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जीवनसाथी के प्रेमी या प्रेमिका से हर्जाना मांगने का अधिकार

जीवनसाथी के प्रेमी या प्रेमिका से हर्जाना मांगने का अधिकार: ‘स्नेह के अलगाव’ पर हाई कोर्ट की व्यवस्था

प्रस्तावना

भारतीय समाज में विवाह को केवल व्यक्तिगत संबंध ही नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला माना जाता है। पति-पत्नी के बीच परस्पर विश्वास, सम्मान और निष्ठा इस संस्था की नींव हैं। लेकिन जब वैवाहिक जीवन में कोई तीसरा व्यक्ति हस्तक्षेप करता है, तो यह रिश्ते को तोड़ देता है और पति-पत्नी के जीवन को गहरी भावनात्मक पीड़ा से भर देता है। हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने इसी संवेदनशील मुद्दे पर एक ऐतिहासिक टिप्पणी की और कहा कि पति या पत्नी अपने जीवनसाथी के प्रेमी या प्रेमिका के खिलाफ सिविल मुकदमा दायर कर हर्जाना मांग सकते हैं।

यह फैसला केवल एक निजी विवाद का समाधान नहीं है, बल्कि भारतीय पारिवारिक कानून की सोच में गहरा परिवर्तन दर्शाता है।


दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला

न्यायमूर्ति पुरुषेंद्र कुमार कौरव की एकल पीठ ने यह फैसला देते हुए स्पष्ट किया कि –

  • विवाहेतर संबंध यदि जानबूझकर और अनुचित हस्तक्षेप से उत्पन्न हुए हों, तो यह सिविल गलत (Civil Wrong) है।
  • इस प्रकार का मामला पारिवारिक न्यायालय में नहीं बल्कि दीवानी न्यायालय (Civil Court) में चलेगा।
  • पति या पत्नी यदि यह साबित कर दें कि किसी तीसरे व्यक्ति की वजह से उनका वैवाहिक जीवन टूट गया, तो वह व्यक्ति हर्जाने के लिए जिम्मेदार होगा।

यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि अब अदालतें केवल तलाक और गुजारा भत्ता तक सीमित नहीं हैं, बल्कि भावनात्मक और मानसिक क्षति की भरपाई के अधिकार को भी मान्यता देती हैं।


‘स्नेह के अलगाव’ (Loss of Consortium) की अवधारणा

हाई कोर्ट ने अपने फैसले में “स्नेह के अलगाव” की अवधारणा को आधार बनाया।

  • Consortium का अर्थ है पति-पत्नी के बीच सहचर्य, प्रेम, सहयोग और भावनात्मक समर्थन।
  • जब किसी तीसरे व्यक्ति की वजह से यह रिश्ता टूटता है तो इसे Loss of Consortium कहा जाता है।
  • इसमें केवल शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक क्षति भी शामिल होती है।

यह सिद्धांत भारत में नया है, लेकिन अमेरिका, इंग्लैंड और अन्य कॉमन लॉ देशों में पहले से स्थापित है।


विदेशी न्यायालयों के उदाहरण

अमेरिका

अमेरिका के कई राज्यों में “Alienation of Affection” और “Criminal Conversation” जैसे सिविल दावे मान्य हैं।

  • Alienation of Affection: जब तीसरा व्यक्ति पति-पत्नी के बीच प्रेम को तोड़ देता है।
  • Criminal Conversation: जब पति या पत्नी किसी अन्य से शारीरिक संबंध रखते हैं।

👉 Hutelmyer v. Cox (North Carolina, 1999) – अदालत ने पत्नी को पति की प्रेमिका से 1 मिलियन डॉलर से अधिक का हर्जाना दिलाया।

👉 Kline v. Ansell (Maryland, 1980) – अदालत ने माना कि यदि विवाहेतर संबंध ने वैवाहिक जीवन को नुकसान पहुँचाया है तो हर्जाने का दावा किया जा सकता है।

इंग्लैंड

इंग्लैंड में पहले पति को पत्नी के प्रेमी पर हर्जाना मांगने का अधिकार था।
👉 Best v. Samuel Fox & Co. Ltd. (1952) में हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने माना कि पति-पत्नी के सहचर्य का अधिकार वैधानिक रूप से संरक्षित है।

कनाडा और ऑस्ट्रेलिया

दोनों देशों में Loss of Consortium को व्यक्तिगत चोट और विवाह में हस्तक्षेप दोनों मामलों में मान्यता दी गई है।


भारतीय परिप्रेक्ष्य

भारत में विवाहेतर संबंधों से जुड़े मुकदमों का इतिहास आपराधिक कानून से जुड़ा रहा है।

  • धारा 497 आईपीसी (व्यभिचार / Adultery): पहले तक इसे अपराध माना जाता था, लेकिन Joseph Shine v. Union of India (2018) में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विवाहेतर संबंध अपराध नहीं बल्कि निजी नैतिकता का प्रश्न है।

लेकिन अब दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भले ही यह अपराध न हो, फिर भी यह सिविल गलत (Civil Wrong) हो सकता है।


क्यों महत्वपूर्ण है यह फैसला?

  1. मानसिक पीड़ा की मान्यता: अदालत ने माना कि मानसिक और भावनात्मक कष्ट भी कानूनी रूप से हर्जाने योग्य हैं।
  2. निवारक प्रभाव: अब कोई भी व्यक्ति विवाह में हस्तक्षेप करने से पहले सोचेगा कि उस पर मुकदमा हो सकता है।
  3. नागरिक अधिकारों का विस्तार: यह फैसला व्यक्तिगत स्वतंत्रता और वैवाहिक अधिकार दोनों की रक्षा करता है।
  4. न्यायिक नवाचार: अदालत ने पश्चिमी देशों के सिद्धांत को भारतीय परिप्रेक्ष्य में अपनाया, जिससे न्याय प्रणाली आधुनिक और संवेदनशील बनी।

संभावित चुनौतियाँ

  • प्रमाण का बोझ (Burden of Proof): यह साबित करना कठिन होगा कि वैवाहिक संबंध केवल तीसरे व्यक्ति की वजह से टूटे।
  • दुरुपयोग की संभावना: कुछ मामलों में झूठे मुकदमे दायर हो सकते हैं।
  • सामाजिक दृष्टिकोण: भारतीय समाज अभी भी विवाहेतर संबंधों को अपराध की दृष्टि से देखता है, ऐसे में सिविल मुकदमों को लेकर मिश्रित प्रतिक्रिया मिल सकती है।

भविष्य की दिशा

इस फैसले के बाद भारत में नई प्रकार की याचिकाएँ दाखिल होंगी। आने वाले वर्षों में सुप्रीम कोर्ट तक यह मुद्दा पहुँचेगा और संभव है कि वहाँ से विस्तृत दिशा-निर्देश (Guidelines) जारी हों।

  • पारिवारिक कानून और सिविल कानून के बीच नई कड़ी बनेगी।
  • मानसिक पीड़ा और सामाजिक क्षति की परिभाषा और स्पष्ट होगी।
  • भारत में विवाह संस्था की गरिमा और मज़बूत होगी।

निष्कर्ष

दिल्ली हाई कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में एक नया अध्याय खोलता है। यह बताता है कि विवाह केवल धार्मिक या सामाजिक अनुबंध नहीं बल्कि कानूनी अधिकार और कर्तव्यों का बंधन भी है। यदि कोई तीसरा व्यक्ति जानबूझकर पति-पत्नी के बीच हस्तक्षेप करता है, तो वह अब केवल नैतिक रूप से नहीं, बल्कि कानूनी रूप से भी जिम्मेदार होगा।

“स्नेह के अलगाव” (Loss of Consortium) की अवधारणा को भारत में मान्यता देकर अदालत ने दिखा दिया है कि न्याय केवल अपराध और दंड तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भावनाओं, सम्मान और संबंधों की सुरक्षा तक भी विस्तृत है।


1. ‘स्नेह के अलगाव’ (Loss of Consortium) क्या है?

‘स्नेह के अलगाव’ का अर्थ है पति या पत्नी का अपने जीवनसाथी के प्रेम, सहचर्य, भावनात्मक सहयोग और निष्ठा से वंचित होना। यह अवधारणा इंग्लैंड और अमेरिका जैसे देशों से आई है, जहाँ यदि कोई तीसरा व्यक्ति जानबूझकर वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप करता है, तो पीड़ित पक्ष सिविल मुकदमा दायर कर क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है। इसमें मानसिक पीड़ा, सामाजिक प्रतिष्ठा को हुई क्षति और पारिवारिक जीवन के बिखराव से उत्पन्न कठिनाइयों को शामिल किया जाता है। दिल्ली हाई कोर्ट ने इस अवधारणा को भारतीय परिप्रेक्ष्य में मान्यता देते हुए कहा कि पति या पत्नी अपने जीवनसाथी के प्रेमी/प्रेमिका से हर्जाना मांग सकते हैं। यह भारतीय पारिवारिक कानून में एक नया दृष्टिकोण है।


2. दिल्ली हाई कोर्ट का ताज़ा फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?

दिल्ली हाई कोर्ट ने यह फैसला देकर स्पष्ट किया कि यदि कोई तीसरा व्यक्ति जानबूझकर पति-पत्नी के वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप करता है, तो यह एक सिविल गलत (Civil Wrong) है। इसका मतलब है कि पीड़ित पति या पत्नी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ सिविल मुकदमा दायर कर हर्जाना मांग सकता है। यह फैसला महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इससे विवाह संस्था की गरिमा को कानूनी सुरक्षा मिली है। पहले विवाहेतर संबंधों को केवल नैतिकता और आपराधिक दृष्टिकोण से देखा जाता था, लेकिन अब इसे नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में भी माना जा सकता है। यह फैसला भारतीय कानून में मानसिक और भावनात्मक क्षति को मान्यता देने की दिशा में ऐतिहासिक कदम है।


3. क्या यह मुकदमा पारिवारिक न्यायालय में चलेगा?

नहीं। दिल्ली हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार का मुकदमा पारिवारिक न्यायालय में नहीं चलेगा। पारिवारिक न्यायालय केवल वैवाहिक विवाद, तलाक, गुजारा भत्ता और बच्चों की अभिरक्षा जैसे मामलों की सुनवाई करता है। जबकि ‘स्नेह के अलगाव’ का मुकदमा एक नागरिक अधिकार (Civil Right) का उल्लंघन है। इसलिए यह मामला दीवानी न्यायालय (Civil Court) में चलेगा। इसका उद्देश्य पति-पत्नी के रिश्ते में हस्तक्षेप करने वाले तीसरे व्यक्ति से हर्जाना दिलवाना है, न कि केवल विवाह संबंध समाप्त करना। इस प्रकार यह नया दृष्टिकोण पारिवारिक और नागरिक कानून के बीच सेतु का कार्य करता है।


4. अमेरिका में ‘Alienation of Affection’ क्या है?

अमेरिका के कई राज्यों में ‘Alienation of Affection’ नामक सिविल दावा मान्य है। इसका अर्थ है – जब कोई तीसरा व्यक्ति पति-पत्नी के बीच मौजूद प्रेम और स्नेह को जानबूझकर नष्ट कर देता है। ऐसे मामलों में पीड़ित पति या पत्नी अदालत से हर्जाना मांग सकता है। इसमें मानसिक पीड़ा, सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि और विवाह टूटने से उत्पन्न आर्थिक कठिनाइयाँ शामिल होती हैं। उदाहरण के लिए, Hutelmyer v. Cox (1999, North Carolina) मामले में पत्नी ने पति की प्रेमिका के खिलाफ मुकदमा किया और अदालत ने पत्नी को लगभग 1 मिलियन डॉलर का हर्जाना दिलाया। यह उदाहरण दिखाता है कि अमेरिका में विवाह संस्था की रक्षा के लिए कानून कितना संवेदनशील है।


5. इंग्लैंड में Loss of Consortium का क्या महत्व है?

इंग्लैंड में ऐतिहासिक रूप से पति को पत्नी के प्रेमी पर मुकदमा दायर कर हर्जाना मांगने का अधिकार था। इसे ‘Adultery and Loss of Consortium’ कहा जाता था। हालांकि आधुनिक समय में adultery के लिए हर्जाने की परंपरा कम हो गई है, लेकिन Loss of Consortium की अवधारणा अब भी व्यक्तिगत चोट या वैवाहिक अधिकार के हनन के मामलों में मान्य है। Best v. Samuel Fox & Co. Ltd. (1952) मामले में हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने यह माना कि पति-पत्नी का सहचर्य और स्नेह वैधानिक रूप से संरक्षित है और यदि कोई तीसरा व्यक्ति इसे नुकसान पहुँचाता है तो क्षतिपूर्ति का दावा किया जा सकता है। यह सिद्धांत भारतीय अदालतों को भी प्रेरित करता है।


6. भारत में धारा 497 आईपीसी और Joseph Shine केस का संबंध

धारा 497 आईपीसी के तहत विवाहेतर संबंध (Adultery) को अपराध माना जाता था। लेकिन Joseph Shine v. Union of India (2018) में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को असंवैधानिक घोषित कर दिया। अदालत ने कहा कि विवाहेतर संबंध नैतिकता का प्रश्न है, लेकिन इसे अपराध मानना अनुचित है। इस फैसले के बाद adultery अब अपराध नहीं रहा, परंतु दिल्ली हाई कोर्ट के नए फैसले ने यह रास्ता खोला है कि विवाहेतर संबंध सिविल गलत हो सकता है। यानी अपराध नहीं, परंतु क्षतिपूर्ति योग्य कार्य है। इस प्रकार दोनों फैसले मिलकर भारतीय कानून में विवाह संस्था को नए दृष्टिकोण से परिभाषित करते हैं।


7. इस फैसले का सामाजिक महत्व क्या है?

दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला समाज में विवाह संस्था की गरिमा को मजबूत करता है। भारत जैसे देश में विवाह केवल व्यक्तिगत संबंध नहीं बल्कि सामाजिक व्यवस्था का आधार है। यदि कोई तीसरा व्यक्ति विवाह में हस्तक्षेप करता है, तो यह केवल पति-पत्नी को ही नहीं बल्कि पूरे परिवार और समाज को प्रभावित करता है। अब अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि ऐसा व्यवहार केवल नैतिक रूप से गलत नहीं बल्कि कानूनी रूप से भी जिम्मेदारी पैदा करता है। इससे समाज में निवारक प्रभाव पड़ेगा और लोग वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप करने से पहले कानूनी परिणामों पर विचार करेंगे।


8. क्या इस फैसले से झूठे मुकदमों का खतरा है?

हाँ, कुछ हद तक। चूंकि यह साबित करना कठिन होता है कि वैवाहिक जीवन केवल तीसरे व्यक्ति की वजह से टूटा, इसलिए झूठे मुकदमों की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। कई बार पति-पत्नी के बीच पहले से मौजूद मतभेदों का कारण तीसरे व्यक्ति को बना दिया जाता है। इसलिए अदालतों को ऐसे मामलों में प्रमाण और सबूतों का गहराई से विश्लेषण करना होगा। हालांकि न्यायपालिका ने हमेशा यह सिद्धांत अपनाया है कि यदि पर्याप्त सबूत नहीं हैं तो किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस प्रकार न्यायालय संतुलन बनाते हुए झूठे मुकदमों की संभावना को सीमित कर सकते हैं।


9. क्या मानसिक पीड़ा भी हर्जाने योग्य है?

हाँ। दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यही है कि अदालत ने मानसिक और भावनात्मक पीड़ा को भी हर्जाने योग्य माना। पहले तक भारतीय कानून में मुख्य रूप से शारीरिक चोट और आर्थिक नुकसान को ही क्षतिपूर्ति का आधार माना जाता था। लेकिन इस फैसले ने यह स्वीकार किया कि यदि किसी व्यक्ति का वैवाहिक जीवन टूटता है और उसे गहरी मानसिक पीड़ा होती है, तो इसे भी सिविल गलत माना जाएगा। इस प्रकार अदालत ने भारतीय सिविल लॉ को आधुनिक और संवेदनशील बनाया है।


10. भविष्य में इस फैसले का क्या प्रभाव होगा?

भविष्य में इस फैसले का भारतीय न्याय प्रणाली पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। सबसे पहले, यह नए प्रकार के मुकदमों को जन्म देगा, जहाँ पति या पत्नी तीसरे व्यक्ति से हर्जाना मांगेंगे। दूसरा, यह मानसिक और भावनात्मक क्षति को मान्यता देने के लिए न्यायपालिका का रास्ता साफ करेगा। तीसरा, यह विवाह संस्था की पवित्रता को कानूनी सुरक्षा देगा। चौथा, सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुँचने पर विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए जा सकते हैं। अंततः यह फैसला भारत में विवाह को केवल धार्मिक और सामाजिक नहीं, बल्कि कानूनी संस्था के रूप में और भी सुदृढ़ करेगा।