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“कर्तव्य निर्वहन के दौरान नहीं कहा जा सकता: हिरासत में व्यक्ति की मौत पर तीन पुलिसकर्मियों पर हत्या का आरोप बढ़ाया गया”

“कर्तव्य निर्वहन के दौरान नहीं कहा जा सकता: हिरासत में व्यक्ति की मौत पर तीन पुलिसकर्मियों पर हत्या का आरोप बढ़ाया गया” — न्यायमूर्ति पी. डी. नाइक का अहम निर्णय


प्रस्तावना

भारत के आपराधिक न्याय तंत्र में पुलिस की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। पुलिसकर्मी कानून-व्यवस्था बनाए रखने, अपराध की रोकथाम और अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाने का कार्य करते हैं। परंतु जब वही पुलिस अपने अधिकारों का दुरुपयोग करती है, तो यह न केवल न्याय प्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगाता है बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का भी हनन करता है।
हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पी. डी. नाइक (Justice P. D. Naik) ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि किसी व्यक्ति को पुलिस हिरासत में मार देना “कर्तव्य निर्वहन के दौरान किया गया कार्य” नहीं कहा जा सकता। इस मामले में अदालत ने तीन पुलिसकर्मियों पर ‘जानबूझकर हत्या’ (Murder under Section 302 of IPC) का आरोप लगाने का आदेश दिया, जबकि पहले उन पर केवल ‘गंभीर चोट पहुंचाने’ (Hurt under Section 324/325 IPC) का मामला दर्ज किया गया था।

यह फैसला न्यायिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि “Official Duty” का दायरा इतना व्यापक नहीं है कि वह किसी नागरिक की हत्या को भी वैध ठहरा दे।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला महाराष्ट्र के एक पुलिस थाने से जुड़ा है, जहां तीन पुलिसकर्मियों ने एक व्यक्ति को पूछताछ के नाम पर हिरासत में लिया था।
जांच के दौरान यह आरोप लगा कि हिरासत में रखे गए व्यक्ति को पुलिस ने बुरी तरह पीटा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि मृत्यु “हिंसक चोटों” (Injuries caused by blunt trauma) के कारण हुई थी, और ये चोटें “प्राकृतिक नहीं थीं।”

शुरुआत में, जांच एजेंसी ने पुलिसकर्मियों पर केवल धारा 324 (स्वेच्छा से चोट पहुँचाना) और धारा 325 (गंभीर चोट) के तहत मामला दर्ज किया।
परंतु मृतक के परिजनों ने यह दलील दी कि यह मामला हत्या (Section 302 IPC) का है, क्योंकि पुलिसकर्मियों ने जानबूझकर उसे मारा और उनकी यह हरकत कर्तव्य के दायरे से बाहर थी।


अदालत की सुनवाई और प्रमुख तर्क

न्यायमूर्ति पी. डी. नाइक की एकल पीठ के समक्ष यह प्रश्न आया कि —
क्या हिरासत में व्यक्ति को पीटना और उसकी मृत्यु हो जाना “कर्तव्य निर्वहन” (Discharge of Official Duty) का हिस्सा कहा जा सकता है?

अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा:

“किसी व्यक्ति को हिरासत में रखकर उस पर अत्याचार करना और उसे इस हद तक पीटना कि उसकी मृत्यु हो जाए — यह कभी भी ‘Official Duty’ नहीं कहा जा सकता। यह शक्ति का दुरुपयोग है, न कि कर्तव्य का निर्वहन।”

अदालत ने आगे कहा कि पुलिसकर्मियों को कानून ने जो अधिकार दिए हैं, वे कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए हैं, न कि दंड देने या प्रतिशोध लेने के लिए।


न्यायमूर्ति पी. डी. नाइक के प्रमुख अवलोकन (Key Observations)

  1. कर्तव्य की सीमाएँ स्पष्ट हैं:
    “जब कोई सरकारी अधिकारी या पुलिसकर्मी किसी नागरिक के साथ अमानवीय व्यवहार करता है या उसकी हत्या करता है, तो यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं, बल्कि उसका उल्लंघन है।”
  2. कानून में कोई संरक्षण नहीं:
    भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 197 के तहत सरकारी अधिकारियों को कुछ हद तक अभियोजन से सुरक्षा मिलती है, परंतु अदालत ने कहा कि यह सुरक्षा तभी लागू होती है जब कार्य “कर्तव्य के दौरान” किया गया हो।
    हिरासत में हत्या करना कभी भी “official duty” नहीं माना जा सकता।
  3. न्याय की दृष्टि से निष्पक्षता आवश्यक:
    अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस को नागरिकों की सुरक्षा के लिए अधिकार दिए गए हैं, न कि उनके जीवन से खिलवाड़ करने के लिए।
    यदि ऐसे मामलों में कठोर कार्रवाई न की जाए, तो यह जनता के विश्वास को खत्म कर देगा।
  4. अपराध का स्वरूप:
    न्यायमूर्ति नाइक ने कहा कि इस मामले में पुलिसकर्मियों के खिलाफ ‘जानबूझकर हत्या’ (Section 302 IPC) का मामला बनता है क्योंकि उन्होंने व्यक्ति को इस तरह मारा कि उसकी मृत्यु निश्चित थी।

अदालत का आदेश

अदालत ने तीनों पुलिसकर्मियों के खिलाफ दर्ज मामले में आरोपों की श्रेणी बढ़ाने (Enhancement of Charges) का निर्देश दिया।
अब उन पर हत्या (Murder – Section 302 IPC) का मुकदमा चलेगा, न कि केवल “चोट पहुंचाने” का।

इसके साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि राज्य सरकार को इस तरह के मामलों में सख्त निगरानी रखनी चाहिए और जांच स्वतंत्र एजेंसी द्वारा कराई जानी चाहिए।


कानूनी विश्लेषण

1. भारतीय दंड संहिता (IPC) की प्रासंगिक धाराएँ

  • धारा 302: हत्या का दंड — मृत्यु दंड या आजीवन कारावास।
  • धारा 304: गैर-इरादतन हत्या।
  • धारा 325: गंभीर चोट पहुँचाना।
  • धारा 197 CrPC: सरकारी अधिकारियों को अभियोजन से पूर्व अनुमति की आवश्यकता।

यह मामला इस सिद्धांत को स्पष्ट करता है कि धारा 197 CrPC का संरक्षण तभी मिलता है जब कार्य “कर्तव्य निर्वहन” के दौरान किया गया हो।
यदि कोई पुलिसकर्मी अपने अधिकार का दुरुपयोग कर नागरिक की हत्या करता है, तो उसे कोई सुरक्षा नहीं दी जा सकती।


2. सुप्रीम कोर्ट के पूर्ववर्ती निर्णयों से तुलना

  • Prakash Singh v. Union of India (2006):
    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पुलिस सुधार आवश्यक हैं ताकि सत्ता का दुरुपयोग रोका जा सके।
  • State of Orissa v. Ganesh Chandra Jew (2004):
    अदालत ने कहा था कि यदि अधिकारी ने ऐसा कार्य किया जो कर्तव्य के बाहर है, तो उसे CrPC की धारा 197 का संरक्षण नहीं मिल सकता।
  • D.K. Basu v. State of West Bengal (1997):
    इस ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हिरासत में मौत (Custodial Death) मानवाधिकारों का सबसे गंभीर उल्लंघन है।

न्यायमूर्ति नाइक का फैसला इन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है और यह स्पष्ट करता है कि “पुलिस हिरासत में मृत्यु” को कभी भी सरकारी कर्तव्य का हिस्सा नहीं कहा जा सकता।


सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण

यह निर्णय केवल कानूनी दृष्टि से ही नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
भारत में हर वर्ष कई Custodial Deaths रिपोर्ट होती हैं — जिनमें से अधिकांश मामलों में न्याय नहीं मिल पाता।
अदालत का यह फैसला एक मजबूत संदेश देता है कि “कानून की रक्षा करने वाला व्यक्ति स्वयं कानून से ऊपर नहीं है।”


प्रभाव और निहितार्थ (Implications)

  1. पुलिस जवाबदेही (Accountability) में वृद्धि:
    इस फैसले के बाद पुलिसकर्मियों पर यह स्पष्ट जिम्मेदारी होगी कि वे अपनी सीमाओं का उल्लंघन न करें।
  2. हिरासत में अत्याचार के मामलों में सख्ती:
    अब इस प्रकार के मामलों में केवल “हल्की धारा” लगाकर बचना संभव नहीं होगा।
  3. मानवाधिकारों की रक्षा:
    यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) की भावना को मज़बूत करता है।
  4. न्याय व्यवस्था में जनता का विश्वास:
    जब अदालतें ऐसे मामलों में निष्पक्ष और कठोर रुख अपनाती हैं, तो आम जनता का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ता है।

निष्कर्ष

न्यायमूर्ति पी. डी. नाइक का यह फैसला भारतीय न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।
अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि “कर्तव्य निर्वहन” के नाम पर अत्याचार, हिंसा या हत्या को कोई वैधानिक या नैतिक औचित्य नहीं दिया जा सकता।

यह निर्णय न केवल पीड़ित के लिए न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम है, बल्कि यह सभी पुलिसकर्मियों को यह संदेश देता है कि कानून से ऊपर कोई नहीं।

“Law may give authority, but not impunity.”
कानून अधिकार देता है, परंतु उसे दुरुपयोग की छूट नहीं देता।