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“न्यायालय कानून का निर्णय देते हैं, परंतु मध्यस्थता मनुष्यता का समाधान करती है: न्याय से परे स्थायी समाधान का मार्ग”

“न्यायालय कानून का निर्णय देते हैं, परंतु मध्यस्थता मनुष्यता का समाधान करती है: न्याय से परे स्थायी समाधान का मार्ग”


प्रस्तावना

कानून का मूल उद्देश्य न्याय प्रदान करना है, परंतु न्याय हमेशा केवल निर्णय (judgment) में निहित नहीं होता। अनेक बार न्यायालय के आदेश कानूनी विवाद को समाप्त कर देते हैं, लेकिन मानव संबंधों में उपजा संघर्ष (human conflict) फिर भी बना रहता है।
यहीं पर मध्यस्थता (Mediation) एक ऐसा विकल्प प्रस्तुत करती है, जो न केवल विवाद का निपटारा करती है, बल्कि मनुष्यता, सहानुभूति और आपसी सम्मान के आधार पर स्थायी समाधान (enduring solution) भी देती है।

आधुनिक समय में जब अदालतें मुकदमों के बोझ से दबी हैं, तब मध्यस्थता न्याय की उस विस्तृत अवधारणा को सामने लाती है जो “जीत या हार” से परे जाकर सहमति, संतोष और समझौते के माध्यम से सामाजिक न्याय की स्थापना करती है।


न्यायालय की सीमाएँ: निर्णय बनाम समाधान

न्यायालयों का कार्य कानून की व्याख्या कर तथ्यों के आधार पर निर्णय देना है। वे यह तय करते हैं कि कौन सही है और कौन गलत। परंतु मानव जीवन के अधिकांश विवाद केवल “सही या गलत” तक सीमित नहीं होते — वे भावनाओं, रिश्तों, अहंकार, और विश्वास से जुड़े होते हैं।

उदाहरण के लिए, एक पारिवारिक संपत्ति विवाद में अदालत किसी एक पक्ष को विजेता घोषित कर सकती है, लेकिन रिश्तों में जो दरार पड़ती है, वह निर्णय के बाद भी नहीं भरती।
इसी प्रकार, किसी व्यापारिक विवाद में कोर्ट का निर्णय अनुबंध की शर्तों के अनुसार हो सकता है, परंतु वर्षों पुराना विश्वास और साझेदारी टूट जाती है।

अतः न्यायालय निर्णय तो देता है, परंतु वह मनुष्य के हृदय में छिपे असली संघर्ष (inner conflict) का समाधान नहीं कर पाता। वहीं, मध्यस्थता का लक्ष्य इन संबंधों की मरम्मत करना होता है — न कि केवल विवाद का अंत करना।


मध्यस्थता की अवधारणा (Concept of Mediation)

मध्यस्थता एक वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली (Alternative Dispute Resolution – ADR) है, जिसमें एक निष्पक्ष मध्यस्थ (neutral mediator) दोनों पक्षों के बीच संवाद की प्रक्रिया को सुगम बनाता है।
इसका उद्देश्य यह नहीं कि किसी एक पक्ष को विजेता बनाया जाए, बल्कि यह कि दोनों पक्षों की आवश्यकताओं, भावनाओं और चिंताओं को समझकर आपसी सहमति से समाधान निकाला जाए।

मध्यस्थता का मूल आधार है —

“समझ जीत से बड़ी है, और सहमति अदालत के आदेश से अधिक स्थायी होती है।”

मध्यस्थ कोई निर्णय नहीं देता; वह केवल संवाद का वातावरण तैयार करता है। समाधान स्वयं पक्षों द्वारा तैयार किया जाता है, जिससे उसमें स्वीकृति (acceptance) और स्थायित्व (durability) दोनों रहते हैं।


मध्यस्थता बनाम मुकदमेबाजी (Mediation vs. Litigation)

बिंदु मुकदमेबाजी (Litigation) मध्यस्थता (Mediation)
प्रक्रिया की प्रकृति विरोधात्मक (Adversarial) सहयोगात्मक (Collaborative)
परिणाम विजेता और पराजित (Win-Lose) दोनों पक्ष संतुष्ट (Win-Win)
निर्णय कौन देता है न्यायाधीश पक्ष स्वयं (self-determined)
समय और खर्च लंबा और महंगा त्वरित और सस्ता
भावनात्मक प्रभाव तनाव, कड़वाहट समझ, संवाद, सम्मान
गोपनीयता सार्वजनिक कार्यवाही पूर्ण गोपनीयता
स्थायित्व अस्थायी या विवादास्पद दीर्घकालिक और स्वीकृत समाधान

मध्यस्थता इस बात पर केंद्रित रहती है कि भविष्य में रिश्ते कैसे बनाए जाएँ, जबकि अदालतें केवल इस बात पर निर्णय देती हैं कि अतीत में कौन सही था


न्याय का मानवीय विस्तार: Beyond Legalism

जब हम “न्याय” कहते हैं, तो उसका एक कानूनी पक्ष (legal justice) होता है, परंतु उसका एक मानवीय पक्ष (human justice) भी है।
कानूनी न्याय यह तय करता है कि किसने कानून तोड़ा;
मानवीय न्याय यह समझता है कि ऐसा क्यों हुआ और कैसे उसे सुधारा जा सकता है।

मध्यस्थता न्याय के इस मानवीय पक्ष को सामने लाती है।
यह कहती है कि हर विवाद के पीछे केवल कानून नहीं, बल्कि एक कहानी होती है —
कभी किसी की भावनाएँ आहत होती हैं, कभी किसी का विश्वास टूटा होता है, और कभी अहंकार संवाद को रोक देता है।
मध्यस्थता उस संवाद को पुनर्जीवित करती है और संघर्ष को समझदारी में बदल देती है।


मध्यस्थता की प्रक्रिया (Process of Mediation)

  1. प्रारंभिक चरण (Initiation Stage):
    पक्ष आपसी सहमति से मध्यस्थता में जाने का निर्णय लेते हैं।
  2. मध्यस्थ का चयन:
    एक निष्पक्ष और प्रशिक्षित मध्यस्थ चुना जाता है, जो दोनों पक्षों को समान रूप से सुने।
  3. संवाद और कथन (Opening Statements):
    दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात खुलकर रखते हैं, बिना किसी बाधा के।
  4. विचार-विमर्श (Negotiation and Discussion):
    मध्यस्थ उन मुद्दों की पहचान करता है जिन पर सहमति बन सकती है।
  5. समझौता (Settlement Agreement):
    दोनों पक्षों की सहमति से तैयार समाधान को लिखित रूप में दर्ज किया जाता है।
  6. कार्यान्वयन (Implementation):
    यदि दोनों पक्ष सहमत हों, तो समझौते को अदालत द्वारा विधिक रूप से लागू (legally enforceable) किया जा सकता है।

भारत में मध्यस्थता का कानूनी ढांचा

भारत में मध्यस्थता को बढ़ावा देने के लिए कई विधायी कदम उठाए गए हैं:

  1. Arbitration and Conciliation Act, 1996 – जिसमें Conciliation और Mediation के सिद्धांत शामिल हैं।
  2. Section 89, Code of Civil Procedure, 1908 – न्यायालयों को प्रोत्साहित करता है कि जहाँ संभव हो, मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा जाए।
  3. Mediation Bill, 2023 (अब अधिनियम) – भारत में मध्यस्थता को एक संस्थागत और वैधानिक प्रणाली बनाने का उद्देश्य रखता है।

इन प्रावधानों के तहत मध्यस्थता को न्याय प्रणाली का अभिन्न अंग (integral part of justice system) माना जा रहा है।


मध्यस्थता के लाभ (Advantages of Mediation)

  1. त्वरित न्याय (Speedy Justice):
    वर्षों चलने वाले मुकदमों की तुलना में मध्यस्थता कुछ ही बैठकों में परिणाम देती है।
  2. कम खर्चीली प्रक्रिया:
    कोर्ट फीस, वकील फीस और अन्य खर्चों से मुक्ति।
  3. गोपनीयता:
    पारिवारिक, व्यापारिक या सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़े मामले सार्वजनिक नहीं होते।
  4. संबंधों की पुनर्स्थापना:
    मध्यस्थता झगड़े को खत्म नहीं करती, बल्कि रिश्ते को सुधारती है
  5. स्वैच्छिकता और संतुष्टि:
    समाधान जब स्वयं पक्ष तय करते हैं, तो उसका पालन स्वाभाविक रूप से होता है।

मध्यस्थता के क्षेत्र

  1. परिवारिक विवाद (Family Disputes) — तलाक, भरण-पोषण, संपत्ति विवाद
  2. व्यापारिक विवाद (Commercial Disputes) — अनुबंध, साझेदारी, कॉर्पोरेट मुद्दे
  3. श्रमिक विवाद (Industrial & Labour Disputes)
  4. सामुदायिक और पड़ोसी विवाद (Community Disputes)
  5. सिविल मामले (Civil Cases) — भूमि, किरायेदारी, अनुबंध उल्लंघन आदि

मानव संघर्ष से मानवीय समाधान की ओर

मध्यस्थता यह मानती है कि हर विवाद के पीछे मानव भावनाएँ होती हैं — क्रोध, अहंकार, भय, असुरक्षा या दुख।
जब इन भावनाओं को सुना और समझा जाता है, तब समाधान स्वयं उभरता है।
इसलिए मध्यस्थता केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक मानव संवाद है — एक ऐसी यात्रा जो संघर्ष से समझौते और शांति की ओर ले जाती है।


न्यायिक दृष्टिकोण

भारतीय न्यायपालिका ने भी मध्यस्थता को प्रोत्साहित करने के लिए कई कदम उठाए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने Afcons Infrastructure Ltd. v. Cherian Varkey Construction Co. (2010) में कहा —

“मध्यस्थता और सुलह ऐसे उपकरण हैं जो न्यायालय के बोझ को कम करते हैं और समाज में शांति और सौहार्द बनाए रखते हैं।”

दिल्ली, मुंबई, और चेन्नई सहित कई हाईकोर्टों ने मध्यस्थता केंद्र (Mediation Centres) स्थापित किए हैं, जहाँ अनुभवी मध्यस्थ जटिल मामलों को भी सहज संवाद के माध्यम से सुलझा रहे हैं।


भविष्य की दिशा

भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में मध्यस्थता केवल न्यायिक सुधार नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्निर्माण (social reconstruction) का माध्यम बन सकती है।
यदि इसे प्राथमिक स्तर पर अपनाया जाए, तो अदालतों पर मुकदमों का बोझ घटेगा, नागरिकों में विश्वास बढ़ेगा और समाज अधिक संवादशील और संवेदनशील बनेगा।


निष्कर्ष

न्यायालय कानून के आधार पर निर्णय देते हैं, परंतु मध्यस्थता दिल के आधार पर समझौते कराती है।
जहाँ अदालत का आदेश “एक को सही और दूसरे को गलत” ठहराता है, वहीं मध्यस्थता दोनों को सम्मानपूर्वक समझौते की मेज पर लाती है।
यह न केवल कानूनी न्याय बल्कि मानवीय न्याय (Human Justice) को भी साकार करती है।

आज के युग में, जब समाज विभाजन और विवादों से जूझ रहा है, मध्यस्थता न्याय की नई परिभाषा गढ़ रही है —
एक ऐसी परिभाषा जो कहती है —

“सच्चा न्याय वह है जो दोनों पक्षों को संतोष, सम्मान और शांति प्रदान करे — और यह संभव है केवल संवाद, सहानुभूति और मध्यस्थता के माध्यम से।”