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“हाई कोर्ट ने कहा – महिला को नौकरी मिलने पर भी भरण-पोषण का अधिकार”

हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: महिला को नौकरी मिलने पर भी भरण-पोषण का अधिकार

प्रस्तावना

भारतीय समाज में विवाह को एक पवित्र और सामाजिक संस्था माना जाता है। यह केवल पति-पत्नी के बीच का भावनात्मक बंधन नहीं है, बल्कि इसमें पारस्परिक कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ भी जुड़ी होती हैं। पति-पत्नी का संबंध जीवन के हर सुख-दुख में एक-दूसरे का सहारा बनने पर आधारित है। जब विवाह संबंधों में खटास आती है, तब अक्सर सबसे अधिक प्रभावित होने वाला पहलू आर्थिक सहयोग और भरण-पोषण का होता है।

हाल ही में एक हाई कोर्ट ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि यदि महिला नौकरी कर रही है या उसे कोई आय प्राप्त हो रही है, तो भी पति की भरण-पोषण की जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती। यह फैसला भारतीय पारिवारिक कानून और महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।


भरण-पोषण की अवधारणा

“भरण-पोषण” का तात्पर्य केवल भोजन या जीवन निर्वाह से नहीं है, बल्कि इसमें सम्मानजनक जीवन जीने के लिए आवश्यक सभी साधनों का समावेश होता है।

1. धार्मिक आधार

  • मनुस्मृति में पति को पत्नी और संतान का पालन-पोषण करने वाला माना गया है।
  • इस्लामिक कानून में भी निकाह के बाद पति की जिम्मेदारी पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की होती है।
  • ईसाई और अन्य धर्मों में भी परिवार प्रमुख (आमतौर पर पति) को आर्थिक जिम्मेदारी का वहन करना आवश्यक माना गया है।

2. कानूनी आधार

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 – पत्नी, बच्चे और माता-पिता के लिए भरण-पोषण का प्रावधान।
  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 – धारा 24 और 25 में पत्नी (या पति) को स्थायी व अंतरिम भरण-पोषण का अधिकार।
  • घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 – इसमें भी महिला को आर्थिक सहायता और आवासीय सुरक्षा का अधिकार।

हाई कोर्ट का फैसला

अदालत ने कहा कि –

  • महिला का नौकरी करना पति की जिम्मेदारी समाप्त नहीं करता।
  • यदि महिला की आय इतनी कम है कि उससे उसका जीवनस्तर, गरिमा और आवश्यक खर्च पूरे नहीं हो पाते, तो पति को भरण-पोषण देना ही होगा।
  • विवाह एक सामाजिक अनुबंध है जिसमें पति का दायित्व केवल भावनात्मक ही नहीं बल्कि आर्थिक भी है।
  • पति का यह तर्क मान्य नहीं कि चूँकि पत्नी नौकरी करती है, इसलिए उसे भरण-पोषण नहीं मिलेगा।

अदालत की प्रमुख दलीलें

  1. समान जीवन स्तर का अधिकार
    न्यायालय ने कहा कि पत्नी को पति के समान जीवन स्तर प्राप्त करने का अधिकार है। यदि पति उच्च वेतन अर्जित करता है और पत्नी की आय सीमित है, तो पति को उसे अतिरिक्त भरण-पोषण देना होगा।
  2. गरिमा और आत्मसम्मान
    स्त्री को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने का अर्थ यह नहीं है कि उसे पति की सहायता की आवश्यकता नहीं है। भरण-पोषण उसका संवैधानिक और वैधानिक अधिकार है।
  3. नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी
    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विवाह केवल एक कानूनी संबंध नहीं है, बल्कि इसमें पति का नैतिक और सामाजिक दायित्व भी शामिल है।

फैसले के दूरगामी प्रभाव

1. महिलाओं के अधिकारों की मजबूती

यह फैसला उन महिलाओं के लिए राहतकारी है जो नौकरी करती हैं परंतु आय पर्याप्त नहीं होती।

2. लैंगिक न्याय

यह निर्णय साबित करता है कि भरण-पोषण केवल बेरोजगार महिला का अधिकार नहीं बल्कि हर पत्नी का अधिकार है।

3. विवाह संस्था की स्थिरता

पति की जिम्मेदारी बनाए रखने से परिवार और विवाह संस्था का आधार मजबूत होता है।

4. कानूनी दृष्टांत

यह फैसला आने वाले समय में अन्य न्यायालयों में नज़ीर (precedent) बनेगा।


न्यायपालिका में पहले के फैसले

  1. चंद्रकला बनाम सुरेंद्र (SC, 1997) – पत्नी के पास कुछ आय होने के बावजूद पति को भरण-पोषण देना पड़ा।
  2. शैलजा बनाम खलिल अहमद (SC, 2017) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पत्नी की आय होने से उसका भरण-पोषण का अधिकार खत्म नहीं होता।
  3. भारत सरकार बनाम वेदिता शर्मा (2020) – अदालत ने समान अधिकार और आर्थिक सहयोग पर जोर दिया।

सामाजिक दृष्टिकोण

  • आर्थिक असमानता – अधिकांश महिलाएं अभी भी पुरुषों की तुलना में कम आय अर्जित करती हैं।
  • सामाजिक संरचना – भारत जैसे समाज में महिलाएं अक्सर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी उठाती हैं, जिससे उनकी कमाई सीमित रहती है।
  • मानसिक दबाव – पति-पत्नी के विवाद में महिला को अक्सर आर्थिक रूप से असुरक्षित स्थिति का सामना करना पड़ता है।

आलोचनाएँ

  1. पति पर बोझ – कई पुरुष संगठन मानते हैं कि नौकरीपेशा महिला को भी भरण-पोषण देना अनुचित है।
  2. दुरुपयोग की संभावना – कुछ महिलाएं उच्च आय होने के बावजूद भरण-पोषण का दावा करती हैं।
  3. कानूनी जटिलता – हर मामले में आय, खर्च और जिम्मेदारियों का निर्धारण कठिन होता है।

सुधार की दिशा

1. भरण-पोषण की गणना के लिए मानक

सरकार को एक फिक्स्ड गाइडलाइन बनानी चाहिए कि पति की आय का कितना प्रतिशत पत्नी को भरण-पोषण में दिया जाएगा।

2. न्यायिक प्रक्रिया में तेजी

भरण-पोषण से जुड़े मुकदमे अक्सर वर्षों तक चलते हैं। इसके लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट की आवश्यकता है।

3. पति-पत्नी दोनों की जिम्मेदारी

यदि पत्नी अधिक आय अर्जित करती है तो पति के भरण-पोषण का भी प्रावधान होना चाहिए।

4. मध्यस्थता (Mediation)

पति-पत्नी के बीच विवाद अदालत के बाहर ही सुलझाने का प्रयास होना चाहिए।


संविधानिक परिप्रेक्ष्य

  • अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) – भरण-पोषण में लैंगिक भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  • अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) – सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार भरण-पोषण से जुड़ा है।
  • अनुच्छेद 15(3) – महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं।

निष्कर्ष

हाई कोर्ट का यह फैसला भारतीय न्यायपालिका की प्रगतिशील सोच को दर्शाता है। महिला के नौकरी करने के बावजूद पति की भरण-पोषण की जिम्मेदारी खत्म नहीं होती। यह केवल आर्थिक सहयोग का विषय नहीं बल्कि स्त्री की गरिमा, सम्मान और सामाजिक सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है।

इस निर्णय से स्पष्ट संदेश जाता है कि विवाह में पति-पत्नी दोनों समान हैं, लेकिन पति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। महिलाओं को आर्थिक रूप से सक्षम और सुरक्षित बनाने में यह फैसला मील का पत्थर साबित होगा।


1. प्रश्न: हाई कोर्ट के फैसले में मुख्य रूप से क्या कहा गया?

उत्तर: हाई कोर्ट ने कहा कि यदि पत्नी नौकरी करती है तब भी पति की भरण-पोषण की जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती। महिला की आय उसके जीवन-यापन और गरिमा को बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती। विवाह एक सामाजिक व कानूनी संस्था है, जिसमें पति का दायित्व केवल भावनात्मक सहयोग तक सीमित नहीं बल्कि आर्थिक जिम्मेदारी भी है। इसलिए पति को भरण-पोषण देना आवश्यक है ताकि पत्नी का जीवन स्तर पति के बराबर रह सके और उसका सम्मान सुरक्षित रहे।


2. प्रश्न: भरण-पोषण का कानूनी आधार क्या है?

उत्तर: भारतीय कानून में भरण-पोषण के कई आधार हैं। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 पत्नी, बच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण दिलाने का अधिकार देती है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 और 25 विवाह विच्छेद से पहले और बाद में भरण-पोषण का प्रावधान करती है। घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 में भी महिला को आर्थिक सहायता व आवासीय अधिकार दिए गए हैं। इन प्रावधानों का उद्देश्य महिलाओं को आर्थिक रूप से सुरक्षित रखना और पति की जिम्मेदारी को बनाए रखना है।


3. प्रश्न: न्यायालय ने पति की जिम्मेदारी क्यों कायम रखी?

उत्तर: न्यायालय ने माना कि महिला का नौकरी करना पति की जिम्मेदारी खत्म नहीं करता क्योंकि उसकी आय हमेशा पर्याप्त नहीं होती। विवाह में पति-पत्नी को समान जीवन स्तर का अधिकार है। यदि पति अधिक कमाता है और पत्नी कम, तो पति को सहयोग करना होगा। यह पत्नी की गरिमा और आत्मसम्मान का भी प्रश्न है। पति का दायित्व केवल कानूनी ही नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक भी है। इसलिए अदालत ने पति की जिम्मेदारी को स्पष्ट और कायम रखा।


4. प्रश्न: यह फैसला महिलाओं के अधिकारों को कैसे मजबूत करता है?

उत्तर: यह फैसला महिलाओं के अधिकारों को मजबूत करता है क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि भरण-पोषण केवल बेरोजगार महिला का अधिकार नहीं है। नौकरी करने वाली महिला भी यदि पर्याप्त आय अर्जित नहीं कर पा रही है, तो वह भरण-पोषण की हकदार होगी। इससे महिला की आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक स्थिति और आत्मसम्मान की रक्षा होती है। यह निर्णय लैंगिक समानता और न्याय की दिशा में एक बड़ा कदम है और महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।


5. प्रश्न: फैसले के सामाजिक प्रभाव क्या हैं?

उत्तर: इस फैसले का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। यह संदेश देगा कि विवाह केवल भावनात्मक नहीं बल्कि आर्थिक जिम्मेदारियों पर भी आधारित है। महिलाओं को नौकरी करने पर भी आर्थिक सहयोग मिलेगा, जिससे वे अधिक सुरक्षित महसूस करेंगी। पति-पत्नी के बीच समानता का सिद्धांत मजबूत होगा। यह निर्णय समाज में महिलाओं की गरिमा और सम्मान बढ़ाएगा तथा परिवार और विवाह संस्था को स्थिर बनाएगा। इससे लैंगिक न्याय और समानता की दिशा में समाज को प्रोत्साहन मिलेगा।


6. प्रश्न: न्यायालय ने भरण-पोषण निर्धारण के लिए किन बातों पर ध्यान देने को कहा?

उत्तर: न्यायालय ने कहा कि भरण-पोषण का निर्धारण करते समय पति की आय, संपत्ति, पत्नी की आय, बच्चों की जिम्मेदारी और पति-पत्नी का सामाजिक व आर्थिक दर्जा देखा जाना चाहिए। पत्नी की नौकरी या आय केवल एक कारक है, लेकिन उससे पति की जिम्मेदारी खत्म नहीं होती। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भरण-पोषण का उद्देश्य पत्नी को सम्मानजनक जीवन और समान जीवन स्तर दिलाना है। इसलिए निर्धारण संतुलित और न्यायपूर्ण होना चाहिए।


7. प्रश्न: इस फैसले से विवाह संस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

उत्तर: विवाह संस्था की मजबूती इसी में है कि पति और पत्नी दोनों अपनी जिम्मेदारियों को समझें। इस फैसले से यह स्पष्ट हुआ कि पति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता, चाहे पत्नी नौकरी कर रही हो। यह विवाह में सहयोग और साझेदारी के मूल सिद्धांत को मजबूत करेगा। पति-पत्नी दोनों को यह संदेश मिलेगा कि विवाह केवल अधिकारों का नहीं बल्कि कर्तव्यों का भी बंधन है। इससे विवाह संस्था अधिक स्थिर और जिम्मेदार बनेगी।


8. प्रश्न: फैसले के आलोचनात्मक पहलू क्या हैं?

उत्तर: फैसले की कुछ आलोचनाएँ भी हैं। कई पुरुष संगठन मानते हैं कि नौकरीपेशा महिला को भरण-पोषण देना पति पर अनुचित बोझ डालता है। कुछ मामलों में महिलाएँ पर्याप्त आय होने के बावजूद भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं, जिससे दुरुपयोग की संभावना बढ़ती है। आय और खर्च का निर्धारण व्यावहारिक रूप से कठिन होता है। फिर भी अदालत ने स्पष्ट किया कि न्याय केवल आय पर नहीं बल्कि जीवन स्तर और गरिमा पर आधारित होना चाहिए।


9. प्रश्न: इस फैसले से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हो सकती हैं?

उत्तर: फैसले को लागू करने में कई चुनौतियाँ आ सकती हैं। पहला, पति की आय और पत्नी की वास्तविक आवश्यकता का आकलन कठिन होता है। दूसरा, न्यायालयों में भरण-पोषण से जुड़े मुकदमों की लंबी कतार पहले से है, जिससे न्याय में देरी होती है। तीसरा, कुछ मामलों में दुरुपयोग की संभावना रहती है। चौथा, डिजिटल और सामाजिक असमानताओं के कारण महिला को वास्तविक सहायता समय पर न मिल सके। इन चुनौतियों के बावजूद फैसला महिलाओं के लिए सकारात्मक है।


10. प्रश्न: इस फैसले का दीर्घकालीन महत्व क्या है?

उत्तर: इस फैसले का दीर्घकालीन महत्व बहुत व्यापक है। यह महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा और सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार देता है। यह स्पष्ट करता है कि भरण-पोषण पति की जिम्मेदारी है, चाहे पत्नी नौकरी कर रही हो या नहीं। यह फैसला भविष्य में अन्य मामलों में मिसाल (precedent) बनेगा। इससे भारतीय न्यायपालिका की प्रगतिशील सोच और लैंगिक समानता की दिशा में प्रतिबद्धता सामने आती है। दीर्घकाल में यह महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा।