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फांसी बनाम घातक इंजेक्शन: मृत्युदंड के मानवीय स्वरूप पर सुप्रीम कोर्ट में बहस — क्या भारत समय के साथ चलने को तैयार है?

फांसी बनाम घातक इंजेक्शन: मृत्युदंड के मानवीय स्वरूप पर सुप्रीम कोर्ट में बहस — क्या भारत समय के साथ चलने को तैयार है?

“फांसी के फंदे से इंजेक्शन की सुई तक: न्यायिक करुणा पर केंद्र की व्यावहारिक दलीलें”


प्रस्तावना

भारत में मृत्युदंड (Death Penalty) पर चल रही बहस कोई नई नहीं है, लेकिन हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में इस विषय पर फिर से चर्चा ने एक बार फिर मानवाधिकार, संविधान और दंड-नीति पर नए सवाल खड़े कर दिए हैं।
सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ — न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता — के समक्ष दायर एक याचिका में यह मुद्दा उठाया गया कि फांसी के बजाय दोषियों को “घातक इंजेक्शन (Lethal Injection)” से मृत्युदंड देने का विकल्प दिया जाना चाहिए।

केंद्र सरकार ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा कि ऐसा विकल्प देना “व्यावहारिक नहीं” होगा, जबकि अदालत ने यह टिप्पणी की कि सरकार समय के साथ बदलाव के लिए तैयार नहीं है।
यह बहस केवल दंड की पद्धति पर नहीं, बल्कि न्यायिक संवेदनशीलता और मानवीय गरिमा के मूल्यों पर भी केंद्रित है।


मामले की पृष्ठभूमि

वरिष्ठ अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने कहा कि —
भारत में मृत्युदंड (death sentence) को लागू करने का मौजूदा तरीका — फांसी पर लटकानाक्रूर, बर्बर और अमानवीय है।

उन्होंने कहा कि आधुनिक युग में अधिकांश विकसित देशों ने फांसी को समाप्त कर दिया है और घातक इंजेक्शन (lethal injection) को अधिक मानवीय तरीका माना है।

याचिका में उन्होंने तर्क दिया कि —

“फांसी के दौरान व्यक्ति की मृत्यु तुरंत नहीं होती। शरीर का संघर्ष लगभग 30 से 40 मिनट तक जारी रहता है। जबकि घातक इंजेक्शन से मृत्यु त्वरित, शांतिपूर्ण और दर्दरहित होती है।”

उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि अमेरिका के 50 में से 49 राज्यों ने lethal injection को मृत्युदंड का तरीका बना लिया है।


केंद्र सरकार की दलील

केंद्र सरकार की ओर से पेश वकील ने अदालत को बताया कि —

  • भारत में मृत्युदंड का तरीका फांसी द्वारा तय किया गया है, जो Criminal Procedure Code (CrPC) और Indian Penal Code (IPC) में निहित है।
  • इसे बदलने के लिए केवल अदालत का आदेश पर्याप्त नहीं, बल्कि कानूनी संशोधन (Legislative Amendment) आवश्यक है।
  • सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि “घातक इंजेक्शन का विकल्प देना व्यावहारिक नहीं है,” क्योंकि —
    • भारत में चिकित्सा संसाधनों की उपलब्धता हर जेल में समान नहीं है।
    • प्रशिक्षित चिकित्सकों और चिकित्सा-प्रक्रिया की अनुपस्थिति में यह तरीका अव्यावहारिक और जोखिमभरा साबित हो सकता है।

केंद्र का रुख स्पष्ट था कि यह विकल्प प्रशासनिक दृष्टि से संभव नहीं, भले ही सैद्धांतिक रूप से यह मानवीय प्रतीत होता हो।


सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया

न्यायमूर्ति संदीप मेहता और विक्रम नाथ की खंडपीठ ने केंद्र की इस दलील पर असंतोष जताया और कहा —

“सरकार समय के साथ बदलने के लिए तैयार नहीं है। यदि अन्य देशों में अधिक मानवीय विकल्प अपनाए जा सकते हैं, तो भारत में क्यों नहीं?”

जस्टिस मेहता ने यहां तक सुझाव दिया कि केंद्र के वकील को यह प्रस्ताव सरकार के समक्ष रखने पर विचार करना चाहिए कि मृत्युदंड पाए दोषी को विकल्प दिया जाए — यानी दोषी यह तय कर सके कि उसे फांसी दी जाए या घातक इंजेक्शन

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यह मुद्दा केवल तकनीकी नहीं, बल्कि मानव गरिमा (Human Dignity) और संविधान के अनुच्छेद 21 (Right to Life and Personal Liberty) से जुड़ा हुआ है।


भारत में मृत्युदंड की वर्तमान स्थिति

भारत में मृत्युदंड अभी भी दुर्लभ से दुर्लभतम (Rarest of Rare) मामलों में दिया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 1980 के Bachan Singh v. State of Punjab केस में यह सिद्धांत स्थापित किया कि —

“मृत्युदंड केवल उन्हीं मामलों में दिया जा सकता है, जहाँ अपराध इतना जघन्य हो कि आजीवन कारावास पर्याप्त न हो।”

वर्तमान में, भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत मृत्युदंड निम्न अपराधों के लिए दिया जा सकता है —

  • हत्या (Section 302)
  • बलात्कार जिसके परिणामस्वरूप पीड़िता की मृत्यु हो (Section 376A, 376E)
  • आतंकवादी गतिविधियाँ (UAPA Act)
  • राष्ट्रद्रोह या युद्ध छेड़ने जैसे अपराध

फांसी देने की प्रक्रिया (Hanging Method)

भारत में मृत्युदंड को लागू करने का तरीका “फांसी द्वारा” तय है।
इसका प्रावधान CrPC की धारा 354(5) में है —

“जब किसी व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाता है, तो उसे फांसी द्वारा मृत्यु दी जाएगी।”

इस प्रक्रिया में व्यक्ति को फांसीघर (gallows) में ले जाकर रस्सी के फंदे से लटकाया जाता है।
हालाँकि न्यायिक दृष्टि से इसे “कानूनी रूप से उचित” माना गया है, लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि यह अत्यधिक पीड़ादायक और असभ्य तरीका है।


घातक इंजेक्शन (Lethal Injection) की अवधारणा

घातक इंजेक्शन एक चिकित्सीय तरीका है, जिसमें दोषी के शरीर में तीन दवाओं का मिश्रण इंजेक्ट किया जाता है —

  1. Sodium Thiopental – व्यक्ति को बेहोश करता है।
  2. Pancuronium Bromide – मांसपेशियों को स्थिर करता है।
  3. Potassium Chloride – हृदय को रोक देता है।

यह पूरी प्रक्रिया 2–3 मिनट में पूरी हो जाती है और व्यक्ति को कोई बाहरी दर्द महसूस नहीं होता।

इसीलिए अमेरिका, कनाडा, जापान, और यूरोपीय देशों में यह तरीका “मानवीय मृत्युदंड” के रूप में अपनाया गया है।


भारत में मानवीय मृत्युदंड पर बहस

भारत में मृत्युदंड को लेकर तीन प्रमुख दृष्टिकोण रहे हैं —

  1. कठोर दंड का पक्ष (Retributive Justice):
    अपराधी को उसकी क्रूरता के अनुपात में सज़ा मिलनी चाहिए। यह विचार न्यायिक भय (deterrence) पर आधारित है।
  2. सुधारात्मक दृष्टिकोण (Reformative Justice):
    व्यक्ति को सुधारने का अवसर मिलना चाहिए। मृत्युदंड सुधार की संभावना समाप्त कर देता है।
  3. मानवीय दृष्टिकोण (Humanitarian Justice):
    यदि दंड देना आवश्यक है, तो उसका तरीका मानवीय होना चाहिए।

याचिकाकर्ता ने इसी तीसरे दृष्टिकोण को आधार बनाया था।


संविधानिक और नैतिक प्रश्न

यह मामला केवल “दंड की पद्धति” का नहीं, बल्कि संविधानिक नैतिकता (Constitutional Morality) का भी प्रश्न है।
भारत के अनुच्छेद 21 में “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” की गारंटी दी गई है —

“किसी व्यक्ति को उसके जीवन या स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा, सिवाय विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार।”

इसमें मानव गरिमा (Human Dignity) निहित है।
इसलिए प्रश्न यह है कि क्या फांसी जैसी दर्दनाक मृत्यु इस संवैधानिक गरिमा के अनुरूप है?


अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मृत्युदंड को समाप्त करने या मानवीय बनाने के लिए कई संधियाँ हैं —

  1. UN Human Rights Committee ने फांसी को “Inhuman and Degrading Punishment” कहा है।
  2. European Convention on Human Rights (ECHR) ने मृत्युदंड को पूरी तरह समाप्त कर दिया है।
  3. United Nations General Assembly (2007 Resolution) ने सभी देशों से मृत्युदंड पर रोक लगाने की अपील की थी।

भारत ने इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया, लेकिन अपनी “sovereign criminal policy” का हवाला देते हुए इसे लागू नहीं किया।


पूर्व के न्यायिक दृष्टांत (Judicial Precedents)

  1. Deena v. Union of India (1983)
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फांसी देने की प्रक्रिया भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि यह “त्वरित और कम दर्ददायक” है।
    परंतु उस समय lethal injection जैसी तकनीक भारत में उपलब्ध नहीं थी।
  2. Shatrughan Chauhan v. Union of India (2014)
    अदालत ने कहा कि मृत्युदंड दिए गए व्यक्ति की गरिमा उसके अंतिम क्षण तक बनी रहनी चाहिए।
  3. Yakub Memon (2015)
    इस केस में अदालत ने मृत्युदंड को स्थगित करने से इनकार करते हुए कहा कि प्रक्रिया कानूनन सही है, लेकिन इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता समय के साथ हो सकती है।

क्या भारत में बदलाव संभव है?

यदि भारत घातक इंजेक्शन को अपनाना चाहता है, तो इसके लिए—

  • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 354(5) में संशोधन करना होगा।
  • जेल अधिनियम (Prisons Act) और जेल नियमावली (Prison Manuals) को अद्यतन करना होगा।
  • चिकित्सीय प्रशिक्षण और प्रोटोकॉल विकसित करने होंगे ताकि प्रक्रिया पारदर्शी और सुरक्षित हो।

विधि आयोग (Law Commission of India) ने 2015 की अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि—

“भारत को मृत्युदंड को धीरे-धीरे समाप्त करने की दिशा में बढ़ना चाहिए, सिवाय आतंकवाद से जुड़े मामलों के।”


सामाजिक और दार्शनिक विमर्श

इस मुद्दे ने समाज में एक नई बहस को जन्म दिया है —
क्या किसी व्यक्ति की जान लेना, भले ही राज्य द्वारा क्यों न हो, “न्याय” कहलाया जा सकता है?
कई दार्शनिकों — जैसे जेरमी बेंथम और महात्मा गांधी — ने कहा है कि “हिंसा, चाहे राज्य करे या व्यक्ति, अन्याय का रूप है।”

गांधीजी ने कहा था:

“आंख के बदले आंख से पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी।”

इस दृष्टि से देखा जाए तो मृत्युदंड का स्वरूप आधुनिक मानवीय सभ्यता से मेल नहीं खाता।


न्यायपालिका और सरकार के बीच संतुलन

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट कर दिया कि वह सरकार के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता, परंतु संवैधानिक संवेदनशीलता की मांग है कि दोषी को कम से कम विकल्प (option) दिया जाए।
यह केवल तकनीकी परिवर्तन नहीं, बल्कि विचारधारा में बदलाव का संकेत है।


निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट में चल रही यह बहस भारत की दंड-नीति के भविष्य की दिशा तय कर सकती है।
फांसी बनाम घातक इंजेक्शन की यह बहस केवल तकनीकी या विधिक नहीं है — यह मानवता बनाम प्रतिशोध की बहस है।

जहाँ सरकार “व्यावहारिक कठिनाइयों” का हवाला दे रही है, वहीं अदालत “संवेदनशील बदलाव” की बात कर रही है।
यदि भारत को विश्व के लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के साथ खड़ा होना है, तो उसे अपने दंड-प्रणाली की पुनर्समीक्षा करनी होगी।

अंततः, प्रश्न यही है —

“क्या न्याय केवल प्रतिशोध है, या करुणा का वह स्वरूप जो अपराधी में भी मानवता देखता है?”

इस प्रश्न का उत्तर आने वाले समय में भारतीय न्यायशास्त्र और नीति-निर्माण दोनों को दिशा देगा।