अगर पुलिस भेजती है WhatsApp पर समन तो नहीं होंगे वैध – सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय
प्रस्तावना
भारतीय न्याय व्यवस्था में प्रक्रिया की वैधता और न्यायिक आदेशों का पालन सुनिश्चित करना सर्वोपरि है। तकनीकी विकास के इस युग में डिजिटल माध्यमों का उपयोग प्रशासनिक कार्यों में बढ़ा है, लेकिन इसका कानूनी दायरे में उपयोग सीमित है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि पुलिस या जांच एजेंसियों द्वारा भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 35 के तहत आरोपी को भेजा गया समन यदि WhatsApp या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से भेजा जाता है, तो वह वैध नहीं माना जाएगा। यह निर्णय न्याय व्यवस्था की प्रक्रिया में पारदर्शिता और कानूनी औपचारिकताओं के महत्व को रेखांकित करता है।
पृष्ठभूमि
हरियाणा राज्य द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें जनवरी 2025 में दिए गए आदेश में संशोधन की मांग की गई थी। उस आदेश में कहा गया था कि धारा 41A भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) या धारा 35 BNSS के तहत आरोपी को समन भेजते समय इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का उपयोग नहीं किया जा सकता। राज्य ने तर्क दिया कि डिजिटल माध्यमों से समन भेजना आधुनिक प्रशासन के अनुकूल है और इससे कार्य में तेजी आएगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा कि कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि समन की विधिवत सेवा ही वैध मानी जाएगी।
BNSS की धारा 35 का उद्देश्य
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी आरोपी या संबंधित व्यक्ति को समुचित और विधिक प्रक्रिया के तहत बुलाया जाए। इसका मकसद यह है कि आरोपी को समन की जानकारी स्पष्ट रूप से मिले, ताकि वह अदालत या जांच में उचित समय पर उपस्थित हो सके। समन भेजने की प्रक्रिया में पारदर्शिता और न्यायिक सुरक्षा की व्यवस्था की गई है ताकि किसी भी पक्ष को नुकसान न हो।
धारा 35 यह सुनिश्चित करती है कि समन की सेवा व्यक्तिगत रूप से या निर्धारित कानूनी माध्यमों से की जाए, जिससे विवाद की स्थिति में प्रमाण उपलब्ध हो।
धारा 41A CrPC और उसका उद्देश्य
धारा 41A CrPC, जो BNSS में धारा 35 से समानता रखती है, मुख्यतः गिरफ्तारी से बचाने और प्रक्रिया को संतुलित रखने के लिए बनाई गई थी। इसमें आरोपी को जांच में सहयोग के लिए बुलाना होता है, न कि बिना उचित सूचना के गिरफ्तार करना। धारा 41A का उद्देश्य यह है कि अभियुक्त को समुचित सूचना देकर उसे अपने अधिकारों की रक्षा का अवसर दिया जाए।
इस धारा के तहत समन भेजना एक औपचारिक प्रक्रिया है, जिसमें दस्तावेज़ की सेवा का प्रमाण आवश्यक होता है। इसलिए न्यायालय ने कहा कि WhatsApp जैसे डिजिटल माध्यमों से सेवा करना विवाद उत्पन्न कर सकता है और आरोपी बाद में दावा कर सकता है कि उसे समन प्राप्त ही नहीं हुआ।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि समन भेजने की प्रक्रिया में कानूनी औपचारिकताओं का पालन आवश्यक है। कोर्ट ने यह कहा कि:
- समन भेजना एक विधिक कार्यवाही है, जिसे प्रमाणित और विवाद-मुक्त होना चाहिए।
- WhatsApp पर समन भेजना प्रक्रिया की पारदर्शिता और प्रमाणिकता को प्रभावित करता है।
- डिजिटल सेवा में तकनीकी समस्याएं, नेटवर्क त्रुटियां, डिलीवरी रिपोर्ट की अस्पष्टता, और पहचान का अभाव जैसे जोखिम हैं।
- आरोपी यह कह सकता है कि समन उसे प्राप्त नहीं हुआ, जिससे जांच बाधित होगी।
कोर्ट ने हरियाणा सरकार की अर्जी खारिज कर दी और अपने पूर्व आदेश को बरकरार रखा।
न्यायालय का तर्क – प्रक्रिया बनाम सुविधा
कोर्ट ने यह भी माना कि यद्यपि तकनीकी सुविधा महत्वपूर्ण है, लेकिन न्यायिक प्रक्रिया का उद्देश्य सिर्फ सुविधा नहीं बल्कि न्याय सुनिश्चित करना है। यदि प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, तो आरोपी को उचित सुनवाई का अवसर नहीं मिलेगा। इसलिए न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि विधिक सेवा की प्रक्रिया पारंपरिक लेकिन विश्वसनीय माध्यमों से ही हो।
इलेक्ट्रॉनिक सेवा पर संदेह के कारण
सुप्रीम कोर्ट ने निम्न बिंदुओं को ध्यान में रखा:
- WhatsApp संदेश किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा भी खोला जा सकता है।
- संदेश प्राप्त हुआ या नहीं, इसकी पुष्टि करना कठिन है।
- आरोपी बाद में सेवा की वैधता को चुनौती दे सकता है।
- न्यायालय के समक्ष सेवा का प्रमाण प्रस्तुत करना चुनौतीपूर्ण होगा।
- धोखाधड़ी, छेड़छाड़, और संदेश हटाए जाने जैसे जोखिम बने रहेंगे।
इन सबके चलते अदालत ने कहा कि विधिक प्रक्रिया में पारंपरिक सेवा ही सुरक्षित है।
प्रशासनिक पक्ष – डिजिटल युग की चुनौती
हालांकि अदालत ने डिजिटल सेवा को अस्वीकार किया, लेकिन यह मुद्दा प्रशासनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। आज अधिकांश लोग मोबाइल और इंटरनेट पर निर्भर हैं। महामारी के दौरान वीडियो कॉल, ईमेल, और मैसेजिंग ऐप्स का उपयोग बढ़ा। पुलिस और प्रशासन भी इसे तेज और लागत-कुशल विकल्प मानते हैं।
लेकिन अदालत ने यह स्पष्ट किया कि तकनीकी सुविधा कानून का विकल्प नहीं हो सकती। जब तक संसद या विधायिका समन सेवा के लिए डिजिटल प्रक्रिया को विधिवत रूप से स्वीकार नहीं करती, तब तक पुलिस को पारंपरिक सेवा का पालन करना होगा।
न्याय और मानवाधिकार का संतुलन
इस निर्णय में मानवाधिकार का पहलू भी निहित है। आरोपी को समुचित सूचना देना और उसे कानूनी अधिकारों के तहत अपनी रक्षा का अवसर देना न्याय का मूल सिद्धांत है। यदि समन बिना प्रमाण के भेजा जाए, तो आरोपी को सुनवाई से वंचित किया जा सकता है। इससे न सिर्फ आरोपी बल्कि न्याय व्यवस्था पर विश्वास भी प्रभावित होता है।
भविष्य की दिशा
यह निर्णय यह संकेत देता है कि:
- डिजिटल सेवा को लागू करने से पहले विधिक संशोधन आवश्यक है।
- सेवा की प्रमाणिकता, गोपनीयता और प्रक्रिया की पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी।
- कोर्ट इलेक्ट्रॉनिक सेवा के विरोध में नहीं है, लेकिन इसे विधिक ढांचे में लाना आवश्यक है।
- प्रशासन को तकनीकी विकल्पों के साथ विधिक सुरक्षा उपायों का विकास करना होगा।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता और आरोपी के अधिकारों की रक्षा का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। तकनीकी विकास के बावजूद न्याय व्यवस्था का मूल आधार कानून है, न कि सुविधा। समन की सेवा में पारदर्शिता, प्रमाणिकता और न्यायिक सुरक्षा सुनिश्चित किए बिना डिजिटल माध्यमों का उपयोग स्वीकार नहीं किया जा सकता।
यह निर्णय प्रशासन और नागरिक दोनों के लिए एक चेतावनी है कि सुविधा के नाम पर कानूनी प्रक्रिया से समझौता नहीं किया जा सकता। अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि समन भेजना केवल एक संदेश भेजना नहीं है, बल्कि न्याय की प्रक्रिया का एक संवैधानिक अधिकार है, जिसे विधि सम्मत ही निभाना होगा।