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धारा 27 साक्ष्य अधिनियम और एकाधिक आरोपियों द्वारा समानांतर खुलासे :

⚖️ धारा 27 साक्ष्य अधिनियम और एकाधिक आरोपियों द्वारा समानांतर खुलासे: सुप्रीम कोर्ट का गहन परीक्षण पर ऐतिहासिक निर्णय


🔹 भूमिका

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में स्वीकृति (Confession) और खुलासा बयान (Disclosure Statement) का विशेष महत्व है। अभियोजन प्रायः अपराध की जांच के दौरान आरोपी के बयानों पर भरोसा करता है, लेकिन अदालतें हमेशा इन बयानों को सावधानीपूर्वक परखती हैं।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 27 एक महत्वपूर्ण अपवाद (exception) प्रदान करती है। सामान्यत: पुलिस के सामने आरोपी का बयान स्वीकार्य नहीं होता, परंतु यदि उस बयान से कोई तथ्य बरामद होता है, तो उतना हिस्सा स्वीकार्य होता है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम निर्णय में कहा कि जब एकाधिक आरोपी (multiple accused) एक साथ या लगभग एक ही समय पर Disclosure Statements देते हैं, तो अदालतों को ऐसे बयानों की वैधता और विश्वसनीयता पर अधिक गहन जांच (greater scrutiny) करनी चाहिए।


🔹 धारा 27 साक्ष्य अधिनियम: एक संक्षिप्त परिचय

⚖️ धारा 27 का पाठ (Text of Section 27)

“Provided that, when any fact is deposed to as discovered in consequence of information received from a person accused of any offence, in the custody of a police officer, so much of such information, whether it amounts to a confession or not, as relates distinctly to the fact thereby discovered, may be proved.”

🔑 मुख्य बिंदु

  1. सामान्य नियम – पुलिस के सामने दिया गया स्वीकारोक्ति बयान सबूत के रूप में मान्य नहीं है।
  2. अपवाद (Exception) – यदि आरोपी के बयान से कोई तथ्य जैसे हथियार, चोरी का सामान, शव आदि बरामद होता है, तो वह बरामदगी और बयान का उतना हिस्सा मान्य होगा।
  3. शर्तें
    • आरोपी पुलिस की हिरासत में हो,
    • बयान से कोई नया तथ्य बरामद हो,
    • केवल उतना ही हिस्सा सबूत के रूप में स्वीकार्य होगा जो बरामदगी से संबंधित हो।

🔹 विवाद का केंद्र (Core Issue)

कई बार पुलिस जांच में यह होता है कि:

  • एक से अधिक आरोपी एक ही समय पर या करीब-करीब एक साथ बयान देते हैं।
  • इन बयानों के आधार पर बरामदगी भी साथ-साथ या एक-दूसरे से जुड़ी हुई दिखाई जाती है।

ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है:
👉 क्या इन बयानों को स्वतंत्र और विश्वसनीय माना जाए या यह केवल पुलिस द्वारा गढ़ा गया (fabricated) हो सकता है?

यही प्रश्न सुप्रीम कोर्ट के सामने हाल के मामले में आया।


🔹 याचिकाकर्ताओं के तर्क (Arguments of the Appellants/Accused)

  1. समानांतर बयान गढ़े हुए हो सकते हैं
    • यदि कई आरोपी एक ही समय पर बयान देते हैं और उसी आधार पर बरामदगी दिखाई जाती है, तो उसकी सत्यता संदिग्ध है।
  2. पुलिस की भूमिका संदिग्ध
    • पुलिस अक्सर कहानी बनाने के लिए इस तरह के बयानों को तैयार कर देती है।
  3. धारा 27 का दुरुपयोग
    • धारा 27 का उद्देश्य केवल वास्तविक और स्वतंत्र बरामदगी को मान्य करना है, न कि सामूहिक और मनगढ़ंत बयान को।

🔹 राज्य/अभियोजन पक्ष के तर्क (Arguments of the State/Prosecution)

  1. बरामदगी वास्तविक है
    • चाहे बयान एक साथ दर्ज हुआ हो, लेकिन यदि बरामदगी वास्तविक है तो वह सबूत के रूप में मान्य होनी चाहिए।
  2. न्यायालय का दायित्व
    • अदालतें यह देख सकती हैं कि बरामदगी वास्तविक है या नहीं।
  3. धारा 27 का समर्थन
    • यदि बरामदगी आरोपी के बयान से सीधे जुड़ी है तो उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

🔹 सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Supreme Court’s Judgment)

सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत विचार के बाद निम्न महत्वपूर्ण बिंदु स्पष्ट किए:

1. Greater Scrutiny आवश्यक

  • जब एक से अधिक आरोपी एक साथ या करीब समय पर खुलासा बयान देते हैं, तो अदालतों को बढ़ी हुई सतर्कता (heightened caution) से इन बयानों का मूल्यांकन करना चाहिए।
  • यह देखने की आवश्यकता है कि कहीं पुलिस ने आरोपियों से बयान मनगढ़ंत तरीके से तो नहीं दिलवाए।

2. स्वतंत्रता और विश्वसनीयता

  • हर आरोपी का खुलासा बयान स्वतंत्र रूप से जांचा जाना चाहिए।
  • यदि सभी बयान एक जैसे और यांत्रिक प्रतीत हों, तो उनकी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आएगी।

3. बरामदगी ही निर्णायक कारक

  • वास्तविक और स्वतंत्र बरामदगी ही धारा 27 को लागू करने का आधार है।
  • यदि बरामदगी संदिग्ध या कृत्रिम लगे तो बयान स्वीकार्य नहीं होगा।

4. धारा 27 का दुरुपयोग रोकना

  • न्यायालय ने चेतावनी दी कि धारा 27 का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
  • पुलिस को यह सुविधा नहीं दी जा सकती कि वह मनमर्जी से कई आरोपियों से समानांतर बयान तैयार कर दे और बाद में बरामदगी दिखाकर उसे वैध बना दे।

🔹 निर्णय का महत्व (Significance of the Judgment)

  1. पुलिस जांच पर नियंत्रण
    • इस निर्णय से पुलिस पर अंकुश लगेगा कि वह फर्जी समानांतर खुलासा बयान तैयार न करे।
  2. न्यायिक मानक ऊँचे हुए
    • अदालतों को अब अधिक सतर्क रहना होगा और गहन परीक्षण करना होगा।
  3. आरोपियों के अधिकारों की सुरक्षा
    • इस निर्णय से आरोपियों को यह सुरक्षा मिली कि उनके बयानों को स्वतः ही वैध नहीं माना जाएगा।
  4. साक्ष्य कानून में स्पष्टता
    • अब स्पष्ट हो गया है कि simultaneous disclosure statements का मूल्यांकन सामान्य से अधिक कठोर मानक पर होगा।

🔹 आलोचना (Criticism of the Judgment)

  1. अभियोजन की कठिनाई
    • अभियोजन पक्ष को अब अधिक सबूत पेश करने होंगे। केवल खुलासा बयान और बरामदगी पर्याप्त नहीं होगी।
  2. जांच में जटिलता
    • पुलिस जांच और जटिल हो जाएगी, क्योंकि उन्हें हर बयान की स्वतंत्रता और विश्वसनीयता साबित करनी होगी।
  3. वास्तविक मामलों में देरी
    • इससे मुकदमों में देरी हो सकती है, क्योंकि अदालतें अधिक गहन परीक्षण करेंगी।

🔹 सकारात्मक पहलू (Positive Aspects)

  1. न्याय की गुणवत्ता में सुधार
    • गलत या फर्जी बयानों के आधार पर सजा होने की संभावना घटेगी।
  2. प्राकृतिक न्याय की रक्षा
    • यह निर्णय प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) और निष्पक्ष मुकदमे (Fair Trial) के सिद्धांतों को मजबूत करता है।
  3. जांच की पारदर्शिता
    • पुलिस को मजबूर होना पड़ेगा कि वह सच्ची और पारदर्शी जांच करे।

🔹 प्रमुख नज़ीरें (Key Precedents Cited)

  1. Pulukuri Kottaya v. Emperor (AIR 1947 PC 67)
    • धारा 27 की क्लासिक व्याख्या की गई कि केवल वही हिस्सा मान्य होगा जो बरामदगी से सीधे जुड़ा है।
  2. State of Maharashtra v. Damu (2000)
    • बरामदगी के महत्व और धारा 27 की सीमाओं पर विचार।
  3. हालिया निर्णय (Current Case)
    • सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि simultaneous disclosure statements को सामान्य नियम से अलग मानकों पर परखा जाएगा।

🔹 निष्कर्ष (Conclusion)

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 की व्याख्या में एक नया आयाम जोड़ता है। अब यह स्पष्ट है कि:

  • एकाधिक आरोपियों द्वारा एक साथ दिए गए खुलासा बयानों (Simultaneous Disclosure Statements) को सामान्य बयानों की तरह नहीं देखा जाएगा।
  • इन बयानों को अदालतें अधिक गहन और कठोर परीक्षण के बाद ही मानेंगी।
  • बरामदगी तभी स्वीकार्य होगी जब वह वास्तविक और स्वतंत्र रूप से साबित हो सके।

यह निर्णय न केवल आरोपियों के अधिकारों की रक्षा करता है बल्कि न्यायालयों को भी यह मार्गदर्शन देता है कि किस प्रकार धारा 27 का दुरुपयोग रोका जाए।

अंततः, यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में निष्पक्ष मुकदमे, पारदर्शिता और प्राकृतिक न्याय को सशक्त बनाता है और यह संदेश देता है कि “न्याय केवल किया ही न जाए बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए।”