सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय: साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत संयुक्त खुलासे (Joint Disclosure Statements) की स्वीकार्यता पर सख्त न्यायिक जांच की आवश्यकता
परिचय
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 27 अपराध जांच और अभियोजन की प्रक्रिया में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह धारा एक अपवाद के रूप में मानी जाती है क्योंकि यह पुलिस हिरासत में दिए गए आरोपी के कथन का एक सीमित हिस्सा स्वीकार्य बनाती है। सामान्यतः, पुलिस के सामने आरोपी द्वारा दिया गया कथन साक्ष्य के रूप में अस्वीकार्य होता है, परंतु यदि उसके आधार पर कोई तथ्य या वस्तु बरामद होती है, तो उस हिस्से को न्यायालय में स्वीकार किया जा सकता है।
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर 2025 (Monday) को एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि — जब एक से अधिक आरोपी (multiple accused) एक साथ (jointly) कोई खुलासा बयान (disclosure statement) देते हैं, तो उसे स्वीकार करने से पहले अदालत को विशेष सतर्कता (stricter judicial scrutiny) बरतनी चाहिए। यह निर्णय न्यायिक दृष्टि से न केवल व्याख्या का विषय है, बल्कि जांच एजेंसियों और निचली अदालतों के लिए दिशा-निर्देश भी प्रस्तुत करता है।
धारा 27 का मूल प्रावधान और उसका उद्देश्य
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 इस प्रकार है:
“जब कोई व्यक्ति पुलिस हिरासत में होता है और उसके द्वारा दिया गया कथन उस स्थिति में किसी तथ्य की खोज में सहायता करता है, तो उस कथन का वह हिस्सा जो उस खोज से सीधे संबंधित है, साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होगा।”
इसका उद्देश्य है — “सत्य की खोज में पुलिस द्वारा प्राप्त साक्ष्य को सीमित रूप से न्यायालय में उपयोग करने की अनुमति देना।”
यह प्रावधान दो बिंदुओं पर आधारित है:
- खोज (Discovery) से संबंधित होना — कथन से कोई तथ्य, वस्तु, या परिस्थिति की खोज होना आवश्यक है।
- सत्यापन योग्य होना — कथन केवल तभी स्वीकार्य है जब उसके परिणामस्वरूप कोई वास्तविक तथ्य सामने आए।
संयुक्त खुलासा (Joint Disclosure) की अवधारणा
“Joint Disclosure” का अर्थ है जब दो या अधिक आरोपी एक साथ पुलिस के समक्ष कोई तथ्य बताते हैं — जैसे कि चोरी की वस्तु, हथियार या शव की बरामदगी के बारे में जानकारी देना।
ऐसे मामलों में प्रश्न उठता है — क्या ऐसे संयुक्त बयान धारा 27 के अंतर्गत वैध हैं?
अर्थात्, यदि दोनों अभियुक्त एक साथ कहते हैं — “हमने मिलकर यह वस्तु यहाँ छिपाई है,” तो क्या यह कथन साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण: सख्त न्यायिक जांच की आवश्यकता
सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय पर कहा कि यद्यपि संयुक्त खुलासे (joint disclosures) को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं किया जा सकता, किंतु उनकी स्वीकार्यता के लिए न्यायालय को विशेष सावधानी (special caution) बरतनी चाहिए।
मुख्य अवलोकन (Key Observations):
- ट्यूटोरिंग या प्रभाव की संभावना:
जब कई आरोपी एक साथ बयान देते हैं, तो संभावना रहती है कि किसी एक का बयान दूसरों को प्रभावित करे, या पुलिस द्वारा सामूहिक रूप से बयान तैयार कराया गया हो। इस स्थिति में सच्चाई की पुष्टि कठिन हो जाती है। - स्वतंत्रता की जांच:
अदालत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक आरोपी का खुलासा स्वतंत्र और स्वेच्छा से किया गया हो। यदि ऐसा प्रतीत होता है कि बयानों में समानता है, तो यह सामूहिक प्रभाव या पुलिस निर्देश का परिणाम हो सकता है। - साक्ष्य की विश्वसनीयता (Credibility):
यदि संयुक्त बयान के आधार पर कोई वस्तु बरामद होती है, तो अदालत को यह देखना चाहिए कि क्या वास्तव में बरामदगी “disclosure statement” के अनुरूप है और क्या यह प्रत्येक आरोपी की ओर से समान रूप से लागू होती है। - सावधानीपूर्वक मूल्यांकन:
अदालत को इस प्रकार के मामलों में “stricter judicial scrutiny” अपनानी चाहिए — अर्थात् न्यायाधीश को गहन परीक्षण कर यह सुनिश्चित करना होगा कि कथन वास्तविक, स्वेच्छिक और सुसंगत है।
न्यायालय द्वारा दी गई कानूनी व्याख्या
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि धारा 27 एक exception है, इसलिए इसे अत्यधिक सावधानी के साथ लागू किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि जब दो या अधिक अभियुक्त मिलकर कोई तथ्य बताते हैं, तो यह आवश्यक है कि न्यायालय यह जांचे —
- क्या कथन सामूहिक रूप से दिया गया था या व्यक्तिगत रूप से?
- क्या दोनों ने स्वतंत्र रूप से वही जानकारी दी?
- क्या पुलिस ने संयुक्त बयान को लिखवाने में कोई भूमिका निभाई?
- क्या वस्तु वास्तव में उस कथन से ही प्राप्त हुई?
यदि इन प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता, तो ऐसा संयुक्त खुलासा साक्ष्य के रूप में अस्वीकार किया जा सकता है।
पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ (Precedent Cases)
सुप्रीम कोर्ट का यह दृष्टिकोण पूरी तरह नया नहीं है, बल्कि पहले के कई मामलों में भी न्यायालयों ने इसी प्रकार की सावधानी की आवश्यकता पर बल दिया है।
- Pulukuri Kottayya v. King Emperor (AIR 1947 PC 67):
इस ऐतिहासिक निर्णय में प्रिवी काउंसिल ने कहा कि केवल वही हिस्सा साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो किसी तथ्य की खोज में सहायता करता है। - State of Maharashtra v. Damu (2000) 6 SCC 269:
कोर्ट ने कहा कि यदि दो अभियुक्तों द्वारा एक साथ दिया गया खुलासा पुलिस के निर्देशन में किया गया है, तो वह अविश्वसनीय माना जाएगा। - A.N. Venkatesh v. State of Karnataka (2005) 7 SCC 714:
यहाँ कोर्ट ने दो अभियुक्तों के संयुक्त बयान को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह स्पष्ट नहीं था कि किस आरोपी के कथन से बरामदगी हुई। - Megh Singh v. State of Punjab (2003) 8 SCC 666:
कोर्ट ने दोहराया कि धारा 27 के अंतर्गत साक्ष्य की स्वीकार्यता केवल उस हिस्से तक सीमित है जो वस्तुतः किसी खोज से जुड़ा हो।
इन निर्णयों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि संयुक्त खुलासे (Joint Disclosure Statements) का मूल्यांकन व्यक्तिगत जिम्मेदारी और स्वतंत्रता के मानदंड पर होना चाहिए।
न्यायालय का तर्क (Judicial Reasoning)
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह रेखांकित किया कि:
- धारा 27 एक “सावधानीपूर्वक संतुलित” अपवाद है, जिसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
- संयुक्त खुलासे में अक्सर यह निर्धारित करना कठिन होता है कि किस आरोपी की जानकारी के आधार पर वस्तु बरामद हुई।
- पुलिस जांच के दौरान सामूहिक बयानों से “influence” या “tutoring” की संभावना अधिक होती है, इसलिए ऐसे साक्ष्यों को अंधाधुंध स्वीकार नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने आगे कहा कि —
“ऐसे मामलों में न्यायालय को ‘stricter scrutiny’ का सिद्धांत अपनाना चाहिए ताकि किसी निर्दोष व्यक्ति को झूठे साक्ष्य के आधार पर दोषी न ठहराया जाए।”
व्यावहारिक प्रभाव (Practical Implications)
यह निर्णय निचली अदालतों और जांच एजेंसियों दोनों के लिए महत्वपूर्ण दिशानिर्देश प्रस्तुत करता है:
- जांच अधिकारियों के लिए:
- पुलिस को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रत्येक आरोपी का खुलासा स्वतंत्र रूप से दर्ज हो।
- यदि किसी वस्तु की बरामदगी कई अभियुक्तों से जुड़ी है, तो स्पष्ट रूप से यह दर्शाया जाए कि किसके कथन के आधार पर कौन-सी वस्तु मिली।
- न्यायालयों के लिए:
- ऐसे साक्ष्य को स्वीकार करते समय यह देखना होगा कि खुलासा स्वेच्छा से किया गया है या नहीं।
- केवल संयुक्त कथन के आधार पर दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता।
- अभियोजन पक्ष के लिए:
- अभियोजन को ठोस रूप से यह साबित करना होगा कि प्रत्येक अभियुक्त का बयान स्वतंत्र रूप से हुआ और उसके परिणामस्वरूप तथ्यात्मक खोज हुई।
संविधानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को “स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता” (Right against Self-Incrimination)।
संयुक्त खुलासों के मामलों में अक्सर यह तर्क उठता है कि यदि आरोपी पुलिस दबाव में सामूहिक बयान देता है, तो यह उसके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश — “stricter scrutiny” — संविधान की भावना और आरोपी के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी आवश्यक है।
सिद्धांतात्मक महत्व (Doctrinal Significance)
यह निर्णय दो मूल सिद्धांतों को सशक्त बनाता है:
- साक्ष्य की विश्वसनीयता का सिद्धांत (Doctrine of Reliability):
केवल वही साक्ष्य स्वीकार्य है जो भरोसेमंद, स्वतंत्र और न्यायसंगत हो। - न्यायिक सतर्कता का सिद्धांत (Doctrine of Judicial Caution):
जब न्यायालय को यह संदेह हो कि साक्ष्य किसी बाहरी प्रभाव में तैयार हुआ है, तो उसे अत्यधिक सावधानी से जांचना चाहिए।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह हालिया निर्णय भारतीय साक्ष्य कानून के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि संयुक्त खुलासा (Joint Disclosure Statement) को यद्यपि पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया जा सकता, परंतु उसकी स्वीकार्यता सख्त न्यायिक जांच (Stricter Judicial Scrutiny) के अधीन होगी।
यह निर्णय न्याय प्रणाली को यह याद दिलाता है कि —
“न्याय केवल दोषी को दंडित करने में नहीं, बल्कि निर्दोष की रक्षा करने में भी निहित है।”
धारा 27 के अंतर्गत साक्ष्य स्वीकारते समय न्यायालयों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन न हो और केवल ठोस, सत्यापित एवं स्वतंत्र साक्ष्य ही न्याय का आधार बने।
अंततः, यह फैसला भारतीय साक्ष्य प्रणाली में न्यायिक सतर्कता और सत्यनिष्ठा के सिद्धांत को और अधिक सुदृढ़ बनाता है। यह न केवल अभियुक्तों के अधिकारों की सुरक्षा करता है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता को भी कायम रखता है। इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भविष्य में आपराधिक न्यायशास्त्र (Criminal Jurisprudence) की दिशा को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण न्यायिक मील का पत्थर सिद्ध होगा।