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अनुबंध विधि (Contract Law)  

 अनुबंध विधि (Contract Law)  

1. अनुबंध (Contract) क्या है?

अनुबंध एक ऐसा वैधानिक समझौता है जो दो या दो से अधिक पक्षों के बीच अधिकार और कर्तव्यों का निर्माण करता है। भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2(ह) के अनुसार, ऐसा समझौता जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो, अनुबंध कहलाता है। इसमें प्रस्ताव, स्वीकृति, प्रतिफल (Consideration), सक्षम पक्षकार, वैध उद्देश्य और स्वतंत्र सहमति आवश्यक हैं। अनुबंध समाज और व्यापारिक जगत में निश्चितता और भरोसा प्रदान करता है। अनुबंध के उल्लंघन पर क्षतिपूर्ति, विशिष्ट निष्पादन या निषेधाज्ञा जैसी विधिक राहत उपलब्ध होती है।


2. अनुबंध और समझौते में अंतर

समझौता (Agreement) वह है जिसमें दो या दो से अधिक पक्षकार एक-दूसरे से वचनबद्ध होते हैं (धारा 2(ई))। अनुबंध वह है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो (धारा 2(ह))। अतः प्रत्येक अनुबंध एक समझौता है, परंतु प्रत्येक समझौता अनुबंध नहीं है। जैसे, मित्रों के बीच घूमने का वादा केवल समझौता है, अनुबंध नहीं। वहीं, व्यापारिक सौदे जिसमें कानूनी प्रवर्तनीयता और वैध प्रतिफल हो, वे अनुबंध माने जाते हैं।


3. वैध अनुबंध के आवश्यक तत्व

एक अनुबंध वैध तब होगा जब उसमें –

  1. प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति हो।
  2. विधिक संबंध बनाने का इरादा हो।
  3. वैध प्रतिफल हो।
  4. पक्षकार सक्षम हों (व्यस्क, स्वस्थ मस्तिष्क, विधि से अयोग्य न हों)।
  5. सहमति स्वतंत्र हो।
  6. उद्देश्य वैध हो।
  7. अनुबंध निश्चित और संभव हो।
  8. आवश्यक कानूनी औपचारिकताओं का पालन हो।
    ये तत्व सुनिश्चित करते हैं कि केवल गंभीर और विधिक रूप से मान्य समझौते ही अनुबंध कहलाएँ।

4. प्रस्ताव (Offer) क्या है?

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 की धारा 2(अ) के अनुसार, जब कोई व्यक्ति अपनी इच्छा दूसरों को व्यक्त करता है कि वह कोई कार्य करेगा या उससे बचेगा, इस आशा से कि दूसरा व्यक्ति उसकी सहमति देगा, तो यह प्रस्ताव कहलाता है। प्रस्ताव स्पष्ट, निश्चित और विधिक संबंध बनाने की नीयत से होना चाहिए। प्रस्ताव विशेष (किसी व्यक्ति को) या सामान्य (सार्वजनिक रूप से) हो सकता है। जब प्रस्ताव को स्वीकृति मिलती है, तब वह अनुबंध में परिवर्तित हो जाता है।


5. स्वीकृति (Acceptance) क्या है?

स्वीकृति का अर्थ है – प्रस्तावित शर्तों को मान लेना। धारा 2(ब) के अनुसार, जब प्रस्तावित व्यक्ति अपनी सहमति व्यक्त करता है तो प्रस्ताव “प्रतिज्ञा” (Promise) बन जाता है। स्वीकृति बिना शर्त, स्पष्ट और उचित तरीके से दी जानी चाहिए। मौन (Silence) सामान्यतः स्वीकृति नहीं मानी जाती। स्वीकृति मौखिक, लिखित या आचरण से व्यक्त हो सकती है। स्वीकृति मिलने पर “Consensus ad idem” (समान अभिप्राय) बनता है, जो अनुबंध का आधार है।


6. वैध प्रस्ताव और स्वीकृति के नियम

एक अनुबंध तभी वैध होगा जब –

  1. प्रस्ताव स्पष्ट और निश्चित हो।
  2. स्वीकृति बिना शर्त और स्पष्ट हो।
  3. स्वीकृति प्रस्तावक तक पहुँचे।
  4. स्वीकृति नियत समय या उचित समय में दी जाए।
  5. प्रतिप्रस्ताव (Counter-offer) मूल प्रस्ताव को समाप्त कर देता है।
    इन नियमों से अनुबंध निर्माण में स्पष्टता और निश्चितता आती है।

7. प्रतिफल (Consideration) क्या है?

प्रतिफल का अर्थ है “कुछ पाने के बदले कुछ देना”। धारा 2(ड) के अनुसार, जब वचनधारी (Promisee) प्रस्तावक की इच्छा पर कोई कार्य करता है, करने से रुकता है या वादा करता है, तो इसे प्रतिफल कहते हैं। प्रतिफल अतीत, वर्तमान या भविष्य में हो सकता है। यह वैध, वास्तविक और निश्चित होना चाहिए। बिना प्रतिफल का अनुबंध शून्य है, जब तक कि वह विधिक अपवादों (जैसे – प्राकृतिक प्रेम व स्नेह, उपहार पंजीकृत दस्तावेज़, वचनबद्धता आदि) के अंतर्गत न आता हो।


8. वैध प्रतिफल की विशेषताएँ

प्रतिफल (Consideration) अनुबंध की आत्मा है। यह वह मूल्य है जो एक पक्षकार दूसरे को देता है। वैध प्रतिफल की कुछ विशेषताएँ हैं –

  1. प्रतिफल वास्तविक और निश्चित होना चाहिए, न कि काल्पनिक।
  2. प्रतिफल वैध होना चाहिए, अर्थात न तो यह अवैध हो, न ही अनैतिक या सार्वजनिक नीति के विरुद्ध।
  3. यह वर्तमान, अतीत या भविष्य का हो सकता है।
  4. प्रतिफल प्रस्तावक की इच्छा से होना चाहिए।
  5. प्रतिफल पर्याप्त होना आवश्यक नहीं, किंतु विधिसम्मत होना चाहिए।
    इस प्रकार प्रतिफल अनुबंध की वैधता का मुख्य आधार है और इसके बिना अनुबंध सामान्यतः शून्य माना जाता है।

9. स्वतंत्र सहमति (Free Consent) क्या है?

अनुबंध में सहमति तभी वैध मानी जाएगी जब वह स्वतंत्र हो। भारतीय अनुबंध अधिनियम, धारा 14 के अनुसार, सहमति स्वतंत्र तब है जब उसमें दबाव, अनुचित प्रभाव, धोखाधड़ी, मिथ्या प्रतिज्ञान या भूल न हो। यदि सहमति इन कारकों से प्रभावित हो तो अनुबंध विलोपनीय (Voidable) हो जाता है। स्वतंत्र सहमति का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी पक्षकार अपनी इच्छा और समझ से अनुबंध करे, न कि किसी दबाव या छल से।


10. अनुबंध की क्षमता (Capacity to Contract)

अनुबंध करने के लिए पक्षकार सक्षम होना चाहिए। धारा 11 के अनुसार, सक्षम पक्षकार वही है जो –

  1. बालिग (18 वर्ष से ऊपर) हो।
  2. स्वस्थ मस्तिष्क का हो।
  3. विधि द्वारा अयोग्य न हो (जैसे – दिवालिया, विदेशी शत्रु)।
    यदि कोई नाबालिग या अस्वस्थ मस्तिष्क वाला व्यक्ति अनुबंध करता है तो वह शून्य होता है। क्षमता का सिद्धांत अनुबंध की निष्पक्षता और न्यायिकता बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।

11. अवैध उद्देश्य वाला अनुबंध

किसी अनुबंध का उद्देश्य वैध होना चाहिए। यदि अनुबंध का उद्देश्य कानून, नैतिकता या सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है, तो वह शून्य होता है। उदाहरण के लिए, चोरी, तस्करी या हत्या कराने के लिए किया गया अनुबंध वैध नहीं होगा। इसी तरह जुआ, रिश्वतखोरी जैसे कार्य भी अनुबंध के उद्देश्य को अवैध बना देते हैं। अनुबंध अधिनियम यह सुनिश्चित करता है कि केवल न्यायोचित और समाजोपयोगी समझौते ही कानून द्वारा मान्य हों।


12. शून्य अनुबंध (Void Contract)

शून्य अनुबंध वह है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। यह प्रारंभ से ही अमान्य हो सकता है (जैसे – नाबालिग द्वारा किया गया अनुबंध) या बाद में अमान्य हो सकता है (जैसे – जब अनुबंध का उद्देश्य अवैध हो जाए)। शून्य अनुबंध से पक्षकारों पर कोई कानूनी दायित्व नहीं आता। यह प्रावधान अनुबंध कानून में पक्षकारों को अवैध या असंभव समझौतों से बचाने के लिए किया गया है।


13. विलोपनीय अनुबंध (Voidable Contract)

विलोपनीय अनुबंध वह है जो एक पक्ष की स्वतंत्र सहमति में दोष के कारण प्रभावित हो। जैसे – दबाव, धोखाधड़ी, अनुचित प्रभाव या मिथ्या प्रतिज्ञान से बने अनुबंध। ऐसे अनुबंध को पीड़ित पक्ष चाहे तो निरस्त कर सकता है या मान्य रख सकता है। विलोपनीय अनुबंध तब तक वैध रहता है जब तक कि पीड़ित पक्ष उसे रद्द न करे। यह सिद्धांत पक्षकारों को न्याय दिलाने में मदद करता है।


14. वैध अनुबंध (Valid Contract)

वैध अनुबंध वह है जिसमें सभी आवश्यक तत्व मौजूद हों – प्रस्ताव, स्वीकृति, प्रतिफल, स्वतंत्र सहमति, सक्षम पक्षकार और वैध उद्देश्य। यह अनुबंध पूरी तरह से विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है और इसके उल्लंघन पर अदालत में क्षतिपूर्ति या अन्य उपाय उपलब्ध होते हैं। वैध अनुबंध आर्थिक और सामाजिक लेन-देन की आधारशिला है।


15. अकार्यान्वित और कार्यान्वित अनुबंध

अनुबंध दो प्रकार के हो सकते हैं –

  1. अकार्यान्वित अनुबंध (Executory Contract) – जिसमें एक या दोनों पक्षों का दायित्व अभी पूरा नहीं हुआ है।
  2. कार्यान्वित अनुबंध (Executed Contract) – जिसमें दोनों पक्षकार अपने-अपने दायित्व पूरे कर चुके हैं।
    यह विभाजन अनुबंध के क्रियान्वयन की स्थिति को दर्शाता है और यह स्पष्ट करता है कि अनुबंध अभी भी प्रभावी है या पूर्ण हो चुका है।

16. अनुबंध का उल्लंघन (Breach of Contract)

जब कोई पक्षकार अनुबंध की शर्तों का पालन नहीं करता, तो इसे अनुबंध का उल्लंघन कहते हैं। यह उल्लंघन आंशिक या पूर्ण हो सकता है। उल्लंघन की स्थिति में पीड़ित पक्ष क्षतिपूर्ति, विशिष्ट निष्पादन, या निषेधाज्ञा जैसी विधिक राहत प्राप्त कर सकता है। उल्लंघन का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि अनुबंध को गंभीरता से लिया जाए और उसके पालन में लापरवाही न हो।


17. क्षतिपूर्ति (Damages)

क्षतिपूर्ति अनुबंध उल्लंघन की मुख्य विधिक राहत है। जब एक पक्षकार अनुबंध का उल्लंघन करता है, तो दूसरा पक्ष हुए वास्तविक नुकसान की भरपाई का दावा कर सकता है। क्षतिपूर्ति का उद्देश्य पीड़ित पक्ष को उसी स्थिति में लाना है, जिसमें वह अनुबंध पूरा होने पर होता। इसमें सामान्य, विशेष और नाममात्र क्षतिपूर्ति शामिल हो सकती है। यह अनुबंध कानून का न्यायोचित सिद्धांत है।


18. विशिष्ट निष्पादन (Specific Performance)

कभी-कभी क्षतिपूर्ति पर्याप्त नहीं होती, तब अदालत अनुबंध का विशिष्ट निष्पादन आदेशित कर सकती है। इसका अर्थ है कि पक्षकार को वही कार्य करना होगा जिसका वचन उसने अनुबंध में दिया था। यह उपाय विशेष रूप से भूमि या अनूठी वस्तुओं से संबंधित अनुबंधों में लागू होता है। विशिष्ट निष्पादन का उद्देश्य है कि अनुबंध की वास्तविक मंशा पूरी हो सके।


19. निषेधाज्ञा (Injunction)

निषेधाज्ञा न्यायालय द्वारा दिया गया आदेश है, जिसके अंतर्गत किसी पक्ष को किसी कार्य से रोका जाता है या किसी कार्य के लिए बाध्य किया जाता है। यह अनुबंध के उल्लंघन को रोकने का एक प्रभावी उपाय है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति गोपनीय जानकारी साझा करने का अनुबंध तोड़ना चाहता है, तो अदालत निषेधाज्ञा जारी कर उसे रोक सकती है।


20. भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 का महत्व

भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 भारत में अनुबंध कानून का आधार है। यह विभिन्न प्रकार के अनुबंधों जैसे – वैध, शून्य, विलोपनीय, निष्पादित और अकार्यान्वित अनुबंधों को परिभाषित करता है। साथ ही यह प्रस्ताव, स्वीकृति, प्रतिफल, क्षमता, स्वतंत्र सहमति और अनुबंध के उल्लंघन से संबंधित नियम निर्धारित करता है। यह अधिनियम वाणिज्य, व्यापार और सामाजिक संबंधों में निश्चितता, पारदर्शिता और न्याय प्रदान करता है।


21. प्रत्यायोजित अनुबंध (Quasi Contract) क्या है?

प्रत्यायोजित अनुबंध वास्तव में अनुबंध नहीं होते, बल्कि ऐसे दायित्व होते हैं जिन्हें न्यायालय निष्पक्षता के सिद्धांत पर थोपता है। उदाहरण: यदि कोई व्यक्ति गलती से किसी और को भुगतान कर देता है, तो प्राप्तकर्ता को उसे लौटाना होगा। भारतीय अनुबंध अधिनियम, धारा 68–72 में प्रत्यायोजित अनुबंध की स्थितियाँ बताई गई हैं।


22. अनुबंध का निर्वहन (Discharge of Contract)

अनुबंध का निर्वहन तब होता है जब अनुबंध में बताए गए दायित्व पूरे हो जाते हैं या किसी कारणवश समाप्त हो जाते हैं। निर्वहन के तरीके हैं – निष्पादन द्वारा, समझौते द्वारा, असंभवता द्वारा, उल्लंघन द्वारा, या विधिक प्रविधान द्वारा। निर्वहन से पक्षकार अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं।


23. असंभवता का सिद्धांत (Doctrine of Impossibility)

यदि अनुबंध बनने के बाद उसका पालन असंभव हो जाए (जैसे प्राकृतिक आपदा, सरकारी आदेश, मृत्यु), तो अनुबंध शून्य हो जाता है। इसे Frustration of Contract भी कहा जाता है। धारा 56 इस सिद्धांत को मान्यता देती है। इसका उद्देश्य है कि किसी पक्षकार को असंभव कार्य करने के लिए बाध्य न किया जाए।


24. अनुबंध में मिथ्या प्रतिज्ञान (Misrepresentation)

मिथ्या प्रतिज्ञान तब होता है जब कोई पक्षकार अनजाने में गलत तथ्य प्रस्तुत करता है और दूसरा पक्ष उसी पर भरोसा कर अनुबंध कर लेता है। ऐसे अनुबंध विलोपनीय होते हैं। पीड़ित पक्ष अनुबंध रद्द कर सकता है या वास्तविक स्थिति में लाने की मांग कर सकता है।


25. धोखाधड़ी (Fraud)

धोखाधड़ी अनुबंध में जानबूझकर गलत तथ्य प्रस्तुत करना या तथ्य छिपाना है। इसका उद्देश्य दूसरे पक्ष को भ्रमित करना और अनुबंध करवाना होता है। धोखाधड़ी से बने अनुबंध विलोपनीय होते हैं। पीड़ित पक्ष हर्जाना या अनुबंध निरस्त करवा सकता है।


26. अनुचित प्रभाव (Undue Influence)

जब कोई शक्तिशाली पक्ष अपनी स्थिति का दुरुपयोग कर कमजोर पक्ष पर अनुबंध करने का दबाव डालता है, तो यह अनुचित प्रभाव कहलाता है। जैसे – गुरु–शिष्य, डॉक्टर–मरीज, वकील–मुवक्किल संबंध में। ऐसे अनुबंध विलोपनीय होते हैं।


27. दबाव (Coercion)

दबाव का अर्थ है – किसी को अवैध कार्य या हानि की धमकी देकर अनुबंध कराना। भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, दबाव से किया गया अनुबंध विलोपनीय होता है।


28. जमानत अनुबंध (Contract of Guarantee)

जमानत अनुबंध में एक व्यक्ति (जमानतदार) यह वचन देता है कि यदि मुख्य देनदार अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करता तो वह करेगा। इसमें तीन पक्ष होते हैं – ऋणदाता, देनदार और जमानतदार। यह अनुबंध व्यापारिक लेन-देन में आम है।


29. जमानतदार की देनदारी

जमानतदार की देनदारी सहायक (Secondary) होती है। वह तभी उत्तरदायी होता है जब मुख्य देनदार अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में असफल रहता है। हालांकि कुछ मामलों में उसकी जिम्मेदारी तुरंत भी बन सकती है।


30. प्रतिपूर्ति अनुबंध (Contract of Indemnity)

प्रतिपूर्ति अनुबंध वह है जिसमें एक पक्ष दूसरे को हुए नुकसान की भरपाई करने का वादा करता है। इसका उद्देश्य जोखिम से सुरक्षा देना है। बीमा अनुबंध इसका उदाहरण है।


31. अभिकर्ता और अभिकर्ता संबंध (Agency)

जब कोई व्यक्ति (प्रमुख) किसी अन्य को (अभिकर्ता) अपने स्थान पर कार्य करने का अधिकार देता है, तो यह अभिकर्ता संबंध कहलाता है। यह व्यापार और लेन-देन में उपयोगी है। अभिकर्ता के कार्य प्रमुख के लिए बाध्यकारी होते हैं।


32. अभिकर्ता की शक्तियाँ

अभिकर्ता की शक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं –

  1. वास्तविक शक्तियाँ (प्रमुख द्वारा दी गई)।
  2. प्रकट शक्तियाँ (परिस्थितियों से अनुमानित)।
    अभिकर्ता अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं कर सकता।

33. अल्पवयस्क के साथ अनुबंध

भारतीय कानून के अनुसार नाबालिग (18 वर्ष से कम आयु) के साथ अनुबंध शून्य है। नाबालिग को सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह प्रावधान किया गया है। वह अनुबंध से न तो बंधता है और न ही उसके खिलाफ प्रवर्तन किया जा सकता है।


34. ग़ैर–कानूनी प्रतिफल

यदि प्रतिफल कानून द्वारा निषिद्ध है, धोखाधड़ीपूर्ण है, सार्वजनिक नीति के विपरीत है या आपराधिक कार्य से जुड़ा है, तो अनुबंध अवैध हो जाता है। उदाहरण: रिश्वत, तस्करी आदि।


35. एकपक्षीय अनुबंध (Unilateral Contract)

एकपक्षीय अनुबंध वह है जिसमें एक पक्षकार वचन देता है और दूसरा पक्ष केवल कार्य करके अनुबंध पूरा करता है। जैसे – इनाम की घोषणा। जब कोई व्यक्ति कार्य करता है, तभी अनुबंध बनता है।


36. द्विपक्षीय अनुबंध (Bilateral Contract)

द्विपक्षीय अनुबंध में दोनों पक्षकार परस्पर वचनबद्ध होते हैं। जैसे – बिक्री अनुबंध, जिसमें एक पक्ष वस्तु बेचने और दूसरा भुगतान करने का वादा करता है। यह सबसे सामान्य प्रकार का अनुबंध है।


37. अनुबंध की वैधता पर सार्वजनिक नीति का प्रभाव

किसी अनुबंध की वैधता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह सार्वजनिक नीति के विपरीत न हो। जैसे – मानव तस्करी, विवाह में बाधा डालना या सरकारी सेवाओं की बिक्री से संबंधित अनुबंध अवैध माने जाते हैं।


38. शर्तपूर्वक अनुबंध (Contingent Contract)

शर्तपूर्वक अनुबंध वह है जिसका पालन किसी अनिश्चित भविष्य की घटना पर निर्भर करता है। जैसे – बीमा अनुबंध। यदि घटना घटती है, तो अनुबंध प्रवर्तनीय हो जाता है।


39. वैधानिक अनुबंध (Statutory Contract)

जब किसी विशेष अधिनियम या कानून द्वारा अनुबंध की आवश्यकता होती है, तो उसे वैधानिक अनुबंध कहते हैं। जैसे – कंपनी अधिनियम या बैंकिंग कानूनों के अंतर्गत किए गए अनुबंध।


40. पारिश्रमिक अनुबंध (Contract of Service)

यह अनुबंध नियोक्ता और कर्मचारी के बीच होता है। इसमें नियोक्ता कार्य करवाने और कर्मचारी को वेतन देने का वचन देता है। यह श्रम कानून से भी संबंधित है।


41. प्रस्ताव का प्रत्याहार (Revocation of Offer)

प्रस्तावक किसी भी समय स्वीकृति से पहले प्रस्ताव वापस ले सकता है। लेकिन एक बार प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने पर वह बाध्यकारी अनुबंध बन जाता है।


42. टेलीफोनिक अनुबंध

टेलीफोन पर किया गया अनुबंध तभी वैध होता है जब प्रस्ताव और स्वीकृति स्पष्ट रूप से संप्रेषित और सुनी जाए। मौन या अस्पष्ट उत्तर वैध नहीं माना जाता।


43. इलेक्ट्रॉनिक अनुबंध

आज के समय में ई–कॉमर्स में ई–मेल, वेबसाइट या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर किए गए अनुबंध भी वैध हैं। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत इन्हें मान्यता दी गई है।


44. अनुबंध और वचन (Promise) में अंतर

वचन केवल एकपक्षीय घोषणा है, जबकि अनुबंध विधि द्वारा प्रवर्तनीय द्विपक्षीय समझौता है। वचन हमेशा अनुबंध नहीं होता, लेकिन अनुबंध में वचन निहित होता है।


45. क्षतिपूर्ति अनुबंध और जमानत अनुबंध में अंतर

क्षतिपूर्ति अनुबंध में दो पक्ष होते हैं, जबकि जमानत अनुबंध में तीन। क्षतिपूर्ति का उद्देश्य नुकसान की भरपाई है, जबकि जमानत का उद्देश्य ऋणदाता को सुरक्षा देना है।


46. पारदर्शिता और निष्पक्षता का महत्व

अनुबंध में पारदर्शिता और निष्पक्षता आवश्यक है। यदि कोई पक्ष छिपी हुई शर्तें रखता है या भ्रामक जानकारी देता है, तो अनुबंध विलोपनीय हो सकता है।


47. सीमांकन अवधि (Limitation Period)

अनुबंध से उत्पन्न दावों के लिए एक निश्चित समय सीमा होती है। यदि यह अवधि समाप्त हो जाती है, तो दावा प्रवर्तनीय नहीं रहेगा। भारतीय परिसीमा अधिनियम में यह अवधि सामान्यतः तीन वर्ष है।


48. अनुबंध का आंशिक निर्वहन

कभी–कभी अनुबंध का एक हिस्सा ही पूरा किया जाता है और बाकी रह जाता है। यदि शेष भाग तुच्छ है, तो अनुबंध निर्वहन माना जाता है। अन्यथा, पक्षकार क्षतिपूर्ति मांग सकता है।


49. अनुबंध का नवोत्पादन (Novation)

जब पुराने अनुबंध की जगह नया अनुबंध बन जाता है, तो इसे नवोत्पादन कहते हैं। इसमें पक्षकार बदल सकते हैं या शर्तें नई हो सकती हैं। पुराने अनुबंध से दायित्व समाप्त हो जाता है।


50. अनुबंध कानून का उद्देश्य

अनुबंध कानून का मुख्य उद्देश्य पक्षकारों के बीच हुए समझौतों को वैधानिक मान्यता देना और उनके अधिकार–कर्तव्यों की रक्षा करना है। यह व्यापार, वाणिज्य और सामाजिक लेन–देन में निश्चितता, सुरक्षा और न्याय प्रदान करता है।