“M/S. T.S. Construction बनाम The Howrah Zilla Parishad” – सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: “अवैध निर्माणों पर कठोर कार्रवाई हो, जनता के हित में हाई कोर्ट करे विस्तृत जांच”
परिचय
भारत के शहरी क्षेत्रों में अवैध निर्माण (Unauthorized Constructions) आज एक गंभीर सामाजिक, कानूनी और प्रशासनिक समस्या बन चुके हैं। महानगरों से लेकर छोटे नगरों तक, अवैध रूप से किए गए निर्माण न केवल शहरी नियोजन (Urban Planning) को बाधित करते हैं, बल्कि नागरिक सुरक्षा, पर्यावरण संतुलन और सार्वजनिक हित पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
इसी पृष्ठभूमि में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में “M/S. T.S. Construction बनाम The Howrah Zilla Parishad” मामले में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय (Calcutta High Court) को निर्देश दिया कि वह शहर में अवैध निर्माणों के मामलों की समग्र समीक्षा (comprehensive scrutiny) करे और प्रत्येक प्रकरण पर उचित कार्रवाई सुनिश्चित करे।
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अवैध निर्माण केवल कानून का उल्लंघन नहीं हैं, बल्कि यह “सार्वजनिक संसाधनों और मानव जीवन के प्रति उदासीनता” का प्रतीक हैं। अतः अदालतों का कर्तव्य है कि वे इन पर कठोर दृष्टिकोण अपनाएँ।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
इस मामले की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले (Howrah District) से हुई, जहाँ M/S. T.S. Construction नामक एक निर्माण कंपनी पर आरोप था कि उसने Howrah Zilla Parishad के अधिकार क्षेत्र में एक परियोजना के अंतर्गत बिना वैध अनुमति (without proper sanction) निर्माण कार्य किया।
स्थानीय प्रशासन ने उक्त निर्माण को “अनधिकृत (unauthorized)” घोषित करते हुए कार्रवाई शुरू की। कंपनी ने इस कार्रवाई को चुनौती देते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय (Calcutta High Court) में याचिका दायर की, जहाँ उसने यह तर्क दिया कि निर्माण कार्य “आंशिक रूप से वैध” था और प्रशासन ने मनमाने ढंग से रोक लगाई।
उच्च न्यायालय ने इस मामले पर लंबी सुनवाई के बाद सीमित राहत प्रदान की, परंतु इस दौरान यह तथ्य सामने आया कि Howrah और आस-पास के क्षेत्रों में बड़ी संख्या में अवैध निर्माण चल रहे हैं, जिन पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो रही।
इसी मुद्दे पर मामला अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा।
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और टिप्पणियाँ
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए यह पाया कि —
“शहरी निकायों और स्थानीय प्रशासन की लापरवाही के कारण Howrah शहर में अनधिकृत निर्माणों की भरमार हो चुकी है। यह स्थिति न केवल कानून के शासन के विरुद्ध है, बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा और जीवन के अधिकार (Article 21) का भी उल्लंघन करती है।”
कोर्ट ने कहा कि —
“अवैध निर्माणों के विरुद्ध कार्रवाई केवल एक भवन को तोड़ने का मामला नहीं, बल्कि यह समाज के हित, सार्वजनिक नीति, और नागरिक अधिकारों से जुड़ा हुआ प्रश्न है।”
सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ में कलकत्ता उच्च न्यायालय को निर्देश दिया कि —
- वह सभी प्रचलित अवैध निर्माणों की सूची तैयार करवाए,
- नगर निकायों से विस्तृत रिपोर्ट मांगे,
- और प्रत्येक प्रकरण की वैधता की जांच करते हुए आवश्यक विधिक आदेश पारित करे।
कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ (Key Observations)
- अवैध निर्माण केवल प्रशासनिक उल्लंघन नहीं है, यह संवैधानिक उल्लंघन भी है:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब प्रशासन अवैध निर्माणों को अनदेखा करता है, तो वह नागरिकों के जीवन और सुरक्षा के अधिकार (Article 21) का उल्लंघन करता है। - अदालतों की भूमिका “सक्रिय निगरानी” की होनी चाहिए:
कोर्ट ने कहा कि उच्च न्यायालय को अब केवल “मामला-दर-मामला” सुनवाई तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे संपूर्ण क्षेत्र में नीति-आधारित समीक्षा (policy-based review) करनी चाहिए। - जनहित सर्वोपरि (Public Interest is Supreme):
अदालत ने यह दोहराया कि यदि व्यक्तिगत लाभ और सार्वजनिक हित में टकराव हो, तो प्राथमिकता सदैव जनता के हित को दी जानी चाहिए। - प्रशासनिक निकायों की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल बिल्डरों को दोषी ठहराना पर्याप्त नहीं है; स्थानीय अधिकारियों और नगर निकायों की भी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए, जिन्होंने निगरानी में लापरवाही बरती।
संवैधानिक दृष्टिकोण (Constitutional Perspective)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में यह कहा कि अवैध निर्माणों का प्रश्न केवल भवन निर्माण अधिनियमों का नहीं, बल्कि यह संविधान के मूल अधिकारों से भी जुड़ा हुआ है।
- अनुच्छेद 14 (Equality before Law):
जब कुछ व्यक्ति नियमों की अवहेलना कर अवैध निर्माण करते हैं और प्रशासन उन पर कार्रवाई नहीं करता, तो यह समानता के सिद्धांत का उल्लंघन है। - अनुच्छेद 21 (Right to Life and Safety):
अवैध निर्माणों से भवन गिरने, आग लगने या आपदा की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में यह नागरिकों के जीवन और सुरक्षा के अधिकार पर सीधा प्रहार है। - अनुच्छेद 48A और 51A(g):
पर्यावरण संरक्षण और नागरिकों का कर्तव्य भी इन प्रावधानों में निहित है। अवैध निर्माण प्रायः हरित क्षेत्र (Green Zones) और जल निकासी मार्गों पर किए जाते हैं, जिससे पारिस्थितिकी असंतुलन पैदा होता है।
सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी और निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि —
“यदि अदालतें और प्रशासन इन अवैध निर्माणों पर आंख मूंदते रहे, तो आने वाले समय में शहरों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।”
कोर्ट ने निर्देश दिया कि —
- कलकत्ता हाई कोर्ट एक विशेष पीठ (Special Bench) गठित करे जो केवल अवैध निर्माणों से संबंधित मामलों की निगरानी करे।
- Howrah Municipal Corporation, Howrah Zilla Parishad, और Urban Development Department विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करें कि उन्होंने अब तक किन निर्माणों पर कार्रवाई की है।
- अवैध निर्माणों को विधिक रूप से वैध करने (Regularization) की किसी भी प्रक्रिया की अनुमति केवल सार्वजनिक सुरक्षा के मापदंडों पर ही दी जा सकती है।
- नागरिकों को जागरूक करने के लिए एक विशेष अभियान (Awareness Campaign) चलाया जाए ताकि वे बिना अनुमति निर्माण से दूर रहें।
पूर्ववर्ती मामलों का संदर्भ (Precedent Cases)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कई पुराने महत्वपूर्ण मामलों का उल्लेख किया, जिनमें अवैध निर्माणों पर कठोर रुख अपनाया गया था:
- Priyanka Estates International Pvt. Ltd. v. State of Assam (2010) 2 SCC 27:
कोर्ट ने कहा था कि अवैध निर्माणों को वैध करने की प्रवृत्ति समाज में कानून के प्रति अनादर को बढ़ाती है। - Esha Ekta Apartments Coop. Housing Society Ltd. v. Municipal Corporation of Mumbai (2013) 5 SCC 357:
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “अवैध निर्माण को केवल मानवीय आधार पर वैध नहीं किया जा सकता।” - Friends Colony Development Committee v. State of Orissa (2004) 8 SCC 733:
कोर्ट ने कहा था कि “बिल्डर लॉबी के दबाव में प्रशासनिक निकाय यदि आंख मूंद लेते हैं, तो यह सार्वजनिक विश्वास का हनन है।”
इन सभी मामलों में न्यायालय ने यह सिद्धांत स्थापित किया कि अवैध निर्माणों के खिलाफ ‘Zero Tolerance Policy’ अपनाई जानी चाहिए।
Howrah और शहरी भारत में अवैध निर्माण की समस्या
हावड़ा, कोलकाता, दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और बेंगलुरु जैसे शहरों में अवैध निर्माणों का जाल तेजी से फैल रहा है।
- यह निर्माण अक्सर बिना मंजूरी (without sanction plan) होते हैं।
- जलनिकासी व्यवस्था, सड़क चौड़ाई, और सुरक्षा मानकों की अनदेखी की जाती है।
- कई बार राजनीतिक संरक्षण या भ्रष्टाचार के कारण ये निर्माण वर्षों तक वैधता प्राप्त कर लेते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह प्रवृत्ति “Rule of Law” की मूल भावना को समाप्त कर देती है और “शहरी अराजकता” को जन्म देती है।
न्यायालय का सामाजिक दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यह मुद्दा केवल कानूनी नहीं, बल्कि “सामाजिक न्याय” से भी जुड़ा है।
जब अवैध निर्माण होते हैं, तो उनका सबसे अधिक नुकसान गरीब वर्ग और सामान्य नागरिकों को झेलना पड़ता है —
- सड़कों पर अतिक्रमण से दुर्घटनाएँ होती हैं,
- जलभराव और आगजनी की घटनाएँ बढ़ती हैं,
- और पर्यावरणीय नुकसान का भार पूरे समाज को उठाना पड़ता है।
इसलिए, अदालतों और प्रशासन को यह समझना चाहिए कि अवैध निर्माण के विरुद्ध कार्रवाई “जनता के हित में न्याय” है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुझाए गए सुधारात्मक कदम (Reformative Directions)
- एकीकृत शहरी निगरानी प्रणाली (Urban Monitoring System):
कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकारें GIS Mapping और Drone Surveillance का उपयोग कर अवैध निर्माणों की रियल-टाइम पहचान करें। - स्थानीय निकायों की जवाबदेही (Accountability Mechanism):
हर उस अधिकारी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए जिसने अपनी ड्यूटी में लापरवाही दिखाई। - जन शिकायत पोर्टल (Public Complaint Portal):
नागरिकों के लिए ऑनलाइन पोर्टल बनाया जाए ताकि वे गुमनाम रूप से अवैध निर्माणों की शिकायत दर्ज करा सकें। - सख्त दंड व्यवस्था (Penal Consequences):
कोर्ट ने सुझाव दिया कि अवैध निर्माण करने वालों पर भारी जुर्माना लगाया जाए और भविष्य में ऐसे बिल्डरों को ठेके या लाइसेंस देने से प्रतिबंधित किया जाए।
पर्यावरणीय दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अवैध निर्माणों से न केवल शहरी संरचना को नुकसान होता है, बल्कि यह पर्यावरण को भी गहरा आघात पहुँचाता है।
- हरित क्षेत्र (Green Spaces) समाप्त हो जाते हैं,
- भूमिगत जलस्तर घटता है,
- और वायु प्रदूषण बढ़ता है।
इसलिए, अदालत ने जोर दिया कि किसी भी निर्माण की अनुमति देने से पहले पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment) अनिवार्य होना चाहिए।
निष्कर्ष
“M/S. T.S. Construction बनाम The Howrah Zilla Parishad” का यह निर्णय केवल एक निर्माण विवाद नहीं है — यह भारतीय शहरी कानून व्यवस्था में जवाबदेही और पारदर्शिता की पुकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया कि —
“अवैध निर्माण केवल भवन नहीं, बल्कि कानून की नींव को कमजोर करते हैं।”
यह फैसला प्रशासन, नागरिकों और न्यायपालिका — तीनों के लिए एक चेतावनी है कि यदि आज इन पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो आने वाले समय में हमारे शहर “कंक्रीट के जंगल” में बदल जाएंगे, जहाँ न सुरक्षा होगी, न न्याय।
अंततः, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय शहरी शासन, पर्यावरण संरक्षण और नागरिक अधिकारों की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।
यह न केवल अवैध निर्माणों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई का आह्वान करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि “जनता के हित” को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।