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Economics (अर्थशास्त्र) Short Answer

1. सूक्ष्म अर्थशास्त्र (Micro Economics) की परिभाषा एवं महत्व

सूक्ष्म अर्थशास्त्र को अर्थशास्त्र की वह शाखा कहा जाता है जो व्यक्तिगत उपभोक्ता, उत्पादक और उद्योगों के व्यवहार का अध्ययन करती है। यह बताता है कि सीमित साधनों का उपयोग किस प्रकार विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और उपभोग में किया जाता है। सूक्ष्म अर्थशास्त्र की मुख्य अवधारणाएँ मांग और आपूर्ति, उपभोक्ता संतुलन, उत्पादन लागत, मूल्य निर्धारण तथा बाज़ार संरचना (पूर्ण प्रतियोगिता, एकाधिकार, अल्पाधिकार) आदि हैं। इसका महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह हमें बताता है कि व्यक्ति और उद्योग अपने संसाधनों का कुशलतम उपयोग कैसे करते हैं। साथ ही, यह नीति निर्धारकों को यह समझने में मदद करता है कि कराधान, सब्सिडी और मूल्य नियंत्रण जैसे कदमों का उपभोक्ताओं व उत्पादकों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इस प्रकार सूक्ष्म अर्थशास्त्र व्यक्तिगत आर्थिक निर्णयों के विश्लेषण और नीति निर्माण में अहम भूमिका निभाता है।


2. समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics) का स्वरूप

समष्टि अर्थशास्त्र वह शाखा है जो संपूर्ण अर्थव्यवस्था के समग्र पहलुओं का अध्ययन करती है। इसमें राष्ट्रीय आय, उत्पादन, रोजगार, निवेश, मुद्रास्फीति, बचत और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जैसे विषय शामिल होते हैं। जहाँ सूक्ष्म अर्थशास्त्र व्यक्तिगत इकाई पर ध्यान केंद्रित करता है, वहीं समष्टि अर्थशास्त्र सम्पूर्ण आर्थिक प्रणाली का विश्लेषण करता है। इसके अंतर्गत मुख्य सिद्धांतों में केन्स का रोजगार व आय निर्धारण सिद्धांत, मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति तथा आर्थिक विकास के मॉडल आते हैं। समष्टि अर्थशास्त्र का महत्व इस कारण है कि यह सरकार को बेरोजगारी दूर करने, मूल्य स्थिरता बनाए रखने और आर्थिक वृद्धि की गति को बढ़ाने में मदद करता है। यह व्यापक दृष्टिकोण नीति-निर्माण के लिए आवश्यक है क्योंकि राष्ट्र की आर्थिक सेहत समष्टिगत कारकों से ही निर्धारित होती है।


3. मांग का नियम (Law of Demand)

मांग का नियम सूक्ष्म अर्थशास्त्र का एक मूल सिद्धांत है। इसके अनुसार, अन्य सभी कारक समान रहने पर, किसी वस्तु की कीमत घटने पर उसकी मांग बढ़ती है तथा कीमत बढ़ने पर मांग घट जाती है। यह सिद्धांत मूल्य और मांग मात्रा के विपरीत संबंध को दर्शाता है। मांग का नियम उपभोक्ता की सीमित आय और उपयोगिता की अवधारणा पर आधारित है। इसके प्रमुख अपवाद भी हैं, जैसे गिफ़ेन वस्तुएँ, वेब्लेन वस्तुएँ तथा आवश्यक वस्तुएँ, जहाँ यह नियम पूर्णतः लागू नहीं होता। वास्तविक जीवन में मांग का नियम उत्पादन निर्णयों और मूल्य निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उदाहरणस्वरूप, यदि बाजार में गेहूँ की कीमत घटती है तो अधिक उपभोक्ता इसे खरीदने लगते हैं। यही कारण है कि व्यापारी एवं सरकार दोनों नीतियाँ बनाते समय मांग के नियम को ध्यान में रखते हैं।


4. आपूर्ति का नियम (Law of Supply)

आपूर्ति का नियम कहता है कि अन्य सभी स्थितियाँ समान रहने पर किसी वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी आपूर्ति भी बढ़ती है और कीमत घटने पर आपूर्ति कम हो जाती है। इसका कारण यह है कि उत्पादक अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए ऊँची कीमत पर उत्पादन बढ़ाने की प्रवृत्ति रखते हैं। आपूर्ति का यह संबंध प्रत्यक्ष (Direct) है। हालांकि, तकनीकी प्रगति, उत्पादन लागत, कर और सब्सिडी जैसे बाहरी कारक आपूर्ति को प्रभावित कर सकते हैं। यह नियम उत्पादन निर्णयों और बाजार संतुलन को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है। उदाहरण के लिए, यदि पेट्रोल की कीमतें बढ़ती हैं तो रिफाइनरियाँ अधिक उत्पादन करने का प्रयास करती हैं ताकि अधिक लाभ अर्जित कर सकें। इस प्रकार आपूर्ति का नियम बाजार व्यवस्था और मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया को समझने में महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है।


5. भारत की अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ

भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी मिश्रित अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। इसकी प्रमुख विशेषताओं में कृषि प्रधानता, तीव्र जनसंख्या वृद्धि, सेवा क्षेत्र का वर्चस्व, बेरोजगारी, असमान आय वितरण तथा बढ़ता औद्योगीकरण शामिल हैं। आजादी के समय भारत की अर्थव्यवस्था कृषि-निर्भर और पिछड़ी हुई थी, परंतु पाँच वर्षीय योजनाओं और उदारीकरण के बाद इसमें तीव्र परिवर्तन हुए। 1991 की नई आर्थिक नीति ने भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ा और सेवा क्षेत्र विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी ने इसमें महत्वपूर्ण योगदान दिया। हाल के वर्षों में भारत विश्व की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है, हालांकि गरीबी, बेरोजगारी और ग्रामीण पिछड़ापन जैसी चुनौतियाँ अब भी विद्यमान हैं।


6. राष्ट्रीय आय (National Income)

राष्ट्रीय आय से आशय देश में एक निश्चित अवधि (आमतौर पर एक वर्ष) में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य से है। यह किसी देश की आर्थिक प्रगति और विकास का प्रमुख मापदंड है। राष्ट्रीय आय को मापने के तीन प्रमुख तरीके हैं – उत्पादन पद्धति, आय पद्धति और व्यय पद्धति। भारत में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO) द्वारा राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाया जाता है। राष्ट्रीय आय का महत्व इस कारण है कि इससे हमें अर्थव्यवस्था की संरचना, प्रति व्यक्ति आय, बचत और निवेश की स्थिति, तथा विकास दर का पता चलता है। साथ ही, यह सरकार को नीति-निर्माण, बजट निर्माण और योजनाओं के मूल्यांकन में सहायता प्रदान करती है।


7. सार्वजनिक वित्त (Public Finance) की परिभाषा

सार्वजनिक वित्त अर्थशास्त्र की वह शाखा है जिसमें सरकार की आय और व्यय का अध्ययन किया जाता है। इसमें कराधान, सार्वजनिक ऋण, सरकारी व्यय, बजट तथा वित्तीय नीतियों का विश्लेषण शामिल है। सार्वजनिक वित्त का मुख्य उद्देश्य संसाधनों का उचित वितरण, आय का पुनर्वितरण, आर्थिक स्थिरता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है। यह न केवल सरकार की वित्तीय गतिविधियों को समझने में मदद करता है बल्कि आर्थिक असमानताओं को दूर करने और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को लागू करने का आधार भी है। आधुनिक अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक वित्त का महत्व बढ़ गया है क्योंकि सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, बुनियादी ढाँचे और सामाजिक सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में बड़ी भूमिका निभाती है।


8. भारत का बजट (Union Budget)

भारत का बजट वह वार्षिक वित्तीय विवरण है जिसमें सरकार आगामी वर्ष के लिए अपनी आय और व्यय का अनुमान प्रस्तुत करती है। इसे वित्त मंत्री संसद में पेश करते हैं और यह प्रत्येक वर्ष 1 फरवरी को घोषित किया जाता है। बजट दो हिस्सों में विभाजित होता है – राजस्व बजट और पूंजी बजट। राजस्व बजट में सरकार की सामान्य आय (कर और गैर-कर) और व्यय का विवरण होता है, जबकि पूंजी बजट में पूंजीगत प्राप्तियाँ और व्यय शामिल होते हैं। बजट के माध्यम से सरकार आर्थिक नीतियों की दिशा तय करती है। इसमें गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढाँचे के विकास जैसी प्राथमिकताओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इस प्रकार बजट देश की आर्थिक नीतियों और विकास रणनीति का दर्पण होता है।


9. भारत में गरीबी की समस्या

भारत में गरीबी एक जटिल और बहुआयामी समस्या है। स्वतंत्रता के बाद से ही इसे कम करने के लिए अनेक योजनाएँ चलाई गईं, फिर भी बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत करती है। गरीबी का मुख्य कारण जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, अशिक्षा, कृषि पर अत्यधिक निर्भरता और आय में असमानता है। योजना आयोग और बाद में नीति आयोग ने गरीबी मापन की विभिन्न विधियाँ अपनाईं, जैसे तेंदुलकर समिति और रंगराजन समिति की रिपोर्टें। सरकार ने गरीबी उन्मूलन हेतु मनरेगा, प्रधानमंत्री आवास योजना, खाद्य सुरक्षा अधिनियम जैसी योजनाएँ शुरू कीं। हालाँकि, संरचनात्मक समस्याएँ अभी भी गरीबी को पूरी तरह समाप्त होने नहीं देतीं। गरीबी से न केवल आर्थिक प्रगति प्रभावित होती है बल्कि यह सामाजिक असमानता और राजनीतिक अस्थिरता को भी जन्म देती है।


10. भारत में बेरोजगारी

बेरोजगारी भारत की सबसे गंभीर आर्थिक चुनौतियों में से एक है। जब योग्य व्यक्ति काम करने की इच्छा और क्षमता रखते हुए भी रोजगार नहीं पा पाता तो उसे बेरोजगारी कहा जाता है। भारत में बेरोजगारी के प्रकारों में खुली बेरोजगारी, आंशिक रोजगार, मौसमी बेरोजगारी और छिपी हुई बेरोजगारी प्रमुख हैं। कृषि क्षेत्र में छिपी हुई बेरोजगारी अधिक देखी जाती है। जनसंख्या वृद्धि, कौशल की कमी, शिक्षा प्रणाली की खामियाँ और औद्योगिक विकास की धीमी गति इसके कारण हैं। सरकार ने रोजगार सृजन के लिए मनरेगा, स्टार्ट-अप इंडिया, स्किल इंडिया और प्रधानमंत्री रोजगार योजना जैसी नीतियाँ चलाई हैं। फिर भी बढ़ते शहरीकरण और तकनीकी प्रगति के कारण यह समस्या निरंतर बनी हुई है।


11. मुद्रास्फीति (Inflation)

मुद्रास्फीति वह स्थिति है जब वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में निरंतर वृद्धि होती है और मुद्रा की क्रय शक्ति घटती है। मुद्रास्फीति के कई प्रकार हैं – मांग प्रेरित मुद्रास्फीति, लागत प्रेरित मुद्रास्फीति और संरचनात्मक मुद्रास्फीति। भारत में मुद्रास्फीति को मापने के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) और थोक मूल्य सूचकांक (WPI) का उपयोग होता है। अधिक मुद्रास्फीति से आम जनता पर बोझ बढ़ता है, बचत घटती है और आय असमानता बढ़ती है। दूसरी ओर, अत्यधिक गिरावट (Deflation) भी अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है। इसलिए सरकार और रिजर्व बैंक (RBI) मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति के माध्यम से मूल्य स्थिरता बनाए रखने का प्रयास करते हैं। नियंत्रित मुद्रास्फीति विकास के लिए आवश्यक मानी जाती है।


12. मौद्रिक नीति (Monetary Policy)

मौद्रिक नीति किसी देश के केंद्रीय बैंक (भारत में रिजर्व बैंक) द्वारा बनाई जाती है। इसका उद्देश्य मुद्रा की आपूर्ति, ब्याज दर और ऋण प्रवाह को नियंत्रित करना है ताकि आर्थिक स्थिरता और विकास सुनिश्चित किया जा सके। मौद्रिक नीति दो प्रकार की होती है – विस्तारवादी और संकुचनवादी। विस्तारवादी नीति तब अपनाई जाती है जब अर्थव्यवस्था में मंदी हो और निवेश बढ़ाने की आवश्यकता हो। संकुचनवादी नीति का उपयोग मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। RBI रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट, नकद आरक्षित अनुपात (CRR), और वैधानिक तरलता अनुपात (SLR) जैसे उपकरणों का उपयोग करता है। मौद्रिक नीति का सीधा असर बैंकिंग प्रणाली, उद्योग, निवेश और उपभोग पर पड़ता है।


13. राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)

राजकोषीय नीति सरकार की आय और व्यय से संबंधित होती है। इसका मुख्य उद्देश्य आर्थिक स्थिरता, विकास और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है। सरकार कराधान, सार्वजनिक व्यय और उधारी के माध्यम से राजकोषीय नीति को लागू करती है। मंदी की स्थिति में सरकार खर्च बढ़ाकर मांग को प्रोत्साहित करती है जबकि मुद्रास्फीति की स्थिति में कर बढ़ाकर या व्यय घटाकर नियंत्रण करती है। भारत में राजकोषीय नीति बजट के माध्यम से लागू की जाती है। यह न केवल विकास योजनाओं के वित्तपोषण में सहायक है बल्कि आय असमानता को कम करने और संसाधनों के पुनर्वितरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


14. प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर (Direct & Indirect Taxes)

प्रत्यक्ष कर वे होते हैं जिन्हें व्यक्ति या संस्था सीधे सरकार को चुकाती है, जैसे आयकर, संपत्ति कर, निगम कर। वहीं, अप्रत्यक्ष कर वस्तुओं और सेवाओं पर लगाए जाते हैं और उपभोक्ता अप्रत्यक्ष रूप से इन्हें वहन करता है, जैसे GST, उत्पाद शुल्क, सीमा शुल्क। प्रत्यक्ष कर में भुगतान करने वाले की आय और संपत्ति के अनुसार कर लगाया जाता है, इसलिए यह प्रगतिशील माना जाता है। अप्रत्यक्ष कर का संग्रह आसान होता है, लेकिन यह प्रतिगामी प्रभाव डाल सकता है क्योंकि गरीब और अमीर दोनों एक ही दर पर कर देते हैं। संतुलित कर प्रणाली में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों का समुचित अनुपात आवश्यक है।


15. मानव विकास (Human Development)

मानव विकास केवल आर्थिक वृद्धि तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, जीवन प्रत्याशा और सामाजिक अवसरों का विस्तार शामिल है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) ने मानव विकास सूचकांक (HDI) का विकास किया, जिसमें आय, शिक्षा और स्वास्थ्य को प्रमुख मानक माना जाता है। भारत में मानव विकास की स्थिति मिश्रित रही है। जहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ है, वहीं ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच असमानता बनी हुई है। मानव विकास का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता और स्थायी विकास का आधार बनता है।


16. सतत विकास (Sustainable Development)

सतत विकास का अर्थ है ऐसा विकास जो वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करे लेकिन भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं से समझौता न करे। इसमें आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक न्याय को भी समान महत्व दिया जाता है। 1987 की ब्रंटलैंड रिपोर्ट में इसे लोकप्रिय किया गया। जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अति-दोहन सतत विकास के लिए खतरा हैं। भारत ने सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को अपनाया है जिनमें गरीबी उन्मूलन, स्वच्छ ऊर्जा, लैंगिक समानता और पर्यावरण संरक्षण पर बल दिया गया है। सतत विकास ही दीर्घकालीन समृद्धि और संतुलित जीवन का आधार है।


17. आर्थिक उदारीकरण (Economic Liberalization)

भारत में आर्थिक उदारीकरण 1991 में नई आर्थिक नीति के तहत शुरू हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक प्रतिस्पर्धा के अनुरूप अर्थव्यवस्था को खोलना और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना था। इसमें LPG नीति (Liberalization, Privatization, Globalization) लागू की गई। उदारीकरण के बाद उद्योगों पर लाइसेंस-परमिट राज समाप्त हुआ, विदेशी निवेश को प्रोत्साहन मिला और आयात-निर्यात की बाधाएँ कम हुईं। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर बढ़ी, सेवा क्षेत्र विशेष रूप से आईटी और बीपीओ उद्योग को लाभ हुआ। हालाँकि, उदारीकरण से आय असमानता, रोजगार असुरक्षा और ग्रामीण पिछड़ापन जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न हुईं।


18. कृषि का भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्व

भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। लगभग 45% से अधिक कार्यबल कृषि पर निर्भर है। यह खाद्यान्न, औद्योगिक कच्चा माल और निर्यात उत्पाद उपलब्ध कराती है। कृषि से ग्रामीण आय बढ़ती है और मांग में वृद्धि होती है, जो उद्योग और सेवाओं को भी प्रोत्साहित करती है। हरित क्रांति के बाद भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बना। सरकार ने किसानों को सहायता देने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP), ऋण सुविधाएँ और कृषि सब्सिडी जैसी नीतियाँ अपनाईं। हालाँकि, कृषि अभी भी मानसून पर निर्भर है और भूमि विखंडन, तकनीकी पिछड़ापन तथा बाजार की अस्थिरता इसकी प्रमुख चुनौतियाँ हैं।


19. सेवा क्षेत्र और भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत के GDP में सेवा क्षेत्र का योगदान सबसे अधिक है। आईटी, बैंकिंग, बीमा, पर्यटन, परिवहन और संचार इस क्षेत्र के प्रमुख अंग हैं। 1991 के बाद उदारीकरण के परिणामस्वरूप सेवा क्षेत्र में तीव्र वृद्धि हुई। आईटी और सॉफ्टवेयर सेवाओं ने भारत को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई और निर्यात आय का बड़ा स्रोत बना। सेवा क्षेत्र ने रोजगार सृजन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, हालाँकि ग्रामीण क्षेत्रों में इसका प्रभाव अपेक्षाकृत कम है। आज भारत की आर्थिक वृद्धि का प्रमुख आधार सेवा क्षेत्र है, लेकिन निर्माण और कृषि क्षेत्र में समान संतुलन बनाना भी आवश्यक है।


20. विकासशील अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ

भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं को विकासशील अर्थव्यवस्था कहा जाता है। इसकी विशेषताएँ हैं – निम्न प्रति व्यक्ति आय, उच्च जनसंख्या वृद्धि, कृषि पर निर्भरता, बेरोजगारी, पूँजी की कमी, असमान आय वितरण और औद्योगीकरण की धीमी गति। विकासशील देशों में सामाजिक अवसंरचना जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य भी कमजोर होती है। इन समस्याओं के समाधान के लिए सरकारें पाँच वर्षीय योजनाएँ, सार्वजनिक निवेश, विदेशी सहयोग और औद्योगिक नीतियाँ अपनाती हैं। विकासशील अर्थव्यवस्था की चुनौती यह है कि इसे विकास की गति तेज़ करने के साथ-साथ सामाजिक न्याय और पर्यावरण संतुलन भी बनाए रखना होता है।