह लिंग-न्युट्रल व्यवस्था अपनाई जाए — संयुक्त मेरिट सूची, बिना लिंग आधारित सीट विभाजन आदि। और यह सुनिश्चित हो कि अधिसूचनाएँ स्पष्ट हों कि नए नियम कब से लागू होंगे। - संविधान और मानवाधिकार जागरूकता बढ़ानी चाहिए
भर्ती नीति बनाते समय लिंग समानता, समान अवसर और निष्पक्ष प्रक्रिया मूलभूत विचारधाराएँ हों। - न्यायालय को भविष्य के मामलों में मिसाल (precedent) स्पष्ट करना चाहिए
यदि आने वाले मामलों में न्यायालय इसे विस्तृत रूप से लागू करे, तो निर्णय का क्षेत्र और प्रभाव अधिक निश्चित होगा। - वित्तीय और संवैधानिक प्रतिकार (Remedy) विकल्पों का पुनर्विचार
यदि पूर्वी भर्ती प्रक्रियाओं में महिलाओं को नुकसान हुआ है, तो सरकार को यह विचार करना चाहिए कि क्या संवैधानिक प्रतिकार (उदाहरण: विशेष नियुक्ति, समायोजन, रिक्तियों का उपयोग) देना संभव है।