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“घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत संरक्षण आदेश (Protection Orders)

“घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत संरक्षण आदेश (Protection Orders): उच्च न्यायालयों की व्याख्या और न्यायिक दृष्टिकोण”

भूमिका (Introduction)

भारत में महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान की रक्षा के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण सामाजिक और कानूनी सुरक्षा कवच प्रदान करता है। यह अधिनियम न केवल शारीरिक हिंसा बल्कि मानसिक, आर्थिक, यौन और मौखिक उत्पीड़न को भी “घरेलू हिंसा” की परिभाषा में शामिल करता है।
इस अधिनियम के अंतर्गत संरक्षण आदेश (Protection Orders) एक अत्यंत प्रभावी उपाय है, जिसके माध्यम से पीड़िता को तत्काल राहत और सुरक्षा दी जाती है। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों में इन आदेशों की व्याख्या की है, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि न्यायालय महिलाओं की गरिमा, सुरक्षा और स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानता है।


संरक्षण आदेश का वैधानिक आधार (Statutory Basis of Protection Orders)

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 18 (Section 18) के अंतर्गत संरक्षण आदेश (Protection Order) जारी करने का प्रावधान किया गया है। यह आदेश महिला मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया जा सकता है, जिससे प्रतिवादी (Respondent) को कुछ निषेधात्मक आदेशों का पालन करना होता है।
इस धारा के अनुसार, मजिस्ट्रेट यह आदेश दे सकता है कि –

  1. प्रतिवादी महिला के साथ किसी भी प्रकार की हिंसा न करे।
  2. महिला के संपर्क में न आए या उसे धमकी न दे।
  3. महिला के निवास स्थान या कार्यस्थल के पास न जाए।
  4. महिला के रिश्तेदारों से संपर्क या उत्पीड़न न करे।
  5. उसके आर्थिक या संपत्ति संबंधी अधिकारों में हस्तक्षेप न करे।

यह आदेश महिलाओं की सुरक्षा के लिए तत्काल और व्यावहारिक उपाय प्रदान करता है।


संरक्षण आदेश की प्रकृति (Nature of Protection Order)

संरक्षण आदेश निषेधात्मक (Restraining) प्रकृति का होता है। इसका उद्देश्य पीड़िता को आगे होने वाली हिंसा से बचाना है, न कि केवल अतीत की घटनाओं की सजा देना।
यह आदेश सिविल प्रकृति का होते हुए भी इसका उल्लंघन आपराधिक दायित्व उत्पन्न करता है। अधिनियम की धारा 31 के तहत यदि प्रतिवादी संरक्षण आदेश का उल्लंघन करता है, तो यह एक दंडनीय अपराध है, जिसमें एक वर्ष तक की कैद और जुर्माना हो सकता है।


संरक्षण आदेश के लिए आवेदन प्रक्रिया (Procedure for Obtaining Protection Order)

महिला या उसकी ओर से कोई भी प्रतिनिधि, जैसे कि Protection Officer या NGO, मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।
मजिस्ट्रेट आवेदन प्राप्त होने के बाद दोनों पक्षों की सुनवाई करता है और यह संतुष्टि होने पर कि घरेलू हिंसा हुई है या संभावित है, संरक्षण आदेश जारी कर सकता है।
कई मामलों में, अदालत अंतरिम (Interim) आदेश भी जारी करती है ताकि पीड़िता को त्वरित राहत मिल सके।


उच्च न्यायालयों की व्याख्या और प्रमुख निर्णय (High Court Interpretations and Key Judgments)

1. Smt. Hema vs. State of Tamil Nadu (Madras High Court, 2010)

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि संरक्षण आदेश का उद्देश्य केवल हिंसा को रोकना नहीं है, बल्कि महिलाओं के मानवीय अधिकारों और गरिमा की रक्षा करना भी है। अदालत ने यह भी कहा कि Protection Order एक सुरक्षात्मक उपाय है, न कि दंडात्मक।

2. S.R. Batra vs. Taruna Batra (Delhi High Court, 2007)

इस प्रकरण में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि महिला को “shared household” (साझा गृह) में निवास का अधिकार है। हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्याख्या सीमित की कि यह अधिकार पति के स्वामित्व वाले घर तक सीमित है, न कि सास-ससुर की संपत्ति पर।
फिर भी, उच्च न्यायालयों ने इस निर्णय के बाद यह माना कि संरक्षण आदेश महिला की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दिया जा सकता है, चाहे संपत्ति का स्वामित्व किसी के नाम पर हो।

3. Krishna Bhattacharjee vs. Sarathi Choudhury (Gauhati High Court, 2012)

इस मामले में उच्च न्यायालय ने कहा कि Protection Order तभी प्रभावी होगा जब हिंसा जारी हो या उसका खतरा बना रहे। यदि घटना समाप्त हो चुकी है और कोई पुनरावृत्ति नहीं है, तो अदालत को आदेश जारी करते समय सावधानी बरतनी चाहिए।

4. Harbans Lal vs. State of Punjab (Punjab & Haryana High Court, 2015)

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि Protection Orders केवल पति के खिलाफ ही नहीं बल्कि उन सभी पर लागू हो सकते हैं जो घरेलू संबंध में हैं और जिन्होंने किसी प्रकार की हिंसा की है — जैसे सास, ननद, देवर आदि।


संरक्षण आदेश की व्यावहारिक प्रासंगिकता (Practical Relevance of Protection Orders)

संरक्षण आदेश महिलाओं के लिए तात्कालिक राहत का प्रभावी साधन है। यह आदेश महिला को उसके घर, कार्यस्थल, या जीवन के किसी भी क्षेत्र में सुरक्षा प्रदान करता है।
व्यवहार में यह आदेश पुलिस सहायता, निवास सुरक्षा, मानसिक शांति और कानूनी संरक्षण सुनिश्चित करता है।

कई मामलों में देखा गया है कि Protection Orders के कारण घरेलू हिंसा की घटनाओं में कमी आई है क्योंकि प्रतिवादी पर अदालत का दबाव पड़ता है।


न्यायालयों का संतुलित दृष्टिकोण (Judicial Balancing Approach)

उच्च न्यायालयों ने यह भी स्पष्ट किया है कि संरक्षण आदेश जारी करते समय न्यायिक विवेक (Judicial Discretion) का प्रयोग आवश्यक है।
अदालत को यह देखना होता है कि —

  • क्या महिला की सुरक्षा वास्तव में खतरे में है,
  • क्या आदेश का दुरुपयोग होने की संभावना है,
  • और क्या यह आदेश न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों के अनुरूप है।

इस प्रकार, न्यायालय एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हैं, जिसमें पीड़िता की सुरक्षा के साथ-साथ प्रतिवादी के अधिकारों की भी रक्षा होती है।


सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण (Supreme Court’s Perspective)

सुप्रीम कोर्ट ने Inderjit Singh Grewal vs. State of Punjab (2011) में यह कहा कि Protection Orders का उद्देश्य महिला को सुरक्षा देना है, न कि प्रतिवादी को अनावश्यक रूप से दंडित करना।
इसी प्रकार V.D. Bhanot vs. Savita Bhanot (2012) में न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यह अधिनियम उन महिलाओं पर भी लागू होता है जिनकी शादी 2005 से पहले हुई थी।
इन निर्णयों से यह सिद्ध होता है कि न्यायालय संरक्षण आदेश को सामाजिक न्याय का एक महत्वपूर्ण साधन मानते हैं।


संरक्षण आदेश के उल्लंघन की स्थिति (Violation of Protection Order)

यदि प्रतिवादी आदेश का पालन नहीं करता है, तो यह एक दंडनीय अपराध माना जाता है।
मजिस्ट्रेट के पास यह अधिकार है कि वह प्रतिवादी को गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है या जमानत से इंकार कर सकता है।
इस प्रावधान का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि Protection Order केवल एक औपचारिक आदेश न रह जाए, बल्कि एक प्रभावी कानूनी उपाय बने।


महिला अधिकारों की संवैधानिक रक्षा (Constitutional Safeguards for Women)

संरक्षण आदेश भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 15(3) (महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के अनुरूप हैं।
इस प्रकार, Protection Order न केवल वैधानिक प्रावधान है, बल्कि यह संविधानिक नैतिकता और सामाजिक न्याय की भावना को भी सुदृढ़ करता है।


निष्कर्ष (Conclusion)

घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत संरक्षण आदेश भारतीय न्याय व्यवस्था का एक सशक्त उपकरण है जो महिलाओं को हिंसा से बचाने और उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर देता है।
उच्च न्यायालयों ने समय-समय पर इन आदेशों की व्याख्या करते हुए यह सुनिश्चित किया है कि न्याय केवल कागज़ों तक सीमित न रहे, बल्कि पीड़िता के जीवन में वास्तविक सुरक्षा और राहत प्रदान करे।

इस अधिनियम और Protection Orders की सफलता इस बात में निहित है कि समाज में महिलाओं के प्रति सम्मान, समानता और संवेदनशीलता का भाव जागृत हो।
अतः यह कहा जा सकता है कि Protection Orders न केवल एक कानूनी उपाय हैं, बल्कि यह भारतीय न्याय प्रणाली के मानवीय चेहरे का प्रतीक भी हैं।


प्रश्न 1. घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 का मुख्य उद्देश्य क्या है?

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 का उद्देश्य महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, यौन, भावनात्मक और आर्थिक हिंसा से सुरक्षा प्रदान करना है। यह अधिनियम महिलाओं के लिए एक सशक्त कानूनी उपाय उपलब्ध कराता है, जिसके माध्यम से वे अपने पति या किसी भी घरेलू संबंध में हिंसक व्यक्ति के विरुद्ध राहत प्राप्त कर सकती हैं। इस कानून की विशेषता यह है कि यह केवल विवाहित महिलाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि किसी भी प्रकार के घरेलू संबंध जैसे — जीवित साथ (live-in relationship), या पारिवारिक सदस्य के साथ रहना — पर भी लागू होता है। इस अधिनियम के अंतर्गत संरक्षण आदेश, निवास आदेश, मुआवजा आदेश, और भरण-पोषण आदेश जैसी कई राहतें प्रदान की गई हैं, जिससे महिलाओं को संपूर्ण सुरक्षा और गरिमा मिल सके।


प्रश्न 2. संरक्षण आदेश (Protection Order) का कानूनी आधार क्या है?

संरक्षण आदेश का कानूनी आधार धारा 18 (Section 18) में निहित है। यह धारा मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देती है कि वह प्रतिवादी के विरुद्ध ऐसा आदेश पारित करे जिससे वह पीड़िता के साथ किसी भी प्रकार की हिंसा न करे, न उसे धमकाए, न उसके संपर्क में आए, और न ही उसके आर्थिक या संपत्ति अधिकारों में हस्तक्षेप करे। यह आदेश एक निषेधात्मक (Restraining) आदेश होता है, जो महिला की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। Protection Order का उल्लंघन धारा 31 के तहत अपराध माना जाता है, जिसमें एक वर्ष तक की सजा और जुर्माना हो सकता है। इस प्रकार, यह प्रावधान महिलाओं को त्वरित और व्यावहारिक सुरक्षा प्रदान करता है।


प्रश्न 3. संरक्षण आदेश प्राप्त करने की प्रक्रिया क्या है?

महिला स्वयं या उसकी ओर से कोई प्रतिनिधि (Protection Officer या NGO) मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। आवेदन प्राप्त होने के बाद मजिस्ट्रेट दोनों पक्षों की सुनवाई करता है और यदि यह पाया जाता है कि महिला के साथ घरेलू हिंसा हुई है या भविष्य में हो सकती है, तो वह संरक्षण आदेश जारी कर सकता है। यह आदेश अस्थायी (interim) या स्थायी दोनों हो सकता है। अदालत महिला की सुरक्षा के लिए पुलिस सहायता का निर्देश भी दे सकती है। आवेदन की सुनवाई त्वरित रूप से की जानी चाहिए ताकि पीड़िता को शीघ्र राहत मिल सके। इस प्रक्रिया का उद्देश्य न्याय की गति को सरल और प्रभावी बनाना है।


प्रश्न 4. संरक्षण आदेश का स्वरूप (Nature) क्या है?

संरक्षण आदेश एक निषेधात्मक (Prohibitory) आदेश होता है, जिसका उद्देश्य पीड़िता को आगे होने वाली हिंसा से बचाना है। यह आदेश दंडात्मक नहीं बल्कि सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला आदेश है। हालांकि, यदि प्रतिवादी इस आदेश का उल्लंघन करता है, तो वह आपराधिक दायित्व का पात्र बनता है। Protection Order सिविल प्रकृति का होते हुए भी उसके उल्लंघन पर आपराधिक सजा दी जा सकती है। यह आदेश पीड़िता के जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करता है तथा उसे भयमुक्त वातावरण में जीने का अवसर देता है।


प्रश्न 5. धारा 18 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के अधिकार क्या हैं?

धारा 18 मजिस्ट्रेट को व्यापक अधिकार प्रदान करती है। मजिस्ट्रेट प्रतिवादी को यह आदेश दे सकता है कि वह —

  1. महिला को किसी भी प्रकार की हिंसा न करे।
  2. उसके घर या कार्यस्थल के आसपास न जाए।
  3. उसकी संपत्ति या आय में हस्तक्षेप न करे।
  4. उसे या उसके रिश्तेदारों को धमकी न दे।
  5. किसी भी प्रकार का संचार (communication) न करे।
    ये सभी प्रावधान महिला को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करते हैं। मजिस्ट्रेट इन आदेशों का उल्लंघन करने वाले के विरुद्ध गिरफ्तारी या दंडात्मक कार्रवाई का आदेश भी दे सकता है।

प्रश्न 6. उच्च न्यायालयों ने संरक्षण आदेश की क्या व्याख्या की है?

उच्च न्यायालयों ने संरक्षण आदेश को एक सामाजिक न्याय उपाय के रूप में व्याख्यायित किया है। Madras High Court ने Hema बनाम State of Tamil Nadu (2010) में कहा कि यह आदेश महिला के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए है। Punjab & Haryana High Court ने Harbans Lal केस में यह स्पष्ट किया कि यह आदेश केवल पति तक सीमित नहीं बल्कि किसी भी घरेलू संबंध में हिंसा करने वाले व्यक्ति पर लागू हो सकता है। अदालतों ने यह भी कहा कि Protection Order का उद्देश्य हिंसा को रोकना है, न कि केवल दंड देना। यह व्याख्याएँ महिला अधिकारों के सशक्तीकरण में मील का पत्थर हैं।


प्रश्न 7. Protection Order और Residence Order में क्या अंतर है?

Protection Order (धारा 18) मुख्य रूप से हिंसा रोकने के लिए निषेधात्मक आदेश है, जबकि Residence Order (धारा 19) महिला को उसके निवास स्थान में रहने का अधिकार सुनिश्चित करता है। Protection Order का उद्देश्य हिंसा से बचाव करना है, वहीं Residence Order का उद्देश्य महिला के आश्रय और जीवनयापन की सुरक्षा करना है। दोनों आदेशों में समानता यह है कि दोनों मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किए जाते हैं और महिला की सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। लेकिन दोनों का उद्देश्य और परिणाम अलग-अलग हैं — एक “सुरक्षा” पर केंद्रित है, दूसरा “निवास अधिकार” पर।


प्रश्न 8. संरक्षण आदेश के उल्लंघन के क्या परिणाम होते हैं?

यदि प्रतिवादी Protection Order का उल्लंघन करता है, तो यह धारा 31 के तहत अपराध माना जाता है। इस अपराध के लिए अधिकतम एक वर्ष की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, मजिस्ट्रेट प्रतिवादी की गिरफ्तारी का आदेश दे सकता है। अदालत इस उल्लंघन को गंभीर अपराध मानती है क्योंकि यह न केवल अदालत की अवमानना है बल्कि पीड़िता की सुरक्षा का उल्लंघन भी है। इसलिए, Protection Order का पालन अनिवार्य और कानूनी रूप से बाध्यकारी होता है।


प्रश्न 9. सुप्रीम कोर्ट ने संरक्षण आदेशों पर क्या दृष्टिकोण अपनाया है?

सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न मामलों में Protection Orders को महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों से जोड़ा है। V.D. Bhanot vs. Savita Bhanot (2012) में न्यायालय ने कहा कि यह अधिनियम पिछली घटनाओं पर भी लागू होता है। Inderjit Singh Grewal vs. State of Punjab (2011) में यह स्पष्ट किया गया कि Protection Order का उद्देश्य महिला को सुरक्षा देना है, न कि प्रतिवादी को सजा देना। इन निर्णयों से स्पष्ट होता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को महिलाओं के जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा के संवैधानिक अधिकारों का विस्तार माना है।


प्रश्न 10. Protection Orders का सामाजिक महत्व क्या है?

Protection Orders का सामाजिक महत्व अत्यधिक है। यह न केवल कानून की दृष्टि से सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि महिलाओं में आत्मविश्वास और सशक्तिकरण की भावना को भी बढ़ाता है। इन आदेशों ने घरेलू हिंसा के मामलों में त्वरित राहत की परंपरा स्थापित की है, जिससे महिलाओं को पुलिस या सामाजिक दबाव से अलग एक कानूनी सुरक्षा मिलती है। समाज में महिलाओं की स्थिति मजबूत करने और उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर प्रदान करने में Protection Orders की भूमिका निर्णायक है। यह आदेश भारत की न्यायिक प्रणाली के मानवीय और प्रगतिशील दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।