हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट के ऐतिहासिक दिशा-निर्देश: मंदिरों को दान की गई धनराशि के दुरुपयोग पर रोक
प्रस्तावना
भारत में जन्म-देशी धार्मिक संस्थाएँ, मंदिर, धाम आदि सदियों से समाज जीवन का अभिन्न हिस्सा रही हैं। भक्तों द्वारा मंदिरों में दी गई दान-राशि उनके आस्था, विश्वास और धर्म के प्रति भावों का प्रतीक है। भक्त इस विश्वास के साथ दान करते हैं कि उनकी देन मंदिर की देखभाल, पूजा-अनुष्ठान, धार्मिक गतिविधियों, मंदिर परिसर के रख-रखाव और सामाजिक कल्याण कार्यों के लिए ही खर्च होगी। लेकिन अक्सर देखा गया है कि ये धनराशियाँ कभी सरकारी योजनाओं, विकास कार्यों, या प्रशासनिक खर्चों में स्थानांतरित कर दी जाती हैं, जिससे भक्तों का भरोसा टूटता है और धार्मिक-नैतिक जिम्मेदारी अधूरी रहती है।
हाल ही में हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट ने इस प्रकार की स्थितियों को रोकने के लिए एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए मंदिरों को दान की गई धनराशियों के उपयोग के संबंध में ऐतिहासिक दिशा-निर्देश जारी किए हैं। ये दिशा-निर्देश मंदिरों के ट्रस्ट और राज्य दोनों के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही, और धार्मिक-धार्मिक उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता सुनिश्चित करने का एक बड़ा कदम हैं।
आदेश की पृष्ठभूमि और याचिका
- याचिकाकर्ता कश्मीर चंद शांडयाल ने “Himachal Pradesh Hindu Public Religious Institutions and Charitable Endowments Act, 1984” के प्रावधानों के सख्त अनुपालन की मांग की।
- याचिका में आरोप था कि मंदिरों को दान की गई राशि का उपयोग अक्सर उन प्रयोजनों के लिए नहीं किया गया है, जिनके लिए भक्तों ने दान किया था, बल्कि उन निधियों को अन्य गैर-धार्मिक या सरकारी कल्याण योजनाओं, सार्वजनिक निर्माणों आदि में लगाया जा रहा था।
- अदालत ने यह भी देखा कि भक्त यह विश्वास करते हैं कि उनकी देन केवल “देवता की सेवा, मंदिर की देखभाल और सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार” में लगनी चाहिए। जब सरकार या ट्रस्टी इन दानों को अन्य उद्देश्यों में इस्तेमाल करते हैं, तो यह दायित्व और विश्वासघात के बीच की खाई को उजागर करता है।
अदालत केdirection / आदेश (Directions) / निर्देश
हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट की खंडपीठ (Justices Vivek Singh Thakur और Rakesh Kainthla) ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण निर्देश (guidelines) जारी किए हैं जो मंदिरों, ट्रस्टों और संबंधित सरकारी विभागों द्वारा त्वरित रूप से पालन किए जाने चाहिए:
- धार्मिक एवं धामिक प्रयोजन (Dharmic / religious purposes) में ही उपयोग
मंदिरों को प्राप्त दान केवल उन उद्देश्यों पर खर्च किए जाएँ जो सीधे मंदिर से संबंधित हों—देवता की सेवा, पूजा-अनुष्ठान, मठ-मंदिर परिसर की मरम्मत, रख-रखाव और सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार से जुड़े कार्य। - अन्य उपयोगों पर पाबंदी (Prohibited uses)
निम्नलिखित प्रकार के उपयोगों के लिए मंदिरों के दान की राशि का उपयोग नहीं किया जाएगा:- सरकारी कल्याण योजनाएँ (government welfare schemes) या सामान्य राज्य राजस्व के खर्चों के लिए।
- सड़कों, पुलों, सार्वजनिक इमारतों आदि निर्माण में, यदि वे मंदिर-धार्मिक कार्य से संबंधित न हों।
- मंदिर अधिकारियों के लिए वाहन खरीदने, वीआईपी/अधिकारियों के लिए उपहार, स्मृति-चिन्ह, मंदिर की तस्वीरें, प्रासाद/चुन्नी आदि जैसी सामग्रियों पर VIP-प्रसाद आदि की खरीद पर।
- पारदर्शिता एवं लेखा-जोखा (Transparency & Accounting)
- मंदिरों को अपनी मासिक आय एवं व्यय, दान से प्राप्त परियोजनाओं का विवरण, और लेखा परीक्षा (audit) सारांश सार्वजनिक रूप से नोटिस बोर्डों या वेबसाइटों पर प्रदर्शित करना होगा।
- आय-व्यय के विवरण और बजट तैयार करना, लेखे-जोखा रखना, और वित्तीय व्यय की रिपोर्टें समय-समय पर तैयार करना अनिवार्य होगा।
- ट्रस्टी/प्राधिकारी की जिम्मेदारी
- यदि ट्रस्टी या मंदिर अधिकारी इस निधि का दुरुपयोग करते हैं, तो उन पर व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायित्व (personal liability) होगा।
- दुरुपयोग पाए जाने पर निधियों की वसूली की जाएगी।
- अनुदान और बुनियादी ढाँचा (Infrastructure / Grants)
दान राशि का उपयोग धार्मिक शिक्षा (वेद, उपनिषद, गुरुकुल जैसी संस्थाएँ), योग शिक्षा, सामाजिक कल्याण कार्यों जैसे वृद्धाश्रम, अनाथालय, नेत्र शिविर, रक्तदान शिविर, गौशालाएँ आदि से जुड़े कार्यों के लिए किया जा सकता है। - अधिकारियों की सीमाएँ
मंदिर अधिकारी, मंदिर कमिश्नर आदि वरीय अधिकारी केवल उसी सीमा तक खर्च कर सकेंगे जो मंदिर-धार्मिक कार्यों से संबंधित हो और उनके व्यय के लिए सरकारी दरों (official rates) या अनुमोदित प्रावधानों के अनुसार प्रतिपूर्ति (reimbursement) स्वीकार की जाएगी।
कानूनी आधार
यह दिशा-निर्देश निम्न कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों पर आधारित हैं:
- Hindu Public Religious Institutions and Charitable Endowments Act, 1984 (HP Act, 1984)
इस अधिनियम में मंदिरों की स्व-स्वरूप प्रबंधन, ट्रस्टी की जिम्मेदारी, बजट एवं लेखा-जोखा रखने का प्रावधान है। अदालत ने इस अधिनियम की धारा 17, धारा 22, धारा 23 आदि का अनुपालन सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है। - भारतीय संविधान – अनुच्छेद 25(2)
यह अनुच्छेद धार्मिक संस्थानों को अपनी धार्मिक गतिविधियों के प्रबंधन की अनुमति देता है, लेकिन राज्य को यह अधिकार है कि वह धार्मिक प्रथाओं के साथ जुड़ी आर्थिक या निहित धार्मिक-आर्थिक क्रियाओं को विनियमित कर सके। मंदिर निधियों के उपयोग की सीमाएँ इसी प्रावधान से सम्बंधित हैं। - विश्वासघात की अपराध श्रेणी (Criminal Breach of Trust)
अदालत ने स्पष्ट किया है कि यदि ट्रस्टी मंदिर निधियों का दुरुपयोग करे, तो यह “विश्वासघात” (Criminal Breach of Trust) की श्रेणी में आएगा। ट्रस्टी केवल निधि का अधिकारी नहीं, बल्कि उसे संभालने वाला संरक्षक (custodian) है। - लोकहित और याचिका आधारित न्याय (Public Interest Litigation / Writ Jurisdiction)
जनहित याचिका के माध्यम से अदालत ने देखा कि भक्तों का विश्वास और सार्वजनिक विश्वास टूटता है जब मंदिर निधियों का दुरुपयोग होता है। राज्य और ट्रस्टों पर आदेश ऐसे किया गया है कि सार्वजनिक हित एवं धर्म सम्बद्ध विश्वासों की रक्षा हो सके।
संभावित प्रभाव एवं सकारात्मक बदलाव
यह फैसला और दिशा-निर्देश निम्नलिखित सकारात्मक प्रभाव ला सकते हैं:
- भक्तों का विश्वास बढ़ेगा
जब धन का उपयोग स्पष्ट, पारदर्शी और निष्ठापूर्वक होगा, तो भक्तों का आस्था और मंदिर प्रबंधन में भरोसा मजबूत होगा। - धार्मिक संस्थाएँ जवाबदेह होंगी
ट्रस्टियों, मंदिर अधिकारियों को यह पता होगा कि उन्हें सार्वजनिक जवाबदेही देनी है, लेखा-जोखा रखना है और अनुचित व्यवहार पर दंड का सामना करना होगा। - सामाजिक कल्याण कार्यों में संतुलन
दान धार्मिक कार्यों से जुड़ी सामाजिक सुधारों की ओर भी जा सकते हैं जैसे वृद्धाश्रम, अनाथालय, नेत्र शिविर आदि। यह धार्मिक कार्यों के साथ सामाजिक दायित्वों का संतुलन बनाएगा। - अनुचित उपयोग की रोक
सरकारी योजनाओं एवं सार्वजनिक निर्माणों के लिए मंदिर निधियों का उपयोग बंद होगा, जिससे मंदिरों के मूल उद्देश्य पर अधिक ध्यान केंद्रित होगा। - संवैधानिक एवं कानूनी दृढ़ता
यह फैसला धर्म-स्वतंत्रता, भक्तों की धार्मिक भावनाओं और धार्मिक संस्थानों की स्वतंत्रता की रक्षा का संवैधानिक आधार मजबूत करेगा।
चुनौतियाँ एवं संभव विरोध (Challenges & Potential Issues)
लेकिन इस तरह के निर्देशों को लागू करने में कुछ चुनौतियाँ भी होंगी:
- प्रशासनिक एवं प्रबंधन चुनौतियाँ
छोटे गाँवों और दूरदराज के मंदिरों में सामान्य रूप से संसाधन कम होते हैं — लेखा-जोखा रखने की क्षमता, वेबसाइट या सूचना खंड स्थापित करने की सुविधा, नियमित लेखा परीक्षा करवाने की लागत आदि। - मानव संसाधन और क्षमता
पारंपरिक मंदिर प्रबंधन अक्सर पंडितों, पुजारियों या स्थानीय समिति की ओर से होता है। उन्हें इस तरह की कानूनी और वित्तीय प्रक्रियाओं की जानकारी कम हो सकती है। - नियंत्रण और निगरानी प्रणाली
केवल आदेश देना पर्याप्त नहीं; यह देखना भी जरूरी है कि आदेश कितनी प्रभावी तरीके से लागू हो रहा है, ट्रस्टियों का मुआयना हो रहा है या नहीं। - संभावित राजनैतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएँ
कभी-कभी भक्तों, मंदिरों या ट्रस्टों को यह महसूस हो सकता है कि राज्य अधिक हस्तक्षेप कर रहा है, उनका नियंत्रण कम हो रहा है। विशेष रूप से उन मंदिरों में जहाँ धर्म एवं स्थानीय परंपराएँ गहरी हैं, यह एक संवेदनशील विषय हो सकता है। - अधूरे सुधार
यदि सिर्फ निर्देश रह जाएँ लेकिन उनकी निगरानी ना हो, रिपोर्टिंग ना हो, अथवा दंड की कार्रवाई ना हो, तो प्रभाव सीमित होगा।
अंतरराष्ट्रीय और ऐतिहासिक संदर्भ
धार्मिक संस्थाओं एवं मंदिर निधियों के उपयोग के विषय में भारत के अन्य कोर्टों और राज्यों में भी इतिहास में कई मामले रहे हैं जहाँ कोर्ट ने पारदर्शिता और जवाबदेही की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
- देश में विभिन्न उच्च न्यायालयों ने मंदिर प्रबंधन, ट्रस्टों द्वारा धन के उपयोग की निगरानी, लेखांकन मानकों आदि के लिए आदेश दिए हैं।
- संविधान एवं न्यायालयी प्रथाएँ अक्सर भक्त-भक्ति के बीच संतुलन स्थापित करने की कोशिश करती हैं — धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार और राज्य की भूमिका, दोनों को सुसंगत बनाते हुए।
आलोचनाएँ और विचार-विमर्श के बिंदु
इस आदेश में कुछ ऐसे पहलू भी हैं जिन पर विचार और बहस होना चाहिए:
- धार्मिक विविधता एवं समानता
मंदिरों के लिए ये आदेश बने हैं, लेकिन धार्मिक संस्थाओं में समान अधिकार और जवाबदेही कैसे सुनिश्चित होगी? गैर-हिंदू धार्मिक संस्थाओं के दान और उनके प्रबंधन के लिए क्या समान कानूनी इंफ्रास्ट्रक्चर है? - दानदाताओं की स्व-इच्छा (Donor’s Intent)
भक्तों ने दान देते समय यह अपेक्षा रखी होगी कि यह सिर्फ पूजा-अनुष्ठान या मंदिर के रख-रखाव में ही लगेगा। लेकिन कभी-कभी भक्त स्वयं सामाजिक कार्यों या कल्याण कार्यों के लिए भी दान करना चाहते हैं। इस आदेश से क्या उन दानदाताओं की मंशा पर भी असर पड़ेगा? - नियमों का कार्यान्वयन (Implementation)
शासन की संस्थाएँ, ट्रस्ट समिति, मंदिर प्रबंधन की समितियाँ आदि यह सुनिश्चित करेंगी कि आदेशों का सही समय पर और पूर्ण रूप से पालन हो। किस प्रकार निरीक्षण होगा, किस प्रकार ट्रस्टी के खिलाफ कार्रवाई होगी — ये सब स्पष्ट होना चाहिए। - संशोधित अधिनियमों की आवश्यकता
असमर्थ मंदिरों या धार्मिक संस्थाओं के लिए कुछ विशेष प्रावधान आवश्यक हो सकते हैं। संभव है कि वर्तमान अधिनियमों में कुछ संशोधन की आवश्यकता हो ताकि छोटे मंदिरों को आदेशों का पालन करना संभव हो सके।
निष्कर्ष
हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट द्वारा जारी ये दिशा-निर्देश एक मील का पत्थर हैं। भक्तों के विश्वास की रक्षा, धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता और न्यायालय द्वारा धर्म एवं धार्मिक संस्थानों की गरिमा को बनाए रखना— ये सभी इस फैसले से संभव हो पाएँगे।
यह आदेश केवल कानून की मजबूरी नहीं हैं, बल्कि समाज के नैतिक मूल्यों और धार्मिक भावनाओं का सम्मान भी हैं। जब भक्तों ने भगवान, मंदिर, धर्म के नाम पर दान किया, तो वह दान ‘भगवान का’ है, ‘सरकार का नहीं’। दान की राशि की गरिमा, उद्देश्य और उपयोगिता बनी रहनी चाहिए।
प्रस्ताव यह है कि यह आदेश सिर्फ हिमाचल प्रदेश तक सीमित न रहे, बल्कि अन्य राज्यों में भी धर्म संस्थाओं की पारदर्शिता, जवाबदेही और वास्तविक धार्मिक-धार्मिक उपयोग सुनिश्चित हो। भक्तों का विश्वास बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि मंदिर निधियों का उपयोग सिर्फ और सिर्फ भक्तों की आशाओं के अनुरूप हो।