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🩺 “निजी अस्पताल मरीजों को एटीएम की तरह कर रहे इस्तेमाल”: इलाहाबाद हाईकोर्ट

🩺 “निजी अस्पताल मरीजों को एटीएम की तरह कर रहे इस्तेमाल”: इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी और भ्रूण मृत्यु मामले में डॉक्टर को राहत से इनकार — एक विस्तृत कानूनी विश्लेषण


🔹 प्रस्तावना

भारत में चिकित्सा पेशा एक पवित्र सेवा के रूप में देखा जाता है, जहाँ डॉक्टर को “जीवित भगवान” का दर्जा दिया गया है। लेकिन हाल के वर्षों में निजी अस्पतालों के व्यावसायीकरण और लाभ के अंधी दौड़ में मरीजों के अधिकारों की अनदेखी बढ़ती जा रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिया गया ताज़ा निर्णय — जिसमें कहा गया कि “निजी अस्पताल मरीजों को एटीएम की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं” — इस गिरावट की कठोर आलोचना करता है। यह मामला न केवल चिकित्सा लापरवाही (Medical Negligence) से संबंधित है, बल्कि समाज में स्वास्थ्य सेवाओं की गिरती नैतिकता का भी दर्पण प्रस्तुत करता है।


🔹 मामला : डॉ. अशोक कुमार राय बनाम राज्य (देवरिया मामला, 2007)

यह मामला वर्ष 2007 में दर्ज हुआ था, जब देवरिया निवासी डॉ. अशोक कुमार राय के खिलाफ एक गर्भवती महिला के भ्रूण की मृत्यु के संबंध में एफआईआर दर्ज की गई थी। शिकायतकर्ता के अनुसार, उसके छोटे भाई की पत्नी को आरोपी डॉक्टर के नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया था।

परिजनों ने सुबह 11 बजे सिजेरियन सर्जरी (C-section) के लिए सहमति दी थी, लेकिन सर्जरी शाम 5:30 बजे की गई। इस देरी के कारण भ्रूण की मृत्यु हो गई। जब परिजनों ने विरोध किया, तो अस्पताल कर्मचारियों ने उनकी पिटाई की और ₹10,000 अतिरिक्त राशि की मांग की। पैसे न देने पर डिस्चार्ज स्लिप देने से भी इनकार कर दिया गया।


🔹 डॉक्टर की दलील और हाईकोर्ट में याचिका

डॉ. राय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसमें उन्होंने ट्रायल कोर्ट द्वारा जारी समन आदेश और मुकदमे की पूरी कार्यवाही को रद्द करने की मांग की। उनका तर्क था कि उनके खिलाफ मामला झूठा और दुर्भावनापूर्ण है, तथा मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट उन्हें दोषमुक्त करती है।


🔹 हाईकोर्ट का निरीक्षण और निष्कर्ष

न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की एकल पीठ ने पूरे मामले की विस्तार से समीक्षा की। कोर्ट ने पाया कि —

  • पोस्टमार्टम रिपोर्ट,
  • ऑपरेशन थिएटर नोट,
  • तथा अन्य आवश्यक दस्तावेज मेडिकल बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत ही नहीं किए गए थे।

अतः मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट को अपूर्ण और अविश्वसनीय माना गया।

कोर्ट ने यह भी पाया कि ऑपरेशन के लिए परिजनों की सहमति सुबह 11 बजे ली गई थी, जबकि एनेस्थेटिस्ट को 3:30 बजे बुलाया गया। यह समय-अंतराल यह दर्शाता है कि अस्पताल में आवश्यक संसाधनों और आपात चिकित्सा सुविधाओं का अभाव था।


🔹 अदालत की कठोर टिप्पणी : “मरीजों को एटीएम की तरह इस्तेमाल”

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा —

“आजकल अधिकांश निजी अस्पतालों ने चिकित्सा सेवा को व्यवसाय बना दिया है। वे मरीजों को एटीएम की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक और निंदनीय है।”

यह टिप्पणी न केवल इस मामले तक सीमित है, बल्कि पूरे देश में बढ़ती निजी चिकित्सा संस्थाओं की मुनाफाखोरी पर करारा प्रहार है।


🔹 मेडिकल नेग्लिजेंस (चिकित्सीय लापरवाही) का कानूनी सिद्धांत

भारतीय न्यायालयों ने कई बार यह स्पष्ट किया है कि डॉक्टर की लापरवाही को आपराधिक दायित्व में लाने के लिए “gross negligence” या “reckless disregard for patient’s life” होना आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट ने Jacob Mathew v. State of Punjab (2005) में कहा था कि —

“हर चिकित्सा त्रुटि को आपराधिक लापरवाही नहीं कहा जा सकता, परंतु जब डॉक्टर बुनियादी सावधानी और तत्परता बरतने में असफल होता है, तब यह आपराधिक लापरवाही की श्रेणी में आता है।”

इस मामले में डॉक्टर ने तत्काल सर्जरी न करके अनावश्यक विलंब किया, जिससे भ्रूण की मृत्यु हो गई — यह gross negligence का उदाहरण माना गया।


🔹 पोस्टमार्टम रिपोर्ट और न्यायिक विश्लेषण

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भ्रूण की मृत्यु का कारण “लंबे समय तक प्रसव पीड़ा (prolonged labour pain)” बताया गया। कोर्ट ने कहा कि यदि सिजेरियन ऑपरेशन समय पर किया जाता, तो भ्रूण को बचाया जा सकता था। अतः देरी सीधे-सीधे डॉक्टर की लापरवाही को दर्शाती है।


🔹 ट्रायल कोर्ट में कार्यवाही जारी रखने का निर्देश

हाईकोर्ट ने डॉक्टर को राहत देने से इनकार करते हुए कहा कि —

“इस स्तर पर कार्यवाही रद्द करने का कोई औचित्य नहीं है। आरोप गंभीर हैं और इनके परीक्षण के लिए साक्ष्य आवश्यक है।”

अतः कोर्ट ने ट्रायल जारी रखने का आदेश दिया।


🔹 स्वास्थ्य सेवाओं के व्यावसायीकरण पर न्यायालय की चिंता

न्यायालय ने यह भी कहा कि वर्तमान समय में निजी अस्पताल मरीजों से अनावश्यक जांच, महंगे उपचार और जबरन शुल्क वसूलने का माध्यम बन गए हैं।

“जब तक चिकित्सा को सेवा न माना जाएगा, तब तक समाज में डॉक्टर और मरीज का विश्वास नहीं बन सकेगा। चिकित्सा संस्थानों को यह याद रखना चाहिए कि उनका पहला दायित्व मानव जीवन की रक्षा है, न कि लाभ अर्जन।”


🔹 सामाजिक प्रभाव और जनमानस की प्रतिक्रिया

इस निर्णय ने आम नागरिकों में यह आशा जगाई है कि न्यायपालिका मरीजों के अधिकारों की रक्षा के लिए सजग है। सोशल मीडिया पर भी इस फैसले की व्यापक चर्चा हुई। कई सामाजिक संगठनों ने इसे “जनहित में ऐतिहासिक टिप्पणी” बताया।


🔹 कानूनी दृष्टिकोण : चिकित्सा संस्थानों की जवाबदेही

भारत में चिकित्सा संस्थानों पर निगरानी रखने के लिए कई कानून और प्रावधान हैं, जैसे —

  • Consumer Protection Act, 2019 — मरीजों को उपभोक्ता के रूप में अधिकार देता है।
  • Indian Medical Council (Professional Conduct, Etiquette and Ethics) Regulations, 2002 — चिकित्सकीय नैतिकता का ढांचा तय करता है।
  • Clinical Establishments Act, 2010 — अस्पतालों के पंजीकरण और गुणवत्ता नियंत्रण का प्रावधान करता है।

हाईकोर्ट के इस निर्णय से इन कानूनों के प्रभावी अनुपालन की आवश्यकता दोहराई गई है।


🔹 निष्कर्ष

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय केवल एक डॉक्टर या अस्पताल के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरे स्वास्थ्य तंत्र के लिए चेतावनी है। न्यायालय ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि चिकित्सा सेवा को व्यापार नहीं, बल्कि मानवता की सेवा माना जाना चाहिए।

डॉक्टरों की नैतिक और कानूनी जिम्मेदारी है कि वे हर मरीज के जीवन की रक्षा के लिए तत्पर रहें।
यदि अस्पताल मरीजों को “एटीएम” की तरह इस्तेमाल करते रहेंगे, तो न्यायालय की ऐसी कठोर टिप्पणियाँ भविष्य में और अधिक देखने को मिलेंगी।


🔸 निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि —
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय न केवल न्याय की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह चिकित्सा पेशे को आत्ममंथन करने का अवसर भी देता है। समाज तभी सुरक्षित रहेगा जब चिकित्सा संस्थान लाभ के बजाय मानव जीवन की गरिमा को प्राथमिकता देंगे।