इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य : भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 (Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023) के परिप्रेक्ष्य में एक विस्तृत अध्ययन
प्रस्तावना
प्रौद्योगिकी के इस युग में अधिकांश गतिविधियाँ—व्यापार, शिक्षा, संचार, अपराध तथा शासन—डिजिटल माध्यमों से संचालित होती हैं। इसी के परिणामस्वरूप न्यायिक प्रक्रिया में भी इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (Electronic Evidence) का महत्व तेजी से बढ़ा है। परंपरागत भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के स्थान पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023) लागू किया गया है, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड और डिजिटल दस्तावेज़ों को विशेष महत्व दिया गया है। यह नया कानून सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, साइबर कानूनों और न्यायालयों के विकसित दृष्टिकोण के अनुरूप बनाया गया है।
इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की कानूनी मान्यता एवं परिभाषा
धारा 2(ड) – “दस्तावेज़” की परिभाषा
नए अधिनियम में ‘दस्तावेज़’ की परिभाषा का दायरा बढ़ाकर इसमें इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल रिकॉर्ड (जैसे ई-मेल, सर्वर लॉग, मेटाडाटा, सीसीटीवी फुटेज, मोबाइल रिकॉर्ड, व्हाट्सएप चैट इत्यादि) को शामिल किया गया है।
धारा 61 – स्वीकृति
यह स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी साक्ष्य को केवल इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि वह इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप में है। इस प्रकार डिजिटल रिकॉर्ड को पारंपरिक दस्तावेजों के समान ही महत्व दिया गया है।
इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री को सिद्ध करना
धारा 62 एवं 63
- धारा 62 कहती है कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री को उसी प्रकार सिद्ध करना होगा जैसे अन्य दस्तावेजों की जाती है।
- धारा 63 इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की प्रमाणिकता स्थापित करने के लिए प्रमाणपत्र की आवश्यकता पर बल देती है।
प्रमाणपत्र की आवश्यकता (Certification Requirement)
धारा 63(4)
यह सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान है। इसमें कहा गया है कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को प्रमाणित करने के लिए एक अनिवार्य प्रमाणपत्र (Mandatory Certificate) देना होगा।
इस प्रमाणपत्र में—
- इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की पहचान,
- उसके निर्माण का तरीका,
- संबंधित उपकरण/डिवाइस का विवरण,
- और यह घोषणा कि यह रिकॉर्ड धारा 63(2) में बताए गए शर्तों के अनुरूप उत्पन्न हुआ है—
स्पष्ट रूप से दर्ज होना चाहिए।
यह प्रमाणपत्र उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए जो रिकॉर्ड के उत्पादन के लिए जिम्मेदार है, अथवा किसी विशेषज्ञ द्वारा जो इसे तकनीकी दृष्टि से प्रमाणित कर सके।
इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को प्राथमिक साक्ष्य का दर्जा
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यदि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को उचित प्रमाणपत्र एवं सुरक्षित कस्टडी में प्रस्तुत किया जाए, तो उसे प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence) माना जाएगा।
- अब क्लाउड सर्वर, मल्टीपल डिवाइस से प्राप्त रिकॉर्ड को भी प्राथमिक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
- इससे डिजिटल साक्ष्य की स्वीकृति और उसकी प्रामाणिकता पर न्यायालय का भरोसा बढ़ता है।
विशेषज्ञ की राय एवं प्रमाणीकरण
धारा 39 से 45
इन धाराओं में विशेषज्ञ की राय (Expert Opinion) को स्वीकार्य बनाया गया है।
- इसमें इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर (Digital Signature) की सत्यता,
- तकनीकी प्रामाणिकता,
- और डिजिटल डिवाइस के फोरेंसिक विश्लेषण को मान्यता दी गई है।
धारा 42
विशेष रूप से, इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर से संबंधित राय प्रमाणन प्राधिकरण (Certifying Authority) अथवा इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य परीक्षक (Examiner of Electronic Evidence) द्वारा दी जा सकती है। यह डिजिटल लेन-देन एवं साइबर अपराध मामलों में निर्णायक साबित होता है।
न्यायालयीन दृष्टिकोण और प्रमुख केस लॉ
भारतीय न्यायपालिका ने समय-समय पर इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता और उसकी प्रमाणिकता को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं।
1. Navjot Sandhu v. State (2005)
- इस मामले में प्रिंटआउट और इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के सेकेंडरी एविडेंस को बिना प्रमाणपत्र के स्वीकार कर लिया गया।
- इससे यह भ्रम उत्पन्न हुआ कि क्या धारा 65-बी (पुराने कानून) के तहत प्रमाणपत्र आवश्यक है या नहीं।
2. Anvar P.V. v. P.K. Basheer (2014)
- सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकृति के लिए धारा 65-बी का प्रमाणपत्र अनिवार्य है।
- इसने Navjot Sandhu का दृष्टिकोण पलट दिया और कठोर नियम निर्धारित किया।
3. Shafhi Mohammad v. State of Himachal Pradesh (2018)
- न्यायालय ने अपवाद प्रदान किया कि जहाँ रिकॉर्ड पर कोई विवाद न हो या न्याय के हित में हो, वहाँ बिना प्रमाणपत्र के भी इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को स्वीकार किया जा सकता है।
- यह निर्णय “एक्सेस-टू-जस्टिस” के सिद्धांत पर आधारित था।
4. Arjun Khotkar v. Kailash Gorantyal (2020)
- इस मामले में पुनः यह स्पष्ट किया गया कि प्रमाणपत्र अनिवार्य है, और Shafhi Mohammad में दिए गए अपवाद को संकुचित कर दिया गया।
- कोर्ट ने कहा कि जब तक प्रमाणपत्र उपलब्ध कराने की स्थिति न हो, तब तक साक्ष्य को अस्वीकार करना होगा।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 में परिवर्तन का महत्व
नए अधिनियम में इन केस लॉ और व्यावहारिक समस्याओं को ध्यान में रखकर प्रावधानों को स्पष्ट और मजबूत बनाया गया है।
- अब इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की परिभाषा विस्तृत है।
- प्रमाणपत्र की आवश्यकता को स्पष्ट कर दिया गया है।
- इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को प्राथमिक साक्ष्य का दर्जा दिया गया है।
- विशेषज्ञों और प्रमाणन प्राधिकरण की राय को विशेष महत्व प्रदान किया गया है।
इस प्रकार, यह कानून पुराने विवादों को समाप्त कर न्यायालयों को अधिक सुसंगत मार्गदर्शन देता है।
व्यावहारिक महत्व
- आपराधिक न्याय प्रणाली में – सीसीटीवी फुटेज, मोबाइल कॉल डिटेल रिकॉर्ड, ईमेल और चैट मैसेज अपराध सिद्ध करने में अहम भूमिका निभाते हैं।
- नागरिक व वाणिज्यिक मामलों में – ई-करारनामे, डिजिटल हस्ताक्षरित दस्तावेज़ और ऑनलाइन लेन-देन का रिकॉर्ड निर्णायक साक्ष्य है।
- साइबर अपराध मामलों में – मेटाडाटा, लॉग फाइल और डिजिटल फोरेंसिक रिपोर्ट से अपराधी की पहचान होती है।
- सरकारी कार्यवाही में – ई-गवर्नेंस, ई-टेंडरिंग और डिजिटल भुगतान से जुड़े विवादों में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड प्रमुख साक्ष्य बनते हैं।
निष्कर्ष
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 ने इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को व्यापक कानूनी मान्यता देकर न्याय प्रणाली को आधुनिक तकनीकी युग के अनुरूप बना दिया है। यह कानून न केवल इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को पारंपरिक दस्तावेजों के समान दर्जा देता है बल्कि उन्हें प्राथमिक साक्ष्य के रूप में भी मान्यता देता है, बशर्ते वे उचित प्रमाणपत्र और सुरक्षित कस्टडी के साथ प्रस्तुत किए जाएँ।
न्यायपालिका के पूर्ववर्ती निर्णयों से उत्पन्न भ्रम को समाप्त करते हुए यह अधिनियम न्यायालयों को स्पष्ट दिशा देता है। आज के डिजिटल युग में यह सुधार न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता बढ़ाने में मील का पत्थर सिद्ध होगा।
1. इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की परिभाषा (BSA 2023 में)
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 में “दस्तावेज़” की परिभाषा (धारा 2(ड)) को व्यापक बनाते हुए उसमें इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल रिकॉर्ड को शामिल किया गया है। इसका अर्थ है कि ई-मेल, सर्वर लॉग, मेटाडाटा, सीसीटीवी फुटेज, मोबाइल चैट, ऑनलाइन लेन-देन आदि अब वैधानिक रूप से दस्तावेज़ की श्रेणी में आते हैं। धारा 61 यह स्पष्ट करती है कि किसी साक्ष्य को केवल इस कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि वह इलेक्ट्रॉनिक स्वरूप में है। इस प्रकार डिजिटल रिकॉर्ड को परंपरागत लिखित दस्तावेज़ों के समान महत्व दिया गया है। यह परिवर्तन न्याय प्रणाली को आधुनिक तकनीकी युग के अनुरूप बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
2. इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की कानूनी मान्यता
धारा 61 के अनुसार, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को न्यायालय में स्वीकार किया जाएगा और उन्हें केवल इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि वे इलेक्ट्रॉनिक रूप में हैं। यह प्रावधान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि आज अधिकांश साक्ष्य डिजिटल माध्यम से उत्पन्न होते हैं, जैसे ईमेल, व्हाट्सएप चैट, ऑनलाइन बैंकिंग रिकॉर्ड आदि। इससे यह सुनिश्चित होता है कि इलेक्ट्रॉनिक प्रमाण को उतनी ही कानूनी मान्यता प्राप्त है जितनी किसी हस्तलिखित या मुद्रित दस्तावेज़ को। यह बदलाव न्यायिक प्रक्रिया को आधुनिक तकनीक से जोड़ता है और न्यायालय को अधिक विश्वसनीय व अद्यतन साक्ष्य पर आधारित निर्णय लेने में मदद करता है।
3. इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री सिद्ध करने का तरीका
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 62 और 63 में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री सिद्ध करने का तरीका बताया गया है। धारा 62 कहती है कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री उसी प्रकार सिद्ध की जाएगी जैसे अन्य दस्तावेजों की जाती है। धारा 63 के अनुसार, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए अनिवार्य प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना आवश्यक है। यह प्रमाणपत्र उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए जो रिकॉर्ड की तैयारी या रखरखाव के लिए उत्तरदायी है। इस प्रक्रिया से न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि प्रस्तुत इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य में कोई छेड़छाड़ या हेरफेर नहीं किया गया है।
4. प्रमाणपत्र की आवश्यकता और धारा 63(4)
धारा 63(4) इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को स्वीकार्य बनाने के लिए प्रमाणपत्र की आवश्यकता निर्धारित करती है। यह प्रमाणपत्र उस व्यक्ति या विशेषज्ञ द्वारा जारी होना चाहिए जो संबंधित डिवाइस या सिस्टम की देखरेख करता है। प्रमाणपत्र में यह उल्लेख होना चाहिए कि साक्ष्य किस प्रकार तैयार हुआ, किस डिवाइस से निकाला गया, और क्या यह रिकॉर्ड धारा 63(2) की शर्तों के अनुसार उत्पन्न हुआ। इसका उद्देश्य न्यायालय को यह आश्वस्त करना है कि प्रस्तुत साक्ष्य वास्तविक और प्रामाणिक है। इस प्रावधान ने इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को कानूनी रूप से मजबूत आधार प्रदान किया है और न्यायालय में इसकी स्वीकार्यता सुनिश्चित की है।
5. इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को प्राथमिक साक्ष्य का दर्जा
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को उचित प्रमाणपत्र और सुरक्षित कस्टडी के साथ प्रस्तुत किए जाने पर प्राथमिक साक्ष्य का दर्जा दिया गया है। पहले इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को केवल द्वितीयक साक्ष्य माना जाता था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। उदाहरण के लिए, यदि किसी अपराध का सीसीटीवी फुटेज या किसी क्लाउड सर्वर का डेटा प्रस्तुत किया जाता है और उसके साथ प्रमाणपत्र भी है, तो उसे उसी प्रकार प्राथमिक साक्ष्य माना जाएगा जैसे किसी मूल दस्तावेज़ को। यह बदलाव न्यायालय को अधिक भरोसेमंद इलेक्ट्रॉनिक सबूतों पर निर्णय लेने की सुविधा देता है।
6. विशेषज्ञ की राय और इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 39 से 45 तक विशेषज्ञ की राय को मान्यता दी गई है। विशेष रूप से धारा 42 इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर की जांच और सत्यापन के लिए प्रमाणन प्राधिकरण (Certifying Authority) तथा इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य परीक्षक की राय को स्वीकार करती है। विशेषज्ञ की राय का महत्व इसलिए है क्योंकि डिजिटल रिकॉर्ड की जांच केवल तकनीकी विशेषज्ञ ही कर सकता है, जैसे कि मेटाडाटा का विश्लेषण, हैश वैल्यू चेक, या डिजिटल हस्ताक्षर की प्रामाणिकता। इससे न्यायालय यह सुनिश्चित कर पाता है कि प्रस्तुत इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य वास्तविक है और उसमें कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है।
7. Navjot Sandhu v. State (2005) का महत्व
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड जैसे कॉल डिटेल्स और प्रिंटआउट को बिना प्रमाणपत्र के भी स्वीकार कर लिया। इस निर्णय ने यह स्थिति पैदा की कि क्या इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के लिए प्रमाणपत्र अनिवार्य है या नहीं। इसने न्यायालयों में भ्रम की स्थिति उत्पन्न की क्योंकि बाद के मामलों में अलग-अलग दृष्टिकोण सामने आए। हालांकि, यह निर्णय तकनीकी रूप से इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकृति को सरल बनाता था, लेकिन इससे साक्ष्य की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया। बाद में Anvar P.V. बनाम P.K. Basheer (2014) में इस निर्णय को पलट दिया गया।
8. Anvar P.V. v. P.K. Basheer (2014) का प्रभाव
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता के लिए 65-बी प्रमाणपत्र (पुराने अधिनियम के तहत) अनिवार्य है। इस निर्णय ने Navjot Sandhu मामले को पलट दिया और यह सिद्धांत स्थापित किया कि बिना प्रमाणपत्र के इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसका प्रभाव यह हुआ कि अदालतों में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकृति अधिक कठोर हो गई। हालांकि, इससे न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने में मदद मिली कि केवल वही डिजिटल साक्ष्य स्वीकार हों जो वास्तविक और प्रामाणिक रूप से प्रमाणित हों।
9. Shafhi Mohammad v. State of Himachal Pradesh (2018) का दृष्टिकोण
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यावहारिक कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए यह कहा कि जहाँ प्रमाणपत्र उपलब्ध कराना संभव न हो और साक्ष्य अन्यथा विवादित न हो, वहाँ बिना प्रमाणपत्र के भी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड स्वीकार किया जा सकता है। यह निर्णय न्याय तक पहुँच (Access to Justice) की दृष्टि से महत्वपूर्ण था क्योंकि कई बार साक्ष्य उत्पादक व्यक्ति प्रमाणपत्र देने से इनकार कर देता है। हालांकि, इस निर्णय ने प्रमाणपत्र की आवश्यकता पर कुछ लचीलापन प्रदान किया, लेकिन बाद में Arjun Khotkar मामले में इसे सीमित कर दिया गया।
10. Arjun Khotkar v. Kailash Gorantyal (2020) का सिद्धांत
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने पुनः यह स्पष्ट किया कि इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए प्रमाणपत्र अनिवार्य है। कोर्ट ने कहा कि Shafhi Mohammad द्वारा दिए गए अपवाद को बहुत सीमित परिस्थितियों में ही लागू किया जा सकता है। इसने यह सिद्धांत स्थापित किया कि जब तक प्रमाणपत्र उपलब्ध कराना असंभव न हो, तब तक इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को बिना प्रमाणपत्र के स्वीकार नहीं किया जाएगा। इस निर्णय ने न्यायिक प्रक्रिया में साक्ष्य की विश्वसनीयता और कठोर मानकों को सुनिश्चित किया, जिससे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड पर भरोसा बढ़ा।