“समेकित न्याय सुनिश्चित करने के लिए अनिवार्यता: सेक्शन 138 एन.आई. एक्ट में संक्षिप्त मुकदमे को समन्याय मुकदमे में रूपांतरित करने से पूर्व ‘कॉगेंट रीज़न’ का अभिलेखन — सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि एवं व्यावहारिक चुनौतियाँ”
प्रस्तावना
वित्तीय जीवन में चेक एक भरोसेमंद माध्यम हैं, और चेक बाउंस ( dishonour ) की घटनाएँ व्यावसायिक एवं व्यक्तिगत लेनदेन में काफी विकराल स्थिति उत्पन्न करती हैं। ऐसी घटनाओं से निपटने हेतु भारत में Negotiable Instruments Act, 1881 (एन.आई. एक्ट) ने विशेष प्रावधान दिए हैं, जिनमें सेक्शन 138 (डिशनर ऑफ़ चेक) एक प्रमुख भूमिका निभाता है।
परंपरागत रूप से, क्रिमिनल प्रक्रिया संहिता (CrPC) की विभिन्न व्यवस्थाएँ लागू होती हैं, लेकिन 2002 में एन.आई. एक्ट में संशोधन द्वारा Sections 143–147 को शामिल किया गया ताकि सेक्शन 138 की शिकायतों को संक्षिप्त (summary) तरीके से त्वरित निपटान के दायरे में लाया जा सके। इस व्यवस्था का उद्देश्य है — मुकदमेबाज़ी को सरल करना, न्याय की शीघ्रता सुनिश्चित करना, और शिकायतकर्ता को अनावश्यक देरी से बचाना।
हालाँकि, अनुभव यह बताता है कि कई बार न्यायालय संक्षिप्त मुकदमे (summary trial) को बिना पर्याप्त कारणों के समन्याय मुकदमे (summons trial) में परिवर्तित कर देते हैं, जिससे प्रक्रिया लंबी, जटिल और न्याय की गति धीमी हो जाती है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि ऐसी परिवर्तन क्रिया करते समय न्यायालय को “कॉगेंट और पर्याप्त कारण” (cogent and sufficient reasons) रिकॉर्ड करने चाहिए।
इस लेख का उद्देश्य इस सिद्धांत के कानूनी आधार, सुप्रीम कोर्ट के प्रचलित निर्णयों एवं मार्गदर्शन, व्यवहार में आने वाली चुनौतियों और सुझावों का विवेचन करना है।
I. वैधानिक पृष्ठभूमि और संवर्धन
- एन.आई. एक्ट में संशोधन और संक्षिप्त प्रक्रिया
— 2002 में किए गए संशोधन (Negotiable Instruments (Amendment) Act, 2002) ने यह सुनिश्चित किया कि Sections 143–147 एन.आई. एक्ट में शामिल हों, ताकि चेक बाउंस मामलों को संक्षिप्त मुकदमे की प्रक्रिया के दायरे में लाया जा सके।
— विशेषतः, सेक्शन 143 (subsection (2) / उपप्रावधान) न्यायालय को यह विकल्प देता है कि यदि न्यायालय यह मानता है कि मामला संक्षिप्त मुकदमे योग्य नहीं है — जैसे कि दंड एक वर्ष से अधिक हो सकता है या अन्य कारण हो — तो इसे summons trial में परिवर्तित किया जाए, बशर्तु न्यायालय कारण लिखित रूप में रिकॉर्ड करे।
— इस संशोधन का मूल लक्ष्य था — तेजी से मुकदमेबाज़ी, कम संसाधन एवं न्यायपालिका पर बोझ को नियंत्रित करना। - Summaries और Summons मुकदमे के बीच अंतर एवं प्रभाव
— संक्षिप्त मुकदमा (Summary trial) में प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल होती है — साक्ष्यों का संक्षिप्त विवरण, संक्षिप्त फैसले देने की शैली, कम औपचारिकताएं। CrPC की धारा 262–265 संबंधित प्रावधानों को “as far as may be” लागू करने का प्रावधान है।
— यदि मामला summoning style trial में चला जाए, तो औपचारिक प्रक्रियाएँ अधिक होंगी — विस्तृत साक्ष्य, क्रॉस-परिक्षण, लंबी दलीलें आदि, जिससे निपटान देर से होगा।
— यदि उन मामलों में जो संक्षिप्त तरीके के लिए उपयुक्त थे, न्यायालय कारण नक़ल न लिखे और उत्तेजनापूर्ण परिवर्तन कर दें, तो मूल उद्देश्य — शीघ्र निपटान — प्रतिकूल हो जाता है।
इसलिए, विधायिका ने स्पष्ट किया है कि ऐसे परिवर्तन केवल “वाजिब परिस्थितियों” और इसके “लिखित कारण” के अधीन हों — इसे न्यायाधीश की विवेकाधीन शक्ति (discretion) कहा जाता है, लेकिन विवेकाधीनता का उपयोग सुचेत, न्यायसंगत और अभिलेखीय रूप से होना अनिवार्य है।
II. सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शन एवं निर्णय
- In Re: Expeditious Trial of Cases under Section 138 of N.I. Act (16 अप्रैल 2021)
यह मुकदमा एक सु-मोतो (suo motu) कार्यवाही थी, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने व्यापक दिशानिर्देश दिए कि चेक बाउंस मामलों का निपटान शीघ्रता से हो, और कई उपाय सुझाए।— न्यायालय ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि अनेक न्यायालय संक्षिप्त मुकदमे को summoning trial में “यांत्रिक रूप से” परिवर्तित कर देते हैं, बिना विचार और कारण दिए। यह प्रक्रिया न्यायसंगत नहीं और देरीकारक सिद्ध होती है।
— न्यायालय ने आदेश दिया कि उच्च न्यायालय (High Courts) अपने क्षेत्राधिकार में क्षम हों, और सभी मुद्देबाज़ न्यायालयों (Magistrates) हेतु practice directions जारी करें, जिसमें यह अनिवार्य किया जाए कि संक्षिप्त मुकदमे से summoning trial में रूपांतरण करते समय सुसंगत, कारणयुक्त और पर्याप्त लिखित कारण रिकॉर्ड किए जाएँ।
— इस निर्णय में यह स्पष्ट किया गया कि यदि यह रूपांतरण “यांत्रिक” या “आसान उपाय” के रूप में हो, तो यह अध्यादेश के उद्देश्य के विरुद्ध है।
— इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने कहा कि यदि न्यायालय इस प्रारंभिक स्तर पर संक्षिप्त मुकदमे की उपयुक्तता पर शक करता है, तो वह प्रारंभिक प्रश्नोत्तरी (under Section 251 CrPC) पूछ सकता है — जैसे: “क्या आप चेक को स्वीकार करते हैं?”, “क्या आपने ऑवर संप्रेषित किया?” आदि — और इन उत्तरों को ऑर्डर शीट में रिकॉर्ड करे और उसी आधार पर निर्णय ले कि मामला summary trial लायक है या summoning trial में जाना चाहिए।
— इस निर्णय से यह सिद्ध हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय पर स्पष्ट दृष्टिकोण संवर्धित किया है कि “कारणों का अभिलेखन” कोई औपचारिकता नहीं, बल्कि आवश्यक जस्टिफिकेशन है। - अन्य उच्च न्यायालयों एवं क्षेत्रीय प्रथाएँ
— उदाहरण स्वरूप, छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने अपने practice directions में कहा है कि मागिस्ट्रेट को संक्षिप्त मुकदमे से summoning trial में रूपांतरण करते समय यंत्रवत् नहीं बल्कि वैचारिक और कारणयुक्त निर्णय लेना चाहिए और “due care and caution” अपनानी चाहिए।
— SCOnline ब्लॉग ने विश्लेषित किया है कि यह दिशा सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा और निर्देश के अनुरूप है।
— नवीनतम सुप्रीम कोर्ट दिशानिर्देशों में भी यह पुनरावृत्त किया गया है कि “Trial Courts shall record cogent and sufficient reasons before converting summary trial to summons trial.” - नवीनतम सुप्रीम कोर्ट दिशा (2025 Guidelines)
वर्ष 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने चेक बाउंस मामलों की पेंडिंगता को देखते हुए व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए। उन निर्देशों में निम्नलिखित बिंदु उल्लेखनीय हैं:— सभी ट्रायल कोर्ट्स को संक्षिप्त मुकदमे से summoning trial में रूपांतरण करते समय cogent और sufficient reasons रिकॉर्ड करने का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
— इसके साथ ही, और अधिक पारदर्शिता एवं जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए उत्तर प्रश्नोत्तरी और अभिलेखीय जवाब ऑर्डर शीट पर रिकॉर्ड करने का प्रावधान किया गया है।
— इस दिशा को “Expeditious Trial of cases under Section 138 of NI Act, In re, (2021)” के निर्देश की पुनरावृत्ति कहा गया है।
— अन्य दिशा-निर्देशों जैसे नए प्रारूप की synopsis, इलेक्ट्रॉनिक सेवा, ऑनलाइन भुगतान लिंक आदि के साथ यह भी सुनिश्चित किया गया कि न्यायालय इस प्रक्रिया में यथोचित कारण दिए बिना summoning trial की ओर न मुड़ें।
इस नवीनतम दिशानिर्देश प्रणाली ने न्यायालयों पर यह बाध्यता और अपेक्षा दोनों ही ठहराई है कि summoning conversion को केवल “अपवाद स्थिति” में स्वीकार करें और उस पर विस्तृत अभिलेखन करें।
III. “कॉगेंट एवं पर्याप्त कारण” — विशेष और सामान्य विचार
“Cogent and sufficient reasons” को न्यायशास्त्रीय दृष्टि से समझना आवश्यक है, क्योंकि यह केवल शब्दशः निर्देश नहीं, बल्कि न्याय की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने वाला टूल है।
- “Cogent” (सुस्पष्ट/प्रवृत्तिपूर्ण) कारण का अर्थ
— यह कारण सिर्फ वाक्यांश या सामान्य आशय नहीं होना चाहिए; बल्कि तर्कपूर्ण, प्रत्यास्थ, विशिष्ट घटना-आधारित और साक्ष्य आधारित होना चाहिए।
— न्यायालय को यह दिखाना चाहिए कि क्यों यह मामला संक्षिप्त मुकदमे के दायरे में नहीं रह सकता — उदाहरण स्वरूप, साक्ष्यों की जटिलता, गवाहों की संख्या, विवादित प्रमाणीकरण या दस्तावेज़ विवाद, प्रतिपक्षी कथन आदि।
— यदि कारण अस्पष्ट हों, न्यायालय से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि किसी उच्च न्यायालय या अपीलीय प्राधिकरण द्वारा उसकी समीक्षा आसान हो सके। - “Sufficient” (पर्याप्त) कारण का अर्थ
— कारण ऐसे हों कि अन्य न्यायाधीश भी यह समझ सकें कि इस परिवर्तन के पीछे गंभीर और तर्कसंगत समस्या थी — अर्थात् यह न्यूनतम अपेक्षित अभिलेखन हो।
— केवल “मुकदमा लंबा होगा” या “साक्ष्य बहुत हैं” जैसे सामान्यिकरण पर्याप्त नहीं। कारणों को विवरण, तुलना, प्रमाण सामग्री आदि से जोड़ना चाहिए।
— यदि अभिलेख में कारण बहुत संक्षिप्त या टालमटोल में हों, तो उच्च न्यायालय मजबूर होगा कि वह आदेश को खारिज करे या पुनरावलोकन करे। - अन्य निर्देशात्मक उपाय
— उत्तर प्रश्न पूछने (under Section 251 CrPC) और उस पर अभिलेखण करना — यह एक शुरुआती कदम हो सकता है, ताकि मामले की जटिलता या विवादों का स्पष्ट अनुमान हो सके।
— यदि उत्तरों से स्पष्ट हो जाए कि विवाद बहुत तुच्छ है (उदाहरण स्वरूप, केवल हस्ताक्षर विवाद, या रक्षा स्वीकार करती हो), तो मामला संक्षिप्त विधि में रखा जा सकता है।
— न्यायालय को यह भी देखना चाहिए कि क्या पक्षकारों ने मध्यस्थता / समझौता की संभावना अभी तक तलाशा हो — यदि हाँ, तो summoning trial की अपेक्षा करने में विवेक का इस्तेमाल हो।
— अभिलेख कारणों को ऑर्डर शीट या विस्तृत स्पष्टीकरण सहित रिकॉर्ड करना — ताकि आदेश को पुनरावलोकन करना संभव हो।
IV. व्यवहारिक चुनौतियाँ एवं आलोचनाएँ
- न्यायालयों की कार्यभार एवं समय की बाध्यता
— बहुत से मजिस्ट्रेट और न्यायालय संक्षिप्त मुकदमे से summoning trial में स्वचालित या सहज परिवर्तन करते हैं, ताकि जटिल विवेचना से बचा जाए।
— अभिलेख कारणों का समय लेने वाला कार्य है, विशेषकर यदि न्यायालय बहुत अधिक प्रकरणों से जूझ रहा हो। - अनुभवहीन मजिस्ट्रेट / अपर्याप्त प्रशिक्षण
— सभी मजिस्ट्रेटों को यह पता न हो कि “कॉगेंट कारण” किस रूप में दिए जाएँ — इनका अभिलेखन कैसे हो, किस प्रकार की तुलना हो — इस विषय पर प्रशिक्षण आवश्यक है।
— दिशानिर्देश उपलब्ध हों, लेकिन उनका अनुपालन विविध हो सकता है। - उच्च न्यायालयों का विवेकाधीन समीक्षा दबाव
— यदि कारण लिखित होते ही हों, तो उच्च न्यायालयों को पुनरावलोकन करना आसान हो जाता है, और अधीनस्थ न्यायालयों पर समीक्षा का दबाव बढ़ जाता है।
— इससे आनंदोत्तरीयता (judicial micromanagement) या ओवरप्रयास की संभावना हो सकती है। - पक्षकारों का विवाद एवं आपत्ति
— पक्षों द्वारा कारण अभिलेखन की आपत्ति किया जा सकता है — जैसे, कारण अपर्याप्त होना, अस्पष्ट होना, पक्षपाती होना आदि।
— यदि कारण सही तरह से न लिखे हों, तो दोषी पक्ष (accused) द्वारा उच्च न्यायालय में अवमान्यकरण (quash) की याचिका दायर हो सकती है। - लचीलापन एवं विवेकाधीनता का संतुलन
— अगर अधिक कठोरता हो जाए कि हर परिवर्तन पर भारी अभिलेखण हो, तो न्यायालयों की कार्यप्रणाली प्रभावित हो सकती है।
— अतः, निर्देशों को लचीलापन देना आवश्यक है कि न्यायालय परिस्थितियों को भी ध्यान में रख सके।
V. सुझाव एवं सम्यक् अनुपालन हेतु रोड़मैप
- मध्यस्थता प्रयास पहले
— अदालत को ये देखना चाहिए कि क्या प्रारंभिक स्तर पर पक्षों को समाधान हेतु प्रेरित किया गया हो। यदि पक्ष संकल्प करना चाहें, तो summoning trial की अपेक्षा न करें। - प्रारंभिक प्रश्नोत्तरी पर जोर
— पहले स्तर पर स्पष्ट, सीमित प्रश्न पूछना — जैसे कि चेक, हस्ताक्षर, देयता स्वीकारना आदि — और पक्षों के उत्तर रिकॉर्ड करना। यदि उत्तर स्पष्ट हों, तो summoning न जाए। - निर्धारित प्रारूप (Template) कारण कारण अभिलेखन हेतु
— प्रत्येक न्यायालय / हाई कोर्ट अपने दिशा-निर्देश में एक standard template कारण लेखन का प्रारूप दें — जैसे, “विवरण कारण, साक्ष्य विवाद, गवाहों की संख्या, दस्तावेज विवाद आदि” — जिससे अभिलेखन व्यवस्थित हो सके। - अभिलेखन ऑर्डर शीट एवं विस्तृत आदेश
— कारण सिर्फ संक्षिप्त वाक्य नहीं, बल्कि विस्तृत स्पष्टीकरण हो; ऑर्डर शीट पर इसे अंकित करें ताकि उच्च न्यायालय समीक्षा कर सके। - न्यायाधीशों एवं मजिस्ट्रेटों का प्रशिक्षण
— उच्च न्यायालयों और राज्य विधायन मंडल द्वारा आवश्यक प्रशिक्षण सत्र आयोजित हों, ताकि कम स्तर पर न्यायाधीश समझें कि कैसे “कॉगेंट कारण” तैयार किए जाएँ। - प्रमाण अधाराधारित दृष्टिकोण अपनाना
— कारणों को मात्र अनुमान या संक्षिप्त कथन न रखें, बल्कि दस्तावेज़, गवाह प्रस्तावना या विरोधी तर्क आदि से जोड़ें। - निगरानी एवं प्रतिवेदन तंत्र
— प्रत्येक जिला / मजिस्ट्रेट स्तर पर यह रिपोर्ट हो कि कितने मामलों में summoning conversion हुए, उनमे कारण अभिलेखण हुए या नहीं, उनकी समीक्षा की जाए।
— उच्च न्यायालयें समय-समय पर ऐसे मामलों की समीक्षा करें और दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित करें।
VI. निष्कर्ष
चाहे आलोचनाएँ हों या व्यवहारिक चुनौतियाँ — लेकिन यह तथ्य अपरिहार्य है कि summoning trial में रूपांतरित करना न्यायालय का विवेकाधीन अधिकार है, न कि स्वचालित या त्वरित उपाय। इस विवेकाधीनता का संतुलन पक्षपातरहितता, न्यायसंगत कारण और अभिलेखीय पारदर्शिता के मूल्यों पर निर्भर करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट दिशा दी है — “Trial Courts shall record cogent and sufficient reasons before converting summary trial to summons trial.” यह न केवल विधिनिरूपण है, बल्कि न्याय की गुणवत्ता और जवाबदेही सुनिश्चित करने का माध्यम है।
यदि कोई न्यायालय बिना कारण परिवर्तन करता है, तो वह न केवल प्रक्रिया के उद्देश्य के विरुद्ध जाता है, बल्कि पक्षों को अनावश्यक अपील, विलंब और न्यायसंगत विश्वास की क्षति होती है।
अतः, न्यायालयों को यह स्तर अपनाना चाहिए कि summoning conversion पहले विकल्प न हो — बल्कि संक्षिप्त मुकदमे की प्रयोज्यता का गंभीर परीक्षण, प्रारंभिक प्रश्नोत्तरी, और लिखित कारण का पर्याप्त अभिलेखन हो — तभी न्याय व्यवस्था की गति और विश्वसनीयता दोनों कायम रह सकती है।