सुप्रीम कोर्ट ने खांसी की दवा से बच्चों की मौतों की जांच के लिए CBI जांच की मांग वाली PIL खारिज की — कहा, ‘न्यायपालिका का कार्य नहीं, नियामक और स्वास्थ्य संस्थाओं का क्षेत्र’
भूमिका : न्यायपालिका और स्वास्थ्य सुरक्षा का संतुलन
हाल ही में भारत में बच्चों की मौतों से जुड़े मामलों ने सामाजिक और राजनीतिक हलचल पैदा की। विशेष रूप से खांसी की दवाओं (Cough Syrups) के कारण बच्चों की जान जाने के कुछ मामले सामने आए। इस पर चिंता जताते हुए एक नागरिक ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका (PIL) दायर की, जिसमें अनुरोध किया गया कि CBI (Central Bureau of Investigation) इस मामले में स्वतंत्र जांच करे।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को सुनने से स्पष्ट इनकार कर दिया। अदालत ने कहा कि यह मामला न्यायिक हस्तक्षेप के बजाय नियामक और स्वास्थ्य प्राधिकरणों के अधिकार क्षेत्र का है, और ऐसे मामलों में सिविल और प्रशासनिक संस्थाएँ ही सक्षम हैं।
यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के संतुलित दृष्टिकोण को दर्शाता है, जहाँ वह संवेदनशील मामलों में केवल तभी हस्तक्षेप करती है जब यह संविधानिक या मौलिक अधिकारों से जुड़ा हो।
मामले की पृष्ठभूमि
कुछ महीनों पहले उत्तर प्रदेश और पंजाब में कई बच्चों की मौत की घटनाएं हुईं, जिनके प्रारंभिक रिपोर्ट्स में खांसी की दवाओं के सेवन को जिम्मेदार माना गया।
मृतकों के परिवारों ने आरोप लगाया कि:
- दवाओं में प्रदूषित या मिलावट वाली सामग्री थी।
- सरकार और स्वास्थ्य विभाग ने समय रहते दवाओं की जांच या Recall नहीं किया।
- प्रशासनिक लापरवाही के कारण बच्चों की जान गई।
इन घटनाओं के बाद एक सामाजिक कार्यकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि यह CBI द्वारा स्वतंत्र जांच का विषय होना चाहिए ताकि जिम्मेदारों को सजा मिल सके और भविष्य में बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित हो।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिकाकर्ता ने अदालत में कहा कि:
- खांसी की दवाओं से बच्चों की मौतें “सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट” का संकेत हैं।
- स्वास्थ्य विभाग और राज्य सरकार द्वारा कार्रवाई में देरी हुई है।
- CBI जांच से केवल दोषियों को सजा नहीं मिलेगी, बल्कि भविष्य में दवाओं की गुणवत्ता और निगरानी में सुधार होगा।
- न्यायपालिका का हस्तक्षेप आवश्यक है क्योंकि यह नवजात और छोटे बच्चों के जीवन का मामला है।
सुप्रीम कोर्ट का रुख
सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें मुख्य न्यायाधीश (CJI) और दो अन्य न्यायाधीश शामिल थे, ने याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा:
“यह मामला न्यायपालिका का हस्तक्षेप मांगने वाला नहीं है। ऐसी स्वास्थ्य और दवा सुरक्षा के मामलों में DCGI (Drug Controller General of India) और राज्य स्वास्थ्य विभाग पहले से ही सक्षम संस्थाएं हैं।”
अदालत ने यह स्पष्ट किया कि CBI जांच तभी होगी जब स्पष्ट आपराधिक साक्ष्य हो और राज्य या केन्द्र सरकार की जांच में किसी प्रकार की अनियमितता या लापरवाही साबित हो।
न्यायालय का प्रमुख अवलोकन
- नियामक संस्थाओं का क्षेत्र: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि DCGI, FSSAI, Health Ministry और State Drug Controllers को दवाओं की गुणवत्ता जांचने और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है।
- जनहित याचिका का दुरुपयोग रोकना: अदालत ने यह चेतावनी दी कि PIL का उद्देश्य केवल न्यायालय में प्रशासनिक कार्रवाई की जगह लेना नहीं होना चाहिए।
- CBI जांच का आधार: CBI केवल तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब आपराधिक तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद हों, जैसे जानबूझकर मिलावट, हत्या का इरादा, या भ्रष्टाचार।
न्यायालय ने कहा कि यदि याचिकाकर्ता के पास प्रमाण आधारित शिकायत है, तो वह उसे सीधे Health Ministry, DCGI या राज्य सरकार को प्रस्तुत कर सकता है।
स्वास्थ्य मंत्रालय और नियामक संस्थाओं की भूमिका
स्वास्थ्य मंत्रालय और DCGI ने पहले ही कुछ खांसी की दवाओं को Market से हटाने (Recall) के आदेश दिए थे।
मुख्य बिंदु:
- दवाओं की Lab Testing की प्रक्रिया शुरू की गई।
- दोषी कंपनियों के खिलाफ Legal Notices और Penalties लगाई गई।
- राज्य स्तर पर भी Drug Inspectors ने जांच अभियान चलाया।
सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि नियामक संस्थाओं का उपाय पर्याप्त और सक्षम है, इसलिए सीधे CBI जांच की आवश्यकता नहीं है।
पूर्ववर्ती न्यायिक निर्णयों का संदर्भ
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में पिछले निर्णयों का हवाला दिया, जहाँ CBI हस्तक्षेप केवल तब हुआ जब:
- राज्य या केन्द्र सरकार द्वारा जाँच में गंभीर लापरवाही।
- मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो।
- गंभीर आपराधिक षड्यंत्र के स्पष्ट प्रमाण हों।
जैसे:
- State of UP v. Rajesh Gupta (2019) – CBI जांच तब आदेशित की गई जब राज्य की जांच में पक्षपात और नाकामी साबित हुई।
- People’s Union for Civil Liberties v. Union of India (2004) – जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायालय केवल तभी हस्तक्षेप करेगा जब सार्वजनिक हित का प्रश्न संवैधानिक स्तर का हो।
इस प्रकार, बच्चों की खांसी की दवा से मौतों का मामला नियामक संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र में आता है, न कि न्यायालय के।
न्यायपालिका की चेतावनी और संतुलन
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:
“न्यायपालिका हर संकट में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। हमारे पास ऐसे विशेषज्ञ नहीं हैं जो दवा उद्योग की तकनीकी जाँच कर सकें। हमारी भूमिका केवल तब है जब सार्वजनिक हित और संविधानिक अधिकारों का उल्लंघन हो।”
साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि PIL दायर करते समय दुरुपयोग और अनावश्यक मीडिया हाइप से बचना चाहिए, क्योंकि इससे न केवल कानूनी संसाधनों का अपव्यय होता है, बल्कि समाज में भ्रम भी फैलता है।
विश्लेषण : न्यायपालिका और स्वास्थ्य संस्थाओं के बीच संतुलन
यह फैसला इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि:
- न्यायपालिका का कार्य सीमित: सुप्रीम कोर्ट सीधे CBI जांच आदेश नहीं दे सकती जब तक कोई आपराधिक साक्ष्य मौजूद न हो।
- नियामक संस्थाओं की भूमिका सर्वोपरि: DCGI, राज्य ड्रग कंट्रोलर्स और स्वास्थ्य मंत्रालय को सार्वजनिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए व्यापक अधिकार प्राप्त हैं।
- जनहित याचिका का उद्देश्य: PIL का उद्देश्य केवल सार्वजनिक हित की रक्षा होना चाहिए, न कि नियामक संस्थाओं की जगह न्यायपालिका का मंच बनाना।
सार्वजनिक स्वास्थ्य और कानूनी सुरक्षा
बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि न्यायपालिका की सीमाओं का उल्लंघन न हो।
निर्णय से स्पष्ट हुआ कि:
- दवाओं की जांच और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई नियामक संस्थाओं द्वारा पर्याप्त रूप से की जा रही है।
- CBI हस्तक्षेप केवल तब आवश्यक होगा जब नियामक संस्थाओं की कार्रवाई में स्पष्ट विफलता हो।
इस प्रकार अदालत ने न्यायपालिका और प्रशासनिक संस्थाओं के बीच संतुलन बनाए रखा।
निष्कर्ष : न्यायपालिका का संदेश
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दर्शाता है कि:
- जनहित याचिकाएँ केवल संवैधानिक और मौलिक अधिकारों से जुड़े मामलों में प्रभावी।
- नियामक संस्थाओं का क्षेत्र सम्मानित होना चाहिए।
- बच्चों की सुरक्षा के लिए उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन न्यायपालिका हर तकनीकी जाँच में हस्तक्षेप नहीं करेगी।
अदालत ने अंत में यह स्पष्ट किया कि न्यायपालिका केवल तभी हस्तक्षेप करेगी जब सार्वजनिक हित का प्रश्न संवैधानिक स्तर का हो, अन्यथा विशेषज्ञ संस्थाओं के माध्यम से कार्य होना चाहिए।
संदेश स्पष्ट है: न्यायपालिका और नियामक संस्थाएँ अलग-अलग, परंतु पूरक हैं।