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“सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: दिवाला प्रक्रिया में एक बार दावा स्वीकार होने के बाद उसे विलंबित नहीं ठहराया जा सकता

“सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: दिवाला प्रक्रिया में एक बार दावा स्वीकार होने के बाद उसे विलंबित नहीं ठहराया जा सकता — अमित नेहरा बनाम पवन कुमार गर्ग केस में स्पष्ट दिशा”


प्रस्तावना

भारत में Insolvency and Bankruptcy Code (IBC), 2016 के लागू होने के बाद से देश की वित्तीय प्रणाली में ऋण वसूली और दिवाला समाधान की प्रक्रिया में पारदर्शिता और गति आई है। किंतु कई बार ऐसी स्थितियां उत्पन्न होती हैं जब किसी दावे (claim) के समय पर दाखिल होने, स्वीकार किए जाने, या बाद में विवादित बनाए जाने को लेकर जटिल कानूनी प्रश्न सामने आते हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने Amit Nehra & Anr. v. Pawan Kumar Garg & Ors. (2025) मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि एक बार जब किसी दावे को Resolution Professional (RP) द्वारा सत्यापित और स्वीकार कर लिया गया हो, तो उसे ‘belated’ (विलंबित) बताकर substantive relief (मौलिक राहत) देने से इनकार नहीं किया जा सकता।

यह निर्णय न केवल IBC की व्याख्या को और सुदृढ़ बनाता है बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि दिवाला प्रक्रिया में न्यायिक निष्पक्षता बनी रहे।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला उस समय उत्पन्न हुआ जब Resolution Professional (RP) ने एक वित्तीय ऋणदाता (financial creditor) द्वारा प्रस्तुत दावा स्वीकार कर लिया था, लेकिन बाद में जब समाधान योजना (resolution plan) तैयार हुई तो अन्य पक्षों ने यह तर्क दिया कि यह दावा “विलंब से दाखिल” हुआ था, इसलिए इसके आधार पर कोई राहत या भुगतान नहीं दिया जाना चाहिए।

अमित नेहरा और अन्य याचिकाकर्ताओं ने इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखा, यह कहते हुए कि —

  • उनके दावे को RP द्वारा सही तरीके से जांचकर सत्यापित किया गया था।
  • एक बार स्वीकार कर लिए जाने के बाद, उसे ‘belated claim’ कहना अनुचित और न्यायविरुद्ध है।
  • Committee of Creditors (CoC) और Adjudicating Authority को RP द्वारा सत्यापित दावे को नकारने का कोई अधिकार नहीं है।

मुख्य कानूनी प्रश्न

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष निम्नलिखित प्रमुख प्रश्न उपस्थित हुए —

  1. क्या एक बार Resolution Professional द्वारा स्वीकार किया गया दावा, बाद में “विलंबित” या “अस्वीकार्य” ठहराया जा सकता है?
  2. क्या Committee of Creditors (CoC) या NCLT RP के सत्यापन पर पुनर्विचार कर सकती है?
  3. IBC की धारा 18, 30 और 31 का सही प्रभाव क्या होगा जब किसी ऋणदाता का दावा पहले ही मान्य हो चुका हो?

पक्षकारों के तर्क

(1) याचिकाकर्ता – अमित नेहरा एवं अन्य के तर्क:

  • उन्होंने कहा कि उनका दावा IBC Regulation 13 और Section 18(1)(b) के तहत विधिवत दाखिल और स्वीकार किया गया था।
  • RP द्वारा जांच और सत्यापन के बाद दावा वैध माना गया था, इसलिए उसे बाद में “belated” कहना न्यायसंगत नहीं।
  • CoC का अधिकार केवल समाधान योजना की स्वीकृति तक सीमित है; वह RP के प्रशासनिक निर्णयों पर पुनर्विचार नहीं कर सकती।

(2) प्रतिवादी – पवन कुमार गर्ग एवं अन्य के तर्क:

  • उन्होंने कहा कि दावा बहुत देर से दाखिल किया गया था, जिससे प्रक्रिया में विलंब हुआ।
  • RP ने समय सीमा के बाद भी दावा स्वीकार कर गलती की, इसलिए राहत नहीं दी जानी चाहिए।
  • दिवाला प्रक्रिया में समय सीमा का पालन करना अत्यावश्यक है ताकि समाधान योजना समय पर पूरी हो सके।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

माननीय सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने IBC के प्रावधानों की गहन व्याख्या करते हुए यह निर्णय दिया कि —

“Once a claim has been duly verified and admitted by the Resolution Professional, it cannot be treated as belated merely to deny substantive relief under a resolution plan.”

अर्थात्,
यदि किसी दावे को RP ने समय पर दाखिल, जांच और सत्यापित कर लिया है, तो बाद में उसे विलंबित बताकर कोई राहत या भुगतान न देना विधिक रूप से अनुचित होगा।

कोर्ट ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण अवलोकन किए —

  1. Resolution Professional (RP) की भूमिका एक “केंद्रीय न्यायिक प्रशासक” की होती है, जो दावों की जांच और स्वीकृति करता है।
    • RP द्वारा किया गया सत्यापन प्रशासनिक नहीं बल्कि quasi-judicial (अर्ध-न्यायिक) प्रक्रिया है।
  2. एक बार RP किसी दावे को स्वीकार कर लेता है, तो यह माना जाएगा कि वह वैध है और प्रक्रिया का हिस्सा बन गया है।
  3. Committee of Creditors (CoC) RP के सत्यापित दावे पर पुनः विचार नहीं कर सकती, जब तक कि कोई स्पष्ट धोखाधड़ी या छल का प्रमाण न हो।
  4. IBC का उद्देश्य समयबद्ध समाधान सुनिश्चित करना है, लेकिन न्यायसंगत दावे को केवल “देरी” के आधार पर नकारना कानून की भावना के विपरीत होगा।

कानूनी विश्लेषण

इस निर्णय में IBC की मूल भावना पर बल दिया गया है —

“Maximization of value and fairness to all stakeholders.”

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि Resolution Professional द्वारा किया गया सत्यापन Section 18(1)(b) के तहत Information Memorandum और Resolution Plan का आधार बनता है। इसलिए एक बार यदि दावा उसमें शामिल हो गया है, तो उसे बाद में हटाना या अस्वीकार करना संपूर्ण योजना को अस्थिर कर सकता है।

यह निर्णय विशेष रूप से उन मामलों के लिए मार्गदर्शक है जहाँ —

  • वित्तीय संस्थान या व्यक्तिगत ऋणदाता किसी कारणवश प्रारंभिक चरण में दावा दाखिल नहीं कर पाए;
  • परंतु RP ने सभी दस्तावेजों की जांच कर दावा स्वीकार कर लिया;
  • बाद में CoC या NCLT उस दावे को अस्वीकार करने का प्रयास करते हैं।

अब ऐसे मामलों में इस निर्णय का हवाला देकर राहत प्राप्त की जा सकती है।


IBC के तहत समय सीमा बनाम न्यायसंगतता

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यद्यपि IBC समयबद्ध समाधान को प्राथमिकता देता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि न्याय और निष्पक्षता की बलि चढ़ाई जाए।
कोर्ट ने दो सिद्धांतों के बीच संतुलन बनाया —

  1. Timeliness (समयबद्धता)
  2. Substantive Justice (वास्तविक न्याय)

अर्थात्, न्यायिक प्रक्रिया का उद्देश्य केवल गति नहीं बल्कि निष्पक्षता और समानता भी है।


महत्वपूर्ण पूर्ववर्ती मामले (Precedents)

कोर्ट ने अपने निर्णय में निम्नलिखित मामलों का भी उल्लेख किया —

  1. Swiss Ribbons Pvt. Ltd. v. Union of India (2019) – IBC की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए कहा गया कि इसका उद्देश्य सभी हितधारकों के बीच समानता और दक्षता सुनिश्चित करना है।
  2. Committee of Creditors of Essar Steel v. Satish Kumar Gupta (2019) – न्यायालय ने कहा था कि समाधान योजना में CoC का व्यावसायिक निर्णय सर्वोपरि है, परंतु न्यायिक निरीक्षण की सीमाएं बनी रहती हैं।
  3. Ghanashyam Mishra & Sons v. Edelweiss ARC (2021) – अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि स्वीकृत समाधान योजना सभी ऋणदाताओं पर बाध्यकारी होती है।

इन प्रकरणों के आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान मामले में संतुलन बनाते हुए यह कहा कि RP द्वारा स्वीकृत दावा अंतिम माना जाएगा।


व्यावहारिक प्रभाव

इस निर्णय के दूरगामी प्रभाव होंगे —

  1. Resolution Professionals के अधिकार सशक्त हुए:
    अब RP के सत्यापन को न्यायिक मान्यता प्राप्त है, जिससे उसकी भूमिका अधिक प्रभावी और निर्णायक बनेगी।
  2. Creditors को सुरक्षा:
    यदि उनका दावा RP द्वारा स्वीकार किया गया है, तो बाद में उसे अस्वीकार करने का खतरा नहीं रहेगा।
  3. CoC की मनमानी पर रोक:
    यह निर्णय CoC की मनमानी और शक्ति के संभावित दुरुपयोग को सीमित करता है।
  4. IBC की प्रक्रिया में स्थिरता:
    यह फैसला सुनिश्चित करता है कि एक बार प्रक्रिया का कोई चरण पूरा हो जाए, तो उसे बाद में पलटकर अस्थिर न किया जाए।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय Amit Nehra & Anr. v. Pawan Kumar Garg & Ors. भारतीय दिवाला कानून की व्याख्या में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।
इससे यह स्पष्ट संदेश गया है कि IBC केवल एक तकनीकी ढांचा नहीं, बल्कि न्याय और निष्पक्षता का उपकरण है।

एक बार जब Resolution Professional किसी दावे को वैध घोषित कर देता है, तो उसे “belated” बताकर राहत से वंचित करना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है।
यह निर्णय भविष्य में दावों की स्वीकृति, समाधान योजनाओं की पारदर्शिता और ऋणदाताओं के अधिकारों की रक्षा में निर्णायक भूमिका निभाएगा।


सारांश (In Short):

बिंदु विवरण
मामला Amit Nehra & Anr. v. Pawan Kumar Garg & Ors.
न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
मुख्य मुद्दा RP द्वारा स्वीकार किए गए दावे को बाद में “belated” ठहराया जा सकता है या नहीं
निर्णय नहीं, एक बार सत्यापित दावा “belated” नहीं कहा जा सकता
मुख्य कानूनी सिद्धांत RP का सत्यापन अर्ध-न्यायिक (quasi-judicial) प्रक्रिया है
प्रभाव CoC और NCLT को RP के निर्णय को पलटने का सीमित अधिकार
परिणाम न्यायसंगतता, पारदर्शिता और स्थिरता सुनिश्चित हुई

निष्कर्षतः,
यह फैसला दिवाला न्यायशास्त्र में न्यायिक विवेक, समयबद्धता और निष्पक्षता के संतुलन का उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसने IBC की आत्मा — “Resolution over Liquidation” — को और सशक्त किया है।