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केरल उच्च न्यायालय का निर्णय: विश्णु बनाम राज्य (CRL. MC-6925/2025) – जमानत याचिकाओं पर मजिस्ट्रेट का अधिकार

केरल उच्च न्यायालय का निर्णय: विश्णु बनाम राज्य (CRL. MC-6925/2025) – जमानत याचिकाओं पर मजिस्ट्रेट का अधिकार

प्रस्तावना

न्यायिक प्रक्रिया में आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जमानत प्राप्त करने का अधिकार हमेशा से संवेदनशील विषय रहा है। हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने विश्णु बनाम राज्य, CRL. MC-6925/2025 मामले में महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए, जो धारा 232 BNSS/धारा 209 CrPC के संदर्भ में मजिस्ट्रेट के अधिकारों से जुड़े हैं।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि द्वितीय उपविधि (Second Proviso) धारा 232 BNSS मजिस्ट्रेट को आरोपी की जमानत याचिका पर विचार करने से वंचित नहीं करती। यदि ऐसा माना जाए, तो आरोपी को सत्र न्यायालय में मामला अग्रेषित होने तक जमानत प्राप्त करने का अवसर नहीं मिलेगा, जो उसके अनुच्छेद 21 के तहत वैधानिक अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा।


मामले का पृष्ठभूमि

विश्णु नामक आरोपी पर केट्टाक्कड़ा एक्साइज रेंज, तिरुवनंतपुरम में भारतीय शराब (IMFL) के अवैध भंडारण और बिक्री का आरोप था। पुलिस ने आरोपी के घर से 1 लीटर IMFL जब्त किया।

  • आरोपी ने सत्र न्यायालय में अग्रिम जमानत याचिकाएँ दायर कीं, लेकिन दोनों खारिज कर दी गईं।
  • आरोपी ने उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिए आवेदन किया, जो अस्वीकृत हुआ।
  • इसके बाद आरोपी ने मजिस्ट्रेट के समक्ष आत्मसमर्पण किया और उसी दिन जमानत याचिका पर विचार करने की अनुमति मांगी।

मुख्य प्रश्न यह था कि क्या मजिस्ट्रेट इस स्थिति में आरोपी की जमानत याचिका पर विचार कर सकता है, या द्वितीय उपविधि धारा 232 BNSS इसे रोकती है।


कानूनी प्रश्न

  1. क्या धारा 232 के द्वितीय उपविधि के तहत मजिस्ट्रेट को जमानत याचिकाओं पर विचार करने का अधिकार है?
  2. क्या आरोपी का जमानत प्राप्त करने का अधिकार केवल सत्र न्यायालय तक सीमित है?
  3. क्या जमानत का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से जुड़ा है?

न्यायालय का दृष्टिकोण

न्यायमूर्ति वी.जी. अरुण ने विस्तृत विश्लेषण करते हुए निर्णय दिया।

1. जमानत का वैधानिक अधिकार

  • न्यायालय ने कहा कि जमानत प्राप्त करना एक वैधानिक अधिकार है।
  • हालांकि जमानत एक मौलिक अधिकार नहीं है, यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के व्यापक अधिकार (Article 21) से जुड़ा है।
  • यदि द्वितीय उपविधि को मजिस्ट्रेट के अधिकार पर प्रतिबंध के रूप में लिया जाए, तो आरोपी को सत्र न्यायालय में मामला भेजे जाने तक जमानत का अवसर नहीं मिलेगा।

2. द्वितीय उपविधि का सही अर्थ

  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि द्वितीय उपविधि का उद्देश्य केवल अग्रेषण प्रक्रिया को व्यवस्थित करना है, न कि मजिस्ट्रेट को जमानत याचिका पर विचार करने से रोकना।
  • इसलिए, मजिस्ट्रेट को आरोपी की जमानत याचिका पर समीक्षा करने और आदेश पारित करने का अधिकार है।

3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21

  • जमानत प्राप्त करने का अधिकार आरोपी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है।
  • न्यायालय ने कहा कि आरोपी को गिरफ्तार करने के तुरंत बाद जमानत पर विचार करने का अवसर देना व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण का हिस्सा है।
  • इससे यह सुनिश्चित होता है कि आरोपी को अनावश्यक रूप से हिरासत में न रखा जाए।

कानूनी प्रावधान और संदर्भ

1. धारा 232 BNSS

  • यह धारा मजिस्ट्रेट को निर्देश देती है कि आरोपी की गिरफ्तारी और प्राथमिकी की सुनवाई के दौरान कैसे कार्यवाही की जाए।
  • द्वितीय उपविधि मजिस्ट्रेट को निर्देश देती है कि आवेदन और दस्तावेज सत्र न्यायालय को अग्रेषित करें, लेकिन यह जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार नहीं रोकती।

2. धारा 209 CrPC

  • यह धारा भी मजिस्ट्रेट के द्वारा जमानत याचिकाओं पर विचार की प्रक्रिया को निर्देशित करती है।
  • इसका उद्देश्य अग्रेषण प्रक्रिया और आरोपी के अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखना है।

3. अनुच्छेद 21

  • न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हवाला दिया।
  • जमानत का अधिकार इस व्यापक व्यक्तिगत स्वतंत्रता के दृष्टिकोण से जुड़ा है।

न्यायालय का आदेश

  • मजिस्ट्रेट को आरोपी की जमानत याचिका पर समीक्षा करने और आदेश पारित करने का अधिकार है।
  • द्वितीय उपविधि को इस अधिकार पर प्रतिबंध के रूप में नहीं लिया जा सकता।
  • यदि मजिस्ट्रेट जमानत याचिका पर विचार नहीं करता, तो आरोपी को अनुचित रूप से हिरासत में रखा जा सकता है।

केस स्टडी और विश्लेषण

1. विश्णु के मामले का विश्लेषण

  • आरोपी ने पहले सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय में जमानत याचिकाएँ खारिज होने के बावजूद मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन किया।
  • न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट के पास जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार है, और यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए आवश्यक है।

2. अन्य प्रासंगिक मामले

  • सुकुमारी बनाम राज्य (2001 KHC 43): इस मामले में भी न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट को जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार है, भले ही मामला सत्र न्यायालय में अग्रेषित हो।
  • इस निर्णय से यह स्थापित होता है कि मजिस्ट्रेट का यह अधिकार संवैधानिक और वैधानिक रूप से सुरक्षित है।

न्यायिक विश्लेषण

  1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण: आरोपी को गिरफ्तारी के बाद जमानत का अवसर प्रदान करना अनुच्छेद 21 का संरक्षण करता है।
  2. वैधानिक अधिकारों का संतुलन: जमानत का अधिकार आरोपी का वैधानिक अधिकार है और इसे अवैध हिरासत से बचाने के लिए सुनिश्चित किया गया है।
  3. अग्रेषण प्रक्रिया की व्याख्या: द्वितीय उपविधि का उद्देश्य केवल सत्र न्यायालय को दस्तावेज अग्रेषित करना है, न कि मजिस्ट्रेट के अधिकारों को सीमित करना।

निर्णय का महत्व और प्रभाव

  1. मजिस्ट्रेट अधिकार सुनिश्चित: मजिस्ट्रेट के द्वारा जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार स्पष्ट हुआ।
  2. आरोपी के अधिकार का संरक्षण: गिरफ्तारी के तुरंत बाद जमानत पर विचार करने का अवसर आरोपी को मिलेगा।
  3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का व्यापक संरक्षण: अनुच्छेद 21 के तहत आरोपी की स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी।
  4. भविष्य के लिए मार्गदर्शन: समानांतर मामलों में यह निर्णय मजिस्ट्रेट और उच्च न्यायालय के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होगा।

निष्कर्ष

विश्णु बनाम राज्य (CRL. MC-6925/2025) का निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में आरोपी के वैधानिक अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व को स्पष्ट करता है।

  • द्वितीय उपविधि धारा 232 BNSS मजिस्ट्रेट को जमानत याचिका पर विचार करने से वंचित नहीं करती।
  • आरोपी को गिरफ्तारी के बाद जमानत का अवसर देना व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्यायसंगत प्रक्रिया का हिस्सा है।
  • यह निर्णय मजिस्ट्रेट और उच्च न्यायालय के लिए स्पष्ट मार्गदर्शन प्रदान करता है।

1. मामला क्या था?

विश्णु नामक आरोपी पर केरल में भारतीय शराब (IMFL) के अवैध भंडारण और बिक्री का आरोप था। आरोपी ने सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय में जमानत याचिकाएँ दायर कीं, जो खारिज कर दी गईं। इसके बाद उसने मजिस्ट्रेट के समक्ष आत्मसमर्पण कर उसी दिन जमानत याचिका पर विचार करने की अनुमति मांगी।


2. मुख्य कानूनी प्रश्न

मुख्य प्रश्न यह था कि क्या धारा 232 BNSS का द्वितीय उपविधि मजिस्ट्रेट को आरोपी की जमानत याचिका पर विचार करने से रोकती है, या मजिस्ट्रेट को आरोपी की जमानत पर आदेश पारित करने का अधिकार है।


3. न्यायालय का निर्णय

न्यायालय ने कहा कि द्वितीय उपविधि मजिस्ट्रेट को जमानत याचिका पर विचार करने से रोकती नहीं है। मजिस्ट्रेट को आरोपी की जमानत याचिका पर समीक्षा और आदेश पारित करने का अधिकार है।


4. वैधानिक अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

जमानत का अधिकार आरोपी का वैधानिक अधिकार है। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़ा है और अनुच्छेद 21 के तहत आरोपी की रक्षा करता है।


5. द्वितीय उपविधि का उद्देश्य

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि द्वितीय उपविधि का उद्देश्य केवल आवेदन और दस्तावेज सत्र न्यायालय को अग्रेषित करना है, न कि मजिस्ट्रेट के अधिकारों को सीमित करना।


6. अनुच्छेद 21 का महत्व

अनुच्छेद 21 के तहत आरोपी को गिरफ्तारी के तुरंत बाद जमानत पर विचार करने का अधिकार दिया गया है। इससे अनावश्यक हिरासत और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उल्लंघन से बचाव होता है।


7. पहले के प्रासंगिक मामले

सुकुमारी बनाम राज्य (2001 KHC 43) में भी कहा गया था कि मजिस्ट्रेट को जमानत याचिका पर विचार करने का अधिकार है, भले ही मामला सत्र न्यायालय में अग्रेषित हो।


8. मजिस्ट्रेट का अधिकार

मजिस्ट्रेट को जमानत याचिकाओं की समीक्षा करने और आदेश पारित करने का अधिकार है। इसे द्वितीय उपविधि से रोका नहीं जा सकता।


9. फैसले का महत्व

यह निर्णय मजिस्ट्रेट और उच्च न्यायालय के लिए मार्गदर्शन करता है और सुनिश्चित करता है कि आरोपी को गिरफ्तारी के तुरंत बाद जमानत का अवसर मिले।


10. निष्कर्ष

विश्णु बनाम राज्य का निर्णय जमानत के अधिकार, मजिस्ट्रेट के कर्तव्य और अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण को स्पष्ट करता है। यह भविष्य में समानांतर मामलों के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य करेगा।