“पुलिस हिरासत और न्यायिक हिरासत: भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में अधिकार, प्रक्रिया और न्यायिक संतुलन”
भूमिका
भारतीय संविधान और दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure – CrPC) नागरिकों के व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) की सुरक्षा के साथ-साथ अपराध की जांच और अभियोजन (Prosecution) के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास करते हैं। जब किसी व्यक्ति पर अपराध का संदेह होता है और उसे गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे किसी न किसी प्रकार की हिरासत (Custody) में रखा जाता है।
भारतीय कानून में हिरासत दो प्रकार की होती है —
- पुलिस हिरासत (Police Custody), और
- न्यायिक हिरासत (Judicial Custody)।
दोनों के बीच का अंतर केवल “स्थान” का नहीं, बल्कि “अधिकार, नियंत्रण, उद्देश्य और कानूनी प्रक्रिया” का भी है। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि इन दोनों प्रकार की हिरासतों में क्या भिन्नता है, उनके कानूनी आधार क्या हैं, न्यायालयों ने इनके बारे में क्या कहा है, और एक अभियुक्त के मौलिक अधिकारों की रक्षा कैसे की जाती है।
1. हिरासत (Custody) का अर्थ और उद्देश्य
“Custody” का अर्थ केवल “कैद” या “जेल में बंद” होना नहीं है, बल्कि इसका अभिप्राय किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर वैधानिक नियंत्रण से है। जब पुलिस किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करती है, तो वह व्यक्ति पुलिस की “कस्टडी” में होता है — चाहे उसे थाने में रखा जाए या न्यायिक आदेश से जेल भेजा जाए।
हिरासत का उद्देश्य अपराध की जांच करना, अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना, और न्यायिक प्रक्रिया को सुचारु रखना है। यह सज़ा (Punishment) नहीं होती, बल्कि प्रक्रिया का एक आवश्यक चरण होती है।
2. कानूनी प्रावधान – CrPC की धारा 167
धारा 167 CrPC भारतीय आपराधिक प्रक्रिया में हिरासत से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान है।
यदि पुलिस किसी अभियुक्त को 24 घंटे के भीतर न्यायालय में प्रस्तुत नहीं कर पाती (CrPC की धारा 57 के अनुसार), तो वह मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त को प्रस्तुत कर सकती है और आगे की हिरासत की मांग कर सकती है।
इस धारा के अंतर्गत दो प्रकार की हिरासत दी जा सकती है:
- पुलिस हिरासत (Police Custody):
अभियुक्त को पुलिस की निगरानी में रखा जाता है ताकि उससे पूछताछ की जा सके, साक्ष्य प्राप्त किए जा सकें, या अपराध में उसकी संलिप्तता की पुष्टि की जा सके। - न्यायिक हिरासत (Judicial Custody):
अभियुक्त को जेल अथवा कारागार में न्यायालय के आदेश से भेजा जाता है। अब वह पुलिस के नियंत्रण से बाहर और न्यायालय की निगरानी में होता है।
3. पुलिस हिरासत (Police Custody) – अर्थ, अवधि और अधिकार
(क) अर्थ:
पुलिस हिरासत का अर्थ है कि अभियुक्त पुलिस के नियंत्रण और निगरानी में है। पुलिस इस अवधि में अभियुक्त से पूछताछ करती है, सबूत इकट्ठे करती है, या अन्य सहअभियुक्तों का पता लगाती है।
(ख) अवधि:
CrPC की धारा 167(2) के अनुसार, पुलिस हिरासत अधिकतम 15 दिन तक ही दी जा सकती है — और यह 15 दिन भी तभी जब मजिस्ट्रेट यह माने कि जांच के लिए आवश्यक है।
15 दिन की अवधि समाप्त होने के बाद अभियुक्त को केवल न्यायिक हिरासत में ही रखा जा सकता है।
(ग) उद्देश्य:
- अपराध से संबंधित जानकारी प्राप्त करना,
- साक्ष्य इकट्ठा करना,
- अन्य अभियुक्तों या अपराध के साधनों का पता लगाना,
- अपराध की पुनर्निर्मिति (reconstruction) करना।
(घ) अभियुक्त के अधिकार:
- अभियुक्त को अपने वकील से मिलने का अधिकार है (Article 22(1) के तहत)।
- पुलिस हिरासत में प्रताड़ना या मारपीट निषिद्ध है (Article 21 और 20(3) के अंतर्गत)।
- मजिस्ट्रेट को प्रत्येक विस्तार आदेश के समय अभियुक्त को स्वयं देखना होता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई उत्पीड़न नहीं हुआ है।
- अभियुक्त का चिकित्सीय परीक्षण (Medical Examination) करवाना अनिवार्य है।
(ङ) न्यायालय का नियंत्रण:
पुलिस हिरासत मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना नहीं दी जा सकती। हर बार पुलिस को यह साबित करना होता है कि जांच के लिए हिरासत आवश्यक है।
4. न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) – अर्थ, अवधि और प्रक्रिया
(क) अर्थ:
न्यायिक हिरासत का अर्थ है कि अभियुक्त अब पुलिस नहीं बल्कि न्यायालय के आदेश से “जेल प्रशासन” के अधीन है। इसका उद्देश्य अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना और यह सुनिश्चित करना है कि वह जांच को प्रभावित न करे।
(ख) अवधि:
- यदि अपराध गंभीर (cognizable) और गंभीर दंडनीय (heinous) है, तो न्यायिक हिरासत 90 दिन तक दी जा सकती है।
- यदि अपराध अपेक्षाकृत कम गंभीर है (10 वर्ष से कम दंडनीय), तो हिरासत की अवधि 60 दिन तक सीमित रहती है।
- इसके बाद अभियुक्त “जमानत का हकदार” (Statutory Bail) हो जाता है।
(ग) अधिकार और सुविधाएँ:
- न्यायिक हिरासत में अभियुक्त को जेल मैनुअल के अनुसार अधिकार प्राप्त होते हैं — जैसे स्वास्थ्य सेवा, भोजन, स्वच्छता, कानूनी सहायता, परिवार से मिलने की अनुमति आदि।
- अभियुक्त को प्रताड़ना का खतरा कम होता है क्योंकि वह अब पुलिस की निगरानी में नहीं होता।
- अभियुक्त अपनी जमानत याचिका न्यायालय में दाखिल कर सकता है।
(घ) न्यायिक नियंत्रण:
न्यायालय समय-समय पर रिमांड रिपोर्ट देखता है, अभियुक्त की उपस्थिति दर्ज करता है, और सुनिश्चित करता है कि जेल प्रशासन उसके साथ मानवोचित व्यवहार करे।
5. पुलिस हिरासत और न्यायिक हिरासत में प्रमुख अंतर
| क्रमांक | आधार | पुलिस हिरासत (Police Custody) | न्यायिक हिरासत (Judicial Custody) |
|---|---|---|---|
| 1 | नियंत्रण किसके अधीन | पुलिस अधिकारी | न्यायालय और जेल अधिकारी |
| 2 | स्थान | थाना / पुलिस स्टेशन | केंद्रीय या जिला जेल |
| 3 | उद्देश्य | जांच, पूछताछ, साक्ष्य एकत्र करना | अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना |
| 4 | अधिकतम अवधि | 15 दिन (CrPC 167(2)) | 60 या 90 दिन, अपराध की प्रकृति पर निर्भर |
| 5 | प्रताड़ना की संभावना | अधिक (क्योंकि पुलिस पूछताछ करती है) | कम (क्योंकि न्यायिक नियंत्रण है) |
| 6 | कानूनी अधिकार | वकील से मुलाकात, चिकित्सकीय परीक्षण | जमानत आवेदन, परिवार से मिलना |
| 7 | आदेश देने वाला | मजिस्ट्रेट | मजिस्ट्रेट |
| 8 | उद्देश्य समाप्त होने पर | न्यायिक हिरासत या जमानत | ट्रायल की प्रतीक्षा में बंदी या जमानत |
6. संवैधानिक प्रावधान और संरक्षण
भारतीय संविधान में नागरिकों को हिरासत में भी कुछ मौलिक अधिकार प्राप्त हैं —
- अनुच्छेद 21:
किसी व्यक्ति को विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के बिना जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ है कि गिरफ्तारी और हिरासत दोनों “न्यायिक” और “वैधानिक” होनी चाहिए। - अनुच्छेद 22:
गिरफ्तारी के बाद व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत करना अनिवार्य है।
बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के उसे अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। - अनुच्छेद 20(3):
किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता (Right against Self-Incrimination)।
इन अनुच्छेदों के कारण हिरासत की पूरी प्रक्रिया मानवाधिकारों के दायरे में आती है।
7. प्रमुख न्यायालयीय निर्णय
(क) D.K. Basu vs. State of West Bengal (AIR 1997 SC 610)
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस हिरासत में मानवाधिकारों की सुरक्षा हेतु दिशा-निर्देश जारी किए।
मुख्य निर्देशों में शामिल हैं —
- गिरफ्तारी के समय पहचान-पत्र आवश्यक,
- गिरफ्तारी की सूचना परिवार को देना,
- मेडिकल जांच,
- हिरासत की डायरी बनाना,
- मजिस्ट्रेट को नियमित रिपोर्ट देना।
(ख) Joginder Kumar vs. State of U.P. (1994)
कोर्ट ने कहा कि गिरफ्तारी कोई “सजा” नहीं है। पुलिस केवल तभी गिरफ्तार करे जब आवश्यक हो।
(ग) CBI vs. Anupam J. Kulkarni (1992)
इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुलिस हिरासत अधिकतम 15 दिन तक ही दी जा सकती है, और उसके बाद केवल न्यायिक हिरासत दी जा सकती है।
यह निर्णय आज भी “custody law” का आधार है।
(घ) Maneka Gandhi vs. Union of India (1978)
कोर्ट ने “Article 21” की व्याख्या करते हुए कहा कि कोई भी राज्य कार्रवाई जो व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करती है, उसे “न्यायसंगत, उचित और तर्कसंगत” (Just, Fair, and Reasonable) होना चाहिए।
8. मानवाधिकार दृष्टिकोण
हिरासत में व्यक्ति का अधिकार संविधान, मानवाधिकार अधिनियम, 1993 और अंतरराष्ट्रीय संधियों जैसे ICCPR (International Covenant on Civil and Political Rights) द्वारा भी संरक्षित है।
भारत में National Human Rights Commission (NHRC) पुलिस हिरासत में उत्पीड़न, प्रताड़ना और मृत्यु के मामलों की निगरानी करती है।
NHRC Guidelines:
- पुलिस हिरासत में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर 24 घंटे के भीतर सूचना देना अनिवार्य है।
- प्रत्येक थाने में CCTV और रिकॉर्डिंग प्रणाली होनी चाहिए।
- मजिस्ट्रेट द्वारा स्वतः जांच (Judicial Inquiry) अनिवार्य है।
9. व्यावहारिक दृष्टिकोण – पुलिस हिरासत की चुनौतियाँ
यद्यपि कानून ने पुलिस हिरासत को सीमित और न्यायिक निगरानी में रखा है, फिर भी व्यवहारिक रूप में कई चुनौतियाँ हैं —
- थानों में प्रताड़ना और टॉर्चर:
पुलिस द्वारा साक्ष्य उगलवाने के लिए हिंसा या मानसिक दबाव का प्रयोग, - वकील से मिलने में बाधा:
कई बार पुलिस अभियुक्त के वकील से संपर्क को सीमित करती है। - मेडिकल जांच में लापरवाही:
समय पर डॉक्टर द्वारा परीक्षण न किया जाना। - गरीब अभियुक्तों के लिए कानूनी सहायता की कमी:
लीगल एड सर्विसेज की जानकारी न होना या पहुँच न होना।
सुधार के उपाय:
- सभी थानों में कैमरे,
- स्वतंत्र निगरानी समिति,
- पुलिस प्रशिक्षण में मानवाधिकार की शिक्षा,
- हिरासत के हर चरण का दस्तावेजीकरण,
- अभियुक्त को हर 48 घंटे में न्यायिक अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करना।
10. जमानत (Bail) और हिरासत का संबंध
CrPC की धारा 167(2) के अनुसार, यदि पुलिस 60 या 90 दिन के भीतर चार्जशीट दाखिल नहीं करती, तो अभियुक्त को “वैधानिक जमानत” (Statutory Bail) का अधिकार मिलता है।
यह अधिकार न्यायालय द्वारा नहीं बल्कि विधि के संचालन से स्वतः प्राप्त होता है।
उदाहरण:
यदि किसी गंभीर अपराध में अभियुक्त 90 दिन से अधिक न्यायिक हिरासत में है और पुलिस चार्जशीट दाखिल नहीं कर पाई, तो अभियुक्त जमानत का अधिकारी है, चाहे अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो।
11. अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से तुलना
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुसार —
- किसी भी गिरफ्तारी के 48 घंटे के भीतर अभियुक्त को न्यायालय में प्रस्तुत करना अनिवार्य है।
- हिरासत के दौरान वकील से संपर्क और परिवार को सूचना देना आवश्यक है।
- अधिकांश देशों में पुलिस हिरासत 24 से 48 घंटे से अधिक नहीं होती, जबकि भारत में यह अवधि अधिकतम 15 दिन तक बढ़ सकती है — जो एक बड़ा अंतर है।
इसलिए भारत को भी धीरे-धीरे “Custodial Justice System” में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की दिशा में सुधार करना होगा।
12. निष्कर्ष
पुलिस हिरासत और न्यायिक हिरासत — भारतीय न्यायिक प्रणाली के दो महत्वपूर्ण चरण हैं, जिनका उद्देश्य अपराध की जांच और न्याय की प्रक्रिया को बनाए रखना है।
परंतु इनके उपयोग में संतुलन आवश्यक है — क्योंकि जहाँ पुलिस हिरासत में जांच की आवश्यकता होती है, वहीं न्यायिक हिरासत में व्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दी जाती है।
सुप्रीम कोर्ट और संसद ने यह सुनिश्चित किया है कि हिरासत किसी भी व्यक्ति के लिए “सजा” का रूप न ले ले। पुलिस को चाहिए कि वह जांच करते समय संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करे, और न्यायालय को चाहिए कि वह समय-समय पर यह देखे कि अभियुक्त के अधिकारों का उल्लंघन नहीं हो रहा।
संक्षेप में कहा जाए तो —
पुलिस हिरासत “साक्ष्य खोजने” का चरण है,
जबकि न्यायिक हिरासत “न्याय सुनिश्चित करने” का चरण है।
दोनों का संतुलन ही लोकतंत्र की असली ताकत है।