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सुप्रीम कोर्ट: गवाह के सामने वीडियो चलाना या उसकी ट्रांसक्रिप्शन कराना साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए अनिवार्य नहीं

सुप्रीम कोर्ट: गवाह के सामने वीडियो चलाना या उसकी ट्रांसक्रिप्शन कराना साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए अनिवार्य नहीं

भारतीय न्याय प्रणाली में साक्ष्य (Evidence) की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। किसी भी आपराधिक या दीवानी मुकदमे में साक्ष्य ही वह आधार है, जिसके सहारे अभियुक्त को दोषी या निर्दोष ठहराया जाता है। आधुनिक तकनीक के बढ़ते प्रयोग के साथ-साथ न्यायालयों में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य, विशेषकर ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग, की प्रासंगिकता और स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है। इसी संदर्भ में हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया है, जिसमें स्पष्ट किया गया कि किसी वीडियो रिकॉर्डिंग को साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने के लिए न तो उसे गवाह के सामने चलाना आवश्यक है और न ही उसकी सामग्री का पूर्ण लिप्यंतरण (transcription) अदालत में प्रस्तुत करना जरूरी है।

यह निर्णय भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) की धारा 65B और न्यायिक प्रक्रिया में तकनीकी साक्ष्यों की भूमिका को लेकर एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इस फैसले से यह साफ हो गया कि यदि वीडियो रिकॉर्डिंग आवश्यक शर्तों के अनुरूप प्रस्तुत की गई है, तो उसकी स्वीकार्यता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता, भले ही उसे गवाह के सामने चलाया न गया हो।


प्रकरण की पृष्ठभूमि

विवादित मामले में अभियोजन पक्ष ने एक वीडियो रिकॉर्डिंग को साक्ष्य के रूप में अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया था। बचाव पक्ष की ओर से यह आपत्ति उठाई गई कि वीडियो को संबंधित गवाह के सामने चलाकर उसकी पुष्टि कराना आवश्यक है, अन्यथा यह साक्ष्य अधूरा माना जाएगा। साथ ही, यह भी दलील दी गई कि जब तक वीडियो की पूर्ण ट्रांसक्रिप्शन (लिखित रूप) प्रस्तुत नहीं की जाती, तब तक उसकी प्रासंगिकता और प्रमाणिकता पर संदेह रहेगा।

मामला उच्च न्यायालय से होते हुए अंततः सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। उच्चतम न्यायालय के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि—

  1. क्या वीडियो साक्ष्य को गवाह के सामने चलाना आवश्यक है?
  2. क्या वीडियो की पूरी ट्रांसक्रिप्शन अदालत में पेश करना स्वीकार्यता की अनिवार्य शर्त है?

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में साफ कहा कि—

  • वीडियो रिकॉर्डिंग या अन्य इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता (admissibility) केवल इस आधार पर नहीं रोकी जा सकती कि उसे गवाह के सामने नहीं चलाया गया।
  • इसी प्रकार, उसकी ट्रांसक्रिप्शन तैयार करना या प्रस्तुत करना कोई कानूनी अनिवार्यता नहीं है।
  • यदि साक्ष्य भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B की आवश्यकताओं को पूरा करता है, तो वह पूर्णतः स्वीकार्य होगा।

अदालत ने कहा कि न्यायालय को यह देखना है कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की प्रमाणिकता सुनिश्चित की गई है या नहीं। यदि प्रमाणिकता पर सवाल नहीं है और साक्ष्य नियमों के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है, तो इसे खारिज नहीं किया जा सकता।


धारा 65B का संदर्भ

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड्स की स्वीकार्यता से संबंधित है। इसके अनुसार—

  • किसी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को तभी साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, जब उसकी एक 65B प्रमाणपत्र (certificate) के साथ पुष्टि की गई हो।
  • यह प्रमाणपत्र संबंधित व्यक्ति द्वारा जारी किया जाता है, जो इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के निर्माण या संग्रहण के लिए जिम्मेदार होता है।
  • इस प्रमाणपत्र में यह स्पष्ट किया जाता है कि रिकॉर्ड असली है और उसमें किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की गई है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि धारा 65B की शर्तें पूरी हो रही हैं, तो न तो वीडियो चलाने की और न ही उसकी ट्रांसक्रिप्शन की आवश्यकता है।


अदालत की प्रमुख टिप्पणियां

  1. वीडियो चलाने की अनिवार्यता नहीं – अदालत ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को गवाह के सामने चलाना केवल एक सहायक प्रक्रिया है, अनिवार्यता नहीं। कई बार गवाहों की उपलब्धता या तकनीकी कारणों से वीडियो चलाना संभव नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं कि साक्ष्य को अमान्य कर दिया जाए।
  2. ट्रांसक्रिप्शन मात्र सहायक है – वीडियो या ऑडियो रिकॉर्डिंग की ट्रांसक्रिप्शन न्यायालय की सुविधा के लिए होती है। लेकिन यह कानूनी आवश्यकता नहीं है। यदि ट्रांसक्रिप्शन उपलब्ध नहीं है, तो भी वीडियो साक्ष्य पर भरोसा किया जा सकता है, बशर्ते कि उसकी प्रमाणिकता सुनिश्चित हो।
  3. प्रमाणिकता सर्वोपरि – अदालत ने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के मामले में सबसे महत्वपूर्ण है उसकी प्रमाणिकता। यदि यह साबित हो जाए कि रिकॉर्ड असली है, बिना छेड़छाड़ के है और सही तरीके से संकलित किया गया है, तो उसकी स्वीकार्यता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता।
  4. न्यायालय की विवेकाधिकार शक्ति – न्यायालय यह तय कर सकता है कि किसी वीडियो को चलाने या ट्रांसक्रिप्शन मंगाने की जरूरत है या नहीं। यह मामला-दर-मामला तय किया जाएगा।

पूर्ववर्ती निर्णयों का संदर्भ

सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में पहले के कई अहम मामलों का भी हवाला दिया—

  • अनि्वर बनाम राज्य (2005) – इस मामले में कहा गया था कि इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को तभी स्वीकार किया जा सकता है, जब उसकी प्रमाणिकता सुनिश्चित हो।
  • अनवर पी.वी. बनाम केरल राज्य (2014) – इसमें सुप्रीम कोर्ट ने धारा 65B के महत्व पर जोर दिया और कहा कि प्रमाणपत्र के बिना इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड स्वीकार्य नहीं होगा।
  • अरुणा चंद्रशेखर केस (2020) – अदालत ने कहा था कि यदि तकनीकी साक्ष्य की प्रामाणिकता सिद्ध है, तो उसकी स्वीकार्यता पर आपत्ति नहीं की जा सकती।

इस प्रकार, वर्तमान निर्णय पूर्ववर्ती सिद्धांतों का विस्तार है।


निर्णय का महत्व

यह फैसला कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है—

  1. प्रक्रियागत सरलता – अब अभियोजन और बचाव पक्ष दोनों के लिए यह आसान हो जाएगा कि वे वीडियो या ऑडियो रिकॉर्डिंग को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत कर सकें, बिना अतिरिक्त औपचारिकताओं के।
  2. समय और संसाधनों की बचत – वीडियो को गवाह के सामने चलाने या ट्रांसक्रिप्शन तैयार करने में समय और संसाधन खर्च होते हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इन प्रक्रियाओं को वैकल्पिक बनाता है।
  3. तकनीकी युग की आवश्यकताओं के अनुरूप – जैसे-जैसे तकनीक आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे न्यायालय में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की संख्या बढ़ रही है। यह निर्णय आधुनिक न्याय प्रणाली को अधिक व्यावहारिक बनाता है।
  4. अनावश्यक आपत्तियों पर रोक – बचाव पक्ष प्रायः तकनीकी आधार पर आपत्तियां उठाकर साक्ष्य को अस्वीकार कराने की कोशिश करता है। इस फैसले के बाद ऐसी आपत्तियों की गुंजाइश कम हो जाएगी।

संभावित चुनौतियां

हालांकि यह निर्णय प्रगतिशील है, लेकिन इसके साथ कुछ चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं—

  • प्रमाणिकता पर विवाद – कई बार वीडियो रिकॉर्डिंग में छेड़छाड़ या एडिटिंग की संभावना रहती है। यदि गवाह की गवाही नहीं होगी तो प्रमाणिकता पर विवाद और बढ़ सकता है।
  • न्यायालय की विवेकाधिकार शक्ति – अदालत पर निर्भर करेगा कि वह कब वीडियो चलाने या ट्रांसक्रिप्शन मंगाने का आदेश दे। इससे अलग-अलग न्यायालयों में अलग दृष्टिकोण अपनाए जाने की संभावना रहेगी।
  • तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता – इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की जांच के लिए तकनीकी विशेषज्ञों की जरूरत होगी। यदि यह उपलब्ध नहीं होगा तो साक्ष्य की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की स्वीकार्यता को लेकर एक बड़ा कदम है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि वीडियो को गवाह के सामने चलाना या उसकी ट्रांसक्रिप्शन प्रस्तुत करना कानूनी रूप से आवश्यक नहीं है। न्यायालय का मुख्य उद्देश्य साक्ष्य की प्रमाणिकता और प्रासंगिकता की जांच करना है, न कि औपचारिकताओं में उलझना।

यह निर्णय भविष्य में न्यायालयों को तकनीकी साक्ष्यों के साथ और अधिक लचीले व व्यावहारिक तरीके से काम करने में मदद करेगा। साथ ही, यह अभियोजन और बचाव दोनों पक्षों को अनावश्यक औपचारिकताओं से राहत देगा। हालांकि, इस प्रक्रिया में प्रमाणिकता और न्यायिक विवेक का संतुलन बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी।